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कविता

वजूद की अंतर्चेतना

प्रतिभा चौहान


मैं हारा हुआ वक्त नहीं
जो ठहर सा जाऊँ
मैं गिरा हुआ राह का पत्थर भी नहीं
जो ठुकराया जाऊँ,

मैं उस पड़ाव की उम्र हूँ
जो देख रहा है
जीवन की कठोर सच्चाई का
आना-जाना
जीवन का रिसता हुआ अर्क हूँ
जिसमें इूब रहे हैं
हम सब अपने वजूद की अंतर्चेतना में...

चश्मे के नुक्कड़ पे उगा दरख्त सा
झूलता हुआ, अडिग
सदियों से
मैं न ताप हूँ,
न बेसुध शीत
मैं उम्र के हर पड़ाव के हर शख्स की नब्ज हूँ
जवान स्वप्न हूँ
मैं प्रेम हूँ।


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