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अम्माँ की याद आती है
मुझे अम्माँ का रंग याद नहीं है। शायद वे धूसर रंग की थीं। धूसर - धरती के रंग
जैसा। धरती का रंग यानी मिट्टी का रंग। अम्माँ मिट्टी के रंग थीं। सफेद बाल,
लेकिन उनमे कुछ काली धाराएँ भी। अम्माँ बालों में फीता बाँधती थीं। रंगीन
रिबन। मुझे बड़ा मजेदार लगता। उन दिनों हम बच्चों को भी लाल रिबन बाँधा जाता
था। नया, कुरकुरा लाल चटख रिबन, छुओ, तो जैसे दिल मगन हो जाता। हर नई चीज से
नएपन की सोंधी महक आती। आह... दिल मतवाला हो उठता।
अम्माँ धोती पहनतीं। उनकी धोतियाँ सूती, मुलायम, साफ शफ्फाक। जब हम मुँह धोकर
आते अम्माँ अपने पल्ले से मुँह पोंछ देतीं। मुझे पहने हुए कपड़े से मुँह पोंछना
नहीं भाता। पर अलगनी पर सूख रही धोती से मुँह पोंछने में बड़ा अच्छा लगता। इतना
मुलायम कपड़ा कि आँख में किरकिरी पड़ जाए तो धोती के कोने की बत्ती बना के उससे
आँख साफ करते।
आह... अम्माँ का पानदान। पीतल का चमकता हुआ पानदान। उसमे पीतल की ही
कुल्लियाँ। एक में चूना, एक में कत्था, सुपारी, और कई चीजें, जिनके नाम मुझे
नहीं पता थे। एक नन्हा सा पानदान था चाँदी का। उसकी नन्हीं नन्हीं कुल्लियाँ।
वह अम्माँ को सफर में ले जाने के लिए था। अम्माँ उसे बड़ी हिफाजत से रखतीं।
हरे हरे ताजे पान बाल्टी में पड़े रहते। अम्माँ के पान खत्म होने से पहले
नानाजी पान जरूर याद करा देते। अम्माँ कहतीं भर, और हम बच्चे पान लाने दौड़
पड़ते। हालाँकि पान अम्माँ खुद चुनतीं। हम अम्माँ को पान लगा के देते। अम्माँ
कहतीं, बेटा, चूना कम लगाना। तंबाकू कम डालना। लाओ हमें दो, हम खुद लगा लेंगे,
पर हम लोग तब तक दुकान खोल के बैठ जाते।
अम्माँ बोलतीं इतनी बुलंद आवाज में कि पचास आदमी भी खड़े हों तो उनकी आवाज गूँज
जाए। मैंने हमेशा उन्हें तेज तर्रार और निडर ही देखा। बाजार में हमारी पाँच
दुकाने थीं। अम्माँ किराया वसूल के लातीं। एक में वीरेंदर की पान की दुकान, जो
कस्बे की सबसे मशहूर दुकान थी। गोर चिट्टे वीरेंदर भी बड़े रुआब से झक सफेद
कपड़ों में दुकान पर बैठते। अम्माँ उन्हें मामा बोलने को कहतीं। नमस्ते
करवातीं। बगल में दर्जी की दुकान, उनके बारे में कुछ याद नहीं, एक पर हलवाई
बैठते।
अम्माँ किसी से नहीं डरतीं, जरा भी नहीं। हमारे घर के पास ही बड़े नानाजी और
छोटे नानाजी का घर था, हमें न जाने कैसे पता था कि इस घर में भी हमारा हिस्सा
है। यह घर खूब गहरा था, घर के दोनों तरफ सड़क। इधर मुख्य सड़क जिस पर दिन भर
ट्रकों और बसों की लाइन लगी रहती और दूसरी तरफ बहुत व्यस्त सड़क, जहाँ दिन भर
बाजार की गहमागहमी रहती। हम लोग इधर से घर में घुसते, एक कमरा, दूसरा कमरा,
बरामदा, फिर लंबा आँगन, फिर लंबी गैलरी और दूसरे छोर पर वीरेंदर मामा जी की
पान की दुकान पर निकलते।
छोटे नाना जी के लंबे से आँगन के अंतिम छोर पर, जहाँ यहाँ अक्सर ताजे जने
पिल्ले मिलते। गाय मिलती, बछिया मिलती। हम लोग पिल्लों में खूब दिलचस्पी लेते,
पर अम्माँ की ताईद थी कि बच्चों को छुओगे तो कुतिया काट खाएगी, फिर पेट में
चौदह इंजेक्शन लगेंगे ।
2
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नानाजी चार भाई थे। नानाजी सबसे बड़े, फिर मिट्ठू लाल तोमर। छोटी नानीजी,
जिन्हें अम्माँ मिट्ठू की बऊ कहती थीं और मुझसे कहतीं नानी कहो। नानी!! यह तो
मैं किसी को नहीं कहती, अम्माँ को भी नहीं। मैं भी उनको मिट्ठू की बऊ ही कहती,
लेकिन पीठ पीछे। सामने बिना संबोधन काम चलाती। अम्माँ कहतीं - ऐ लली, जे
