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उपन्यास

तबादला

विभूति नारायण राय


कमरे में वहीं प्रसंग चल रहा था जो ऐसे किसी कमरे में चल सकता था अर्थात् जमाने को कोसा जा रहा था। चूँकि यह भरे पेट अघाए लोगों का जमावड़ा था इसलिए बातें जमाने में आग लगानेवाली महँगाई को लेकर नहीं हो रही थीं। जमाने का एक दूसरा पहलू आज की चिन्ता का विषय था। लोग इस बात पर दुखी थे कि रिश्वत लेने-देने वालों में नैतिकता समाप्त होती जा रही है।

औसत भारतीय की तरह हर व्यक्ति के पास अनुभवों का अकूत खजाना था और औसत भारतीय की ही तरह हर व्यक्ति इस खजाने को लुटाने के लिए तत्पर था। कई पीढ़ियाँ वहाँ जमा थीं और इस तरह कई पीढ़ियों का अनुभव वहाँ जमा था।

पुराने लोगों ने ऐसी-ऐसी कहानियाँ सुनायीं, जिन पर नयी पीढ़ी के लोगों की आँखें मुहावरे की भाषा में खुली रह गयीं। मसलन ''क्या जमाना था साहब। एक बार नोट गिन आइए, फिर निश्चिन्त हो जाइए। यह नोट गिनवानेवाले की जिम्मेदारी हो जाती थी कि आपके घर आपका कागज पहुँच जाय।''

''अरे साहब नोट गिनने की भी जरूरत नहीं थी। आप एक बार जबान हिला दीजिए। फिर आपका काम खत्म। काम करनेवाले को पता है कि काम खत्म हो जाने के बाद माल अपने आप पहुँच जाएगा।''

''भाई पुराने लोगों की वफादारी की बात ही कुछ और थी। मेरे पड़ोस में एक रिटायर डिप्टी साहब रहते हैं। उनसे सुनिए पुराने किस्से। एक बार किसी थाने से हड़बड़ी में उन्हें अपनी रवानगी करानी पड़ी। शराब का ठेकेदार रिश्तेदारी में बाहर गया हुआ था। उससे हर महीने सौ रुपए मिलते थे, उन्होंने मान लिया कि इस महीने का पैसा बट्टेखाते में गया। लेकिन साहब पुराने लोगों की बात...एक दिन क्या देखते हैं कि घर के सामने एक रिक्शा रुकता है और एक नौजवान उतरता है। डिप्टी साहब बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। चश्मा नीचे करके नौजवान को पहचानने की कोशिश करते हैं। नहीं पहचान पाते। कैसे पहचानते कभी देखा ही नहीं था। वो तो जब नौजवान अन्दर आता है, तब मालूम होता है कि वह उसी शराब के ठेकेदार का बेटा है, जिसके ऊपर सौ रुपये का कर्ज छोड़कर डिप्टी साहब चले आये थे और उसका ठेकेदार बाप जब तक जिन्दा रहा उन्हें तलाशता रहा और अन्त में मरते-मरते उसे यह जिम्मेदारी सौंप गया कि वह दरोगाजी की धरोहर उन्हें सौंपकर अपना पितृ ऋण चुकाये। कलियुग के बावजूद पुत्र ने अपना धर्म निभाया और ढूँढ़ते-ढूँढ़ते पता लगा ही लिया कि दरोगाजी तरक्की पाते-पाते डिप्टी एस.पी. हो गये थे और फिर रिटायर होकर इस शहर में रहने लगे हैं। डिप्टी साहब ने नौजवान का दिया हुआ लिफाफा खोला तो उसमें मलका विक्टोरिया की फोटोवाला सौ का कड़क नोट मिला। आजकल का कागज तो था नहीं, तुड़-मुड़ जाता...''

श्रोताओं ने संस्कृत नाटकों के पात्रों की तर्ज पर धन्य-धन्य कहा। कुछ ठेकेदार पुत्र की पितृभक्ति पर मुग्ध थे तो कुछ ठेकेदार की नैतिकता पर। दोनों प्रसंगों पर लोगों के पास ढेर सारे अनुभव थे और कुछ देर तक कमरे में एक साथ कई लोग बोलते रहे। कभी किसी रिश्वत देनेवाले की ईमानदारी का प्रसंग कमरे में छा जाता तो कभी रिश्वतवाले को पटककर पितृभक्त सन्तान ताल ठोंकने लगती।

कमरा चूँकि कौशिक साहब का था और उसमें समाये या ठूँसे किस्सागो किसी न किसी काम से वहाँ उपस्थित थे इसलिए जाहिर था कि जब उन्होंने एक प्रसंग छेड़ा तो सब चुप हो गये। प्रसंग की भूमिका में उन्होंने भी जमाने के अधोपतन पर कुछ दर्दनाक जुमले सुनाये और फिर सीधे किस्से पर आ गये।

''अब मुझसे नाम मत पूछिएगा, पर मुझे सीतापुर के एक ताल्लुकेदार ने यह आपबीती सुनाई थी। हुआ कुछ ऐसा कि उनकी अपने पड़ोसी ताल्लुकेदार से ठन गयी। थोड़ा जमीन का मामला था और ज्यादा नाक का, सो हुई मुकदमेबाजी। निचली अदालतों से होता हुआ मुकदमा अवध हाईकोर्ट पहुँच गया। जिन जज साहब के यहाँ मुकदमा था उनकी शोहरत कुछ ऐसी थी कि चाँदी की जूती से कुछ भी करा लो, तो साहब सीतापुर वाले ताल्लुकेदार ने मिलने की जुगत भिड़ाई और गिन आये पूरे एक लाख रुपये। सस्ती का जमाना था। उस समय का एक लाख आज के बीसियों लाख के बराबर थे। रुपया गिनने के बाद निश्चिन्त होकर बैठ गये। एक दिन उड़ती-पुड़ती खबर मिली कि दूसरे ताल्लुकेदार ने भी किसी वकील के जरिये एक लाख भिजवा दिये हैं। बेचारे के काटो तो खून नहीं। भागते-पड़ते पहुँच गये जज साहब की कोठी पर। बड़ी मुश्किल से मुलाकात हुई। बोले, हुजूर माई-बाप खादिम कुछ और रकम लेकर आया है, कबूल किया जाय। जानते हैं जज साहब ने क्या जवाब दिया? जज साहब ने कहा कि ''अब तो दोनों पलड़े बराबर हैं-नाऊ केस विल बी डिसाइडेड आन मेरिट।''

जोर का ठहाका लगा और एक बार फिर लोगों ने अंग्रेज बहादुर के राज की तारीफ की कि तब न्यायाधीश इतनी मुंसिफाना तबीयत के होते थे। आज तो रिश्वतखोर भी बेईमान हो गये हैं।

