शायर इकबाल ने इस्लाम के गौरवशाली इतिहास को रेखांकित करने के लिए अपनी एक
नज़्म में जिस शहर कासगर का जिक्र किया है उसमें रहने वाले मुसलमानों पर रमज़ान
के महीने में रोज़ा रखने, मसजिदों में नमाज पढ़ने या औरतों के बुरक़ा पहनने पर
कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी गईं हैं। यदि आप चीन के सीमावर्ती प्रांत शिन
जियांग की सरकारी वेबसाइटों को देखें तो पाएँगे कि इस पूरे प्रांत में जहाँ
उइगुर मुसलमानों की बड़ी आबादी है और कासगर जिसका एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक शहर
है, आधिकारिक रूप से बच्चों और सरकारी कर्मचारियों को रोजा रखने से रोक दिया
गया है, कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को यह जिम्मेदारी दी गई है कि वे लोगों
को नमाज पढ़ने के लिए मसजिदों में जाने से रोकें और यह भी सुनिश्चित करें कि
रमज़ान के दौरान दिन में बाजार बंद न हों। शिन जियांग प्रांत पाकिस्तान,
अफगानिस्तान और कजाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्रों की सीमा पर स्थित है।
इनमें से पाकिस्तान की प्रतिक्रिया सबसे दिलचस्प इसलिए भी है कि यह संसार का
अकेला राष्ट्र है जो इस्लाम के नाम पर बना और जिसके शासक खुद को इस्लाम का
किला कहते नहीं थकते।
इसी रमज़ान में पाकिस्तान के धार्मिक मामलों के मंत्रालय का एक प्रतिनिधि मंडल
चीनी सरकार के निमंत्रण पर इन पाबंदियों को देखने के लिए शिन जियांग गया और
उसने लौट कर वहाँ के प्रशासन को क्लीन चिट देते हुए बताया कि मुसलमानों पर
किसी तरह की पाबंदी नहीं है और वे अपने धार्मिक रीतिरिवाजों का पालन करने के
लिए स्वतंत्र हैं। स्वाभाविक था कि इस पर खूब हाय तौबा मची और डान ने
तो एक संपादकीय लिखकर इस प्रतिनिधि मंडल का मजाक उड़ाया। यह जानना बहुत मुश्किल
नहीं है कि पूरी दुनिया में इस्लाम का ठेका लेने वाला पाकिस्तान उइगुर
मुसलमानों के साथ हो रही ज्यादतियों पर लीपापोती करने की कोशिश क्यों कर रहा
है?
पाकिस्तान के चीन से रिश्ते काफी हद तक भारत से उसके संबंधों के सापेक्ष बनते
हैं। जन्म के फौरन बाद उसने अमेरिका का दामन थामा और अस्सी के दशक तक दक्षिण
एशिया में उसका सबसे बड़ा रणनीतिक भागीदार बना रहा। चीन-पाकिस्तान के बीच
दोस्ती की शुरुआत तो 1962 के भारत-चीन सीमा संघर्षों के बाद हुई और इसे
पाकिस्तानी विदेश नीति की सफलता कहेंगे कि उसने न सिर्फ मैकमोहन लाइन पर लचीला
रुख अपनाते हुए आपसी सीमा विवाद हल किए बल्कि विपरीतों के मध्य अद्भुत
सामंजस्य का परिचय देते हुए दोनों विरोधियों को बखूबी साधा।
1965 में भारत के साथ युद्ध के दौरान तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति फील्ड
मार्शल अयूब खान अपने विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ बीजिंग गए और
उन्होंने चीन से भारत के खिलाफ नया मोर्चा खोलने की पुरजोर अपील की पर उन्हें
कामयाबी नहीं मिली। युद्ध में भाग लेने की जगह माओ ने उन्हें सलाह दी कि
उन्हें भारत के साथ पहाड़ से पीठ टिकाकर भी लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। मतलब
साफ था कि पाकिस्तान आगे बढ़ती भारतीय सेनाओं से आमने सामने की लड़ाई न लड़
छापामार युद्ध के लिए तैयार रहे। न तो अय्यूब को माओ की तरह छापामार लड़ाई का
अनुभव था और न ही पाकिस्तान की अंदरूनी स्थितियाँ उसे इजाजत देती कि वह पंजाब
सिंध से पीछे हटता हुआ बलूचिस्तान की पहाडियों में जाकर लड़े, इसलिए अय्यूब ने
यह राय तो नहीं मानी पर उनकी समझ में आ गया कि जरूरत पड़ने पर चीन पाकिस्तान के