मिट्ठू तेरे नानाजी हैं, और तू नाम लेत है। पढ़ी लिखी लरकिनी ऐसो ना कत्ती हैं
बेटा। मैं कहती, अम्माँ वो सुन थोड़े ही रहे हैं।
मिट्ठू की बऊ को सब महाराज जी कहते। महाराज जी आसन लगाते, पता नहीं कौन कौन
देवी देवताओं की पूजा करते, कभी जोर से चिल्लाते, तब हम बच्चों को उस घर में
जाने की मनाही होती।
महाराज जी बड़े रुतबे वाला व्यवहार करते। बाद में वे इतने अजनबी से हो गए कि
हमने वीरेंदर मामा जी वाली सड़क पर जाने के लिए छोटे नानाजी के घर से निकलना
बंद कर दिया। बल्कि उनके बगल वाले घर से निकलने लगे, जहाँ गिरजा, रानी रहती
थीं। मम्मी कहतीं उनको मौसी कहा करो। और उनके भाई सुभाष और रमेश को मामाजी। पर
मेरे मुँह से निकलता ही नहीं था। उन्हें मामा, मौसी न कहना पड़े इस चक्कर में
मैं उनके सामने पड़ने से बचती। जो संबोधन मम्मी करतीं, वही सहज लगता। मतलब रानी
को रानी, गिरजा को गिरजा कहो। बाद में मैं मम्मी को बातें सुनाती - मम्मी
गिरजा ने ये कहा, रानी ने वो कहा। मम्मी रूखे होकर कहतीं कौन गिरजा, रानी? तुम
क्या उनकी अम्मा हो। कायदे से मौसी बोलो तब आगे बात सुनी जाएगी। और मेरा मुँह
फूल जाता।
उनके घर में हमेशा कंबल बुने जाते। मोटे मोटे खरे कंबल। खूब सुंदर डिजायन। घर
भर में ऊन फैली रहती। बहुत बचकर, साफ पैरों से, चप्पल हाथ में लेकर एहतियात से
गुजरना पड़ता। पर वहाँ सब प्यार करते, दूध चाय के लिए पूछते, खाना खाने को
कहते।
अम्माँ ने मुझसे कह दिया था कि मैं महाराज जी के घर के आस पास भी न जाऊँ।
अम्माँ, मम्मी, नानाजी, मामाजी सब आपस में खूब बातें करते। उनकी बातें कभी
खत्म ही न होतीं। जब मैं रात में सोती तो बातें चल रही होतीं, और सुबह आँख
खुलती तो सूरज नहीं निकला होता। तड़के अँधेरे ही नानाजी, अम्माँ सब जगे होते।
अपनी चारपाई पे बैठे बैठे ही जाने क्या क्या बातें कर रहे होते। दुकान की,
गल्ले की, चोरों की, बदमाशों की, खेत की ढेरों बातें। मामाजी पल्ले कमरे से
हुंकारी भरते। इतनी बुलंद आवाजें मुझे भी जगा देतीं। यह सब जादू की सी दुनिया
लगती।
महाराज जी के बारे में बातें होतीं। अम्माँ कहतीं, न कछु ना... भूत प्रेत कछु
न होत। सब नाटक है।
महाराज जी ने काफी 'प्रतिष्ठा' बना ली थी, पर हमारे पूरे घर में इस प्रतिष्ठा
की चीर-फाड़ हो जाती।
मैं उधर से गुजरती तो महाराज जी मुझे देख कर बड़ी रहस्यमय मुस्कान देते, कभी
ऐसे देखते मानो पहचानते ही न हों। तब उनके इर्द-गिर्द की भक्तिनें कहतीं, इधर
से गुजरो तो महाराज जी को नमस्कार जरूर किया करो। मैंने तो उधर से निकलना ही
बंद कर दिया। महाराज जी साँवली, लंबी, पतली, तीखे नयन नक्श, कायदे से सीधे
पल्ले की रंगीन सूती साड़ी पहनती। उम्र चालीस से कम ही रही होगी। सर पे पल्लू
रखतीं, पर बात व्यवहार में जबर्दस्त दबंग।
3
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सुबह सुबह मामाजी चौके में मिलते। चाय का पतीला चूल्हे पर चढ़ाए। भाप ऐसे
निकलती कि हर किसी को पता चल जाता कि चाय बन रही है। मामाजी चाय में अदरक या
तुलसी के अलावा जरा सा नमक भी डाल देते। सुबह सुबह बाजार से ताजा फेन या
डबलरोटी आ जाती। हम लोग देर तक चाय के साथ यही हजम करते रहते। सुबह मामाजी
चूल्हा जला दिया करते थे, उसके बाद मामीजी को काम करने में आसानी होती।
अम्माँ के यहाँ कोई चाय नहीं पीता। सब दूध ही पीते। दूध पीकर पेट फूल जाता तो
लंबा फूल का गिलास खाली ही न होता तो अम्मा कहतीं अब खड़े होके पी। मैं कहती -
