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उपन्यास

तबादला

विभूति नारायण राय

अनुक्रम अध्याय 7 पीछे    

''सब वक्त-वक्त की बात होती है।''

गुसलखाने में घुसते समय जब शर्मा ने तीसरी बार यह वाक्य दोहराया तो बटुकचन्द समझ गये कि अब फिर से रास्तेवाली दार्शनिकता उसके ऊपर तारी होनेवाली थी।

शर्मा को बटुकचन्द अपने साथ पकड़ लाये थे। मिनी मुख्यमन्त्री उर्फ सुमन के घर से बाहर निकलने पर शर्मा अपनी गाड़ी के पास जाकर खड़ा हो गया और उसके दरवाजे पर हाथ टिकाकर उसने पूछा...अब?

इस अब के कई मतलब निकाले जा सकते थे। एक मतलब तो यह था कि अब अपने-अपने रास्ते नापे जाएँ, सिर्फ कल के मिलने को तय कर लिया जाये।

बटुकचन्द ने दूसरा मतलब निकाला। उन्होंने जो मतलब निकाला उसके अनुसार अभी कुछ तय नहीं था। इसके अनुसार उन्हें अभी तय करना था कि क्या करना है। और उन्होंने तय कर लिया कि वे शर्मा को रात-भर के लिए अकेला नहीं छोड़ सकते। राजधानी में रात-भर के लिए किसी को अकेला छोड़ने का मतलब था कि सुबह वह आपको पहचानने से इनकार कर दे। उन्होंने कसकर शर्मा की कलाई थाम ली, ''अरे शर्माजी, अभी आपके साथ सत्संग कहाँ हुआ?आप इतने पहुँचे हुए आदमी हैं कि मन कर रहा है आपके चरण पकड़ लूँ। अइसा लेक्चर दिया आपने कि साले पत्रकार की बोलती बन्द हो गयी। आइए कुछ देर हमारे साथ ही सत्संग कीजिए।''

''यहाँ कौन आपका घर है पंडितजी। कभी कुम्भ नहाने आये तो आपके यहाँ बैठेंगे। पसीने से बदन चिपचिपा रहा है, घर चलकर नहाएँगे-धोएँगे, तब चैन पड़ेगा।''

''घर नहीं है तो क्या हुआ, होटल तो है। वहीं चलिए गुरुजी।''

इसके बाद थोड़ी देर तक दोस्ताना चखचख हुई। फार्मेलिटी नाम का एक शब्द था जिसके बारे में शर्मा बार-बार कह रहा था कि वह उसे पसन्द नहीं है। बटुकचन्द के मुताबिक उन्हें भी यह शब्द निहायत नापसन्द था। वे जो कुछ कर रहे हैं उसमें फार्मेलिटी यानी औपचारिकता जैसा कुछ है भी नहीं। चार-पाँच घंटे साथ रहकर शर्मा तो अब घर का आदमी हो गया है और घर के आदमी के साथ कैसी औपचारिकता!

''अरे बड़े साहब, पहले अपनी गाड़ी का कुछ इन्तजाम तो कर लूँ,'' शर्मा कार से बाहर निकला और गेट पर खड़े सन्तरी को उसने इशारे से कुछ कहा। मतलब साफ था कि वह सन्तरी को यह बताने की कोशिश कर रहा था कि उसे तो सुबह वहाँ आना ही है, रात-भर उसकी गाड़ी यहीं खड़ी रहेगी। सन्तरी क्या कह रहा है इसे सुनने के लिए वह नहीं रुका और वापस बटुकचन्द की कार की तरफ आ गया।

बटुकचन्द ने शर्मा का हाथ पकड़कर अपनी कार में घसीट लिया और बहस खत्म हो गयी।

रास्ते में शर्मा ने बाहर देखते हुए कहा, ''आप तो पंडितजी सूफी आदमी हैं, पान के अलावा कुछ लेते नहीं।''

