hindisamay head


अ+ अ-

कविता

निश्चिंतता के तकिए

प्रतिभा चौहान


सोना चाहती हूँ बहुत
ताकि ख़्वाब पूरे हो जाएँ
पर मेरी निश्चिंतता की तकिया कहीं खो गई है

माँ ने बताया
जन्म के वक्त बनाए गए थे वे तकिए
जिनका उधेड़ना बुना जाना नीले आकाश में होता है
और सहेजकर रखना सबसे नायाब हुनर

आजकल बुनने में लगी हूँ अपने सपने
और सहेजने की कोशिश में अपना तकिया

हे नीले आकाश
प्रार्थना है
मुझे सलीका दो बेईमानी का
चुरा लूँ थोड़ा वक्त - वक़्त से

मुझे तब तक सुकून का तकिया मत देना
जब तक मेरी चिंता हद से पार न हो जाए

तुम्हारी नाराजगी मेरी कोहनी में लगी चोट है
झटके में सिहर जाता है वजूद
मेरे मस्तिष्क ने खड़े किए हैं बाँध
रुक जाते हैं ख्वाब बहने से

अब तुम ही कहो
किस तरह होता है आदमी निश्चिंत

तुम मेरे प्रेम की तरफ मत देखो
वह तो इस ब्रह्मांड की सबसे बड़ी बेचैनी है
तुम मत ताको - मेरे त्याग की ओर
वह तो स्वयं के सुकून पर छुरी है

तुम मत ललचाओ - मेरे समर्पण पर
वह तो मेरा दूसरों के लिए दान है
तुम मत खोलो - मेरे विश्वास के पिटारे को
मैंने तो उसमें अपनी आँखें बंद की हैं

माँ
तुम सच नहीं कहतीं
उनके लिए निश्चिंतता के तकिए नहीं बनाए जाते
जिनमें होती है मानवीय संवेदनाओं की पराकाष्ठा।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में प्रतिभा चौहान की रचनाएँ