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वैचारिकी

फेंस के उस पार

विभूति नारायण राय

अनुक्रम एक जंग बिना तोप बिना बंदूक पीछे    

न्यूयार्क टाइम्स ने हर भारत पाकिस्तान युद्ध की रिपोर्टिंग प्रमुखता से की है पर इस बार जिस लड़ाई का जिक्र उसके 19 अक्तूबर के एशिया पैसिफिक संस्करण के मुखपृष्ठ पर आया है वह बड़ी दिलचस्प है और बिना तोप बंदूक के लड़ी जा रही है। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार दो परमाणु संपन्‍न राष्ट्र इस बार युद्ध भूमि के स्थान पर बड़े परदे पर लड़ रहे हैं।

भारत - पाकिस्तान के संबंधों में पिछले दिनों जो तनाव आया है उसका ख़ासा असर पाकिस्तान के फिल्म और टेलीविजन उद्योग पर पड़ा है। पेमरा या पाकिस्तान इलेक्ट्रोनिक मीडिया रेगुलेटरी अथारिटी ने पिछले शुक्रवार से टी.वी. पर और सिनेमा घरों में भारतीय सीरियलों या फिल्मों के प्रदर्शन पर पूरी तरह से रोक लगा दी। पेमरा को आप भारतीय सेंसर बोर्ड और प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया का मिला जुला रूप कह सकते हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि इसके पास सिर्फ दिखाने के दाँत नहीं हैं। मार्च 2002 में स्थापना के बाद से फौज, न्यायपालिका या नेताओं की आलोचना करने पर कई पाकिस्तानी पत्रकारों या चैनलों को उसका कोप भाजन बनना पड़ा है।

पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों पर पहली बार पाबंदी 1965 के भारत पाक युद्ध के बाद लगी और 2006 तक रही पर यह काफी हद तक ढ़ीली ढ़Iली ही रही। 1979 में ज़िया उल हक के इस्लामीकरण के दौर को छोड़ दे तो शायद ही कभी पूरी तरह रोक लग पाई। खुले आम दुकानों पर भारतीय कैसेट्स बिकते थे और सारे केबुल आपरेटर अपना धंधा भारतीय चैनेल और फिल्में दिखा कर चलाते थे। 2006 में यह नियंत्रण इस शर्त पर हटा कि सिनेमा घर भारतीय और पाकिस्तानी फिल्मों को बराबर का समय देंगे।

विभाजन के पहले बंबई उर्दू हिंदी का एक बड़ा मुश्तरका फिल्म निर्माण और वितरण का केंद्र बन गया था। नए पाकिस्तान में स्वाभाविक ही था कि अविभाजित पंजाब का बड़ा संस्कृति केंद्र लाहौर उर्दू फिल्म इंडस्ट्री का मरकज बना। पर यह केंद्र बहुत फला फूला नहीं और जल्द ही उजाड़ सा लगने लगा। बंबइया फिल्मों ने अपनी आर्थिक शक्ति, मौजूदा सुविधाओं और पेशेवर दृष्टिकोण के बल पर पूरी दुनिया के मनोरंजन उद्योग में जो मुकाम हासिल कर लिया था उसके मुकाबले लाहौर नहीं टिक पाया और जल्दी ही उसका दम फूलने लगा। इसके पास न प्रतिभाशाली अभिनेता थे, न ग्लैमर और न ही यह बाक्स आफिस पर कमाई का जरिया ही बन पाया। फिल्म वितरण से जुड़े लोगों के लिए बंबइया फिल्मों की पाइरेटेड सी.डी. दिखाना ज्यादा मुनाफ़े का धंधा बन गया। छोटे परदे का दौर शुरू हुआ तब भी केबुल आपरेटर भारतीय चैनलों को ही दिखा कर दर्शक बटोरते रहे। जब भी थोड़ी छूट मिलती पाकिस्तानी अभिनेता और संगीतकार भारत का रुख करते जहाँ ग्लैमर और पैसा दोनों था। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी मनोरंजन उद्योग मंदी और निराशा से बाहर निकला है तो इसका श्रेय भी काफी हद तक हिंदी फिल्मो को जाता है।

उड़ी हमले के बाद चीजें एकदम से बदल गई और उस युद्ध की शुरुआत हुई जिसका जिक्र न्यूयार्क टाइम्स ने अपने 19 अक्तूबर के अंक में किया है। फर्क सिर्फ इतना है कि भारत में लड़ाई की कमान दक्षिण पंथी हिंदुत्ववादियों के हाथ में है और पाकिस्तान में एक सरकारी नियामक संस्था पेमरा इसे लड़ रही है।