साथ भारत के खिलाफ युद्ध के मैदान में नहीं कूदेगा। 1971 के युद्ध में यह समझ
सही साबित हुई जब पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद चीन भारत को ज़ुबानी
धमकियाँ तो देता रहा पर जंग से दूर ही रहा। पैंसठ और इकहत्तर के अनुभवों से
सबक लेकर अब पाकिस्तान कूटनीतिक, आर्थिक और सामरिक क्षेत्रों में चीन का
अधिकतम उपयोग करना सीख गया है और बकौल सेनाध्यक्ष जनरल राहिल शरीफ उसका सबसे
भरोसे मंद सहयोगी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ समेत तमाम अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन खुलकर पाकिस्तान के
साथ खड़ा हुआ है। हाल में उसने पठानकोट हमलों के मास्टर माइंड मसूद अजहर को
अंतरराष्ट्रीय आतंकी के रूप में प्रतिबंधित करने के भारतीय प्रयास को वीटो कर
दिया था। खुद भी शिन जियांग में मुस्लिम आतंकवाद का शिकार होने के बावजूद उसने
हर जगह इस मुद्दे पर पाकिस्तान का साथ दिया है। शिन जियांग की मुस्लिम आबादी
पर उसकी ज्यादतियों को पाकिस्तान इसी लिए नजरंदाज़ करता रहा है। न्यूक्लियर
सप्लाई ग्रुप की भारत भरपूर प्रयास और अमेरिका के खुले समर्थन के बावजूद
सदस्यता हासिल नहीं कर पाया तो इसके पीछे चीन और पाकिस्तान के साझा कूटनीतिक
प्रयास काम कर रहे थे। पुराना इतिहास दोहराया जा रहा है - पहले सुरक्षा परिषद
में सोवियत रूस भारत के पक्ष में वीटो करने वाला अकेला देश था और अब चीन इसी
भूमिका में पाकिस्तान के लिए खड़ा है।
दोनों के संबंधों में मील का पत्थर साबित हो रही है हाल में परवान चढ़ी चीन
पाकिस्तान इकनामिक कारीडोर परियोजना। यह छियालीस अरब डालर की एक बहुआयामी और
महत्वाकांक्षी परियोजना है जो पाकिस्तान-ईरान सीमा पर स्थित ग्वादर बंदरगाह से
शुरू होकर लगभग पूरे पाकिस्तान को लाँघती हुई चीन के शिन जियांग प्रांत में
प्रवेश करती है। बंदरगाह, सड़क, रेल, बिजली, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और
औद्योगिक इकाइयों की परिकल्पना करने वाली यह परियोजना पाकिस्तानी विश्लेषकों
के अनुसार गेम चेंजर साबित हो सकती है। इसे पाकिस्तानी सरकार और सेना कितना
महत्व दे रहें हैं इसका अनुमान सिर्फ इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस
परियोजना की सुरक्षा के लिए दस हजार सैनिकों का एक नया डिवीजन खड़ा किया जा
रहा है। इससे चीन को सेंट्रल एशिया और अफ्रीका के बाजारों में प्रवेश के लिए
कई सौ किलोमीटर छोटा और सीधा रास्ता तो मिलेगा ही, पाकिस्तान को भी आर्थिक
तरक्की के नए अवसर प्राप्त होंगे।
आज जब पाकिस्तान विदेश नीति के मैदान में पूरी तरह से अलग-थलग पड़ गया है, अब न
उसे अमेरिका का समर्थन हासिल है और न ही उसके भारत, अफगानिस्तान और इरान जैसे
पड़ोसियों से अच्छे संबंध हैं, चीन उसके लिए अकेला तारणहार बना हुआ है। आर्थिक
रूप से खुशहाल और राजनैतिक रूप से स्थिर पाकिस्तान भारत के हित में है बशर्ते
वह कट्टरपंथी इस्लाम से खुद को दूर रखे। फिलहाल तो इसके आसार कम ही नजर आ रहे
हैं। भारत ने ग्वादर का तोड़ चाबहार बंदरगाह में तलाश लिया है पर उसे पूरा
प्रयास करना होगा कि चीन से उसके संबंध सामान्य बने। अंध राष्ट्रवादी भले ही
एक साथ दोनों से लड़ने की बात करते हों, दो परमाणु ताक़तों से एक साथ निपटना
उसके बूते का नहीं है। दरअसल युद्ध किसी के हित में नहीं है। इसके लिए मैकमोहन
लाइन पर हमें कुछ लचीला रुख अख्तियार करते हुए चीन से अपने सीमा विवाद सुलझाने
होंगे। एक बार चीनी समर्थन कमजोर पड़ने पर ही पाकिस्तान का रवैया भी बदलेगा।