अवध हाईकोर्टवाला किस्सा सुनाते समय कौशिक की निगाह जिस चेहरे पर गड़ी थी उस पर पहले से ही मुर्दनी छायी हुई थी, किस्सा खत्म होते-होते वह और मुरझा गया। मुरझाए चेहरेवाले ने मन-ही-मन अन्दाज लगाने की कोशिश की कि दोनों पलड़ों को बराबर करने के लिए कितना बड़ा बटखरा रखना पड़ेगा। चर्चा थी कि कमलाकान्त ने तबादला रुकवाने के लिए बीस लाख खर्च किये थे। उसे अपना आदेश करवाते समय दस दिये थे, इस तरह अभी ग्यारह-बारह और देने पड़ेंगे। लोगों के ठहाकों के बीच इस दुखी उदास चेहरे ने, जिसका नाम बटुकचन्द उपाध्याय था, भी उनका साथ देने की कोशिश की, लेकिन इस हँसी को देखकर आसपास बैठे लोगों को भ्रम हुआ कि वे रो रहे थे।

कौशिक का कमरा कई दिनों तक सूना रहने के बाद आवाजों से बजबजा रहा था। मन्त्रीजी आज तीसरे पहर लौटनेवाले थे इसलिए तमाम फरियादी और उनके पैरोकार लौट आये थे। ये लोग सूबे के अलग-अलग हिस्सों से आये थे। वे अपने-अपने हिस्सों की बोलियाँ बोल रहे थे। फरियादी धोती-बनियान से लेकर सफारी सूट तक में थे। पैरोकार खादी के कुर्ते-पाजामों में। अमूमन फरियादी की वेशभूषा का असर पैरोकारों की पोशाक पर साफ दिखाई दे रहा था। धोती-बनियानवाले का पैरोकार मुड़े-तुड़े पाजामे कुर्ते में था तो सफारी सूट पहने और नम्बरोंवाला ब्रीफकेस लिये हुए फरियादी का पैरोकार कड़क कलफ लगी पालिस्टर खादी के कुर्ते-पाजामे में सुशोभित था।

कमरे में नया घुसने वाला हर व्यक्ति पहला सवाल एक जैसा ही कर रहा था, इसलिए थोड़ी देर बाद कौशिक जैसे ही कोई आदमी सारस की तरह आगे की तरफ अपना थोबड़ा बढ़ाता, सवाल के पहले ही उत्तर दे देता-

''साहब तीन बजे तक आ जाएँगे!...नहीं लंच के लिए घर नहीं जाएँगे...सीधे सचिवालय आएँगे।''

आनेवालों में नब्बे प्रतिशत को वह चेहरे से पहचानता था। पैरोकार सभी पुराने थे। सालों से वह उन्हें देख रहा था। पहले दूसरे मन्त्री के साथ था तब भी ये वहाँ आते थे, आज इस मन्त्री के यहाँ है और यहाँ भी वे आ रहे हैं। उनका पूरा नाम तो शायद ही किसी को याद हो, लेकिन शर्माजी, वर्माजी, खान साहब या त्रिपाठीजी जैसे उपनाम सभी को याद थे। उसकी कामयाबी का राज भी यही था कि उसने कभी किसी शर्माजी को वर्माजी कहकर नहीं पुकारा। हाँ, उसने अपनी सुविधा के लिए कुछ वर्गीकरण जरूर कर रखे थे। सारे ब्राह्मण उपनामों वाले उसके लिए पंडितजी थे और जहाँ उसे किसी के बारे में शक होता वह उसे मान्यवर कहकर पुकारता और तब तक मान्यवर कहता जब तक उसे सामनेवाले को पुकारने लायक शब्द न मिल जाता।

''आराम से बैठिए पंडितजी, साहब सीधे यहीं आएँगे।''

''लंच-वंच कहाँ करते हैं?''

कौशिक ने जिसे पंड़ित जी के सम्बोधन के साथ बैठने के लिए कहा वह कुछ विशिष्ट व्यक्ति नजर आ रहा था क्योंकि कौशिक ने उसे बैठने के लिए आमन्त्रित करने के साथ अपने पृष्ठ भाग को थोड़ा उठाया। पंडितजी ने हवा में हाथ कुछ इस तरह हिलाया जैसे अगर थोड़ी भी देर हो गयी तो कौशिक खड़ा हो जाएगा।

पंडितजी के साथ इस समय बाहर लोगों की भीड़ थी। उनमें से कुछ फरियादी नजर आ रहे थे और कुछ उनके जूनियर। ये जूनियर इस पेशे की सीढ़ियाँ चढ़ने की ट्रेनिंग ले रहे थे। वे अलग-अलग उम्र के थे, पर सबकी पोशाक एक ही जैसी थी। खद्दर का लम्बा कुर्ता और अलग-अलग पायचोंवाले पजामे। जवान शागिर्दों की खास अन्दाज में तराशी हुई दाढ़ियाँ थीं और अधेड़ उम्रवालों के चेहरों पर दो-दो तीन-तीन दिन तक दाढ़ी न बनाने से उगी हुई खिचड़ी खूटियाँ थीं। कुछ के कन्धों पर गाँधी आश्रम के झोले लटके थे और कुछ के हाथों में चमड़े के ब्रीफकेसनुमा बैग थे। एक बात सबमें समान थी। सबके झोलों में कागज ठुँसे थे। ये कागज अलग-अलग किस्म की दरख्वास्ते थीं।

शागिर्दों को हल्के-फुल्के शिकार खुद करने की इजाजत थी। वे अपने झोलों में छोटे-मोटे तबादलों या कोटे परमिट की दरख्वास्तें रखे हुए थे। किसी सिपाही या किसी पटवारी या किसी नगरपालिका मुंशी के तबादले उनके क्षेत्र में आते थे। इसी तरह मिट्टी के तेल का कोटा या सस्ते गल्ले की दुकान के निलम्बित लाइसेंस की बहाली की लड़ाई वे खुद लड़ लेते थे। पंडितजी सिर्फ किसी अनुभवी उस्ताद की तरह अखाड़े के बाहर बैठकर अपने पट्ठों को वात्सल्य-भरी नजरों से निहारते रहते थे। केवल जब कोई चेला सामने बैठे अफसर की अवज्ञापूर्ण दृष्टि से घबराकर उनकी तरफ कातर भाव से देखता तभी वे अपनी गुरु-गम्भीर आवाज से हस्तक्षेप करते। उन्होंने अपने चेलों को सिखा रखा था कि मुकदमा कमजोर हो तो वकील की आवाज का उतार-चढ़ाव कानूनी दलीलों पर भारी हो जाता है। उनके चेले उतार कम, चढ़ाव में अधिक विश्वास रखते थे, इसलिए अक्सर किसी चेले के कमजोर पड़ते ही सारे के सारे इतनी जोर-जोर से चिल्लाने लगते थे कि नब्बे फीसदी मामलों में सामने बैठा अफसर घबराकर कागज पर कुछ न कुछ लिख देता था।