अम्मा पेट भर गया। अम्माँ कहतीं - नहीं, खड़ी हो, खड़े होकर पेट में जगह बन जाती
है। और खड़े होकर सच में पेट में जगह बन ही जाती। मामाजी कहते पेट कहाँ तक भरा
है। मैं पेट पर हाथ रखती - पूरा पेट, यहाँ तक। मामाजी कहते, नहीं किसने कहा
पेट यहाँ तक होता है। पेट तो नाक तक होता है। ऐ बेटा, तुम का पढ़ाई पढ़ती हौं,
कि तुम्हें पेटऊ ना पता।
मुँह अँधेरे ही घर में बुहारी लगती। वो पीली पीली थोड़ी नाजुक सींके हुआ करती
थीं, फूल सी हलकी बढ़नी से सारी धूल साफ हो जाती। अम्माँ कहतीं - ऐ बऊ, जल्दी
जल्दी हाथ चला, न तो मोय दे, मैं करूँ, तू जा और सोय ले। और मामीजी बिना जवाब
दिए थोड़ा कुनमुना के स्पीड बढ़ा देतीं। फिर अम्मा कहतीं - ऐ बऊ, घर लीप लै।
मामी कहतीं - माता जी, अभई मंगलवार को तो लीपो हतो। अम्माँ कहतीं - ऐ बऊ, तौ
का कोई साइत निक्लैगी।
कभी मैं देखादेखी झाड़ू पकड लेती तो अम्माँ फटकार देतीं - ऐ लली, रैन दे! तोय
का जेई काम रय गओ है। जा पढ़-लिख।
घर खूब बड़ा था। या यूँ कहें कि बचपन के पाँव हमारे नन्हें थे, हम दिन भर दौड़
दौड़ के आँगन का छोर नापते रहते और रात होते होते पसर जाते। एड़ी के ठीक ऊपर पैर
में खूब दर्द होता। कस्बे की मुख्य सड़क पर घर था। सड़क के एक तरफ नाला। आज की
तरह गंधैला नहीं, बल्कि लगातार बहने वाला। नियमित सफाई होती। बरसात में तो यह
पानी से लबालब बहता। हम इस पर खूब नावें छोड़ते। नावें पल के पल में रफा दफा हो
जातीं।
नाला खुला हुआ ही था, जिनके घर या दुकाने सड़क पर थे उन्होंने अपने सामने के
नाले पर पटिया डाल ली थी नानाजी ने रैंप बनाया था। जिस पर साइकिलें और गाय-
भैसें, बकरियाँ आराम से चढ़ जातीं। फिर घर का मुख्य दरवाजा, देहरी, देहरी पर एक
छोटी चारपाई डालने भर की जगह। फिर दाहिने किनारे हाजत रफा करने की जगह, बाएँ
तरफ गाय, भैंसे बांधने का छप्पर। आगे खूब बड़ा और लंबा आँगन, आँगन में नीम के
तीन विशाल पेड़, जिनकी पत्तियाँ और निबोलियाँ दिन भर आँगन में गिरती रहतीं।
आँगन के अंतिम छोर पर दाएँ तरफ चौका और और फिर अगल बगल दो कमरे। इन कमरों के
अंदर दो और कमरे।
फिर एक बड़ी कोठरी अलग, जिसे नानाजी और मामाजी ने मिलकर खुद बनाया था, कड़ी से
छत बनाई थी। नानाजी यह कोठरी सबको खूब मन से दिखाते। फर्श पूरे घर में नहीं
था। माटी ही माटी, जिसे दबाने के लिए नियमित गोबर की लिपाई होती।
मुख्य दरवाजे के दोनों तरफ दो बहुत गहरान वाली दुकानें, दुकान अम्माँ ने किराए
पर चढ़ा रखी थीं। एक में दाँतों का डाक्टर था। दूसरी दुकान काफी समय तक खाली थी
और गरमी की छुट्टी में वहाँ चारपाई डालकर हम लोग दोपहर में सोते, या दिन में
सड़क पर आवाजाही देखते। यह बड़ा मजेदार होता।
सुबह नाश्ते के समय रमास वाला ठेला निकलता। रमास राजमे की शक्ल का आकार में दस
गुना छोटा होता है। मम्मी को रमास बहुत पसंद, हरे हरे पत्ते पर रमास की सोंधी
चाट बनती। मुँह में पानी आ जाता। फिर उबली हुई मटर का ठेला निकलता, उससे भी
पचीस पचीस पैसे की चाट बच्चों के हिस्से में आती। दोपहर को कुल्फी वाला
निकलता, उसका तो जैसे पूरा कस्बा इंतजार करता। प्लास्टिक के कपों में जमी दूध
कुल्फी को वह चाकू से निकालता और गाढ़ी टपकती कुल्फी हाथ में पकड़ा देता। आह
उसकी ठंडी महक नाक को ठंडा करती हुई सीधे पेट तक पहुँच जाती। फिर शाम को चाट
वाला। हम पड़ाके खाते। पड़ाके, यानी मुँह में रखते ही पड़ाक हो जाते। मम्मी खट्टी
चटनी के साथ आलू की टिक्की लेतीं।
हम अम्माँ के यहाँ गर्मी की छुट्टियों में जाते थे, क्योंकि तब मम्मी के स्कूल