बटुकचन्द ने पनडब्बा निकालकर शर्मा की तरफ बढ़ाया और ड्राइवर से कहा कि बाजार में गाड़ी रोक लेना। गाड़ी रुकने पर उन्होंने उसके हाथ में सौ-सौ के कुछ नोट बढ़ाये, ''व्हिस्की की एक बोतल ले आओ। ब्रांड साहब बताएँगे।''

''कोई-सी ले आओ। ससुर शराब तो शराब है।''

होटल में पहुँचते ही शर्मा ने सबसे पहला काम किया कि अपना कुर्ता उतारकर फर्श पर फेंक दिया, बनियान पीठ के ऊपर तक उठायी और एयर कंडीशनर के आगे बैठ गया।

''अब तो बड़े साहब नहाये बिना चैन नहीं पड़ेगा।''

''तो नहा लीजिए। तब तक मैं कुछ खाने के लिए मँगाता हूँ।''

बटुकचन्द ने अखबार में लिपटी शराब की बोतल का कागज फाड़कर फेंक दिया और बोतल शर्मा की आँख के सामने मेज पर रखी दी।

इशारा साफ था कि जाकर नहा लो पट्ठे और फिर आकर दारू छको। पर शर्मा ने इशारा समझने से इनकार कर दिया। उसने पीठ के ऊपर तक उठायी बनियान पूरी तरह से निकालकर फेंक दी और भावुक होने लगा।

बटुकचन्द को लगा कि शर्मा की आवाज कुछ-कुछ रुँधने लगी है।

''वक्त-वक्त की बात होती है बड़े साहब। आज इस औरत के यहाँ जाकर इन्तजार करना पड़ा। कल तक यही ससुरी...''

शर्मा पूरी तरह से दार्शनिक मुद्रा में आ गया था और जैसा इस स्थिति में स्वाभाविक था, वह भावुक हो गया।

बटुकचन्द जानते थे कि भावुक होने पर आदमी दो में से एक काम करता है-या तो वह सच बोलने लगता है और अपने अन्दर की गहरी कन्दराओं में दबी-छिपी तमाम बातें सामनेवाले को बताने को व्याकुल हो जाता है या फिर पूरी तरह से झूठ बोलने पर उतारू हो जाता है और रुँधे गले, भर्राये कंठ और डबडबायी आँखों से ऐसी कहानी गढ़ सकता है जिसे सुननेवाला शुरुआत से पहले ही सच मानने लगता है। बटुकचन्द इन्तजार करने लगे कि शर्मा किस खाने में जाता है।

लगता था कि शर्मा को भावुकता के उस स्तर पर पहुँचने में, जहाँ उसे सच या झूठ में से किसी एक का चुनाव करना हो, अभी थोड़ी देर थी। शायद शराब की कमी थी। इसलिए तीसरी बार वक्त को कोसता हुआ वह उठा और गुसलखाने में घुस गया।

शर्मा जब गुसलखाने से बाहर निकला तो किसी कवि के शब्दों में उसकी 'छटा बरनि नाहिं जाय' थी। इस विश्वास के साथ कि अगर साथ वाले कमरे में पंखा चल रहा हो तो ऊपरी धड़ का पानी सुखाने की जरूरत नहीं पड़ती, उसने सर से लेकर पैर तक का पानी इतना पोंछा था कि वह पर्याप्त मात्रा में कमरे में गिरता रहा और वह पंखे के नीचे खड़ा होकर उसे सुखाता रहा। कमर में चूँकि उसने तौलिया लपेट रखी थी इसलिए उसके अन्दर ढके अंगों पर पानी की क्या स्थिति थी, इसे जानना थोड़ा मुश्किल था, पर पैरों से जितना पानी टपककर कमरे की फर्श पर बिछे कालीन पर गिरा रहा था, उससे साफ जाहिर था कि शरीर पर तौलिए का प्रयोग बड़ी कृपणता से किया गया है। उसका ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कमर में लपेटने में किया जा सकता है यह साबित करने के लिए शर्मा उसे लपेटकर पंखे के नीचे खड़ा था।

''कोई बैरा नहीं आया?"

