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उपन्यास

तबादला

विभूति नारायण राय


प्रान्तीय खंड, सार्वजनिक निर्माण विभाग नामक इस कार्यालय में अगल-बगल स्थित कई दर्जन सरकारी कार्यालयों की तरह पहले भी कोई काम नहीं होता था, आज भी नहीं हुआ। फर्क सिर्फ इतना आया कि आज बाबुओं और अफसरों ने कामचोरी के साथ रहस्य, रोमांच और सनसनी में पूरा दिन बिताया। शुरुआत रहस्य से हुई।

दफ्तर का नियम था कि सवा नौ बजे से इसके धूल से अटे और पान की पीक से अमूर्त चित्रकला गैलरी का भ्रम पैदा करनेवाले बरामदों में चलह-पहल शुरू होती थी। सवा नौ बजे फर्राश नामक कर्मचारी कहीं से प्रकट होता था। इसका काम था दफ्तर के कमरों के अन्दर की मेज-कुर्सियों की सफाई। वह आकर दफ्तर की किसी सीढ़ी पर बैठ जाता और अगल-बगल की सीढ़ियों और दीवालों पर अपने मुँह से भरे तम्बाखू की पीक से कुछ नई चित्रकारी करता रहता। बीच-बीच में वह हवा में मुँह उठाकर कुछ अस्पष्ट-सा बुदबुदाता। दफ्तर की दीवार पर छप्पर टिकाकर चलनेवाली चाय की दुकान के जो नियमित ग्राहक उसकी अलंकरणों से भरी भाषा समझते थे, वे जानते थे कि वह इस दफ्तर के चौकीदार नामक एक दूसरे कर्मचारी के परिवार की महिलाओं से इस बात के लिए अन्तरंग सम्बन्ध कायम कर रहा था कि चौकीदार को इस समय तक दफ्तर के सारे दरवाजे खुले रखने चाहिए थे, पर उसका कहीं पता नहीं था। फर्राश की बातों से यह रहस्य भी उद्घाटित होता था कि चौकीदार की नालायकी से उसकी कर्तव्य-परायणता में बाधा पहुँच रही थी। वह चाहता था कि दफ्तर के कमरे चमाचम चमकते रहें और इसके लिए आवश्यक था कि चौकीदार उसके दफ्तर पहुँचने तक सारे दरवाजे खोलकर रखे। थोड़ी देर बाद तो बाबू लोग आने लगेंगे और उसके किये-धरे पर पानी फेरेंगे ही लेकिन उसके पहले वह अपना कर्तव्य पूरा कर ही लेना चाहता था। चौकीदार के गायब होने से उसकी यह सदिच्छा पूरी नहीं हो पा रही थी। फर्राश को जाननेवाले जानते थे कि उसकी यह भावना अकादमिक अधिक थी और अकादमिक होने के कारण सच्चाई से उसका कुछ लेना-देना नहीं था। आज भी यही सब हुआ। आज भी वह तब तक बड़बड़ाता रहा जब तक चौकीदार आ नहीं गया और जब चौकीदार ने आकर कमरे खोलने शुरू किये वह दफ्तर की दीवाल से सटी चाय की दुकान पर चला गया और उसने दिन-भर में दूसरों के पैसे से पी जानेवाली पच्चीस-तीस कप में से पहले कप चाय का हुकुम सुनाया।

इसके बाद चौकीदार ने एक-एक कमरे का दरवाजा खोलना शुरू कर दिया और वायुमंडल रोज की तरह फिर एक बार अज्ञात महिलाओं की शान में गूँजनेवाली कसीदाकारी से भर उठा। इस बार ये महिलाएँ फर्राश के परिवार की थीं। चौकीदार की बातों को सच माना जाय तो उसके मुखारविंद से निकले वाक्यों से कुछ इस तरह के नतीजे निकलते-यह पूरा दफ्तर कामचोरों से भरा हुआ है, फर्राश उनमें सबसे बड़ा कामचोर है, चूँकि सरकार ने फर्राश की तनखाह काफी कम रखी है लिहाजा उसके परिवार की महिलाओं को तरह-तरह के ऐसे काम करने पड़ते हैं जिनका वर्णन कर वह अपनी जुबान गन्दी नहीं करेगा, यह दफ्तर सिर्फ बड़े साहब और चौकीदार के बल पर चल रहा है और जैसा कि जमाने का चलन है, लोग उसकी अहमियत नहीं समझ पा रहे हैं, वगैरह वगैरह। इस बीच में इक्का-दुक्का बाबू, ठेकेदार, दलाल आदि आने शुरू हो जाते हैं। उन्हें देखकर चौकीदार का स्वर थोड़ा और ऊँचा हो जाता है, पर उनमें से ज्यादातर उसकी बात सुनकर अपनी कमीज पर से धूल झाड़ने लगते हैं या अधिक से अधिक किसी काल्पनिक मक्खी को उड़ाने में मशगूल हो जाते हैं।

आज भी इस दफ्तर में दिन की शुरुआत रोज की तरह हुई।

बाबू लोग आये और हालाँकि उन्हें दिन का काफी हिस्सा चाय की दुकान पर बिताना था, वे अपना-अपना झोला, रुमाल या तौलिया अपनी कुर्सियों पर फेंककर चाय की दुकानों पर चले गये।

कुछ दलाल और ठेकेदार आये और बरामदों में पान की पच्चीकारी करते हुए, कमरों में झाँकते हुए 'इस मुल्क में साला कोई काम नहीं करता' जैसा कोई अमूर्त सा वाक्य बड़ाबड़ाते हुए चाय की दुकानों पर चले गये।

दो जे.ई. एक बुलेट मोटरसाइकिल पर आये। उन्होंने दफ्तर के बाहर हच्च से मोटरसाइकिल रोकी, क्लच और एक्सीलेटर का कुछ ऐसा खेल खेला कि मनुष्य नामक प्राणी से शून्य दफ्तर की दीवालें और छत देर तक थरथराते रहे और फिर वे एक चाय की दुकान पर मोटरसाइकिल लेकर इस अन्दाज में चढ़ गये जैसे मध्य युग का कोई बिगड़ैल राजपूत सरदार अपनी प्रियतमा के स्वयंवर में पहुँचा हो।

किस्सा कोताह यह कि रोज की तरह आज भी सारी सड़कें चाय की दुकानों की तरफ जाती थीं।

ये चाय की दुकानें देश के किसी कोने में किसी सरकारी दफ्तर के सामने उग सकती थीं। यहाँ भी उग आयी थीं। यहाँ चूँकि सरकारी दफ्तर काफी संख्या में थे, इसलिए दुकानें भी बड़ी तादाद में थीं। ये दुकानें आवास और भूमि प्रबन्ध जैसी सरकारी चिन्ताओं का शाश्वत इलाज थीं। इनका मूलमन्त्र था-जहाँ भी दो गज जमीन मिले अपना छप्पर डाल लो। फिर उसमें चूल्हा, फर्नीचर और नल जैसी चीजें अपने आप समा जाएँगी। छप्पर को टिकाने के लिए बाँस-बल्ली के साथ-साथ सरकारी चारदीवारियाँ बहुतायत से थीं। दुकानों के लिए जमीन जैसी बेकार की चीज खरीदने की कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इफरात में चारों तरफ सरकारी जमीन पसरी हुई थी।

विपक्षी दल सही कहते हैं कि हमारी सरकार बहरी है क्योंकि अगर वह सुन सकती तो इन दुकानों से विस्फोट जैसी आवाजों में प्रसारित होनेवाले ये सन्देश अवश्य सुनती-

देश में जमीनों की कोई कमी नहीं है। जो जमीन सरकारी है, वो जमीन हमारी है।

सफाई, हाईजीन और इनसे मिले-जुले शब्द पश्चिम ने इसलिए गढ़े हैं कि वेदों जैसे महान ग्रन्थों के प्रणेता भारतीयों को बीच-बीच में शर्मिन्दा कर सकें, पर चूँकि शर्मिन्दगी हमारी राष्ट्रीय नीति के खिलाफ है इसलिए वे बकते रहते हैं और हम उनसे कर्ज लेकर उनकी बकवास मक्खियों, मच्छरों और तिलचट्टों के साथ मिलाकर चाय के कप में परोसते रहते हैं।

समोसा नामक एक राष्ट्रीय खाद्य इस देश में विकसित हुआ है जिसके लिए आवश्यक कच्चा माल पूरे देश में बहुतायात से मिलता है। यह पहला राष्ट्रीय आहार है जिसमें आलू के साथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक की धूल और लीद मिलाई जा सकती है।

सरकार इतने महत्त्वपूर्ण सन्देशों की उपेक्षा करती है, लेकिन जिम्मेदार शहरी के रूप में दफ्तरों के बाबू, चपरासी और फरियादी अपने दफ्तरी समय का अधिकांश हिस्सा इन चाय की दुकानों पर बिताते हैं और राष्ट्र के नाम प्रसारित होनेवाले इन सन्देशों को पूरी तन्मयता से सुनते रहते हैं।