की जून भर छुट्टी रहती। पर मुझे याद नहीं कभी मेरा पसीना बहा हो, या मैंने
गर्मी की शिकायत की हो। क्या उस समय गर्मी नहीं पड़ती थी।
अम्माँ के यहाँ बिजने के नए नए डिजायन, एक से एक सुंदर, रंगीन किनारियों वाले।
डंडी को हल्का सा हिलाते रहो तो खुद घूमने वाले। ये बिजने रोल भी हो जाते। हम
शौकिया बिजना डुलाते।
देहरी वाली गैलरी में दिन भर फर फर हवा बहती। कभी सड़क की तरफ से आती और आँगन
में पड़ी नीम की पत्तियाँ एक ओर फिसलने लगतीं, कभी नीम अपनी हवा डुलाते। जून की
तपती दोपहरी इन पेड़ों की ठंडी छाँव तले बीतती थी। इन पर हम झूला डालते। पानी
बरसता तो पेड़ के नीचे खड़े हो जाते। मूसलाधार पानी बरसता। साफ शफ्फाक झरना सा
गिरता रहता। तेज आवाजों से बारिश होती। पेड़ धुल के निखर जाते। आज वे नहीं हैं।
उनमें से एक भी नहीं।
मेरी यादों में यह सीन जन्नत की तरह बसे हैं। रात जादू सी लगती। हम छत पर दरी
बिछा के सोते। अगल बगल सब छतें मिली हुई थीं। खूब चाँद को देखते। एक थाल तारों
जड़ा, सबके सर पर औंधा पड़ा - मम्मी सुनाती।
हम सच में तारे गिनते। सप्तर्षि देखते। ध्रुवतारे के लिए रात के 12 बजे तक
इंतजार करते हुए सो जाते। रात 12 तक जगना तब कितना कठिन था।
ये यादें सच बहुत टीसती हैं। अब वहाँ नीम नहीं हैं। घनी छाँव नहीं है। वो मेरी
नानी का घर था। अब नानी भी नहीं हैं।
बस यादें हैं अम्मा की बुलंद आवाज की। मेरी अम्मा किसी से नहीं डरती थीं।
अम्मा नानाजी, बलदेव नानाजी की दुकान की जलेबियाँ, मिल्क केक...। सच अब वो सब
नहीं रहा। अब वो सब कभी वापस आएगा भी नही।
वो तीन पेड़ मेरी यादों में बसे हैं। तब से कुछ पेड़ लगाए हैं पर उतना बड़ा और
घना पेड़ कोई नहीं देखा। कितनी चिड़ियाँ कितनी गिलहरी और लाल चींटे रहते थे उस
पर।
कमाल है उन पेड़ों पर हमने कभी कुरेद कर अपना नाम नहीं लिखा।
अब सोच रही हूँ वे पेड़ नहीं हैं। क्या वे किसी के घर की चौखट में जड़े होंगे या
दरवाजा बन कर खड़े होंगे। जो भी है लेकिन उनसे कम से कम सौ जोड़ी दरवाजे तो बने
ही होंगे। या वे तख्त बने होंगे या बल्लियाँ... पता नहीं!!
स्नानघर के ऊपर मीठे रसीले अंगूरों की बेल भरी रहती। मैं पूछती अम्माँ ये बेल
किसने लगाईं। अम्माँ कहतीं तेरी मम्मी ने। तो मैं खूब निश्चिंत हो जाती कि यह
मेरी बेल है।
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नानाजी की गल्ले की दुकान थी। गंजडुडवारा रोड पर, दुकान के सामने माता का
मंदिर। गंजडुडवारा जाने वाली बसें दुकान के सामने ही रुकतीं। नानाजी घर से
सफेद कुर्ता, सफेद धोती पहन कर दुकान के लिए निकलते। दोपहर में वे कुर्ता
उतारकर दुकान में टाँग देते और सदरी पहने रहते। सदरी आधी बाँह की बिना बटन की
ढीली ढाली कॉटन टी शर्ट समझिए। नानाजी को मैंने कम ही बोलते देखा था। वेकेवल
गल्ले से संबंधित बातें ही करते। बाकी किसी के घर द्वार की टीका टिप्पणी न के
बराबर।
दुकान में गेंहूँ, बाजरा, मक्का, जौ, कपास, रमास, मटर जैसे अनाजों की बोरियाँ
रखी रहतीं, अंदर खूब बड़ा तराजू, जिस पर मैं अक्सर अपना वजन तोला करती। उस
तराजू पर हम तीनों भाई बहन इकट्ठे चढ़ जाते फिर भी सौ किलो का बाँट रखा पलड़ा
हिलता तक नहीं था। मैं दस किलो का बाँट भी मुश्किल से उठा पाती। नानाजी जब बड़ा
वजन तोलते तो भारी बाँट रखने के लिए छोटे मामाजी को आवाज देते। बाँट में बीच
में पकड़ने के लिए लोहे की मोटी छड रहती।
मुझे दुकान पर मजा आता था। मैं संदूकची पर बैठ जाती। नानाजी उसी में पैसा रखते
थे, ढेर सारे नोट और सिक्के। अगर मैं दुकान पर जाऊँ तो अठन्नी मिलना तय थी। वो