आज लगता है कोई बड़ा काम था इसलिए पंडितजी अपनी पूरी फौज लेकर आये थे।

चेलों ने पंडितजी के लिए कुर्सी खाली कराने के लिए पूरे कमरे पर धावा बोल दिया। कमरे में कुर्सियाँ कम थीं और सभी भरी हुई थीं। चेले नादिरशाह की फौज की तरह झपटे। उन्होंने कुर्सी पर बैठे लोगों की तरह-तरह से परीक्षा ली। कुर्सी के हत्थे, पाये और बैठे लोगों के हाथ कन्धे...सभी कुछ को उखाड़ने के भरपूर प्रयास हुए।

इम्तहान बटुकचन्द उपाध्याय का भी हुआ। पर वे ऐसी स्थितियों से गुजरने के आदी हो चुके थे। इससे उबरने का एक ही तरीका था कि अपना आत्मविश्वास बनाये रखते हुए सामनेवाले को भुनगे या कीड़े-मकोड़े के रूप में देखना। इसलिए जब एक चेले ने उनकी कुर्सी झकझोरते हुए उन्हें सूचना दी कि 'पंडितजी हैं, पंडितजी' तो उन्होंने दरवाजे के ऊपर कोने में जाला बनाती हुई मकड़ी को पूरी दिलचस्पी से देखना शुरू कर दिया और जब दूसरे चेले ने फुसफुसाते हुए बताया कि बहराइच के विधायकजी हैं तब तक वे जाले में इतने तल्लीन हो गये थे कि अगर चेला आगे न बढ़ गया होता तो वे जाले बुनने की रचना-प्रक्रिया के बारे में उसका ज्ञानवर्धन करने लगते।

वहाँ कुर्सियों पर बैठे कुछ लोगों के पास इतना दृढ़ आत्मविश्वास नहीं था। एक तो चेलों को झपटते देखकर ही घबराकर खड़ा हो गया, उसकी कुर्सी पर पंडितजी विराजमान हो गये। दूसरे ने आधा खड़ा होकर बैठने की कोशिश की तो उसे पता चला कि उसकी कुर्सी खींच ली गयी थी और अगर समय से उसे चेतावनी न मिल गयी होती तो अब तक वह दंडवत कर रहा होता। उसकी कुर्सी पर एक चेला बैठ चुका था। तीसरे क्षीण आत्मविश्वास वाले व्यक्ति को घसीटकर उठा दिया गया और दो चेले उसकी कुर्सी आधा-आधा शेयर करने लगे।

''और सुनाइए कौशिकजी।'' पंडितजी ने कहा कौशिक से लेकिन उसके सुनने की फिक्र न करके चारों तरफ नजर घुमाकर उस व्यक्ति को तलाशा जिसके काम के लिए इतने चेलों की फौज लेकर उन्होंने चढ़ाई की थी। इस कमरे के माहौल से भौंचक एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति सफारी सूट में खड़ा हुआ अपनी घबराहट छिपाने के लिए अपने हाथ के ब्रीफकेस को हिला-डुला रहा था।

''अरे कपूर साहब इधर आ जाइए।''

पंडितजी ने पास बैठे चेले को इशारा किया। चेले ने अपने बगलवालों को देखा, पर वह कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास से भरपूर था। उसे बेफिक्री से पान मसाला खाते देखकर चेला ही उठ गया। वहाँ कपूर साहब नामक व्यक्ति बैठ गये।

''कौशिकजी, इन्हें नहीं पहचानते! अरे भाई कपूर साहब हैं। कल के अखबार में पूरा सप्लीमेंट था। कोरिया की कम्पनी के साथ मिलकर कार की फैक्टरी लगा रहे हैं। कल उसी में तो पी.एम. आ रहे हैं। सी.एम. भी जाएँगे ही। मुझसे बोले पी.डब्ल्यू.डी. मिनिस्टर के बिना तो फंक्शन अधूरा रह जाएगा। उन्हें विशिष्ट अतिथि बनाना चाहते हैं। मैंने कहा चलिए अभी तय करा देते हैं। अपने मन्त्रीजी मना नहीं करेंगे। मैं सोचता था कि मन्त्रीजी सुबहवाली फ्लाइट से आ रहे हैं। कपूर साहब जल्दी तो नहीं है थोड़ी देर इन्तजार कर लें।''

''जल्दी तो नहीं है, पर शाम को मिल लेते हैं कोठी पर...।''

कपूर साहब और पंडितजी की आँखों ने आपस में जो बातें कहीं उसे देखकर कोई भी समझदार आदमी कह सकता था कि मन्त्रीजी के साथ कपूर साहब की मुलाकात कोठी पर ही होनी उचित थी, लेकिन कौशिक ने इशारा समझने से इनकार कर दिया। उसने सामने पड़े कागजों पर कुछ लिखते-लिखते कहा-

''आज तो मन्त्रीजी खाली नहीं हैं। दस बजे तक तो कैबिनेट है, फिर कांस्टिचुएंसी के एक आदमी के लड़के के जन्म दिन में...वहाँ से एक शादी...।''

''आप भी कौशिक साहब...आपको पता है कपूर साहब कितनी मुश्किल से हमारे प्रदेश में कारखाना लगाने के लिए तैयार हुए। खुद सी.एम. ने दसियों बार इन्हें फोन किया, इनके घर गये, मुझे लगाया। तब कहीं जाकर हम लोग कपूर साहब को तैयार कर पाये कि वे इस प्रदेश में कारखाना लगाएँ और आपके मन्त्रीजी को फुर्सत नहीं है कि...''

''पर आज तो कैबिनेट है...''

''हो चुका प्रदेश का विकास...''

''फिर जन्म दिन...''

''इसीलिए पिछड़े हुए हैं...''

''वहाँ से शादी...''