रोज की तरह बड़े बाबू की साइकिल नियत समय पर दफ्तर में घुसी। फर्राश न जाने कहाँ से प्रकट हो गया। उसने झुककर नमस्कार किया और साइकिल पकड़ ली। बड़े बाबू ने निर्विकार भाव से उसे देखा और नमस्कार का उत्तर नहीं दिया। उन्हें पता था कि फर्राश ने प्रोविडेंट फंड से उधार के लिए अर्जी लगा रखी है और कागज बड़े बाबू के पास है। इसलिए उसके नमस्कार का उत्तर नहीं देना ही उचित था। फर्राश ने साइकिल ऐसे स्थान पर खड़ी कर दी, जहाँ से बैठे-बैठे बड़े बाबू उसे देख सकें। उसने साइकिल में ताला लगाकर चाभी बड़े बाबू को दे दी। रबड़ की जंजीरवाला ताला बड़े बाबू ने खुद लगाया और फर्राश के लगाये ताले को हिला-डुलाकर सुनिश्चित किया कि ताला सही लगा है। फिर वे अपनी सीट पर बैठे गये।

कमरा खाली था। पहले बड़े बाबू भी आते ही कुर्सी पर अपना झोला रखकर चाय की दुकान पर चले जाते थे, पर बड़े बाबू होने के बाद से नहीं जाते। उनके लिए चाय-समोसा यहीं आ जाता है। दिन में जरूर तीन-चार बार ठेकेदारों या जूनियर इंजीनियरों का अनुरोध मानकर वे इन दुकानों पर चले जाते हैं। आते ही चाय की दुकान पर जाने से दफ्तर के अनुशासन पर बुरा असर पड़ता है, ऐसा उनका मानना था।

आज भी वे खाली कमरे की अपनी कुर्सी पर बैठे अपनी साइकिल निहार रहे थे। बीच-बीच में किसी बाबू या चपरासी के अन्दर झाँकने पर सामने पड़ी फाइल के पन्ने उलटने लगते थे। उनका मानना था कि उनके इस तरह नियम से कुर्सी पर बैठने से दफ्तर का अनुशासन सुधरेगा और बाबुओं में कार्य करने की प्रवृत्ति पैदा होगी। बाबुओं की राय दुर्भाग्य से इस मामले में बिलकुल उलटी थी, इसलिए रोज की ही तरह वे अन्दर बैठे रहे और बाबू दुकानों पर मटरगस्ती करते रहे। तभी उस रहस्य और रोमांच की शुरुआत हुई जिससे अगले कुछ दिनों तक इस दफ्तर की जिन्दगी प्रभावित होने जा रही थी।

अभी दस बजने में पाँच मिनट बाकी थे कि दफ्तर में बड़े साहब की जीप घुसी और पोर्टिको में जाकर खड़ी हो गयी।

दफ्तरों में बड़े साहब लोग दस बजे नहीं आते, उनका आने का वक्त ग्यारह-साढ़े ग्यारह के बाद शुरू होता है। कभी-कभी दोपहर बाद भी हो सकता है। खास तौर से ऐसे बड़े साहबों के लिए जिनके काम में दौरों की गुंजाइश होती है, दफ्तरों में बैठने का समय निर्धारित नहीं किया जा सकता था। इस दफ्तर के बड़े साहब को भी दौरे करने पड़ते थे, इसलिए उनके दस बजे के पहले दफ्तर पहुँचने पर छोटा-मोटा तूफान-सा आ गया।

बड़े साहब के कमरे को खोलने और साफ करने का काम उनका चपरासी करता था। वह चाय की दुकान पर था। सबसे पहले वह भागा।

साहब ने अपने दरवाजे के सामने खड़े होकर चारों तरफ नजर दौड़ायी। उनका ड्राइवर बाहर की तरफ दौड़ा, पर आधे रास्ते में ही चपरासी से मुलाकात हो गयी। दोनों दौड़ते हुए दरवाजे तक आ गये। चपरासी ने ताला खोला, ड्राइवर पर्दा उठाये खड़ा हो गया और बड़े साहब अन्दर घुस गये।

बड़े बाबू ने बड़े साहब को अन्दर घुसते देखा तो बगल में एक फाइल दबाये उनके कमरे की तरफ लपक लिये। एक तो उत्सुकता-शमन का मामला था, दूसरे बड़े साहब को दिखाने का अच्छा मौका था कि इस दफ्तर में सिर्फ वे समय से आकर अपना काम शुरू कर देते हैं।

बड़े बाबू जब कमरे में घुसे तो चपरासी कमरे के फर्नीचर की जल्दी-जल्दी सफाई कर रहा था और साहब जेबों में हाथ डाले पंखे के नीचे खड़े हल्के-हल्के सीटी बजा रहे थे। सब कुछ सहज लग रहा था। बड़े बाबू को देखते ही बड़े साहब बड़े साहब बन गये। उन्होंने सीटी बजाना बन्द कर दिया। जल्दबाजी में साफ की गयी कुर्सी पर हाथ फेरते हुए वे बैठ गये। बड़े बाबू ने फाइल सामने रख दी, पर उसे परे सरकाते हुए वे बोले-

''एस.ई साहब पहुँचनेवाले हैं। आपके दफ्तर में तो ग्यारह बजे तक काम शुरू होगा। जाइए इन सब कमबख्तों को चाय की दुकानों से खदेड़कर अन्दर कीजिए। कुछ काम-धाम शुरू करें। कुम्भवाले बाबू से कहिए कि फाइल मुझे दे जाय। शायद उसी बारे में शासन को कुछ भेजना है।''

आदत के मुताबिक बड़े बाबू 'बहुत बेहतर' जैसा कुछ बुदबुदाये और बाहर निकल आये।

बाहर जो कुछ उनके साथ हुआ, उससे वे पाँच मिनट के अन्दर भागकर फिर बड़े साहब के कमरे में आ गये।

बड़े बाबू की कुर्सी के पास जो आदमी खड़ा उनका इन्तजार कर रहा था उसे वे जानते थे। वह लखनऊ मुख्यालय का चपरासी था। पिछले बीसियों सालों से वहीं था। वहाँ की डाक लेकर आता था। उसके दफ्तर में आते ही अफसरों से लेकर बाबू तक उसे अलग-अलग बैठाकर मुख्यालय की खबरें पूछा करते थे। उसकी अच्छी आवभगत भी होती थी। पर वह इतना सबेरे कभी नहीं पहुँचता था। लखनऊ से आनेवाली रेलगाड़ी नौ बजे तक आती थी। शहर में उसके दो-एक अड्डे थे जहाँ से वह नहा-धोकर बारह बजे तक आराम से डाक लेकर आता था। आज इतनी जल्दी कैसे आ गया - बड़े बाबू का माथा ठनका।

''क्या लाये सोनेलाल? इतनी जल्दी आ गये आज। कोई डाक है क्या?" मुख्यालय के चपरासी को भी विशिष्ट अतिथि का दर्जा हासिल होता है, यह बात बड़े बाबू ने अपनी लम्बी नौकरी में अच्छी तरह सीख रखी थी, इसलिए उनकी आवाज शहद घुली थी।

सोनेलाल चपरासी था तो मुख्यालय का पर पिछले बीस साल से इस दफ्तर में आ रहा था। इसलिए यहाँ के बाबुओं और चपरासियों से उसका आत्मीय किस्म का सम्बन्ध था। वह जब इस दफ्तर के कर्मचारियों से बात करता तो उसकी आवाज में थोड़ी ऐंठ जरूर होती थी, पर इस तरह की उजड्डता नहीं होती थी जो आज उसकी आवाज में बड़े बाबू के प्रश्न का उत्तर देते समय सुननेवालों ने महसूस की-

''इसे रिसीव कर लीजिए बड़े बाबू,'' उसने बड़े बाबू की तरफ एक लिफाफा बढ़ाया।

सीलबन्द खाकी रंग का लिफाफा बिच्छू के डंक की तरह हवा में झूलता रहा। बड़े बाबू के लम्बे दफ्तरी अनुभव ने उन्हें चौकन्ना कर दिया। आगे बढ़ाने की जगह उन्होंने अपना हाथ पीछे कर लिया।

''भैया, तुम इस दफ्तर में नये हो क्या? डाक तो डिस्पैचर कालिका रिसीव करता है। दे दो उसे,'' बड़े बाबू ने दयनीय स्वर में कहा।

''कालिका अभी आया नहीं। इस दफ्तर में सब साले कामचोर हैं,'' सोनेलाल ने उस गुरु-गम्भीरता से कहा जिसे मुख्यालय वाले अमूमन अपने सिर पर लादे चलते हैं।

''आप ही ले लीजिए बड़े बाबू। दफ्तर के बड़े तो आप हैं। सारा दफ्तर आप चलाते हैं।''

''नहीं भैया, इससे डिसिप्लिन बिगड़ जाती है। सबको अपना-अपना काम करना चाहिए।''

सोनेलाल ने बहुत समझाया कि इस दफ्तर में डिसिप्लिन नामक पदार्थ वैसे ही इतनी कम मात्रा में है कि बड़े बाबू के एक कागज ले लेने या न लेने से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, पर बड़े बाबू नहीं माने। सवाल सिद्धान्त का था। राष्ट्रीय बहसों की तरह यह बहस भी बिना किसी निष्कर्ष के घंटों चलती रह सकती थी, पर तभी इस बहस के सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र कलिका बाबू घटनास्थल पर प्रकट हो गये जो डिस्पैच क्लर्क का काम देखते थे और बड़े बाबू के सैद्धान्तिक आग्रह के अनुसार जिन्हें यह कागज रिसीव करना था।

''लीजिए कालिका बाबू आ गये। रिसीव कर लीजिए यह कागज,'' सोनेलाल ने लिफाफा उनकी तरफ बढ़ाया। इस बीच बड़े बाबू और कालिका बाबू की आँखों में न जाने किस प्रकार के सन्देश का आदान-प्रदान हुआ कि कालिका बाबू को प्रकृति की पुकार सुनाई देने लगी।