अठन्नी पूरे दिन चलती थी। दुकान पर ग्राहक आते। नानाजी से भाव कम करने को कहते
तो मुझे बहुत बुरा लगता। मैं नानाजी को बोलती, नानाजी वो अच्छा आदमी नहीं है,
आप पैसे कम मत किया करो। हम उसे सामान नहीं बेचेंगे। नानाजी कहते ठीक है। और
फिर जब वह लौट के आता तो उसे बेच भी देते।
दुकान पर दिन भर बोरियों में अनाज भराई और सूजे सुतली से उनकी सिलाई का काम
होता। मूँज भी भरी रहती। आदमी से लंबे-लंबे गट्ठर जिनके मुँह पर गाँठें बँधी
होतीं, दीवार के सहारे खड़े रहते। घर पर भी कभी अरहर पूरे घर में पसरी रहती,
कभी बाजरा। अरहर घर में ही पीटी जाती, फिर उसमे से दाने अलग होते, फिर सूप से
फटक कर धुल और मिट्टी निकाली जाती, तब बोरियों में भरी जाती, और कासगंज मंडी
में बिकने जाती।
घर और दुकान दोनों जगह सीजन के अनुसार अनाजों की महक भरी होती। ऐसे ही बाजरा
आता। मामी बाजरे को चूल्हे में भूनतीं, फिर सूप में फटका जाता। मम्मी ऐसे
बाजरे की बालें और मक्का बड़े चाव से खातीं थीं। बाजरे की रोटी, मक्के की रोटी
दूध में बड़ी स्वादिष्ट लगती। गेंहूँ की मोटी पानी वाली रोटी भी घी नमक से बहुत
पसंद की जाती।
नानाजी कम बोलते थे, पर जो भी बोलते थे बहुत स्पष्ट और जोर से बोलते। मुझे याद
नहीं उन्होंने कभी डाँटा हो। नानाजी के घर के सामने तीन चार दुकानें जोड़कर एक
अस्पताल बना हुआ था, वहाँ खूब बड़े अक्षरों में लिखा रहता - पॉली क्लीनिक।
मामाजी बताते पॉली यानी कई बीमारियों का इलाज करने वाला क्लीनिक। वहाँ के युवा
डाक्टर फुर्सत में हमारे घर की दुकानों के चबूतरे पर आ बैठते।
दोपहर में अम्माँ नानाजी को खाना पहुँचाने दुकान आतीं। पीतल के कटोरदान में
रोटी, साथ में कटोरी में घी, तरकारी और दाल। इतना सामान रखने के लिए एक बड़ी
डलिया होती। अम्माँ जब दुकानपर पहुँचतीं, तब नानाजी दुकान से हिलते डुलते।
माता के मंदिर पर लगे नल सेहाथ मुँह धोते, लोटे में ठंडा पानी लाते, तब तक
दुकान के अंदरूनी हिस्से में अम्माँ खाना परोस देतीं। फिर नानाजी खाना खाते,
अम्माँ बिजना डुलाती रहतीं, और बतातीं बहू से काम कराना कितना मुश्किल है।
नानाजी बस हूँ हाँ करते।
नानाजी गठे हुए शरीर के थे। माथे पर सलवटें पड़ी रहतीं, कभी-कभी पान खाते। वरना
कुछ भी नहीं। अपने सर पे हाथ फेरते। मैं भी नानाजी के सर पर हाथ फेरती तो उनके
नन्हें खूँटे जैसे सफेद बाल महीन ब्रश की तरह चुभते। वह पूरे दिन एकचित्त होकर
काम में लगे रहते। सूरज डूबने पर ही दुकान बढ़ाई जाती। छोटे मामाजी कभी दुकान
पर बैठते, कभी वे कासगंज मंडी गए होते।
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मम्मी को घर में सब लोग कस्मीरी पुकारते। पॉली क्लीनिक वाले डा. अशरफ मामाजी
हाल-चाल लेते - ऐ भैया, कस्मीरी आई है क्या। मम्मी अपने स्कूल की जून की
छुट्टियों में हम तीनों बच्चों को लेकर सहावर यानी अपने मायके आतीं। कभी कभार
बीच में भी आना हो जाता।
मुझे याद है उस समय सिर्फ चिट्ठियाँ चला करती थीं। तार देने का मतलब था कोई
बुरी खबर है। मम्मी सारी चिट्ठियाँ मुझसे ही लिखवातीं। कुछ पोस्टकार्ड, कुछ
अंतर्देशीय और कुछ लिफाफे। चिट्ठी की शुरुआत में आदरणीय नानाजी, या आदरणीय
मामाजी, या आदरणीय मौसी जी लिखना होता, हम सब कुशल हैं आशा है आप भी कुशल से
होंगे।
मैं इतना लिखने के बाद पूछती, मम्मी शुरू का हिस्सा लिख लिया अब बताओ क्या
लिखना है। चिट्ठी में खराब बातें नहीं लिखनी होती थीं। जैसे मम्मी अगर बीमार