जैसे ही शर्मा ने कहा, बटुकचन्द ने लपककर कालबेल दबा दी। इस दहशत से छुटकारा पाने में उन्हें थोड़ा समय लगा कि शर्मा अपने शरीर-सौष्ठव का प्रदर्शन करते हुए इस तीन सितारा होटल के गलियारे में निकल पड़ेगा।

''बैरा आ ही रहा होगा। आप नहा रहे थे, तभी मैंने ऑर्डर दे दिया था।''

बटुकचन्द ने इतनी देर तक घंटी दबाये रखी कि कई लोग एक के बाद एक यह मालूम करने चले आये कि मामला क्या है? थोड़ी देर और वह घंटी दबाये रखते तो शायद होटलवोल फायर ब्रिगेड बुला लेते। जो लोग आये, उनमें वह बैरा भी था जो उनका ऑर्डर लेकर गया था।

शर्मा बैरे को मेज पर खाने की चीजें लगाते देखता रहा और इस बीच बटुकचन्द की चिन्ता के केन्द्र में कपड़े का वह टुकड़ा बना रहा जिसे होटलवाले ने तौलिए के नाम से बदन पोंछने के लिए गुसलखाने में रखा था और शर्मा ने जिसे मुहावरे की भाषा में अपनी हया ढँकने के लिए अपनी मोटी कमर के इर्द-गिर्द लपेट रखा था और स्थिति यह थी कि बटुकचन्द किसी जासूसी फिल्म के नायक के रोल में यह पता लगाने में जुटे थे कि कपड़े का यह टुकड़ा उसकी कमर पर अटका कैसे है? शर्मा ने थोड़ी आँखें सिकोड़ीं, नथुने फैलाये और मेज पर लगनेवाली प्लेटों का मुआयना किया।

''साहब बहादुर वेजीटेरियन हैं।''

''जी...'' शर्मा के पृष्ठ भाग और तौलिए से बिना नजरें हटाये बटुकचन्द मिमियाए।

''तभी...।''

इस 'तभी' का अर्थ उन्हें तब समझ में आया जब शर्मा ने बैरे को सामिष पकवानों की एक लम्बी सूची नोट करा दी।

बैरा जब मुड़ा तो शर्मा ने उसे रोका।

''नीचे साहब का ड्राइवर होगा, उसे ऊपर भेज दो। क्या नम्बर है गाड़ी का साहब...''

''कहीं जाएँगे क्या शर्माजी?"

''अरे नहीं साहब जाएँगे कहाँ?अब तो रात को डेरा यहीं जमेगा। कुर्ता-पजामा गन्दा हो गया। दिन-भर चिपचिपाहट में घूमे। सोच रहे हैं मँगा लें। अभी दारूलशफा वाली दुकानें खुली होंगी।''

''ड्राइवर को भेज देना,'' बटुकचन्द ने ड्राइवर का हुलिया और गाड़ी नम्बर बैरे को बताया।

जब तक ड्राइवर आया तब तक बटुकचन्द ने जबर्दस्ती शर्मा को अपनी लुंगी पहनने को दे दी। उसने लुंगी पहन ली तब उनकी जान में जान आयी और वे उस संकट से उबर पाये जिसके तहत शर्मा की कमर से लिपटा कपड़ा कभी भी जमीन पर टपक सकता था और वे खुद को नंगा महसूस करने लगते।

शर्मा ने बिना किसी औपचारिकता के गिलास में शराब उँड़ेली, बर्फ डाली, पानी से खाली गिलास भरा और गटगट पी गया। बटुकचन्द ने आँखें फाड़कर देखा। वे पहले नियमित पीते थे। उनके शब्दकोश के लार्ज, स्माल या पटियाला पेग सब गड्ड-मड्ड हो गये।

ड्राइवर दरवाजे पर खड़ा था। गिलास खत्म कर शर्मा ने उसकी तरफ देखा...''ड्राइवर साहब, दारूलशफा चले जाइए। वहाँ चारों ओर खादी के कुर्ते पाजामे बेचनेवाले बैठे होंगे। किसी के यहाँ से मेरे नाप का कुर्ता पाजामा ले आइएगा।''

ड्राइवर ने पलकें झपकायीं पर अपनी जगह से हिला नहीं।

''अरे सबसे बड़ी नाप का लीजिएगा...एक्स्ट्रा लार्ज...''