''भाड़ में गयी शादी...। यहाँ प्रदेश का सवाल है और आपको मुंडन और शादी की पड़ी है,'' पंडितजी अपने उस रूप में आ रहे थे जिनके लिए वे प्रदेश की राजधानी में मशहूर थे।

इस बीच उनके चेलों ने गुरु की तरफ आज्ञा के लिए देखा। गुरु ने न जाने क्या सन्देश प्रसारित किया कि छोटे से कमरे में घमासान छिड़ गया।

चेलों की फौज किसी मध्ययुगीन सामरिक रणनीति के तहत काम करती थी। एक अनुभवी सिपहसालार की तरह पंडितजी पहले अपनी पैदल सेना को आगे बढ़ाते थे। पैदल सेना का मतलब उन सैनिकों से था जो सिर्फ अपनी आवाज का इस्तेमाल करते। पैदल सैनिक असफल होने लगते तो घुड़सवार आगे बढ़ते थे। ये तरह-तरह के अस्त्रों-शस्त्रों से दुश्मन पर टूट पड़ते। अक्सर उनका सबसे प्रभावी हथियार उनके जूते या चप्पलें होतीं।

पंडितजी के पास तोपखाना भी था, पर उसका इस्तेमाल वे सचिवालय या विधानसभा परिसर में नहीं करते थे। उन्होंने अपने बहुत से चेलों को लाइसेंसी हथियार दिला रखे थे और उनके बहुत से चेले कागजी खानापूरी में विश्वास नहीं रखते थे इसलिए गैरलाइसेंसी हथियार रखते थे। उनके लाइसेंसी चेले राष्ट्रीय एकता की जीती-जागती मिसालें थीं इसलिए उनके लाइसेंस भी नागालैंड, मणिपुर से लेकर हरियाणा तक न जाने किन-किन प्रान्तों के थे। पंडितजी के विरोधी उनके तोपखाना ब्रिगेड पर उनके विरोधियों की हत्या और अपहरण के आरोप लगाते रहते थे, लेकिन पंडितजी ने घोषित कर रखा था कि जनता की अदालत सबसे बड़ी अदालत है और जब तक वहाँ वे मुकदमा नहीं हारते तब तक उन्हें अपराधी नहीं माना जा सकता और जनता की अदालत में वे पिछले पच्चीस सालों से तो जीत ही रहे थे।

आज भी पहला हमला उनकी पैदल सेना ने किया। एक साथ फेफड़ों की ताकत का अलग-अलग परिमाण में इस्तेमाल करते हुए कई चेले झपटे-

''बाबुओं ने इस देश का सत्यानाश कर रखा है...''

''पंडितजी कहाँ-कहाँ से लोगों को चिरौरी करके प्रदेश का विकास करने के लिए लाएँ और इनके पास मिलने का समय...''

''समय कैसे नहीं है...नोट गिनने का समय है...विकास...''

''साले...मादर...''

कौशिक ने घबराकर चारों तरफ मदद के लिए देखा। उसका अनुभव बताता था कि ऐसे मौकों पर सामने बैठे लोग अन्धों, गूँगों, बहरों का रोल करने लगते हैं। उसने मिमियाना शुरू किया-

''शाम को कैबिनेट है...''

''भाड़ में गयी कैबिनेट, प्रदेश का विकास...''

''फिर शादी...''

''शादी की माँ की...प्रदेश ऐसे ही पिछड़ा रहेगा...''

''बर्थ डे...''

''रंडी का नाच नहीं है क्या...इसी तरह होगा औद्योगिकीकरण, ऐसे ही लगेंगे कारखाने...''

''पर मैंने मना कब किया पंडितजी...मैं तो कह रहा था कि कैबिनेट जाने के पहले आप कोठी पर आकर मिल लें...मेरी बात तो पूरी सुनते नहीं आप लोग, बस चिल्लाने लगते हैं।''

कौशिक के इस हृदय-परिवर्तन के पीछे प्रदेश के विकास या पिछड़ेपन को दूर करने की सदिच्छा कम थी और उसकी छठी इन्द्रिय द्वारा समय से दी गयी चेतावनी का असर अधिक था। चारों तरफ बचाव के लिए नजरें दौड़ाते समय उसने पंडितजी के एक चेले को हाथ में चप्पल उलटते-पुलटते देख लिया था। उसके अनुभव ने उसे बता दिया कि चप्पल में कोई खराबी नहीं है और शत्रु पक्ष अब अपनी पैदल सेना की मदद के लिए घुड़सवारों को मैदान में उतारनेवाला था।

कौशिक के हृदय-परिवर्तन के साथ ही कमरे का माहौल एकदम सामान्य हो गया। हाथ में चप्पल लेकर उलट-पुलटकर देखनेवाले को विश्वास हो गया कि उसकी चप्पल में कोई खराबी नहीं है इसलिए उसने उसे वापस पहन लिया। फेफड़ों की जोर आजमाइश करनेवाले चेले फुसफुसाकर बातें करने लगे। पंडितजी, जो पूरे घटनाक्रम में सिर्फ मुस्कुरा रहे थे, बगल में बैठे कपूर साहब नामक प्राणी के चेहरे पर आदर, विस्मय और आश्वस्ति जैसे भावों को एक साथ देखकर थोड़ा और बड़े कोण से मुस्कुराने लगे।

''अरे मैं तो जानता ही था कि कौशिक साहब तो घर के आदमी हैं। मुलाकात तो होगी ही। तुम लोग बेकार चिल्ल-पों मचा रहे हो,'' पंडितजी ने चेलों की तरफ देखकर किसी काल्पनिक व्यक्ति को डाँटा, ''फिर इनके मन्त्रीजी भी प्रदेश के विकास की कितनी चिन्ता करते हैं!''

पंडितजी अपने प्रिय विषय पर आ गये। देर तक वे प्रदेश के पिछड़ेपन पर विलाप करते रहे। जब उन्होंने बताया कि प्रदेश में सड़कें नहीं हैं, उनके चेलों ने कुछ ठेकेदारों के प्रार्थना-पत्र आगे बढ़ा दिये जिन पर कौशिक ने सम्बन्धित इंजीनियरों के नाम कुछ लिख दिया। पंडितजी ने याद दिलाया कि उनके इलाके में गरीबों को मिट्टी का तेल नहीं मिल रहा, इस पर उनके एक चेले ने फौरन अपने झोले से एक प्रार्थना पत्र निकाला जिसमें उसके किसी आदमी को मिट्टी के तेल की दुकान का लाइसेंस आवंटित करने का अनुरोध किया गया था, लेकिन फिर यह सोचकर प्रार्थना-पत्र वापस अपने झोले में रख लिया कि यह तो पी.डब्ल्यू.डी. मन्त्री के पी.ए. का कमरा है। तेल की दुकान का प्रार्थना-पत्र दूसरे मन्त्री के कमरे में दिया जाना है।

अब कमरे में उस विषय पर तबादला-खयालात होने लगा जो भ्रष्टाचार के बाद सचिवालय का सबसे प्रिय विषय था अर्थात् प्रदेश का पिछड़ापन। सबके पास कहने के लिए बहुत कुछ था और सभी कहने के लिए बेकरार थे। अतः जल्दी ही वह समय आ गया जब सभी लोग कुछ न कुछ कहने लगे।

वैसे तो चापलूसी ऐसे कमरों में प्रचुर मात्रा में बहती रहती है फिर भी कोई व्यक्ति, खास तौर से ऐसा जिसके काम का अभी कुछ भी अला भला नही हुआ हो, मक्खन लगाने का कोई मौका चूकना नहीं चाहता। ऐसे ही एक दरखास्ती ने चाशनी मिले स्वर में आग्रह किया-

''कौशिक साहब अपने पंडितजी को वो किस्सा तो सुनाइये...अरे वही जिसमें फैसला मेरिट पर होता है...''