''बैठो सोनेलाल, चाय-वाय पीओ, हम अभी पेशाब करके आते हैं।''

एक बार फिर सैद्धान्तिक बहस होने लगी। कालिकाप्रसाद चूँकि बड़े बाबू की तरह पुरानी पीढ़ी का नहीं था, लिहाजा उसने दीन बनने से इनकार कर दिया। उसने सोने लाल को बताया कि दफ्तर दस बजे शुरू होता है और अगर वह कई घंटे से मारा-मारा फिर रहा है तो इसमें कालिकाप्रसाद की गलती नहीं है। फिर उसने बताया कि पेशाब करना एक मौलिक अधिकार है जिसे संविधान नामक किसी किताब में भी शरीक किया गया है। लेकिन सोनेलाल ने चूँकि इस किताब का अध्ययन नहीं किया था, इसलिए उसने यह मानने से इनकार कर दिया कि मुख्यालय के कागज से पेशाब करना ज्यादा महत्त्वपूर्ण था।

बड़े बाबू अपने स्वभाव के अनुसार दयनीय तटस्थता से लबरेज खड़े रहे और बहस में हस्तक्षेप से बचते रहे।

यह बहस भी पहली की तरह लम्बी खिंचती, पर चूँकि इसमें नयी पीढ़ी शरीक थी इसलिए आवाजें कुछ ऊँची हो गयीं। और, इसीलिए दूसरों को भी हस्तक्षेप का मौका मिल गया।

निर्णायक हस्तक्षेप साबित हुआ ऋषभचरण शुक्ल नामक सहायक अभियन्ता का। अफसर होने के कारण उसने मिठास और रौब दोनों का प्रयोग करते हुए कालिका बाबू को समझाया कि उसे लिफाफा फौरन ले लेना चाहिए क्योंकि मुख्यालय की डाक हमेशा महत्त्वपूर्ण होती है और दो-चार मिनट पेशाब रोकने से उसे डायबिटीज नहीं होनेवाली। अफसर के बीच में पड़ने से बड़े बाबू लिहाज में पड़ गये और कालिका बाबू ने भी यह भुनभुनाते हुए कि ''अब साहब कह रहे हैं तो ले लेते हैं,'' लिफाफा ले लिया और सोनेलाल की डाकबही पर दस्तखत कर दिया।

यह तो बड़े बाबू को बाद में समझ में आया कि सहायक अभियन्ता ऋषभचरण शुक्ल का दस बजे ही दफ्तर में उपस्थित रहना और बहस में निरपेक्ष भाव से हस्तक्षेप करना उतना निर्दोष नहीं था जितना उस समय लग रहा था।

इतनी बहस के बाद रिसीव किये गये लिफाफे में क्या था, सभी को जानने की उत्सुकता थी। डिस्पैचर सीधे लिफाफा लेकर बड़े बाबू के पास आ गया। इसी बीच बड़े साहब के दफ्तर में होने की खबर बाहर चाय की दुकानों तक पहुँच गयी थी और बरामदों और कमरों में पान की पीक की बारिश, शोर-शराबा, गाली गलौज और भाग-दौड़ जैसी गतिविधियाँ शुरू हो गयी थीं, जिनसे ऐसा लगने लगा था कि दफ्तर में काम शुरू हो गया है।

बड़े बाबू ने अपनी उत्सुकता छिपाते हुए लिफाफा खोला, कागज निकाला, ऊपर की दो-तीन लाइनें पढ़ीं और फिर से कागज लिफाफे में डाल दिया। उनके इर्द-गिर्द खड़े लोगों की उत्सुकता विस्फोटक बिन्दु पर पहुँचती कि बड़े बाबू झटके से अपनी कुर्सी से उठे और बड़े साहब के कमरे की तरफ लिफाफे के साथ लपक लिये।

काफी देर तक बड़े साहब के कमरे में उनके विश्वस्तों की बैठक चलती रही और बड़े बाबू कमरे से बाहर नहीं निकले। पर लिफाफे में बन्द कागज में क्या था, इसे जानने के लिए उनके निकलने की जरूरत भी नहीं पड़ी।

''लद गये न। बड़े तीसमार खाँ बनते थे,'' बड़े बाबू के पीठ फेरते ही सोनेलाल ने पिच्च से थूकते हुए कहा।

''कौन मैं...का बड़े बाबू फिर गये।''

''नहीं जी, ई ससुर बड़े बाबू के लिए सोनेलाल इतनी दूर से सीलबन्द लिफाफा लेकर नहीं दौड़ेंगे। अरे तुम्हारे बड़े साहब लद गये। अबकी चीफ साहब खुद लिफाफा थमा के बोले कि सोनेलाल सँभल के जाना किसी को कानोकान खबर न हो, नहीं तो साला फिर भाग जाएगा। जाते ही ऑर्डर रिसीव करा देना। पिछली बार की तरह न हो...''

सोनेलाल को पिछली बार का किस्सा सुनाने की जरूरत नहीं पड़ी। दफ्तर के सभी लोग उससे वाकिफ थे। पिछली बार बड़े साहब के तबादले का हुक्म लेकर चपरासी उनके घर सबेरे-सबेरे पहुँच गया। उसके लिए बाहर चाय भेजकर साहब पीछे की दीवाल से कूदकर भाग गये। काफी देर बाद चपरासी को बताया गया कि साहब तो पिछली रात ही अपनी बीमार माँ को देखने शहर के बाहर चले गये हैं और दो-तीन दिन बाद लौटेंगे। घर के लोग सरकारी कागज नहीं लेते हैं इसलिए चपरासीजी बाद में आएँ। तीन दिन बाद साहब तबादला कैंसिल कराकर लौटे। जितनी देर बड़े साहब के कमरे में बैठक चली ऋषभचरण शुक्ल के कमरे में दूसरी उच्चस्तरीय मन्त्रणा चलती रही।

इतिहास के अध्येताओं को इस बैठक को देखकर दकन से झपटकर आते हुए किसी ऐसे सूबेदार के दरबार का भ्रम हो सकता था जिसे आगरा पहुँचते-पहुँचते पता चल जाता है कि दिल्ली में उसके आका को गद्दी मिलनेवाली है। दिल्ली सामने है और सूबेदार आगरे में अपने खेमे गाड़कर जश्न की तैयारी शुरू करता है। ऐसे तमाम लोग जिनकी स्वामिभक्ति सन्देह के घेरे में थी, दिल्ली दरबार के पहले आगरा दरबार में अपनी-अपनी वफादारी की कसमें खाने हाजिर होते हैं।

आज सबसे पहले कालिका बाबू हाजिर हुए : ''मैं तो सरकार आज बाल-बाल बचा। मैं समझा ई ससुर सोनेलाल कोई रोजमर्रा की चिट्ठी लेकर आ गया है और बकबका रहा है। वो तो सरकार ने बचा लिया। सरकार डपटकर बोले कि ले लो कालिका तो हमने ले लिया नहीं तो हम बेकार फँसते।'' कालिका बाबू ने दाँत निपोरते हुए जो कहा उसका निहितार्थ यह था कि उन्हें गलत न समझा जाय। सोनेलाल का कागज पहले न लेने के पीछे उनका प्रकृति के प्रति उत्कट प्रेम अकेला कारण था। यदि उन्हें मामले का पता होता तो प्रकृति की पुकार अनसुनी कर वे कागज पर खुद ही झपट पड़ते।

सभी को पता था कि नये बड़े साहब बटुकचन्द उपाध्याय, सहायक अभियन्ता ऋषभचरण शुक्ल के दूर के साढ़ू लगते हैं। पिछला सत्ता-सन्तुलन उनके खिलाफ था। बाबू लोग उन्हें नमस्कार करते समय नाक से मक्खी उड़ाते थे। कोई जे.ई. सामने से उन्हें आते देखता तो उसे शाकभाजी का हिसाब याद आ जाता और वह इस तरह बुदबुदाने लगता कि रीतिकाल के कवि भी सनाका खा जाते। जिस तरह वे राधाकृष्ण के शृंगार का वर्णन करके कविताई और सुमिरन दोनों का भ्रम पैदा करते थे, उसी तरह बाबू बुदबुदाकर ऋषभचरण शुक्ल को यह आश्वस्त करते कि उन्होंने सामने पड़ने पर उनके प्रति अभिवादन रूपी सम्मान प्रकट कर दिया है और विरोधियों को बताया जाता कि कमबख्त बीवी इतनी लम्बी फेहरिस्त थमा देती है कि हर बार शुक्लजी के सामने पड़ने पर उन्हें याद करना पड़ता है।

आज दृश्य बदला हुआ था। लोगों को झुककर मेज के नीचे उनका पैर तलाशने में दिक्कत हो रही थी, इसलिए उन्होंने अपने पैर बाहर निकालकर फैला दिये। नायलान के मोजों को न जाने कितने हफ्तों से धूप या साबुन के दर्शन नहीं हुए थे इसलिए जूते से बाहर आते ही उन्होंने बदबू के भभूके के पंच लोगों की नाक पर मारे, पर कमरे में आनेवाले चेहरों पर उन्हें छूते समय स्निग्ध मुस्कान बनी रही। वे सत्ता पक्ष के चरणों पर चढ़े हुए थे इसलिए पूज्य थे।

बीच-बीच में ऋषभचरण शुक्ल कुछ सूचनाएँ भी हवा में पटाखों की तरह छोड़ते जाते थे।

''बस पहुँचनेवाले होंगे। हमें तो दो बजे रात जगाकर फोन पर बताया कि सुबह सात बजे चल रहे हैं।''