ड्राइवर इस पर भी नहीं हिला। शर्मा ने अपनी लुंगी में किसी काल्पनिक जेब को तलाशने की कोशिश की। जेब नहीं मिली तो पेट पर एक बार हाथ फेरकर गिलास में दूसरा पेग बनाने लगा।

''ये लो,'' बटुकचन्द ने जेब में हाथ डाला।

''छह जोड़े लाना जी,'' शर्मा ने दूसरे पेग को मुँह से लगाया।

बटुकचन्द का हाथ जेब में ठिठक गया। वे उठे और गुसलखाने में खिसक गये। सामने गाली देना ठीक नहीं है। शर्मा की कई पुश्तों को गरियाते हुए उन्होंने जेब से नोटों की गड्डी निकाली, उसमें से अन्दाज से नोट बाहर निकाले और वापस आ गये। ड्राइवर के हाथ में रुपये थमाते हुए उनके मुँह से हिदायत निकली...''अच्छी क्वालिटी का लाना। अपने शर्माजी बड़े लीडर हैं। रोज मुख्यमन्त्री जी से मिलते हैं, कपड़ा बढ़िया होना चाहिए।''

शर्मा ने ड्राइवर के जाते ही एक दूसरी गिलास में एक छोटा पेग बनाया और बटुकचन्द के सामने रख दिया।

''लीजिए बड़े साहब।''

''पर मैं तो पीता नहीं।''

''मैं अकेले नहीं पीता,'' बटुकचन्द ने हें...हें...करना शुरू कर दिया। उनके जीवन का कई बार आजमाया हुआ फार्मूला था कि जब कुछ न कर सको तो हें...हें...करो। कोई न कोई रास्ता निकल आएगा। आज भी निकल आया।

''चलिए आप नहीं पिएँगे तो मैं पी लूँगा। एक बार इस गिलास से, दूसरी बार दूसरी गिलास से।''

फिर शर्मा ने अपने उसूल की बात बतायी। उसूलन वह अकेले नहीं पीता। जब अकेला होता है तो दो पेग रख लेता है और बारी-बारी से दोनों से पीता है। उसूलन अपने लिए बड़ा पेग बनाता है और सामनेवाले के लिए छोटा पेग। कई बार उसे लगता है कि दोनों एक ही शराब कैसे पी सकते हैं, इसलिए अपने लिए व्हिस्की बनाता है तो सामनेवाले के लिए रम या जिन।

इस काकटेल से कई बार गड़बड़ भी हो जाता है। बटुकचन्द दिलचस्पी से शर्मा से गड़बड़ी के बारे में सुनते रहे। आज तो काकटेल नहीं हुआ था। शर्मा दोनों गिलासों में व्हिस्की डालकर पी रहा था, पर गड़बड़ शुरू हो चुकी थी। दरअसल यह गड़बड़ दार्शनिकता से जुड़ी थी।

दार्शनिकता और शराब में बड़ा गहरा सम्बन्ध होता है। वैसे तो औसत भारतीय हमेशा दार्शनिक हो सकता है। जन्म से मृत्यु तक का कोई भी क्षण उसे दार्शनिक बना सकता है, पर अगर वह शराब पीता हो और उसने शराब पी रखी हो तो उसे दार्शनिक बनने से कोई नहीं रोक सकता।

शर्मा भी दो बड़े पेग हलक के अन्दर उतारते ही दार्शनिक हो गया। बटुकचन्द उसे दोनों हाथों से मुर्गा और मछली की प्लेटें साफ करते देखते रहे और उस प्रस्थान-बिन्दु की प्रतीक्षा करते रहे जब शर्मा या तो सच की पर्त-दर-पर्त छीलते हुए उसे उनके सामने बिखेर देगा या फिर झूठ को इस तरह रोचक आख्यान के रेशमी आवरण में लपेट कर पेश करेगा कि वे थोड़ी देर के लिए उसे सच मान लेंगे। और वह प्रस्थान-बिन्दु आ ही गया।

