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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम युद्ध कोई विकल्प नहीं है - अंतिम भी नहीं पीछे     आगे

सच हमेशा वही नहीं होता जो दिखता है बल्कि कई बार तो वह बिलकुल नहीं होता जिसे हम ऊपर से देखते है। अकसर यह इतना बहु आयामी होता है कि परत दर परत उघाड़ते जाए और आपको इसके नए नए रूप दिखते जाएँगे। पाकिस्तान के सत्ता केंद्र को लेकर भी कुछ-कुछ ऐसा ही है। कौन है वहाँ की सत्ता का केंद्र-राजनैतिक नेतृत्व, सेना, कट्टर पंथी धार्मिक गिरोह या सेना और कट्टरपंथियों के बीच का एक गठबंधन जिसमें दोनों के अतिवादी शरीक हैं। 18 सितंबर को उड़ी के ब्रिगेड मुख्यालय पर हालिया हमलों से भी यह सवाल उभर कर सामने आया है कि इसमें किसका हाथ हो सकता है? क्या यह हमला, जिसके परिणाम स्वरूप भारत पाकिस्तान के बीच एक परमाणु युद्ध तक हो सकता था, इस्लामाबाद के राजनैतिक नेतृत्व की जानकारी में और उसकी सहमति से हुआ है या इसकी योजना रावलपिंडी के सर्वशक्तिमान सेना मुख्यालय में बनाई गई थी अथवा इसके पीछे सिर्फ तीसरे समूह का हाथ है? यह भी हो सकता है कि इन तीनों से भी भिन्न किसी ऐसे स्वच्छंद आतंकवादी गिरोह का इसमें हाथ हो जिस पर उपरोक्त में से किसी का प्रभावी नियंत्रण न हो।

पाकिस्तान को लेकर युद्ध या शांति की कोई भी नीति इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही बनाई जा सकती है कि एक नहीं कई पाकिस्तान एक साथ मौजूद हैं। ये सभी एक-दूसरे से सहयोग, विरोध, कभी परस्पर आश्रित और कई बार स्वतंत्र भूमिका में होते हैं। पाकिस्तान का करीब से अध्ययन करने वाले विश्लेषकों को यह देखकर आश्चर्य नहीं होता कि विदेश या रक्षा नीति के मुद्दों पर सरकार और सेना एक साथ स्वतंत्र और विरोधी बयान जारी करते रहते हैं। यह दुनिया का अकेला देश होगा जिसमें रक्षा मंत्रालय सुप्रीमकोर्ट में हलफनामा दाखिल कर कह सकता है कि फौज उसके नियंत्रण के बाहर है। मुंबई पर 26/11 के हमलों के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने कहा ही था कि इस में राज्य के बाहर के खिलाड़ियों या नान स्टेट ऐक्टर्स का हाथ हो सकता है। यह अलग मसला है कि सेना या उसकी खुफिया एजेंसी आई. एस. आई. को हम अंदरूनी खिलाड़ी माने या बाहरी?

उड़ी के बाद दोनों देशों में एक खास तरह की जंग छिड़ गई है। इस में दोनों तरफ के टी.वी. एंकर, पैनलिस्ट, रक्षा विशेषज्ञ, अवकाश प्राप्त सैनिक और राजनयिक शरीक हैं। फेफड़ों के सहारे बहस करते इनको अगर किसी दूसरे ग्रह के निवासी देख रहे होंगे तो वे यही समझेंगे कि दो एटमी ताक़तें अब बस भिड़ने ही वाली हैं। दोनों पक्षों के इन योद्धाओं के तरकस में अचूक बाण है और दोनों अपनी सरकारों से इस बात के लिए नाराज है कि युद्ध की घोषणा में इतनी देरी क्यों हो रही है? बहस का स्तर दोनों जगह एक सा ही है पर पाकिस्तान की बहसों में एक फर्क साफ दिखता है और वह है बार बार परमाणु बमों का उल्लेख।

लगभग हर पाकिस्तानी चैनल दोनों देशों के पास मौजूद परमाणु अस्त्रों के जखीरों की तुलना कर चुका है। थोड़ी सी फेर-बदल के साथ एक ही तरह के चेहरे सभी चैनलों पर दिख रहें हैं और सभी इस मामले में एकमत हैं कि पाकिस्तान पारंपरिक युद्ध सामग्री के मामले में भले ही भारत से उन्नीस पड़े इस मामले में तो इक्कीस ही है। वे बड़े आराम से उन टैक्टिकल बमों का जिक्र करते हैं जो साधारण राकेट लांचरों से भी छोड़े जा सकतें हैं। सभी जानते हैं कि परमाणु तंत्र का सबसे महत्वपूर्ण भाग उसका डिलीवरी सिस्टम होता है। अर्थात् आपके पास बम धरे रह सकतें हैं अगर उन्हें गिराने के लिए सक्षम मिसाइलें या वायुयान न हों। इसीलिए पाकिस्तान पिछले दिनों अमेरिका से एफ़-16 जहाज हासिल करने का प्रयास कर रहा था। डिलीवरी सिस्टम में कमजोर पड़ने के कारण ही पाकिस्तान ने ऐसे टैक्टिकल बमों का निर्माण किया है जिन्हें आसानी से छोड़ा जा सकता है।