''इस बार बड़ी सावधानी रखनी पड़ी। ई साला लाला असली कायस्थ खोपड़ी का है। जरा भी भनक लगती तो अब तक लखनऊ होता। पिछली बार क्या हुआ था नहीं मालूम...।''

लोगों को पिछली बार का मालूम था। लेकिन फिर भी कोई बड़े साहब के घर तबादले का हुक्म सुबह पहुँचने और उनके पीछे के दरवाजे से निकल भागने का किस्सा सुनाने लगा।

''अबकी चीफ साहब ने एस.ई. साहब को लगा दिया है कि अपने सामने चार्ज करा दो। एस.ई. साहब पहुँच रहे होंगे।''

इस बीच विरोधी खेमे की भी बैठक शुरू हो गयी थी। उसमें पहुँचनेवाले हर नये योद्धा की खबर इस दरबार में पहुँच जाती। उनके साथ भविष्य में किस तरह का सलूक किया जाएगा इसकी घोषणा भी दरबार करता जाता था।

''इस साले रिजवानुल हक को पहली बार पता चलेगा कि ऊँट पहाड़ के नीचे आता है तो कैसा लगता है। साले ने पूरी नौकरी मुर्गा खिला के काट दी। मैंने भाई साहब से साफ-साफ कह दिया था कि अगर आपको मियाँ मुकड़ी का मुर्गा खाना है तो हमसे नहीं पटेगी। भाई साहब बोले कि भई जिन्दगी में बहुत मुर्गा खा लिया, अब कुछ दिन शाकाहारी रहेंगे।''

''बाबू ध्रुवलाल यादव बहुत दिनों तक ओवरसीयरी कर चुके। भाई साहब फिर इन्हें भैंस चराने भेजेंगे। भूल गया वो दिन जब इसी दफ्तर में भाई साहब ने बचाया था, नहीं तो कब का सस्पेंड हो गया होता। साले ने कमलाकान्त वर्मा की रिजीम में खूब पैसा चीरा है। अब पता चलेगा नौकरी कहते किसे हैं?"

''ई साला कनवा लल्लन राय। पत्रकार के नाम पर कलंक है। हमारे यहाँ पुरानी मसल है कि भूमिहार डंडे का यार। इन सालों को जूतों की नोक पर रखना चाहिए। पर नहीं साहब, कमलाकान्त तो अपने बेडरूम में घुसाये रहते थे। सबसे ज्यादा उनकी बदनामी इसी लल्लनवा के कारण हुई। पत्रकार है या दलाल। ऐसे लोगों को तो भाई साहब इस दफ्तर में नहीं घुसने देंगे।''

बड़े बाबू तो घर की मुर्गी साग बराबर थे। इस दरबार का नजला उन पर भी गिरा, पर वे मनसबदारों में इतनी निचली सीढ़ी पर माने गये कि बीच-बीच में उनका जिक्र जरूर आया और जिन शब्दों में आया उन्हें सुनकर उन जैसा स्वभाव से दब्बू आदमी भी उबाल खा जाता, पर वे हाशिए पर ही याद किये गये। उनकी हैसियत स्वतन्त्र रूप से गाली खाने की भी नहीं मानी गयी।

सार्वजनिक निर्माण विभाग के प्रान्तीय खंड के इस कार्यालय में सुबह-सुबह सोनेलाल नामक दूत के आने, कालिका बाबू द्वारा प्रारम्भ में उसका सन्देश ग्रहण करने से इनकार करने और बाद में ले लेने से जो रहस्य का माहौल बना था, वह तो बड़े बाबू के लिफाफा खोलने से समाप्त हो गया था। लेकिन अब वह धीरे-धीरे रोमांच में परिवर्तित हो रहा था। हिन्दी फिल्मों की तरह यहाँ सब कुछ निश्चित नहीं था। अन्त में कुछ भी हो सकता है। बटुकचन्द उपाध्याय को चार्ज मिल भी सकता है और नहीं भी। उन्हें चार्ज मिलने के बाद भी कमलाकान्त वर्मा आदेश रद्द कराकर वापस आ सकते हैं। कुछ भी हो सकता है।

बाहर चायखानों से लेकर दफ्तर के अन्दर तक सबको पता चल गया था कि एस.ई. साहब पहुँचनेवाले हैं। कमलाकान्त वर्मा के कमरे में बैठक अभी जारी थी। लोग दम साधे उस लमहे का इन्तजार कर रहे थे, जब दोनों पक्षों का आमना-सामना होगा। दफ्तर के लोगों को प्यारेलाल और कमलाकान्त वर्मा, दोनों के बीच के अन्तरंग सम्बन्धों का पता था, इसलिए उनकी मुलाकात का उन्हें दिलचस्पी से इन्तजार था।

सबको निराशा हुई। लोगों ने देखा कि कमलाकान्त वर्मा अपने दफ्तर से निकले और पूरी कोशिश से चेहरे पर ओढ़ी गयी निर्विकार तटस्थता के साथ अपनी गाड़ी में बैठकर रवाना हो गये।

फौरन बाद अधिशासी अभियन्ता के कमरे में से बड़े बाबू, रिजवानुल हक, ध्रुवलाल यादव और लल्लन राय निकले। सबके चेहरे गम्भीर थे। उन्हें पता था कि पूरा दफ्तर उन्हीं लोगों को देख रहा था। एक ऐसा रहस्य उनके सीनों में दफन था जिसे दफ्तर से लेकर चायखानों तक सभी लोग जानते थे, पर चूँकि सभी लोग उन्हें देख रहे थे इसलिए उन्होंने अपने चेहरे लटका लिये और सारे जहाँ का दर्द अपने जिगर में लिये अपनी चालें मन्थर कर दीं।

बड़े बाबू अपने कमरे तक पहुँचते-पहुँचते फिर से पुराने, दयनीय बड़े बाबू बन गये। फर्क सिर्फ इतना आया कि बवासीर का उनका पुराना रोग तेज दर्द की लकीरों के रूप में उनके चेहरे पर पछाड़ें खाने लगा। उन्होंने एक फाइल के पन्ने खोले और उसमें इस भाव से डूब गये कि 'कोइ नृप होय हमें का हानी'।

लल्लन राय ने स्कूटर स्टार्ट किया और दफ्तर से बाहर निकल गये। पिछले दो सालों से दफ्तर में वे बड़े साहब के खास आदमी की तरह जाने जाते थे। दफ्तर के सारे अफसर उन्हें अपने पास बैठाकर चाय पिलाते, बाबू लोग बाहर सड़क पर घेरकर बनारसी पान पेश करते और चपरासियों की जमात खीसें निपोरकर सलाम करती। आज उन्होंने गौर किया कि गेट पर फर्राश उनके स्कूटर के बगल से मक्खी उड़ाते निकल गया। उन्होंने मकान की दूसरी मंजिल शुरू करवा रखी थी। स्कूटर भी पुराना हो गया था, बिना नये के काम नहीं चलेगा। छोटे भाई की ठेकेदारी अभी शुरुआती दौर में थी। बहुत सारे कारण थे जिनसे कमलाकान्त वर्मा का तबादला रुकना आवश्यक हो गया था। उनके मन में संकल्प और दृढ़ हुआ।

रिजवानुल हक और ध्रुवलाल यादव कमरे से निकले तो साथ-साथ पर अपने-अपने स्वभाव के मुताबिक उन्होंने हरकतें अलग-अलग कीं। रिजवानुल हक पहले से ही कम बोलते थे। आज तो वे और भी ज्यादा खामोश हो गये थे। वे सर झुकाये अपने कमरे की तरफ बढ़ गये। रोज से थोड़ा सा ही फर्क आया। ऋषभचरण शुक्ल के कमरे में दरबार चल रहा था। बाहर दरवाजे पर ही रुककर वे कुछ बुदबुदाए। अन्दरवालों ने भाष्य किया कि विरोधी खेमे का एक मजबूत सरदार अपनी स्वामिभक्ति के रूप में खिलवतें पेश कर रहा है। बुदबुदाहट इतनी अस्पष्ट थी कि यदि कमलाकान्त के खेमे का कोई सदस्य देखता तो उसे समझाया जा सकता था कि रिजवान साहब ऋषभ की मादर-पिदर कर रहे हैं।

ध्रुवलाल यादन ने दफ्तर के बरामदों में किसी डकारते हुए साँड़ की तरह एक चक्कर लगाया। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों उनके बारे में आश्वस्त नहीं थे, इसलिए उनके भ्रमण के दौरान सबने कोशिश की कि उनके सामने न पड़े। खम्बे, दरवाजे और खिड़कियाँ छिपने के लिए बड़े आदर्श पाये गये। क्रोधी विश्वामित्र की भाँति जब विपक्षी खेमे के कमरे के दरवाजे पर उन्होंने अपना पैर पटका तो नाटक की भाषा में मंच पर सन्नाटा छा गया। इसके पहले कि खामोश पात्र सदमे से उबरें, आगे बढ़ गये। अपने कमरे में बैठे वे जरूर, पर उनका मन कमरे के फर्नीचर को उलटने-पलटने और कागजों को चिन्दी बनाकर फर्श पर फेंकने के अपने प्रिय खेल में नहीं लगा। वे उठे और कमरे के बाहर निकल गये, कमरे के ही नहीं दफ्तर के भी बाहर निकल गये।