''सब वक्त-वक्त की बात होती है बड़े साहब,'' शर्मा ने कहा और रोने लगा।

शराब और दार्शनिकता दोनों रोने में मदद करती हैं। गड़बड़ यह है कि रोते-रोते आदमी अक्सर सच बोलने लगता है। राजधानी में सच बोलनेवाला कम फँसता है, उसे सुननेवाले जरूर फँस जाते हैं। बटुकचन्द ने घबराकर चारों तरफ देखा। दीवारों के भी कान होते हैं, वाले फार्मूले के अनुसार उन्होंने कमरे की दीवारों का मुआयना किया। बाथरूम का दरवाजा खुला था, उसे उठकर बन्द कर दिया।

''पुरुष बली नहीं होत है समय होत बलवान।'' अगली पंक्ति शर्मा भूल गया था इसलिए उसने इसे गद्य में व्याख्यायित किया...''बड़े साहब सब वक्त-वक्त की बात होती है। अर्जुन और उसके बाण कोई काम नहीं आये और भील गोपियों को लूटकर ले गये। यही होता है बड़े साहब जब वक्त खराब होता है। ये स्साली...''

दार्शनिकता के दौरे पड़ने पर रोने का रोल हारमोनियम की तरह होता है। गायक दम लेने के लिए और अपनी आवाज की हँफनी रोकने के लिए हारमोनियम बजाने लगता है। शराबी दार्शनिक सुस्ताने के लिए रोने लगता है। शर्मा भी रोने लगा।

इस बार सुस्ताकर शर्मा जब दार्शनिक हुआ तो देर तक उसे रोने की जरूरत नहीं पड़ी। उसने बिना दम लिए अपनी कहानी सुनानी शुरू की।

बटुकचन्द के सामने राजधानी का पंक अपनी पूरी बदबू के साथ गाढ़े काले द्रव के रूप में पसर रहा था और वे उसमें छपाछप हाथ-पैर पटक रहे थे। इस कीचड़ में छपकियाँ मारने का अपना अलग ही मजा होता है और बटुकचन्द पूरा रस लेकर उसका आनन्द ले रहे थे। बीच में यह जरूर देख रहे थे कि दीवारों के कान खुले तो नहीं हैं। एकाध बार कोई दरवाजा या खिड़की खुलने को हुए तो उन्होंने कथानक के बीच में उठकर उन्हें बन्द कर दिया।

औसत भारतीय स्वाभाविक अवस्था में विस्तारवादी होता है, अगर शराब उदर में हो और दार्शनिकता सर पर नाच रही हो तो वह थोड़ा अतिरिक्त विस्तार में चला जाता है। शर्मा के साथ तीनों स्थितियाँ थी, अतः उसने जो कुछ बताया पूरे विस्तार के साथ बताया। चूँकि रात अपनी थी और बटुकचन्द की समझ में आ गया था कि शर्मा रात में यहीं रुकेगा और मामला राजधानी के कीचड़ में लोटने-पोटने का था, इसलिए बटुकचन्द ने शर्मा को एक बार भी रोका-टोका नहीं। उन्होंने सिर्फ इतना किया कि ड्राइवर इस बीच जब शर्मा के कुर्ते-पाजामे लेकर आया तो उसे भी खा-पीकर आराम करने और सुबह सात बजे गाड़ी लगाने का हुक्म दिया और दरवाजे अन्तिम रूप से बन्द कर दिये। जितना कुछ शर्मा ने शराब के साथ खाने के लिए मँगा लिया था और दोनों हाथ से उसमें से निकाल-निकालकर खाने तथा कालीन पर गिराने के बाद जो कुछ बचा था, वह उनके लिए काफी था। बिना शर्मा को व्यवधान पहुँचाए उन्होंने अपने कपड़े बदले और सोफे से उठकर बिस्तर पर पहुँच गये और दो तकिए दीवाल के सहारे लगाकर उस पर पीठ टिकाकर बैठ गये और देर रात तक शर्मा की व्यथा-कथा सुनते रहे।