हैं तो यह नहीं लिखना होता था। हाँ, पिछले दिनों बुखार आया था, अब सब ठीक है
चिंता की बात नहीं है। अंत में लिखना होता अम्माँ को नमस्ते, आपकी प्यारी
गुड़िया।
फिर मम्मी पता लिखवातीं - श्री बाबू राम तोमर, सहावर टाउन, जिला एटा। पिन
कोड...। जब मैं नानाजी के यहाँ जाती वहाँ मेरी लिखी सारी चिट्ठियाँ मिलतीं।
कमरे में एक लोहे का तार मोड़ कर लगाया हुआ था, उसी में सारी चिट्ठियाँ पिरो दी
जातीं, उसी में बिजली का बिल भी पिरोया होता। उसमें बड़े मामाजी की चिट्ठियाँ
भी पिरोई होतीं।
एक बार तार आया था तब नानाजी सीढ़ी से गिर गए थे। डा. मामाजी हमें लेने आए।
मम्मी रास्ते भर रोती रहीं, डा. मामाजी से पूछती रहीं, भैया, सही बता दो
पिताजी हैं तो न। मामाजी बोले हाँ, जिंदा हैं। मम्मी बोलीं तो तुम क्यों लेने
आते, तुम आए इसका मतलब ही है कि कोई बड़ी बात है जो तुम छिपा रहे हो। मम्मी के
स्कूल की साथी अध्यापिकाओं ने मम्मी को बहुत दिलासा और हौसला दिया कि जाओ सब
ठीक होगा। पर मम्मी रास्ते भर आँसू पोंछती रहीं। आठ घंटे की यात्रा के बाद जब
सहावर पहुँचे तो नानाजी मिले। वे बीमारी की वजह से कमजोर हो गए थे, लेकिन बोल
और समझ पा रहे थे। बाद में ठीक हो गए थे।
चिट्ठी आम तौर पर चौथे दिन पहुँच जाती थी। अम्माँ नानाजी को पता होता था कि आज
हम लोग पहुँच जाएँगे। कासगंज से आखिरी गाड़ी तूफान रात में ग्यारह से बारह के
बीच सहावर पहुँचती, मात्र एक मिनट रुकती। तूफान कासगंज से आने वाली आखिरी
ट्रेन थी। जब वह भी गुजर आती तो अम्माँ उदास हो जातीं - आजऊ आई नाय कस्मीरी।
कछु काम लग गओ होएगो। हम समय से नहीं पहुँचते तो अम्मा कहतीं, लली तीन दिन से
द्वारे देखत रए, कि अब आय रई होएगी। आज नाय आती तो मैं छोटे मामाजी को पठैती
(भेजती)।
हम घर पहुँचते तो पूरी फिजा हमारे आने से खुश हुई मिलती। अम्माँ बार-बार मेरी
हाथ को दोनों तरफ से चूमतीं, माथा चूमतीं, गले से लगातीं, मम्मी को खूब
दुलारतीं, नानाजी देर तक सिर पर हाथ फिराते। अम्माँ कहतीं ऐ लली। बड़ी लट गई
है। (लटना यानी दुबले होना)
जितना आने पर स्वागत होता, जाने पर खूब रोना धोना होता। पहले मम्मी के बक्से
देहरी तक पहुँचाए जाते, फिर गेंहूँ, चावल, बाजरा, मक्का, दालें, अचार, घी,
दूध, सब जाने कैसे कैसे बाँध-बाँध के बोरो में रखे जाते। कासगंज जाने वाली बस
को हाथ देने मामाजी घर के बाहर खड़े हो जाते। इस बीच अम्माँ की रुलाई का बाँध
फूट पड़ता, मम्मीअम्माँ के गले लग कर खूब रोतीं, फिर मामीजी से लगकर रोतीं,
नानाजी और मामाजी आँसू पोंछते हुए चुपाते। नानाजी कहते - लली कोई परेसानी होय,
बेटा फौरन चिट्ठी लिखिए। अभई तेरे माँ बाप दोनों जिंदा हैं। तोय कोई सताए तो
हमाओ खून जरत है बेटा। तोय बड़े प्यार से पालो है लली। तू दुखी रहेगी तो तेरे
अम्माँ बाप तो ऐसेई मर लिंगे बेटा। तू तो पड़ी-लिखी लरकिनी है। रोइए मत।
अम्माँ मुझे समझा देतीं - तू अलग से चिट्ठी लिख देओ कर लली। मम्मी को दुखी मत
रैन दियो। तेरे पापा कछु करैं तो फौरन बतैये। यह समय मुझ पर बहुत भारी बीतता।
मैं मम्मी को चुप कराना नहीं जानती थी। मैं हमेशा सोचती इस बार हम बिना रोए
चले जाएँ तो कितना अच्छा हो। बस में सामान चढ़ाया जाता, विदाई रुदन और तेज हो
जाता और फिर बस के एक्सीलेटर के शोर में डूब जाता।
सहावर स्टेशन से गाड़ियों की सीटी घर में साफ सुनाई देती। मामाजी बताते अब
तूफान निकल रओ है। आधी राति है गई है। ऐ लली सो जा बेटा। फिर सवेरे बलदेव
नानाजी की जलेबी लेन न चलेगी बेटा।
जब मम्मी नानाजी के यहाँ आतीं, बिलकुल बदल जातीं। मैं ज्यादा चिल्ल पों करती