हिन्दी फिल्मों के लिहाज से आदर्श स्थिति थी। जिस समय ध्रुवलाल यादव दफ्तर के बाहर निकल रहे थे, एक अम्बेसडर कार दफ्तर के गेट से अन्दर आ रही थी। इसके सामने की तरफ लाल रंग की एक बड़ी सी तख्ती लगी थी जिस पर पीतल के मोटे-मोटे अक्षरों में अधीक्षण अभियन्ता, सार्वजनिक निर्माण विभाग लिखा था। यदि ध्रुव लाल यादव गुस्से में बलबलाते हुए जमीन पर पड़े हुए ईंट-पत्थरों के टुकड़ों में काल्पनिक दुश्मनों की छवि तलाशते हुए अपने पैरों को दुख नहीं दे रहे होते तो वे देखते कि कार की पिछली सीट पर अधीक्षण अभियन्ता प्यारेलाल और नये अधिशासी अभियन्ता बटुकचन्द उपाध्याय बैठे हुए थे। अगर ये तीनों किसी मसाला फिल्म के पात्र होते तो अब तक एक धाँसू गाने या ढिशुम-ढिशुम की स्थिति बन गयी होती, पर जिन्दगी हिन्दी फिल्मों के ढर्रे पर नहीं चलती, इसलिए हुआ सिर्फ इतना कि ध्रुवलाल यादव अपने पैरों से कंकड़ी उड़ाते हुए बाहर निकल गये और लाल नामपट्टवाली कार दफ्तर के पोर्टिको में जाकर खड़ी हो गयी।

कार के रुकते ही दफ्तर के चपरासियों में भगदड़ मच गयी। एक ने दौड़कर कार का दरवाजा खोल दिया और दूसरा बड़े साहब के कमरे की चिक उठाकर खड़ा हो गया।

प्यारेलाल बाईं तरफ से और बटुकचन्द कार के दाहिनी तरफ से उतरे। प्यारेलाल के चेहरे पर वही गम्भीर भाव था जो किसी भी वरिष्ठ अधिकारी के चेहरे पर ऐसे मौके पर होना चाहिए था। इस दफ्तर में सभी उनके मातहत थे और मातहतों के अभिवादन का उत्तर देना बड़े अधिकारियों को शोभा नहीं देता-नौकरशाही के इस सुनहरे नियम के अनुसार वे सर उठाये सीधे चलते रहे और चपरासी द्वारा उठाये गये चिक को पार करते हुए अधिशासी अभियन्ता की तख्ती लगे कमरे में प्रवेश कर गये। बटुकचन्द उपाध्याय को कोई जल्दी नहीं थी, इसलिए वे थोड़ा पीछे रह गये।

सबसे पहले ऋषभचरण ने उनके पैर छुए। उनके मुँह में इतने पान ठुँसे थे कि आशीर्वचन के रूप में जो शब्द फूटे उन्हें सुनकर किसी को भी ऊँट के बलबलाने का भ्रम हो सकता था।

इसके बाद पैर छूने और पान पेश करने की जो अद्भुत छटा वहाँ उपस्थित हुई उसे देखकर चाय की दुकानों और दफ्तर के बाहर की सड़क पर मौजूद दलालों, कर्मचारियों और तमाशबीनों को आश्वस्ति हो गयी कि इस दफ्तर में अगले कुछ दिनों तक लोकतन्त्र के प्रमुख स्तम्भ चापलूसी और भाई-भतीजावाद की स्थिति मजबूत बनी रहेगी।

बटुकचन्द इस दफ्तर में कई हैसियत से पहले रह चुके थे। पर बड़े साहब के रूप में उनका पहला प्रवेश था, इसलिए उन्होंने सन्तुष्ट और गर्वीली निगाहों से दफ्तर के गलियारों, कमरों और अपने इर्द-गिर्द घिरे चाटुकार मातहतों को देखा। इस समय उनके मन में वही उच्च विचार आ रहे थे जो नौकरशाही के किसी भी पुर्जे के मन में अपनी नयी नियुक्ति के सीन पर पहुँचने पर आते हैं।

नया अफसर आते ही सबसे पहले अपने दफ्तर की दुर्दशा पर दुखी होता है जो उसके पूर्वाधिकारी की नालायकी की उपज होती है। सब कुछ बरबाद हो गया है-वह चिन्तित भाव से सोचता है। पूर्वाधिकारी का भौंडा सौन्दर्यबोध उसे शर्मिन्दगी के गहरे समुन्दर में डुबो देता है। कैसा फूहड़ फर्नीचर खरीदा है उसने कि कमरे में बैठने का मन न करे, और पर्दे कितने भद्दे हैं-चटख और आँखों को चुभनेवाले। क्या सोचते होंगे लोग इस दफ्तर के बारे में। कोई समय से नहीं आता, सब कमबख्त लूटने में लगे हैं। हर तरफ गड़बड़ है। खैर, अब मैं आ गया हूँ, सब ठीक कर दूँगा।

भारतीय नौकरशाही की गतिशीलता का मूलमन्त्र शायद यही भावना है। जिले में नया कलक्टर आता है। लोग दफ्तरों में समय से आना शुरू कर देते हैं। बाबू रिश्वत अपनी मेज पर बैठे-बैठे नहीं लेता, बल्कि उठकर पान की दुकान तक जाने लगता है। कई बार कुछ कागज भी सचमुच में निकल जाते हैं। नया कप्तान आते ही प्रेस कान्फ्रेंस करता है और घोषणा कर देता है कि अब वह आ गया है इसलिए जिले में या तो अपराधी रहेंगे या वह। थानों में पुलिस जनता की सेवक बनकर रहेगी। बँगलों और दफ्तरों के पर्दे बदल जाते हैं, फर्नीचर का कोण बदल जाता है। लोग कुछ ही दिनों में पंचवर्षीय योजनाओं के लुभावने नारों की तरह इन घोषणाओं को भूल जाते हैं। बाबू मेज पर बैठे-बैठे रिश्वत लेने लगता है और जनता फिर से थानों में मुर्गा बनने लगती है। फिर नये अफसर आते हैं। फिर सब कुछ ठीक होने लगता है और इस तरह गतिशीलता बरकरार रहती है।

बटुकचन्द ने दफ्तर की दीवारों पर पड़ी पीक और गलियारों में जमी धूल पर निराश दृष्टि डाली। 'कितना पतन हो गया है इस दफ्तर का! दो साल पहले जब वे यहाँ से गये थे, तब तो हालात इतने बुरे नहीं थे। अच्छा हुआ कि वे आ गये, नहीं तो न जाने अभी क्या होता।' उन्होंने दुःख और सन्तोष से सोचा और पिच्च से अपने मुँह की पीक दीवाल पर मारी। वे और उनके साथ चल रही भीड़ अब उस कमरे के सामने पहुँच गयी थी जो बड़े साहब के रूप में उनका कमरा होने जा रहा था और जिसमें थोड़ी देर पहले प्यारेलाल नामक उनका बॉस घुस गया था। चपरासी चिक उठाकर खड़ा था। पीक थूकने के बावजूद उनके गले और मुँह में अभी भी इतनी पीक भरी थी कि वे बस गो-गो की आवाज में ऐसा कुछ कह पाए जिसका मतलब था कि उनके प्रशंसक, अनुयायी, चापलूस और मातहत अपने-अपने कमरों में जाएँ और अब वे आ गये हैं, इसलिए सब कुछ ठीक हो जाएगा। इतना कहकर वे तेजी के साथ कमरे में घुस गये।

जैसी कि हमारे देश में परम्परा है कि हर नायक या खलनायक के साथ एक चिपकू जरूर रहता है जो अपनी मूर्खतापूर्ण बातों से उसका दिल बहलाने और गोपनीय किस्म की सलाह देने जैसे काम करता रहता है, बटुकचन्द उपाध्याय के साथ एक और व्यक्ति उस कमरे में घुस गया जिसका नाम था ऋषभचरण शुक्ल और जिसने कमरे में घुसते-घुसते पहला फर्ज यह निभाया कि फुसफुसाहट-भरी आवाज में बटुकचन्द को यह सलाह दे डाली-

''इस साले से सावधान रहिएगा भैया। दर हरामी है।''

सलाह छोटी और दबे स्वर में सिर्फ इसलिए थी कि जिस व्यक्ति से सावधान रहने की बात की जा रही थी वह दस-बारह फुट की दूरी पर ही बैठा मेज पर पड़े बेतरतीब कागजों पर प्रत्यक्ष रूप से नजरें गड़ाये परोक्ष रूप से उनकी हरकतें भाँपने की कोशिश कर रहा था।

दूरी और समय ने बटुकचन्द को बाअदब मातहत बना दिया था, इसलिए उन्होंने सामने बैठे अधीक्षण अभियन्ता प्यारेलाल की शान में कसीदे नहीं पढ़े। सिर्फ अपने पीक-भरे मुँह को गोल बनाते हुए अपनी आँखों के माध्यम से उन्होंने सलाह के प्रति आभार व्यक्त करते हुए जो भाव प्रकट किये उन्हें सलाह देनेवाले शुभचिन्तक ने इस रूप में ग्रहण किया कि-

''इस जैसे चिड़ीमार बहुत देखे हैं, बन्धु। इससे भी निपट लेंगे।''

किसी छोटे-मोटे राष्ट्र में राष्ट्रपति या प्रधानमन्त्री की कुर्सी उलटने के बाद जैसी गहमागहमी पैदा होती है, कुछ-कुछ वैसी ही इस दफ्तर में हुई। कमरे में प्यारेलाल के सामने बटुकचन्द और ऋषभचरण बैठ गये। ऋषभचरण ने मुख्यालय से सोनेलाल के आने, बड़े बाबू और डिस्पैचर द्वारा प्रारम्भ में डाक लेने से मना करने और बाद में लेने, बड़े बाबू के भागकर कमलाकान्त वर्मा के पास जाने और फिर कमलाकान्त वर्मा के कमरे में चलनेवाली बैठक तथा उसके बाद उनके अज्ञात स्थान पर हुए पलायन का विस्तार से वर्णन किया। वर्णन समाप्त होते ही प्यारेलाल ने कहा, ''अब?"