लोग सोचते हैं कि मसाला फिल्मों में ही होता है। बटुकचन्द ने विवरण शुरू होते ही मान लिया कि असली जीवन में ज्यादा मसाला हो सकता है। इस विवरण में तो मसाला फिल्मों से ज्यादा सब कुछ था। सब कुछ यानी सेक्स, मारधाड़, आँसू, महत्त्वाकांक्षा और दगा। दगाबाजी पर आते ही शर्मा को फिर वक्त की याद आने लगी और उसकी सुई फिर उसी रिकॉर्ड पर अटक गयी...''सब वक्त वक्त की बात है बड़े साहब, नहीं तो इस कुतिया की ये हैसियत कि मुझे इसके घर के बाहर इन्तजार करना पड़े।''

जिस औरत को शर्मा इस समय कुतिया नामक विशेषण से सम्बोधित कर रहा था और जिसे पूरा प्रदेश मिनी मुख्यमन्त्री के नाम से जानता था, उससे शर्मा की मुलाकात तब हुई थी जब वह राजधानी की सड़कों पर सब्जी का ठेला लगाता था। यह औरत उससे सब्जी खरीदती थी। बम्बइया फिल्मों की तरह आँखें लड़ने के लिए आदर्श स्थितियाँ थीं। लौकी या तोरई तौलते हुए कब उँगलियाँ छूने लगीं और कब आँखे लड़ने लगीं, शराब की वजह से शर्मा को यह याद करने में दिक्कत जरूर हुई पर आधुनिक हिन्दी कवियों की तरह उसके सामने सम्प्रेषणीयता की समस्या कभी नहीं रही। शराब से लड़खड़ाती जुबान और दार्शनिकता से रुँधे गले से उसने लोकभाषा का सहारा लेते हुए कुछ लसड़-पसड़ जैसे शब्द कहे जिनसे जो वह समझाना चहता था उसे बटुकचन्द फौरन समझ गये कि उन दोनों के बीच का सम्बन्ध हिन्दी फिल्मों की तरह अट्ठारह रीलों की प्रतीक्षा किये बिना दूसरी रील से ही शरीरिक हो गया।

कहानी में सेक्स के बाद महत्त्वाकांक्षा नामक तत्त्व शामिल हो गया। शर्मा सब्जी जरूर बेचता था, पर रहता था अपने इलाके के एक एम.एल.ए. के बँगले के आउट हाउस में। सब्जी बेचने के बाद के वक्त वह एम.एल.ए., जिन्हें पूरा क्षेत्र अध्यक्षजी के नाम से जानता था क्योंकि वे एक कॉलेज की प्रबन्ध समिति के खानदानी अध्यक्ष थे, के अवैतनिक राजनीतिक सलाहकार के रूप में काम करता था। शाम होते ही उनके क्षेत्र के वे सारे लोग जिन्हें अध्यक्षजी अपना कार्यकर्ता कहते थे और जिनके बारे में उनके मोहल्ले के लोगों की राय थी कि वे उठाईगीर और लफंगे थे और जो राजधानी में दिन-भर किसी-न-किसी काम से दफ्तरों के चक्कर लगा रहे होते, अध्यक्षजी की कोठी पर इकट्ठे हो जाते। कोठी के बाहर एक चबूतरा था जिस पर सूरज डूबते-डूबते शर्मा के नेतृत्व में क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं की एक फौज पानी छिड़कती। फिर घर में मौजूद सारी साबुत और टूटी कुर्सियाँ जो बैठनेवालों के साथ खुद न बैठ जाएँ, चबूतरे पर लगा दी जातीं। कोठी के बरामदे में पड़ी चार-पाँच चारपाइयाँ भी चबूतरे पर पहुँच जातीं।