कमरे में ठहाका लगा। पंडितजी ने उत्सुकता से देखा। सीतापुरवाला किस्सा शुरू हुआ तो बटुकचन्द का चेहरा और लटक गया। वह एक बार फिर मन ही मन में हिसाब लगाने लगे कि मुकदमे का फैसला मेरिट पर न हो, इसके लिए उन्हें कितना और खर्च करना पड़ेगा। उन्होंने शुरू में दस दिये थे। उड़ती-पुड़ती खबर थी कि कमलाकान्त बीस देकर गया है। यह खबर कमलाकान्त के गुर्गों ने ही उड़ायी थी। रात की बस से जब बटुकचन्द राजधानी के लिए रवाना हो रहे थे तो बस अड्डे की पान की दुकान पर रिजवानुल हक न जाने कहाँ से टपक पड़ा था। उसे देखते ही बटुकचन्द ने अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपाने की कोशिश की, लेकिन थोड़ी देर में ही उन्हें पता चल गया कि ऐसी किसी हरकत का कोई लाभ नहीं। रिजवानुल हक ने बचपन में खो-खो जरूर खेला होगा तभी तो जब वे मुसीबत टलीवाले अन्दाज में पान की दुकान के पीछे से बाहर निकले, न जाने कहाँ से प्रकट होकर रिजवानुल हक ने खो...कह दिया। यह बात और थी कि इस खो की प्रतिध्वनि 'बड़े साहब नमस्ते' जैसी सुनाई दी।

''नमस्ते...नमस्ते...हक साहब पान खाने निकले हैं?"

''हाँ सर पुरानी आदत है। खाना खाने के बाद टहलने निकलता हूँ...बिना पान खाये खाना पचता ही नहीं। आप कैसा लेंगे...सादा या जर्दा...?"

बटुकचन्द ने मरे स्वर में जो कुछ कहा वह कुछ भी हो सकता था। सादे या जर्दे वाले पान की जगह वे रसगुल्ला भी पान में मिला कर खा सकते थे। वे चुपचाप रिजवानुल हक को पानवाले को जर्देवाले पान का हुक्म देते देखते रहे। जब वह जर्दे के नम्बरों का उल्लेख कर रहा था तो वे बुझे मन से आने-जानेवाली बसों के नम्बर पढ़ रहे थे और यह अन्दाजा लगा रहे थे कि यह कमबख्त कब टलेगा और वे सामने खड़ी लखनऊ वाली बस पर लपककर चढ़ जाएँगे।

रिजवानुल हक ने गिरगिट से भी तेज रंग बदला था। जिस दिन उन्होंने चार्ज लिया उसी दिन रात को रिजवानुल हक के यहाँ से कबाबों से भरा टिफिन कैरियर पहुँचा था। उन्हें दिन की पूरी खबर थी। दिन में दफ्तर में कमलाकान्त वर्मा के कमरे में जो बैठक हुई उसमें रिजवान भी उपस्थित था। उन्होंने पहले तो कबाब लेकर आये चपरासी को डाँटकर वापस जाने को कह दिया, पर फिर यह सोचकर कि दुश्मन के खेमे का एक आदमी टूटकर आया है तो कुछ जानकारी ही देगा, कबाब रख लिये। दूसरे दिन सुबह ऋषभचरण रिजवान को लेकर उनके बँगले पर आया तो समर्पण की शर्तें भी पक्की हो गयीं। रिजवान से ही कमलाकान्त के राजधानी अभियान की पूरी जानकारी उन्हें मिली। यही रिजवान आज उनके ऊपर जासूसी कर रहा है।

''बड़े साहब लखनऊ जा रहे हैं क्या?"

''नहीं...नहीं...'' बटुकचन्द ने घबराकर अपनी निगाह लखनऊवाली बस से हटा ली।

पान लेते-लेते उन्होंने रिजवानुल हक को आँखों ही आँखों में तौला। कितना पता है इस बदमाश को ? क्या यह जानता है कि कमलाकान्त ने राजधानी में अपना तबादला रुकवा लिया है ? उसके नाक का बाल था यह। यह नहीं हो सकता कि उसे पता न हो कि कमलाकान्त लखनऊ से चल चुका है और अब इलाहाबाद पहुँचनेवाला होगा।

अचानक बटुकचन्द का माथा ठनका। ऐसा तो नहीं कि कमलाकान्त इलाहाबाद पहुँच गया हो। उन्होंने आँखें सिकोड़कर सामनेवाले को तौला। उनकी निगाहों में भेदने की जो शक्ति थी उसने रिजवानुल हक को थोड़ा गड़बड़ा दिया।

हूँ तो ये मामला है ! बटुकचन्द को अचानक लगा कि राजधानी जानेवाली बसें लम्बे अन्तराल से चलती हैं और न जाने कितना अधिक समय लेती हैं। पर अभी तो बस से ज्यादा जरूरी था कि कमलाकान्त के इस जासूस को यहाँ से दफा किया जाय। उसने आते ही इसे भेजा होगा मेरी अगली चाल के बारे में पता करने के लिए। पान तो बहाना था।

''असल में वाइफ के एक ममेरे भाई हैं रायबरेली में। उनके बारे में पता चला कि उनकी तबीयत कुछ सीरियस है। वाइफ बनारस में हैं, मैंने कहा चली जाओ। पर साहब लेडीज कहाँ मानती हैं। मुझे ही जाना पड़ रहा है। काम तो आप जानते ही हैं, कितना लदा हुआ है। पर वो पुरानी मसल है न कि सारे खुदाई एक तरफ जोरू का भाई एक तरफ...'' हँसी का दौर थमते ही बटुकचन्द ने कई तरीकों से इशारा किया कि रिजवानुल हक चला जाय, पर उसने जो कुछ कहा उसका मतलब यह था कि मातहत का फर्ज बनता है कि वह अपने साहब को गाड़ी में चढ़ाकर ही घर की तरफ प्रस्थान करे। फिर घर जल्दी जाकर रिजवानुल हक करेगा भी क्या, फैमिली यानी रिजवानुल हक की पत्नी आजकल यहाँ नहीं है। उसकी पत्नी कहाँ है, इसमें बटुकचन्द को कोई दिलचस्पी नहीं थी। छुटकारे का कोई चारा नहीं था इसलिए वे चुपचाप रिजवानुल हक को रायबरेली वाली बस में अपना सामान चढ़ाते देखते रहे। लखनऊवाली बस छूटने को तैयार थी, पर अब क्या किया जा सकता था गनीमत थी उन्होंने अपने साले को रायबरेली में बताया, बनारस में नहीं। लखनऊ वाली बसें रायबरेली होकर ही जाती थीं। थोड़ा कष्ट जरूर होगा, पर रायबरेली उतरकर फिर लखनऊ की बस पकड़ लेंगे।