इस अब के कई मतलब थे। पहला मतलब था कि अब क्या किया जाय। दूसरा मतलब था कि जब कमलाकान्त भाग ही गये हैं तो क्या किया जा सकता था? ऋषभचरण ने पहला अर्थ निकाला और वही कहा जिसके लिए बटुकचन्द उन्हें अपने साथ अन्दर लाये थे।

''अब क्या? बुला लें सर बड़े बाबू को। चार्ज सर्टिफिकेट पर दस्तखत हो जाय। कमलाकान्त नहीं होंगे तो क्या चार्ज नहीं होगा।''

इसके बाद उन्होंने भारतीय परम्परा के अनुसार एक मुहावरा सुनाया जिसे प्यारेलाल ने भी अपने छात्र-जीवन में पढ़ा था और जिसका मतलब था कि अगर मुर्गा नहीं बोलेगा तो क्या सूरज नहीं निकलेगा।

प्यारेलाल ने घंटी दबायी। चपरासी आया। बड़े बाबू को बुलाकर लाने का हुक्म सादिर हुआ।

जितनी देर में बड़े बाबू आये, नौकरशाही की उस परम्परा का निर्वाह होता रहा जिसके अनुसार मन में उठनेवाले विचारों और मुख से निर्गत होनेवाले वाक्यों में कोई घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं होता। बटुकचन्द ने कमलाकान्त वर्मा के सम्बन्ध में कुछ वाक्य कहे जिन्हें सुनकर प्यारेलाल ने ऐसा मुँह बनाया मानों खबरें खत्म होने के पहले मौसम विभाग की भविष्यवाणी सुन रहे हों। जानते हुए भी कि ये भविष्यवाणियाँ गलत होंगी, उन्हें सुनना औसत भारतीय श्रोता की मजबूरी है, अतः वे भी कान खोदते रहे और सुनते रहे।

''सरकार की यही बात खराब लगती है साहब। बीच सेशन में तबादला कर दिया। बेचारे बच्चों की शामत आती है। मैंने तो वाइफ से कह दिया कि बच्चे अब लखनऊ में ही रहेंगे। रोज-रोज कौन स्कूल बदलेगा।''

''बेचारा कमलाकान्त बड़ा गऊ आदमी है। उसकी बीवी तो उससे भी गऊ है। हम दो बार साथ रहे। इतना अच्छा सम्बन्ध रहा दोनों परिवारों के बीच कि लोग जलते थे कॉलोनी में।''

''मैंने चीफ साहब से बहुत कहा कि मुझे मत डालिए इस पचड़े में। मेरा क्लासफेलो है कमलाकान्त, उससे चार्ज लेने में बड़ा बुरा लगेगा। पर नहीं माने चीफ साहब। बोले-उपाध्यायजी कुम्भ का मामला है, आप ही सँभाल सकते हो, पूरे विभाग की इज्जत दाँव पर लगी है, रोज सी.एम. पूछते हैं'' जब तक बड़े बाबू नहीं आये तब तक बटुकचन्द उपाध्याय बोलते रहे और प्यारेलाल कान खोदते रहे। बड़े बाबू के आने में देर हुई तो कान खोदना छोड़कर वे दीवाल पर रेंग रही छिपकली को घूरने लगे। इस एकालाप में उन्हें न तो कोई अपना रोल नजर आ रहा था और न ही उन्होंने कोई हस्तक्षेप किया। अन्त में इन्तजार की घड़ियाँ समाप्त हुईं और बड़े बाबू प्रकट हुए।

''चार्ज सर्टिफिकेट बन गया, बड़े बाबू?" प्यारेलाल ने पूछा।

बड़े बाबू ने अपने दयनीय चेहरे को और दयनीय बनाते हुए ऐसी प्रश्नवाचक निगाहों से प्रश्नकर्त्ता की तरफ देखा जैसे भारत की परमाणु नीति के बारे में कोई प्रश्न पूछा गया हो।

''साहब पूछ रहे हैं कि चार्ज सर्टिफिकेट टाइप हो गया कि नहीं?" इतनी देर में ऋषभचरण को अपनी उपस्थिति का औचित्य सिद्ध करने की जरूरत पड़ी।

''सरकार मुझसे चार्ज सर्टिफिकेट के लिए तो कोई नहीं बोला।''

''बड़े बाबू ज्यादा काबिलियत मत झाड़िए!'' ऋषभचरण के लिए आत्म-नियन्त्रण पहले भी मुश्किल होता था, आज तो और भी मुश्किल हो गया, ''आपको मालूम नहीं कि बड़े साहब का तबादला हो गया है। इतनी देर जो मीटिंग कर रहे थे उसमें आपको नहीं बताया कमलाकान्त वर्मा ने। नये साहब आ गये और आपने अभी तक चार्ज सर्टिफिकेट नहीं टाइप किया।''

ऋषभचरण अपनी आवाज पर नियन्त्रण नहीं रख पाते, अगर बड़े बाबू के चेहरे से फिसलकर एक बार उनकी निगाह बटुकचन्द की बरजती निगाहों से न टकराई होती।

अधीक्षण अभियन्ता की उपस्थिति में बटुकचन्द कोई तमाशा नहीं खड़ा करना चाहते थे।

''नहीं टाइप किये हों तो कर लाइए। मुख्यालय का आदेश तो आप ही के पास होगा। कमलाकान्तजी तो जाते समय ले नहीं गये, उसी से नम्बर वगैरह डाल लीजिएगा। एस.ई. साहब कितनी देर बैठेंगे जल्दी ले आइए।'' बटुकचन्द ने मुलायमियत से कहा। बड़े बाबू कुछ बुदबुदाये और बाहर निकल गये।

''बड़ा घाघ है साहब। जितना ऊपर उतना नीचे,'' ऋषभचरण ने झुँझलाते हुए कहा।

''शुक्लाजी आप खुद देख लीजिए जाकर। नहीं तो दफ्तरवाले न जाने कितनी देर करें। साहब के लिए कुछ चाय-वाय भिजवा दीजिएगा।''

बटुकचन्द ने कहा तो ऋषभचरण उठकर बाहर निकल गये। कमरे में थोड़ी देर मौन रहा। प्यारेलाल अभी तक कुछ नहीं बोले थे, केवल सुनते रहे थे। वे इस बात में विश्वास करते थे कि ज्यादा बोलनेवाला कहीं न कहीं गलती अवश्य करता है। गलती करने का मौका वे अपने विपक्षी को ही देने में विश्वास करते थे इसलिए अक्सर खुद चुप रहते थे। आज भी बोले तो बहुत देर से बोले और सूत्र-वाक्य के रूप में उतना ही बोले जिससे बटुकचन्द उपाध्याय कुछ न कुछ गलतियाँ करें और यह सत्ता-परिवर्तन कैसे हुआ, इसे समझने का मौका दें।

''भाई उपाध्यायजी बड़ा चैलेंजिंग मामला है। कुम्भ पर सबकी निगाह लगी है। अगले महीने से हर हफ्ते मुख्यमन्त्रीजी रिव्यू करेंगे। अभी भी तीसरे-चौथे चीफ साहब के यहाँ पेशी होती है। वैसे तो आपका पुराना अनुभव है, आपको कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सुबह चीफ साहब का फोन आया तो मैंने तो कह दिया कि आपको सही ही चुना गया।''

बटुकचन्द ने आँखों ही आँखों में तौला। है साला घाघ, इससे आज ही निपट लिया जाय, नहीं तो बाद में दुखी करेगा। उन्होंने भोलेपन से जो कुछ कहा उसमें कुछ ठोस था, कुछ द्रव और कुछ गैस।

ठोस, द्रव और गैस का फार्मूला उन्हीं का बनाया हुआ था। उनका मानना था कि नेताओं, मातहतों और अपने से ऊँचे ओहदेदारों से बातें करते समय हमेशा वही नहीं कहना चाहिए जो सच हो। सच तो गैस की तरह होता है, जो सामनेवाले से चिपकता नहीं और वाष्प की तरह उड़ जाता है। ठोस के रूप में कुछ नाम छोड़े जाते हैं जो अक्सर राजनेताओं और वरिष्ठ अधिकारियों के होते हैं। सावधानी सिर्फ इतनी रखनी होती है कि ये नाम ऐसे हों जिनसे सही-गलत की छानबीन सुननेवाला न कर सके। अंग्रेजी में जिसे नेम ड्रापिंग कहते हैं उस कला को भारतीयों ने अंग्रेजों से भी अधिक खूबसूरती से अपना लिया है। ठोस एवं गैस के अतिरिक्त द्रव का प्रयोग समय-काल के अनुसार चेहरे और आँखों में तरलता लाने के लिए किया जाता है। बटुकचन्द ने तो इस फन में इतनी महारत हासिल कर रखी थी कि वक्त-जरूरत के मुताबिक उनकी आवाज कभी भी रुँध सकती थी। कई बार तो वे रोने भी लगते थे। अक्सर वे ऐसी स्थिति पैदा कर देते कि उनका विपक्षी अगर मजबूत कलेजे का न हो तो उसका भी मन रोने को करने लगता।

आज भी उन्होंने अपने फार्मूले का जमकर इस्तेमाल किया।

''मैंने तो सर बहुत मना किया कि मुझे मत फँसाओ इस झमेले में, पर अपने मुख्यमन्त्रीजी के साले हैं न...वही नौगढ़वाले विधायक, वे पीछे पड़ गये। मैं जब वहाँ पोस्टेड था तब से ही उनसे मेरे घरेलू ताल्लुकात हैं। बोले उपाध्यायजी आपके बिना कुम्भ नहीं सँभल पाएगा। जीजाजी बड़े परेशान हैं, सरकार की इज्जत दाँव पर लगी है। अगर कुछ हो गया कुम्भ में तो बड़ी थू-थू होगी। मैंने बहुत मना किया, लेकिन साहब बड़े आदमियों का मामला...''