इन बैठकों में अध्यक्षजी के होने-न-होने का कोई मतलब नहीं था। उनका क्षेत्र राजनीति के मामले में बहुत जरखेज था। इलाके में सड़कें टूटी-फूटी थीं, उद्योग किस चिड़िया का नाम है लोग नहीं जानते थे, बाँध का सही इस्तेमाल बाढ़ रोकने में भी हो सकता है, इस पर लोगों के मन में संशय था। उनकी राय हमेशा इस पक्ष में रहती कि बाँध मछली पालने के लिए ज्यादा मुफीद होते हैं। तमाम फालतू चीजें थीं जिन पर अक्सर महानगरों के वातानुकूलित कमरों में बैठे लोग बहसें करते हैं और विकास नाम की किसी फालतू-सी चीज के रूप में अध्यक्षजी के क्षेत्र पर लादना चाहते हैं। क्षेत्र के लोग जानते थे कि इन महानगरी बाबुओं की सदिच्छाएँ सिर्फ बहसों और मैगासेसे पुरस्कार पाने के लिए होती हैं, इसलिए वे इनकी बहुत चिन्ता नहीं करते और अपने उस उद्यम में और जोर-शोर से लग जाते हैं जो उनका सबसे प्रिय शगल है और जिसके कारण वे शाम को अध्यक्षजी की कोठी के इस चबूतरे पर इकट्ठे होते हैं।

अध्यक्षजी के क्षेत्र के लोगों का सबसे प्रिय शगल था राजनीति अर्थात पालिटिक्स। वे हर चीज में राजनीति करते थे। उठते-बैठते, खाते-पीते, दिशा फरागत के लिए लपकते, प्रेम करते, दलितों को जलाते, उनकी बस्तियों में हैंडपम्प लगाते, कोर्ट-कचहरी जाते, थाने की दलाली करते, गरज यह कि जीते-मरते हर समय राजनीति करते रहते। उनके इलाके में हर चौराहे पर काफी हाउस खुले हुए थे, लोग उन्हें जानते भले ही चाय या पान की दुकान के रूप में हों, पर क्षेत्र की बौद्धिक चेतना के विकास में उनका योगदान कॉफी हाउसों से कम नहीं था। सुबह होते ही गुनीजन इन कॉफी हाउसों पर पहुँच जाते थे। उनकी बहसों का दायरा अक्सर राष्ट्रीय या बाज अवसरों पर अन्तर्राष्ट्रीय होता था। उनके पास देश की सारी समस्याओं के हल होते थे। देश क्या अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी उनकी राय चमत्कृत करनेवाली होती।

राजनीति से इन लोगों के सरोकार बड़े सीधे-साधे हैं। अगर बिना घुमाये-फिराये कहना हो तो कहा जा सकता है उनकी स्थानीय राजनीति का केन्द्र-बिन्दु है तबादला। इस राजनीति को करने में मदद के लिए दो खेमे हैं। अध्यक्षजी का खेमा और अध्यक्षजी के विरोधियों का खेमा। एक थानेदार का तबादला करा आता है। भला यह भी कोई बात हुई कि अध्यक्षजी का कार्यकर्ता जेब काटते पकड़ा जाये तो उसे दारोगाजी हवालात में बन्द कर दें। क्षेत्र का ला एंड ऑर्डर पहली बार इतना खराब हुआ है। दूसरा खेमा जिला मुख्यालय पर जाकर धरना दे देता है कि ऐसा थानेदार तो आज तक आया ही नहीं। पूरा राम-राज्य है। इलाके के चोर गाँधी टोपी जनता के पैर पर रख देते हैं और भाई साहब, माताजी अथवा बहनजी जैसे सम्बोधनों का इस्तेमाल करते हुए बस एक ही निवेदन करते हैं कि लोग उन पर तरस खाएँ और जेब का माल-मत्ता उनके हवाले कर दें। अगर लुटनेवाला बिना पिटे उनकी मदद करने को तैयार नहीं होता तो वे हाथ जोड़कर एक ही वाक्य बार-बार दुहराते हैं कि जब तक यह दुष्ट दारोगा उनके इलाके में है, तब तक उनका ऐसा कठिन इम्तहान न लिया जाय।