पाकिस्तानी रक्षा वैज्ञानिकों और विश्लेषकों का यह दावा सही हो सकता है क्योंकि अंतरराष्‍ट्रीय एजेंसियों का भी मानना है कि बमों की संख्या के मामले में पाकिस्तान भारत से आगे है। पर दुनिया के सात घोषित और दो अघोषित परमाणु बम संपन्न देशों में पाकिस्तान अकेला है जो खुले आम इसके इस्तेमाल की धमकी देता है। सातों घोषित देशों में यह इस मामले में भी अकेला है कि केवल इसकी प्रयोगशालाओं से ही बम बनाने की तकनीक अवांछित हाथों में पहुँची और अब तो यह साबित हो गया है कि इसमें से कुछ चोरी पाकिस्तान सरकार की गैर जानकारी में भी हुई। वहाँ के परमाणु कार्यक्रमों के जनक कहे जाने वाले वैज्ञानिक ए.क्यू. खान ने तो ओसामा बिन लादेन तक से मुलाकात कर अलकायदा के हाथ खुफिया जानकारियाँ बेचने की कोशिश की थी। समय रहते बात खुल गई और विश्व जनमत के दबाव में परवेज मुशर्रफ को उसे नजरबंद करना पड़ा। पाक चैनलों पर सलीम साफ़ी, रऊफ कल्सरा, एजाज हैदर जैसे एंकर या हसन निसार और परवेज हूद्भाय जैसे संजीदा पैनलिस्ट की संख्या कम होती है जो जनता को संजीदगी से परमाणु बम के ख़तरों को समझाने की कोशिश करते हैं और यह बताते है कि इस युद्ध में अगर कुछ करोड़ भारतीयों को मार भी दिया गया तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि जवाबी कार्यवाही में पाकिस्तान का तो पूरी तरह से नामों निशान मिट जाएगा। ज्यादा तादाद मुबस्सर लुकमान और हिलाली सरीखों की होती है जिनका बस चले तो स्टूडियो से ही भारत पर बम फेक दें।

पिछले वर्ष मैं कराची में था और इस बात से चकित रहता था कि साधारण बातचीत में भी बम का जिक्र आ जाता था। इसे आप एक ऐसे दिग्भ्रमित राष्ट्र की प्रतिक्रिया कह सकते हैं जिसने पिछले अनुभवों से समझ लिया है कि पारंपरिक युद्ध में अपने से मजबूत भारत से वह जीत नहीं सकता और दुस्साहस में खुद को नष्ट करने का जोखिम उठाते हुए विरोधी को बर्बाद करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। कोढ़ में खाज सत्ता का वह अपारिभाषित केंद्र है जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है। लड़ाई की स्थिति में बम चलाने का हुक्म कौन देगा - प्रधानमंत्री या सेनाध्यक्ष या फिर इन सबसे स्वतंत्र कोई छोटा अफसर, जिसे इस्लामी कट्टरपंथियों ने प्रभावित कर रखा है अपने दम पर ही ऐसा फैसला कर लेगा, कोई नहीं कह सकता।

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध कोई विकल्प नहीं है - अंतिम भी नहीं। युद्ध की डुगडुगी बजाने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि इसमें जीता कहा जा सकने वाला कोई नहीं बचेगा, दोनों नष्ट हो जाएँगे। हमारे यहाँ कुछ लोग यह सोचते है कि कोई सीमित लड़ाई लड़ी जा सकती है जिसमें भारतीय सैनिक या जहाज पाकिस्तान के अंदर घुसकर कुछ आतंकी ठिकानों को नष्ट कर देंगे। यह एक खतरनाक दिवास्वप्न है। पाकिस्तानी सैनिक और असैनिक नेतृत्व कई बार ऐसे किसी युद्ध को अस्वीकार कर भारतीय सेना के सीमा पार करते ही परमाणु बमों के इस्तेमाल की धमकी दे चुका है। अभी तक उनका इतिहास इस मामले में गैर जिम्मेदारी भरा रहा है इसलिए उनकी इस धमकी को आसानी से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इस पूरे युद्धोन्माद के बीच हमें भारत - पाकिस्तान की उस साधारण जनता को नहीं भूलना चाहिए जिसकी आवाज शोर गुल में नहीं सुनी जा रही और मेरा अनुभव कहता है कि वह शांति चाहती है।


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