बटुकचन्द ने कंडक्टर से टिकट खरीदते रिजवानुल हक को देखा। लखनऊवाली बस हरकत कर रही थी। कमबख्त अभी चला जाय तो वे सामान उतारकर उस बस में चढ़ सकते हैं, पर रिजवानुल हक उन्हें बस में बिठाकर आखिरी बार पान खिलाकर जब उतरा तब तक लखनऊ की बस को गये काफी समय हो गया था और बटुकचन्द का धैर्य इतना जवाब दे गया था कि अपनी सारी सौम्य मुस्कान को बरकरार रखने की कोशिश करते-करते भी उनके मुँह से निकल ही गया-''कमलाकान्त कब आये?"

''जी ज ज ज...'' उसका उत्तर सुनने से अधिक बटुकचन्द की दिलचस्पी रिजवान का चेहरा देखने में थी। उन्हें ज्यादा देर यह हरकत भी नहीं करनी पड़ी थी। जल्दी ही बस चल पड़ी।

कमरे में जोर का ठहाका लगा तब बटुकचन्द को पता चला कि सीतापुरवाले जमींदार का किस्सा खत्म हो गया था। लोग मुकदमे के उसके गुण-दोष के आधर पर फैसला होने के विचार मात्र से ही गद गद हो रहे थे। भारतीय वाङ्मय की पुरानी परम्परा यहाँ भी जीवित थी। लोग अवास्तविक काल्पनिक सम्भावना पर हँस रहे थे। मुकदमे का फैसला मेरिट पर भी हो सकता है, यह उन्हें हँसाने के लिए बहुत था। कोई और दिन होता तो बटुकचन्द भी हँसते, पर यहाँ तो उन्हें ऐसा लग रहा था कि किस्सा उन्हीं के लिए सुनाया जा रहा है। पता नहीं यह उनका भ्रम था या हकीकत कि उन्हें किस्से के दौरान लगातार कौशिक की आँखें अपने ऊपर गड़ी नजर आ रही थीं।

कौशिक कमरे में बैठे लोगों को जो जानकारी बीच-बीच में दे रहा था उसके अनुसार मन्त्रीजी तीन बजे हवाई अड्डे पर पहुँचेंगे और वहाँ से सीधे सचिवालय आएँगे। उसके बादवाली सूचनाएँ विरोधाभासी थीं। किसी को उसने बताया कि शाम की कैबिनेट मीटिंग चार बजे से है, किसी को छह बजे से। कैबिनेट के बाद शादी, जन्म-दिन, मुंडन वगैरह की सूचनाएँ कुछ इस तरह से गड्डमड्ड थीं कि वहाँ बैठा कोई भी व्यक्ति उनके समय, स्थान या आतिथेय के बारे में शर्तिया कुछ नहीं कह सकता था। बटुकचन्द के लिए जरूरी था कि मन्त्रीजी का सही कार्यक्रम उन्हें मालूम हो...तभी आगे की रणनीति बनायी जा सकती है। इतनी भीड़ में कौशिक से कोई जानकारी पाना निहायत मुश्किल था। वे सिर्फ उसके सामने बैठे मुस्कुराते रह सकते थे या सीतापुरवाले किस्से पर हँसने की कोशिश कर सकते थे, पर इससे तो काम नहीं चल सकता था। समय कम था, अगर दो-तीन दिन के अन्दर कमलाकान्त की जगह फिर से उनका पदस्थापन नहीं हुआ तो फिर उनकी वापसी मुश्किल होते-होते असम्भव हो जाएगी। यहाँ बैठे रहने से कोई फायदा नहीं था। वे बाहर निकल आये।

कमरे के बाहर चौड़ा गलियारेनुमा बरामदा था। गलियारा एक वृत्ताकार विशाल इमारत को साँप की तरह अपनी कुण्डली में लपेटे हुए था। बाहर धूप सीधी पड़ रही थी और अन्दर के ए.सी. कमरे की ठंड बाहर आकर कुछ इस तरह पिघली की बटुकचन्द अचकचाकर वापस अन्दर की तरफ भागे। इस बार वे जिस कमरे में घुसे वह कुछ छोटा था और उसमें दो बाबू टाइपराइटरों पर कुछ खट-खट कर रहे थे। कमरे में एक छोटी-सी तिपाई पर जूठे कप-प्लेट और गिलास पड़े थे। एक कोने में एक वाटर कूलर था जिसकी टोंटी से पानी की पतली-सी धार लगातार बह रही थी। दोनों बाबुओं के सामने तीन-चार कुर्सियाँ पड़ी थीं, जिन पर इस समय कोई बैठा नहीं था। जैसा कि इस इमारत का दस्तूर था, बटुकचन्द बिना किसी औपचारिकता के उनमें से एक पर बैठ गये। पर दस्तूर के खिलाफ एक बात हुई। बाबुओं में से एक उन्हें देखकर मुस्कुराया। दस्तूर के खिलाफ दूसरी बात यह हुई कि उस बाबू ने उनसे चाय के लिए पूछा।

बटुकचन्द बिना किसी तरह का आश्चर्य चेहरे पर लाये मुस्कुराये और बाबू को तौलते रहे। वे इस इमारत के नियमित यात्री थे और निश्चित था कि बाबू उनसे कहीं-न-कहीं टकराया जरूर है, पर कहाँ ? उन्होंने अपने दिमाग पर जोर डाला।

बाबू ने जिस चपरासी को चाय के लिए कहा, उसने इस गुत्थी से उन्हें निजात दिला दी।

यह तो वही चपरासी था जो अन्दर कौशिक के बुलाने पर आ-जा रहा था। वे जिस कमरे में घुसे वह मन्त्रीजी के स्टाफ का ही कमरा था। मन्त्रीजी चूँकि महत्त्वपूर्ण मन्त्री थे इसलिए उनके स्टाफ को दो कमरे मिले हुए थे। एक में कौशिक का राजपाट फैला था और दूसरे में बाकी स्टाफ बैठता था। कौशिक का कमरा मन्त्रीजी के कमरे से सटा हुआ था और अत्यन्त विशिष्ट व्यक्तियों को छोड़कर अन्य सारे आगन्तुकों को मन्त्रीजी से मिलने के लिए उसी के कमरे से होकर जाना पड़ता था। उसका कमरा मन्त्रीजी की अनुपस्थिति में मुलाकातियों के लिए प्रतीक्षालय का भी काम करता था। इस छोटे कमरे में भी बटुकचन्द दो बार आये थे, पर आज बाहर की गर्मी की मार ने उनकी स्मृति को कुछ इस कदर गड़बड़ा दिया था कि कुछ देर लगी उन्हें व्यवस्थित होने में।