तो ध्यान ही न देतीं। जिद्द करती तो भी रोता छोड़कर अपनी सहेली से मिलने चली
जातीं। हर समय चहकती रहतीं। गर्मियों की सालाना छुट्टी में मुश्किल से बीस दिन
के लिए मम्मी का मायके आना हो पाता। मम्मी इन दिनों की निश्चिंतता, स्नेह,
खुलेपन को भरपूर जीतीं। तब वे हमारी मम्मी न होकर सिर्फ कस्मीरी हो जातीं। कभी
अपनी सहेली अकीला बेगम के घर जातीं, कभी नर्गिस के घर जातीं। इन सबने मम्मी के
साथ बीटीसी किया था। अब सब टीचर हो गई थीं। मम्मी ने इंटर करने के बाद बीटीसी
किया, और अठारह साल की उम्र में उन की पहली नियुक्ति बाछ्मई के पूर्व माध्यमिक
विद्यालय में हुई थी। तब नानाजी मम्मी को स्कूल पहुँचाते और लेने जाते।
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मैं आँगन में नीम के पेड़ के नीचे खड़ी थी। गुसलखाने के पीछे। छोटे मामाजी बीड़ी
पीते हुए बाहर से आए। कई बार वे मुझ से भी कह देते - बेटा जा, बीड़ी जरा केला
चूल्हे से। मुझे इसी में बड़े गर्व का एहसास होता। जैसे कोई बड़ा काम कर दिया
हो। तब मैं मुश्किल से छ-सात बरस की होऊँगी। मामाजी मुझे देखकर अचानक रुके -
इतै क्यों ठाड़ी है बेटा? काऊ ने कछु कै दई का...।
मैंने न में सिर हिलाया। मामाजी ने सिर पकड़ के बड़े प्यार पूछा - बीड़ी पियैगो
हाथी? वे मुझ पिद्दी को हाथी क्यों कहते पता नहीं, मुझे हाथी सुनने में भी मजा
ही आता। मैंने दुविधा में पड़ गई। मामाजी ने बीड़ी बढ़ा दी - ले पी। मैंने बीड़ी
मुँह से लगा ली और बीड़ी में बाहर की तरफ फूँक मारी। मामाजी बोले - ऐसे ना। ला
मैं बताऊँ तोय... बीड़ी मुँह में दबा और अंदर साँस खैंच कस कै...
पहली बार में मुझसे नहीं हुआ। दूसरी तीसरी बार भी नहीं। मामाजी ने फिर उत्साह
बढ़ाया। अबकी मैंने सुलगती हुई बीड़ी मुँह में दबा के अंदर की तरफ भरपूर साँस
खींची। और उसी के साथ ढेर सारा धुआँ फेफड़ों में भर गया। साँस ही वापस न आए।
खाँसते खाँसते मैं दोहरी हो गई। खाँसी सुन के मम्मी, अम्माँ, मामी जी सब दौड़े
आए। मुझे पानी पिलाया। सबने मामाजी को खूब डाँटा।
मम्मी तीन भाई बहन थे। एक भाई मम्मी से बड़े। एक मम्मी से छोटे। दोनों मामाजी
की शादियाँ हो चुकी थीं, पर बच्चे अभी नहीं हुए थे। बड़े मामाजी दौसा के किसी
डिग्री कालेज में थे। छोटे मामाजी खेत में काम देखते, और गल्ले में नानाजी का
हाथ बँटाते। बड़े मामाजी पैंट शर्ट पहनते। छोटे मामाजी हमेशा सफेद कुर्ता
पाजामा पहनते और बीड़ी पीते।
छोटे मामाजी मुझे अपने साथ खूब घुमाते। उनकी साइकिल के कैरियर पर बैठ कर मेरी
एड़ी चलते पहिये की जद में आ के कट गई। खून बहा। पट्टी बंधी। मामाजी साइकिल पर
बैठा कर खे तले जाते। ट्यूबवेल और नहर दिखाते। ट्यूबवेल से पानी इतना तेज
निकलता कि मैं उसकी धार में टिक न पाती। खेत में थ्रेशर चल रहा था। उसके मुँह
से अनाज का छिलका धूल के बवंडर की तरह फिंका जा रहा था। मैं उसके सामने से
गुजरी। सब हट हट कह कर चिल्लाए। मेरी समझ में नहीं आया, ये लोग क्या कहना चाह
रहे हैं। तब तक मैं छिलके वाली धूल से तर-बतर हो गई। आँख, नाक, कान, बाल मुँह
सब धूल से भर गए।
एक बार मेरी दाढ़ में खूब दर्द हुआ। मामाजी खेत में किसी को दिखाने ले गए। कोई
हकीम थे शायद। उन्होंने पूछा - मीठा बहुत खाया। मैं कुछ नहीं बोली। हकीम साहब
बोले मुँह खोलो। फिर मुँह में कोई चिमटी या पिन जैसी कोई चीज डाली। बोले कीड़ा
लगा है। थोड़ी देर में हकीम साहब ने दाढ़ से निकाल कर मेरी हथेली पर कुछ रख दिया