बटुकचन्द बोलते समय प्यारेलाल के चेहरे पर निगाह गड़ाये हुए हैं। ठोस कुछ असर कर रहा है, पर है साला घाघ। चेहरे पर कोई भाव उत्पन्न नहीं होने दे रहा है। ''चीफ साहब से भी मैंने हाथ जोड़े कि सर अब तो बुढ़ापा आ रहा है, अब पहले जैसी मेहनत नहीं हो सकती। आप हुकुम देंगे तो क्यों नहीं जाऊँगा लेकिन कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो सफेदी में कलंक लग जाएगा, लेकिन नहीं माने।''

इस तरह उन्होंने कई लोगों के हवाले दिये और बताया कि किस तरह प्रदेश के समक्ष कुम्भ नामक समस्या के उत्पन्न होने पर उन्होंने बटुकचन्द उपाध्याय नामक महाबली के समक्ष बीड़ा रख दिया और किस तरह हर बड़े आदमी को उन्होंने समझाने की कोशिश की कि वे योग्य अवश्य हैं, पर उम्र नामक एक बाधा ऐसी है जिसके चलते वे इस बीड़े को उठाने में असमर्थ हैं। पर हर प्रसंग का अन्त इसी टेक पर हुआ कि जैसा कि बड़े लोगों का स्वभाव है उनकी दलील ठुकरा दी गयी और वे अनिच्छापूर्वक यहाँ आ गये। लेकिन अब जब वे आ ही गये हैं तो सब कुछ ठीक कर देंगे और भगवान की कृपा और एस.ई. साहब के आशीर्वाद से जो कुछ होगा, अच्छा ही होगा।

प्यारेलाल बोल कुछ नहीं रहे हैं। बस उनके ठोस के पीछे छिपे सच को पकड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि बटुकचन्द की पोस्टिंग के पीछे सी.एम. और चीफ साहब दोनों हैं, पर सच्चाई उस तरह नहीं है जिस तरह बटुकचन्द बयान कर रहे हैं। उन्होंने उड़ती-पुड़ती सुन रखी थी कि इस मामले में काफी लेन-देन हुआ है।

जिस विधायक को बटुकचन्द ने मुख्यमन्त्री का साला और अपना घनिष्ठ घोषित किया था, उसके बारे में यह आम चर्चा थी कि बिना नकद गिनाये वह घर के बाहर कदम नहीं रखता था। बटुकचन्द जब उससे घनिष्ठता के दावे कर रहे थे, प्यारेलाल उस रकम का अन्दाज लगाने की कोशिश कर रहे थे जो इस हाथ से उस हाथ पहुँची होगी।

कुम्भ के साल हर बार यही होता है। बड़ी-बड़ी बोलियाँ लगती हैं, बड़े-बड़े वारे-न्यारे होते हैं। इस साल भी यही हुआ था। पाँच-छः नाम शुरू से ही दौड़ में थे। प्यारेलाल की मुख्य चिन्ता अपने को बचाए रखने की थी। उनके ओहदे के लिए भी कई दावेदार थे। वे अपने को तो बचाये रखने में कामयाब हो गये, पर कमलाकान्त वर्मा को जाना ही पड़ा।

कमलाकान्त वर्मा से उनकी अच्छी पट रही थी और कुम्भ में प्यारेलाल यही चाहते थे कि कमलाकान्त बने रहें। पिछले कुछ दिनों से रोज किसी न किसी के आने की अफवाह उड़ती थी, पर कमलाकान्त भी खूँटे से मजबूत थे। प्यारेलाल अपनी कुर्सी बचाने में इतने मशगूल रहे कि उन्हें कमलाकान्त की चिन्ता करने की फुर्सत ही नहीं मिली। वैसे भी वे जानते थे कि कमलाकान्त को हटाना आसान नहीं था।

पिछले हफ्ते से बटुकचन्द उपाध्याय का नाम चल रहा था। प्यारेलाल ने नाम सुनते ही समझ लिया था कि अब मुकाबला कड़ा होगा, उन्होंने कमलाकान्त को चेतावनी भी दे दी थी। बटुकचन्द की गिनती विभाग में बड़े घाघ अधिकारियों में होती थी। कुम्भ की तैनाती के लिए हर बार बोली बोली जाती थी, पर लगा कि इस बार मुकाबला ज्यादा कड़ा था। बीच में दो-तीन बार देर रात गये कमलाकान्त की घबराई आवाज में फोन आता और वह किसी तगड़े उम्मीदवार की चर्चा चलने की खबर देते। प्यारेलाल की इजाजत लेकर वह फौरन लखनऊ रवाना हो जाते और दो-तीन दिन में सब कुछ ठीक-ठाक कर लौट आते।

इस बार सब कुछ इतनी तेजी से घटित हुआ कि प्यारेलाल और कमलाकान्त जैसे मँजे हुए खिलाड़ी भी हतप्रभ रह गये।

बहुत सबेरे चीफ साहब का फोन प्यारेलाल के लिए आया। बिना किसी लाग-लपेट के जो सन्देश दिया गया उसके मुताबिक रात एक बजे मुख्यमन्त्री ने कमलाकान्त के तबादले के आदेश पर दस्तखत कर दिये थे। पी.डब्लू.डी. मन्त्री ने यह काम चीफ साहब को सौंपा था कि आदेश का पालन हो जाना चाहिए और चूँकि बकौल चीफ साहब वे अपने और प्यारेलाल में कोई फर्क नहीं समझते इसलिए यह जिम्मेदारी वे प्यारेलाल को सौंप रहे हैं। सन्देश के मुताबिक विभाग के मन्त्रीजी को दोपहर बारह बजे तक मुख्यमन्त्रीजी को अनुपालन रिपोर्ट देनी थी। मन्त्रीजी ने चीफ साहब को साढ़े ग्यारह बजे तक का समय दिया था, इसलिए चीफ साहब ने उन्हें ग्यारह बजे तक का समय दे दिया। चीफ साहब दफ्तर में ग्यारह बजे उनके फोन का इन्तजार करेंगे।

चीफ साहब का आदेश मिलने पर प्यारेलाल को अपना कर्तव्य निर्धारित करने में तनिक भी विलम्ब नहीं हुआ। वे अधिकांश नौकरशाहों की तरह गीता के सन्देश में विश्वास करते थे। नौकरी उनके लिए महाभारत के युद्ध की तरह थी। युद्ध के मैदान में पिता, पुत्र, भाई, बहन, सखा, अनुचर कोई भी सम्बन्ध मायने नहीं रखता था और आवश्यकता पड़ने पर किसी का भी वध किया जा सकता था। सफलता की यही शर्त थी। नौकरशाही में तो सफलता की यही एकमात्र शर्त थी।

सबसे पहले उन्होंने कमलाकान्त वर्मा के घर एक चपरासी दौड़ाया और उसे दस बजे दफ्तर पहुँचने का सन्देश दिया। इसके बाद अपने फोन का रिसीवर उतारकर नीचे रख दिया। उन्हें पता था कि कमलाकान्त वजह जानने के लिए उन्हें फोन करेंगे और यह मानकर कि उनका फोन खराब है, उनके मन में कुम्भ का खयाल आएगा। आज कल कुम्भ के बारे में निरन्तर मुख्यालय सूचनाएँ मँगाई जा रही थीं। यह जरूर था कि अधीक्षण अभियन्ता के अपने दफ्तर में आने की बात कुछ अटपटी जरूर लगेगी, पर उनके बीच सम्बन्ध ऐसे थे कि कमलाकान्त को अपने विरुद्ध षड्यन्त्र का सन्देह नहीं हो सकता।

यही हुआ। दफ्तर आकर ही कमलाकान्त को पता चल पाया कि उनके साथ षड्यन्त्र हुआ है।

प्यारेलाल का वश चलता तो वे कमलाकान्त को ही इस पद पर रखते, पर अब उन्हें धोखा देकर बुलाने और बटुकचन्द को चार्ज दिलाने पर उन्हें कोई अफसोस भी नहीं था।

यहाँ सारे पात्र निष्काम भाव से अपना रोल अदा कर रहे थे। बटुकचन्द निष्काम भाव से दनादन झूठ बोल रहे थे। प्यारेलाल निष्काम भाव से सुन रहे थे और सच पकड़ने की कोशिश कर रहे थे। इसके पहले उन्होंने निष्काम भाव से कमलाकान्त को छलने की कोशिश की थी। बाहर ऋषभचरण शुक्ल निष्काम भाव से बाबुओं और जूनियर इंजीनियरों को बता रहे थे कि भैया ने तो साफ-साफ मना कर दिया था, वो तो चीफ साहब ने बहुत समझाया और साथ में एस.ई. साहब को भेजा, नहीं तो भैया चार्ज थोड़े न लेते।