मुख्यमन्त्री लोग जब मन्त्रिमंडल बनाते हैं तो कुछ कैबिनेट मन्त्री नियुक्त करते हैं। इन कैबिनेट मन्त्रियों की सहायता के लिए कुछ राज्यमन्त्री या उपमन्त्री नियुक्त कर दिए जाते हैं। ये जूनियर मन्त्री अपने वरिष्ठ मन्त्रियों की मदद के लिए बेकरार रहते हैं, पर कैबिनेट मन्त्री स्वावलम्बन का नारा लगाते-लगाते उसमें इस कदर विश्वास करने लगते हैं कि वे अपने छोटे भाइयों को कोई कष्ट नहीं देना चाहते हैं। लिहाजा सचिवों को हुक्म जारी हो जाता है और छोटे मन्त्रियों के पास फाइलें पहुँचती ही नहीं, सीधे बड़े मन्त्री के पास चली जाती हैं। छोटे मन्त्री शुरू-शुरू में अफसरों पर रोब गाँठने की कोशिश करते हैं फिर मुख्यमन्त्री के पास विलाप करने जाते हैं और अन्त में हारकर अपने कमरे में दुखी हो अपने दलालों, चमचों और मुसाहिबों के बीच घूमनेवाली कुर्सी पर बैठकर अपने मन्त्री या मुख्यमन्त्री को कोसते रहते हैं। उनके श्रोता कभी कम नहीं होते क्योंकि फाइलें भले उनके पास न पहुँचें, चाय-समोसे की आपूर्ति कभी बाधित नहीं होती। कई बार सरकारी खजाना खाली होने की दुहाई देकर मुख्यमन्त्री या कैबिनेट मन्त्री इस चाय-समोसे की आपूर्ति को रोकने का प्रयास करते हैं, पर राज्यमन्त्री चाय-समोसे बन्द होते ही 'समोसा नहीं तो फाइल भेजो' का ऐसा समवेत शोर करते हैं कि मुख्यमन्त्रियों को यह ज्यादा फायदेमन्द सौदा लगता है कि राज्यमन्त्रियों की चाय-समोसे की सप्लाई लाइन फिर से जोड़ दी जाय।

राज्यमन्त्रियों की ही तरह कनिष्ठ बाबुओं का भी एक सर्वहारा वर्ग ऐसा होता है जो सहायक पी.ए. का काम करता है और पी.ए. लोगों को मलाई खाते देखकर उनकी हाँड़ियाँ फोड़ने की फिराक में रहता है। ये लोग भी देश के उन दुर्भाग्यशालियों में होते हैं जो काम करने के लिए व्यग्र रहते हैं, पर उनके आका उन्हें काम नहीं देना चाहते। ये लोग सुबह-सबेरे दफ्तर आ जाते हैं और देर रात तक वहीं जमे रहते हैं। कोई न कोई बहाना ढूँढ़कर मन्त्रीजी के इर्द-गिर्द चक्कर भी लगा आते हैं। कई बार मुँह खोलकर अलादीन के चिराग के जिन की तरह काम...काम...चिल्लाने लगते हैं। इस पर भी बात नहीं बनती क्योंकि जिन के पास यह विकल्प था कि अगर अलादीन उसे काम नहीं देता तो वह उसे खा जाता, लेकिन इन अभागे बाबुओं के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं थी।

बटुकचन्द समझ गये कि वे ऐसे ही एक अभागे प्राणी के समक्ष बैठे हैं जिसके तन का रोआँ-रोआँ काम-काम चिल्ला रहा है और काम है कि उसके पास फटक नहीं रहा। पर इस दुखियारे ने उन्हें चाय पिलाने की क्यों सोची इस गुत्थी को सुलझाने के लिए उन्हें कुछ सवाल पूछने चाहिए थे, पर वे यह फैसला नहीं कर पा रहे थे कि कमरे में मौजूद दूसरा बाबू सुखी था अथवा दुखी। इसलिए उन्होंने इस मौके पर वही किया जो आमतौर से हिन्दुस्तानी करते हैं। वे चाय पीते-पीते मुस्कुराने लगे।

बाबू नं. एक भी मुस्कुराया और उसने एक प्याला चाय बाबू नं. दो के सामने बढ़ा दी। बाबू नं. दो भी मुस्कुराया। बटुकचन्द समझ गये कि दोनों ही दुखी हैं। अब बात आसान हो गयी।

दोनों बाबुओं ने एक दूसरे को सम्बोधित किया तो बात और आसान हो गयी। दोनों बाबू ब्राह्मण थे। बटुकचन्द भी ब्राह्मण थे अतः तीनों ने एक दूसरे को पंडितजी कहकर सम्बोधित करना शुरू कर दिया। इस सम्बोधन से प्रगाढ़ परिचय की जो अन्तःसलिला किल्लोल मारती हुई वहाँ फूटी उसने अपरिचय के सारे विन्ध्याचल ढहा दिये और चाय के जूठे कप हटाने जब चपरासी वहाँ आया तो उसे लगा कि बटुकचन्द भी उस कमरे के उतने ही पुराने अंग हैं जितने ये दो बाबू।

इसके बाद बटुकचन्द ने परनिन्दा और ईर्ष्या नामक दो ऐसे हथियारों को एक साथ मिलाकर इस्तेमाल किया जिनके बारे में उनका अनुभव था कि ये कभी खाली नहीं जाते। आज भी ये कारगर सिद्ध हुए। उन्होंने कौशिक के कमरे की तरफ इशारा करते हुए जो पूछा उसका आशय यह जानना था कि उस कमरे में बैठनेवाला व्यक्ति भी क्या उनमें से ही है।

उत्तर में जो सूचनाएँ मिलीं उनके अनुसार वह व्यक्ति यानी कौशिक उनमें से हो ही नहीं सकता। यह व्यक्ति लोगों को धोखा देने के लिए अपने नाम के आगे कौशिक लगाता है। उसके आचार-विचार ऐसे हैं कि वह ब्राह्मण कैसे हो सकता है ? चूँकि ये तीनों यू.पी. के हैं और वह पंजाब का है, इसलिए स्वाभाविक है कि वह क्षुद्र और लालची है। इसलिए दोनों उसे मुँह नहीं लगाते और उनकी सलाह के अनुसार बटुकचन्द को भी उसे मुँह नहीं लगाना चाहिए।