पेमरा के हालिया फार्मूले के अनुसार टी.वी. चैनल दस प्रतिशत विदेशी कंटेंट दिखा सकते थे और इस दस प्रतिशत में छ: प्रतिशत भारतीय हो सकता था। यह दो घंटे से कुछ अधिक बैठता है। पाकिस्तानी चैनलों ने इसका जमकर फायदा उठाया और लगभग सारा प्राइम टाइम भारतीय कार्यक्रमों के हवाले रहा करता था। यहीं स्थिति रेडियो और संगीत उद्योग की भी थी। लाहौर के लिबर्टी बाज़ार में दूकानें भारतीय संगीत की सी.डी. से पटी रहती थीं। 2006 के पहले पाइरेटेड और उसके बाद कानूनी सी.डी.। यह चक्र बदल कर अब शायद फिर पाइरेटेड हो जाएगा पर बंद तो निश्चित नहीं होगा।

इस युद्ध की शुरुआत भारत ने की है। सब को पता है कि मुंबई फिल्म उद्योग को काफी हद तक हिंदुत्ववादी राजनीति से जुड़ा माफिया नियंत्रित करता है। इसकी दखल फिल्म फाइनेसिंग से लेकर वितरण तंत्र तक हर जगह है। बीच-बीच में वसूली और मत प्रतिशत में वृद्धि के लिए यह फिल्मों और कलाकारों पर बैन लगाता है। लगभग हर बार इसकी गुंडागर्दी के आगे सरकारें और कलाकार मजबूर दिखाई देते हैं। मुझे सिर्फ एक उदाहरण ए.के. हंगल का याद आ रहा है जिन्होंने मुंबई को शिव सेना की जागीर मानने से इनकार कर दिया था और दिलीप कुमार के समझाने बुझाने के बावजूद बाल ठाकरे से मिलने नहीं गए। पर हर आदमी से आप हंगल होने की अपेक्षा नहीं कर सकते। ज्यादा तर लोग करन जौहर, ओम पुरी या शाहरुख़ खान होते हैं जो खुले आम माफी माँग कर या रात के अँधेरे में चढ़ावा चढ़ा कर अपनी जान बचाते हैं। दुख है कि उन्हें अदालतों या सरकार से वह मदद नहीं मिलती जिसके वे हकदार हैं।

हिंदुत्ववादियों ने घोषित कर पाकिस्तानी कलाकारों को मुंबई से खदेड़ दिया और ऐ दिल है मुश्किल जैसी फिल्म का प्रदर्शन तब तक रोके रखा जब तक पर्दे के पीछे उन्‍हें संतुष्ट नहीं कर दिया गया। फिल्म निर्माण और वितरण से जुड़े संगठनों ने घोषित कर दिया है कि अब भविष्य में किसी पाकिस्तानी कलाकार को लेकर कोई फिल्म नहीं बनाई जाएगी और न ही सिनेमा घर ऐसी फिल्में चलाएँगे।

स्वाभाविक था कि इसकी प्रतिक्रिया पाकिस्तान में भी होती। वहाँ जिहादी वर्षों से हिंदुस्‍तानी सिनेमा को सांस्कृतिक हमले की तरह लेते रहे है पर कभी सरकार और जनता ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था। इस बार हिंदुत्ववादियों ने उन्‍हें यह मौका दे दिया। थोड़े ही प्रयास से सरकार झुक गई और पेमरा ने भारतीय सिनेमा, संगीत और सीरियलों पर पूरी तरह से रोक लगा दी।

पेमरा के मुखिया अबसार अहमद ने रोक के बाद एक टी.वी. चैनल को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि चैनलों और वितरकों की कमाई का 70% भारतीय कंटेंट से आता था और वे चैनल भी जो अपने कार्यक्रमों में देशभक्ति और गद्दारी के प्रमाणपत्र वितरित करते थे, प्राइम टाइम पर भारतीय कार्यक्रम दिखा कर मोटी कमाई करते थे। रोक के दो तीन दिनों के अंदर ही फर्क महसूस किया जाने लगा है पर वे बजिद है कि रोक तब तक जारी रहेगी जब तक भारत अपने यहाँ इसे नहीं हटाता।

इस नए किस्म के युद्ध में नुक़सान तो सिर्फ उस कला रसिक का होगा जो कला और कलाकारों को सीमाओं से बाँधने में यकीन नहीं करता। उसके लिए संगीत, साहित्य, फिल्में सभी कुछ उदात्त मनुष्यता का अंग हैं और जो एक ऐसी साझी विरासत में यकीन करता है जिसका निर्माण विभाजन के सदियों पहले से हो रहा था और कृत्रिम रोकों से जिसकी प्रक्रिया धीमी भले हो जाए पर पूरी तरह से रुकेगी नहीं। इस प्रक्रिया को रोका भारत ने है तो इसे फिर से शुरू करने की पहल भी उसे ही करनी चाहिए।


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