निष्काम भाव से ही बड़े बाबू का मंच पर प्रवेश हुआ।

''ले आये बड़े बाबू।''

''हाँ सर।''

''लाइए।'' निर्धारित सरकारी भाषा वाले चार्ज सर्टिफिकेट की दस से अधिक प्रतियाँ बटुकचन्द के सामने रख दी गयीं। मोचक अधिकारी लिखी पंक्ति के ऊपर वे दस्तखत करते रहे और बड़े बाबू हस्ताक्षर के बाद एक-एक कागज को हटाते गये।

जैसे कि ऋषभचरण नामक उनके सलाहकार ने नाटक की शुरुआत में ही उन्हें सलाह दी थी, उनका जरा भी विश्वास इस बड़े बाबू नामक पात्र में नहीं था। इसलिए पूरी लापरवाही से हस्ताक्षर रूपी चिड़िया कागजों पर बैठाते हुए भी उन्होंने कागजों पर छपी इबारत लगभग पूरी पढ़ ली।

''ट्रेजरी को कापी नहीं दी बड़े बाबू।''

''दी है सर।'' बड़े बाबू ने चार्ज सर्टिफिकेट के नीचे जिनकी प्रतिलिपि और भेजी जा रही थी, उनकी सूची के नवें नम्बर पर उँगली रख दी।

बटुकचन्द ने उड़ती निगाह डाली।

''स्टेट बैंक को कापी नहीं गयी।''

''हाँ...ये गलती हो गयी सर। अभी एक और कापी टाइप कर लाता हूँ।''

''मेरे हस्ताक्षर भी बैंक भिजवा दीजिए।''

''अभी बैंक की कापी टाइप कर लाऊँ, उसी के साथ आपके दस्तखत वाला कागज भी भेजता हूँ,'' बड़े बाबू चले गये। बटुकचन्द ने विजयी भाव से प्यारेलाल की तरफ देखा।

''इस दफ्तर में बड़ी सफाई की जरूरत है सर। सब साले घाघ इकट्ठे हो गये हैं। यह बड़ा बाबू मेरे साथ पहले भी रहा है, पिछली बार तो मैंने ही हटवाया था। अब बताइए, साले तीस साल से नौकरी कर रहे हैं और बैंक को चार्ज सर्टिफिकेट की कापी भेजना भूल गये। अरे साहब जरा सा चूक जाएँ तो लो बहराइच वाला किस्सा हो गया।''

नौकरशाही में हर मौके के लिए मौजूँ कोई-न-कोई किस्सा रहता है। बटुकचन्द ने इस मौके पर बहराइच वाला किस्सा सुनाया। इस किस्से के मुताबिक उन्हीं जैसे भोले-भाले एक अफसर ने इस बड़े बाबू जैसे बदमाश बाबू का विश्वास कर चार्ज सर्टिफिकेट पर दस्तखत कर दिये। इस कागज की कापी सबको गयी पर स्टेट बैंक को नहीं गयी, लिहाजा उसका पूर्वाधिकारी अगले काफी दिनों तक चेक काटकर ठेकेदारों के भुगतान करता रहा। बाद में जब तक पता चला और पछतावे की स्थिति नये अफसर के समक्ष उत्पन्न हुई तब तक उस मुहावरे के से हालात बन गये थे जिसमें चिड़िया के खेत चुग जाने के बाद पछतावे की निरर्थकता पर प्रकाश डाला गया है।

बटुकचन्द के पास किसी भी घाघ अफसर की तरह और भी बहुत से किस्से थे। अगर बड़े बाबू ने कलक्टर के नाम प्रतिलिपि नहीं जारी की होती तो वे बुलन्दशहर वाला किस्सा सुनाते और अगर ट्रेजरी के नाम प्रतिलिपि नहीं गयी होती तो सुनाने के लिए बलिया वाला किस्सा होता।

किस्सा कोताह यह कि सुनाने के लिए बटुकचन्द के पास बहुत सारे किस्से थे और प्यारेलाल कुछ भी सुनने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे।

जितनी देर में बटुकचन्द ने अपना किस्सा खत्म किया, प्यारेलाल की टेलीफोन पर घूमती उँगलियों ने लखनऊ में प्रमुख अभियन्ता से फोन मिला लिया।

''हाँ सर। चार्ज हो गया सर। कमलाकान्त ने तो चार्ज दिया नहीं सर, पर मैंने बटुकचन्दजी को चार्ज दिला दिया सर।''

''नहीं सर, पता नहीं चला सर। कमलाकान्त को तबादले का पता नहीं चला सर। वो तो दफ्तर आकर भाग गया सर। मैं ढुँढ़वा रहा हूँ सर।''

''ठीक है सर। मेहरबानी सर।''

प्यारेलाल विजेता की भाँति उठे। उन्हें सौंपा गया काम सफलतापूर्वक सरअन्जाम हो गया था।

''अच्छा भाई उपाध्यायजी, बेस्ट आफ लक, सँभालिए अपना राजपाट,'' उन्होंने कुछ इस तरह आशीर्वाद दिया मानो महर्षि विश्वामित्र किसी राजकुमार को आशीर्वाद दे रहे हों।

बटुकचन्द ने भी आज्ञाकारी शिष्य की भाँति अपने गुरु के सम्मान में दो-तीन वाक्यों में जो कसीदा पढ़ा उसके भाव कुछ-कुछ यही थे कि वे योग्य और मेहनती तो पहले से थे, बस गुरुकृपा की आवश्यकता थी। अपनी लम्बी सफल नौकरी के दौरान पहली बार एक सही मार्गदर्शक उन्हें प्यारेलालजी के रूप में प्राप्त हुआ है, इसलिए उनकी सफलता में कोई सन्देह नहीं है। वे आ गये हैं और सब कुछ ठीक कर देंगे।

वे आ गये हैं और सब कुछ ठीक कर देंगे, यह वाक्य उन्होंने प्यारेलाल के जाने के बाद अपने शुभचिन्तकों और समर्थकों की भीड़ के सामने भी कहा जो उन्हें प्यारेलाल को पोर्टिको में खड़ी उनकी कार तक पहुँचाकर वापस अपने कमरे में आने पर मिली।

कमरे में वे सारे लोग थे जिन्हें पिछले कुछ वर्षों में इस कार्यालय में सताया गया था। पात्र होते हुए भी उन्हें उन जगहों पर नहीं रखा गया जहाँ सरस्वती की लक्ष्मी से भेंट होती थी। इनमें वे लोग भी थे जो पिछले सत्ता-सन्तुलन में भी कमाऊ जगहों में थे और इस परिवर्तन में भी उन्हीं जगहों पर रहना चाहते थे। वे यह बताने आये थे कि पिछली बार तो उन्हें अपने सीनों पर पत्थर रखकर पैसा कमाना पड़ा था। काम करने का मजा तो अब आएगा। इस भीड़ में ठेकेदारों, दलालों, पत्रकारों, पेशेवर चापलूसों और इस तरह के तमाम वर्गों के प्रतिनिधि पान के खोखों के साथ हाजिर थे। ये हर सत्ता-परिवर्तन के समय इस कमरे में उपस्थित रहा करते थे।

कई वर्षों बाद बड़े साहब के कमरे में चरण छूने की परम्परा फिर वापस आ गयी थी।

लोगों को मेज के नीचे घुसकर पैर छूने पड़ रहे थे इसलिए बटुकचन्द ने पाँव बाहर निकालकर एक स्टूल पर रख दिए। लोग आते ही पैर छूते थे और पान का खोखा आगे बढ़ा देते थे। बटुकचन्द अपने गोल ठूँसे हुए मुँह में एक बीड़ा और ठूँस देते।

''साहब अब आप आ गये हैं, सब ठीक हो जाएगा।''

बटुकचन्द को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी! वे स्वयं भी बीच-बीच में घोषित करते जा रहे थे कि वे आ गये हैं तो सब ठीक हो जाएगा।

''पत्रकारों ने तो इस दफ्तर में आना बन्द कर दिया था। वही लल्लनवा बैठकर दलाली करता रहता था। चलिए अब आप आ गये हैं तो सब ठीक हो जाएगा,'' शहर से छपनेवाले अंग्रेजी अखबार के संवाददाता ने कहा।

''हाँ साहब, आपके दफ्तर का तो सारा तन्त्र ही बिगड़ गया था। पता लगा लीजिए जो कोई आत्म-सम्मानवाला व्यक्ति यहाँ आता हो। अब सब ठीक हो जाएगा,'' खद्दरधारी नेता ने कहा।

''सब ठीक हो जाएगा,'' ठेकेदारों ने कहा।

''सब ठीक हो जाएगा,'' दलालों ने कहा।

बाबुओं, चपरासियों, कुर्सियों, बरामदों, चायखानों, गरज यह कि जिन-जिन की आवाज श्री बटुकचन्द उपाध्याय अधिशासी अभियन्ता अर्थात दफ्तर के बड़े साहब तक पहुँच सकती थी, सबने पूरे विश्वास के साथ कहा कि अब सब कुछ ठीक हो जाएगा।

बटुकचन्द ने भी सभा बर्खास्त करने के पहले कहा कि अब वे आ गये हैं इसलिए सब ठीक हो जाएगा।

इस प्रकार सार्वजनिक निर्माण विभाग के प्रान्तीय खंड नामक इस दफ्तर में दिन-भर 'सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा,' की ध्वनि गूँजती रही और रोज की तरह आज भी कुछ काम नहीं हुआ।



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