कौशिक-पुराण सुनने के बाद बटुकचन्द ने सिर्फ इतना कहा, ''तभी तो।''

इस छोटे से वाक्य के बहुत से अर्थ लगाये जा सकते थे। उन दोनों बाबुओं ने इसका वही अर्थ लगाया जो वे चाहते थे कि 'तभी तो कौशिक इतने घटिया तरीके से आचरण करता है।'

इसके बाद के संवाद फुसफुसाहट में बदल गये। यह फुसफुसाहट कुछ-कुछ पारसी थिएटर में बोले जानेवाले स्वगत कथन की तरह थी। फर्क इतना था कि वहाँ पूरा हाल उसे सुनता था, यहाँ कमरे में चूँकि सिर्फ तीन ही पात्र थे इसलिए सिर्फ वे ही सुन रहे थे। बीच-बीच में चपरासी कमरे में आ जाता था तो वह भी सुन लेता था। पर उसे सुनकर खामोश रहने की आदत थी। उसके बारे में यह मशहूर था कि वह तभी बोलता है जब वह बोलना चाहता है। वह नहीं बोले इसका उपाय दोनों बाबू जानते थे। उन्होंने कुछ सूत्र-वाक्य टुकड़ों में कहे और नतीजतन जब वे तीनों उठे तो बटुकचन्द को चपरासी के कन्धे पर हाथ रखकर पूछना ही पड़ा, ''और बच्चे कैसे हैं उपाध्यायजी?"

उपाध्यायजी ने दोनों हाथ जोड़े और आँखें मूँदकर सिर आसमान की तरफ तान दिया। मतलब साफ था कि ऊपर ईश्वर है जो उनके बच्चों की देखभाल करता है और इसी देखभाल नामक क्रिया को सम्पादित करने के लिए बटुकचन्द जैसे प्राणियों को भेज देता है।

बटुकचन्द ने उन अफसरों की शान में कुछ कसीदे कहे जिन्होंने दफ्तर में चपरासी की जगह पर भी किसी शूद्र को नहीं घुसने दिया और बताया कि इस तरह वे अपने दफ्तर में तो जमादार की नौकरी भी सिर्फ ब्राह्मणों को ही देते हैं। यह बात और है कि उनके दफ्तर में कोई ब्राह्मण चपरासी या जमादार अपना काम खुद नहीं करता और अपनी तनख्वाह का चौथाई देकर दूसरों को काम पर रख लेता है।

''महँगाई बहुत बढ़ गयी है।''

बटुकचन्द ने सिर हिला दिया। उपाध्याय ने महँगाई की वजह से इतना बड़ा त्याग किया था कि ब्राह्मण होकर चपरासी का काम कर रहा था और उसने अपनी जगह किसी शूद्र को नहीं रखा था और इसीलिए उसके बच्चों को मिठाई खाने के लिए बटुकचन्द को दो बार जेब में हाथ डालकर दस-दस के दो नोट निकालने पड़े।

उपाध्याय खुश हो गया और उसने फिर दोनों हाथ ऊपर उठा दिये। वह उन्हें नहीं ईश्वर को धन्यवाद दे रहा है, इस बात का बटुकचन्द ने बुरा नहीं माना। ईश्वर खुश नहीं होता तो वे उस कमरे में कैसे आते वे उस कमरे में नहीं आते तो उपाध्याय को बीस रुपये कैसे मिलते और उनकी उन दोनों दुखी बाबुओं से मुलाकात कैसे होती उन्होंने भी चपरासी की तर्ज पर दोनों हाथ ऊपर उठाये और बाबू नं. एक को लेकर बाहर निकल गये।

बाहर अभी धूप में तेजी थी, पर सचिवालय के गलियारों से गुजरने में पहले जैसी घबराहट नहीं हुई।

''आइए, कहीं चाय पीते हैं।''

बटुकचन्द ने घूमकर बाबू की तरफ देखा। वह उनसे कुछ दूरी बनाकर चल रहा था। उसके चेहरे से पूरी तरह अपरिचय टपक रहा था और अगर कोई तीसरा देखता तो उसे यही लगता कि वे दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते।

''कहीं चाय पी जाय।''

बटुकचन्द ने अपनी चाल धीमी की, लेकिन बाबू ने अपनी चाल और धीमी कर दी। मतलब साफ था। बाबू नहीं चाहता था कि वहाँ से गुजरनेवाला कोई व्यक्ति यह समझे कि वे दोनों साथ जा रहे हैं। बटुकचन्द ने अपनी चाल बढ़ा दी।

सचिवालय का गलियारा किसी भूल-भुलैया की तरह था। बटुकचन्द सैकड़ों बार यहाँ आये थे और हर बार की तरह आज भी रास्ता भूल गये। वे कुछ ठिठककर बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहे थे कि उनके पीछे से बाबू उन्हें कोहनी मारता हुआ आगे निकल गया। वे उसके पीछे लपक लिये। दोनों जब बाहर निकल आये तभी बाबू उनसे मुखातिब हुआ।

''हाँ, सर बताएँ क्या हुकुम है?"

''कहीं बैठकर चाय पी जाय।''

''कहाँ चलें?"

बटुकचन्द ने सचिवालय की कैंटीन की तरफ इशारा किया। बाबू ने चेहरे पर सहमने का भाव लाते हुए अपने कन्धे उचकाये और कहा, ''सर जी, यहाँ दीवारों के भी आँख-कान हैं।''

''फिर?" के जवाब में बाबू ने जिस रेस्तराँ का नाम लिया वह राजधानी के इकलौते पाँचतारा होटल का हिस्सा था। बटुकचन्द एक क्षण को तो लड़खड़ाये, उन्होंने बाबू को नजरों से तौला और इस फैसले पर पहुँचे कि बाबू इस लायक तो नहीं है कि उसे किसी पाँचतारा होटल में ले जाया जाय, पर ऐसा था कि अब इसके सिवाय कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। अन्दर दोनों बाबुओं से जो बातें हुई थीं उनसे यह जानकारी मिली थी कि बाबू किसी ऐसे शख्स को जानता है जो मुख्यमन्त्री के बहुत करीब है और इतना करीब है कि उनके मन्त्री के आदेश को भी मुख्यमन्त्री से उलटवा सकता है। यह बाबू अलीबाबा के खुल जा सिमसिम की तरह कोई मन्त्र जानता था और इसी मन्त्र से उनकी किस्मत का ताला खुल सकता है और इस मन्त्र को जानने के लिए उन्हें उसे पाँच सितारा होटल में ले ही जाना पड़ेगा। कोई चारा नहीं, इसलिए वे बाबू को लेकर पार्किंग की तरफ बढ़े जहाँ उनकी कार खड़ी थी।


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