- यह रहा तेरी दाढ़ का कीड़ा। मैंने कहा मामाजी लेकिन मेरा कीड़ा तो चल नहीं रहा।
मामाजी बोले - मरि गऔ लली। जेई काटत तौ बेटा। अब न पिराएगो।
नानाजी के घर के एक तरफ कोल्हू चलता था। पूरे समय बैल बेचारा चक्कर लगाता।
वहाँ अरंडी का तेल निकलता। अरंडी के छोटे काले बीजों की कड़वी महक हमारे घर भी
आती। कभी वहाँ सरसों पिराई जाती। ग्राहक अपना बीज लाते और पिरवा कर तेल ले
जाते। खली भी बिकती। नानाजी जानवरों के लिए खली लेते थे। उसे गाय भैंस के चारे
में मिला देते। नानाजी गाय भैंस के तीन थन दुहते, एक थन उसके पड़िया या पड़वे
के लिए छोड़ते।
छोटे मामाजी का नियम था कि जब वे बाहर से आते सब से पहले देहरी के बगल छप्पर
में बँधी गाय भैंस को दुलारते। वे कहते कैसो है बेटा? तो जानवर रँभाते। मामाजी
नल चला कर कई कई बाल्टी पानी भरते, फिर उन्हें रगड़ के नहलाते। सानी लगाते।
घर के दूसरी तरफ रमजानी नानाजी की टाल थी। वे चारखाने का तहमद और कमीज पहने
टाल पर बैठते। टाल बहुत बड़ी थी। बल्लियाँ ही बल्लियाँ। आरा मशीन चलती। लट्ठे
के ऊँचे ढेर लगे होते। बाँस की भरमार। बड़े बड़े काँटे। वह पूरी जगह चहल पहल से
बहरी रहती। कभी तख्त बनते, कभी दरवाजे। मुझे आरे वगैरह के बीच से गुजरना अजीब
लगता पर उनके घर मेरी मम्मी मिलने जाती थीं। मम्मी रमजानी को चाचा कहतीं और
उनकी पत्नी को चाची। जब मम्मी बड़ों के बीच बैठतीं मुझे भगा देतीं। कहतीं
बच्चों को बड़ों के बीच नहीं बैठना चाहिए।
नुक्कड़ की दुकान की कचौरी गजब होती। वह हरे पत्ते के दोने में कचौरी पर आलू की
तरकारी डाल कर देता। कितनी भी कचौरी खाओ मन ही नहीं भरता। अम्माँ एक रुपया
देकर कहतीं जा अपने लय किशमिश लय आ। कागज के जरा से टुकड़े में लिपटी किशमिश
मुँह में पानी ले आती। मैं खूब देर तक खाती।
वहाँ मंगल का बाजार लगा करता था। शनिवार का भी। मुझे दोनों दिनों का खूब
इंतजार रहता। बाजार में यूँ भी मजा आता। हर तरफ नई नई चीजें, लाल लाल फरफराते
रिबन, चलते फिरते लोग, बाजार की धूप, बाजार की छाँव। बाजार का सब कुछ अपनी तरफ
खींचता।
लेकिन सब से ज्यादा इंतजार रहता किताबों की दुकान लगाने वाले का। बड़ी दुकानों
के नीचे वह अपना बोरा बिछा कर उस पर रंग-बिरंगे कवर वाली किताबें सजा देता। इन
किताबों में सब कुछ था। बाजार से भी ज्यादा मोहक और जादू से भरा। मैं पूरी
दोपहर यहीं उकड़ूँ बैठी तपस्या करती, जब तक कि शाम को घर वाले खोज बीन मचा के
ढूँढ़ न लेते। यहाँ विक्रमादित्य नाम के राजा की कहानियाँ थीं, कैसे बत्तीस
कठपुतलियों ने सवाल पूछे और फिर आखिरी कठपुतली सिंहासन लेकर उड़ गई। यहीं तोता
मैना की कभी खत्म न होने वाली कहानियाँ पढ़ीं। तोता कहता था स्त्री बेवफा होती
है और उसके पक्ष में कहानी कहता। मैना कहती पुरुष वफादार नहीं, और फिर वो
कहानी कहती। ये कहानियाँ चलती ही रहतीं। शाम हो जाती, मंगल खत्म हो जाता,
शनिवार का इंतजार, फिर मंगल...। पर कहानी चलती रहती। पंचतंत्र की अनोखी
कहानियाँ यहीं पढ़ीं और जानवरों की बुद्धिमत्ता पर भरोसा हो गया। किताब में
लिखा सब कुछ सच्चा लगता था।
मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं इन किताबों को खरीद सकूँ। और मम्मी की तरफ
से कहानी की कैसी भी किताब पढ़ने की इजाजत भी नहीं थी। यहीं जादूगर मैन्ड्रेक
की कहानी पढ़ी, फैंटम पढ़ा। घर में किसी कोने कतरे में एक छोटा उपन्यास मिला था।
उसका पहला और अंतिम पन्ना गायब था। उसमें एक ऐसी मशीन की कहानी थी जिसमें
बैठकर आदमी समुद्र के अंदर कई महीने रह सकता था। उस मशीन का नाम नौटिलस था।