इलाके में बिजली के खम्भे गड़े हैं। दो खम्भों के बीच तार नामक एक अनावश्यक चीज भी बाँधी गयी है जिन्हें लोगों ने बीच-बीच में से निकाल लिया है और घरों में कपड़ा टाँगने या मवेशी बाँधने जैसे बेहतर इस्तेमाल के लिए उनका उपयोग कर रहे हैं। जहाँ खम्भों के बीच तार मौजूद हैं, वहाँ लोग सरकार से उम्मीद करने लगते हैं कि उनमें बिजली भी दौड़े। सरकार वैसे ही बहुत व्यस्त चीज होती है। इसलिए इलाके के लोग या उनके नेता उसे और परेशान नहीं करना चाहते। वे उससे ऐसी फिजूल माँगें नहीं करते कि खम्भों के बीच तार भी हों और उनमें बिजली भी दौड़े। बिजली से उनका मतलब स्थानीय सब स्टेशन के जे.ई. से होता है। अगर अपना आदमी जे.ई. हुआ तो इलाके के बिजली की सप्लाई ठीक-ठाक चल रही होती है। बिना तार के भी खम्भे बिजली के लट्टू से जगमगाने लगते हैं। बिना बिजली के थ्रेसर चलने लगते हैं, ट्यूबेल पानी फेंकने लगते हैं और विरोधी विद्युत आघात से धराशायी होने लगते हैं। जैसे ही अपनेवाले जे.ई. का तबादला होता है बिजली की व्यवस्था चरमरा जाती है। इलाके में हाहाकार मच जाता है और जनता के दुःख से विचलित कार्यकर्ता राजधानी का रुख लेते हैं और अध्यक्ष के चबूतरे पर गम्भीर मन्त्रणा में जुट जाते हैं।

ऐसी मन्त्रणाओं में शर्मा भी बराबरी का हिस्सेदार होता था। दिन-भर सब्जी बेचकर शाम ढले वह उनके आउटहाउस पर पहुँचता। वहाँ ठेला खड़ा कर दिन-भर का हिसाब-किताब मिलाकर वह नहाता और फिर चकाचक कुर्ता-पाजामा पहनकर शाम की बैठक का इन्तजाम करने पहुँच जाता।

अध्यक्षजी के यहाँ पूरा जनतन्त्र था। वहाँ की गोष्ठियों में भाग लेने के लिए सिर्फ तीन-चार शर्तें पूरी करनी होती थीं। शर्त नम्बर एक थी कि गोष्ठी में भाग लेनेवाला अध्यक्षजी के क्षेत्र का हो। दूसरी के मुताबिक उसके फेफड़े मजबूत होने चाहिए। तीसरी शर्त पोशाक से सम्बन्धित थी। वहाँ आनेवाला अगर खद्दर के कुर्ते-पाजामे में हो तो उसकी हैसियत और बढ़ जाती।

शर्मा ये सारी शर्तें बखूबी पूरी करता। खासतौर से बीचवाली। उसके फेफड़े इतने मजबूत थे कि वह किसी भी बहस में कभी भी गला फाड़कर चिल्लाने लग सकता था और पक्के राग के किसी सधे गायक की तरह देर तक विलम्बित में रह सकता था। इसके अलावा एक और गुण था जिसके कारण अध्यक्षजी के दरबार में उसकी विशिष्ट स्थिति थी। वह हमेशा चप्पल पहनता था और कभी भी उसे पैर से निकालकर हाथ में ले सकता था। फेफड़े की ताकत से भरपूर आवाज और हाथ में चप्पल कुछ ऐसा दृश्य उपस्थित करते कि अध्यक्षजी मुग्ध होकर उसे देखते रहते। यह दृश्य सचिवालय में अक्सर दिखाई देता जब अध्यक्षजी किसी नादान अधिकारी को यह समझाने की कोशिश में लगे होते कि सच वह नहीं है जो फाइल में टिप्पणियों से झलक रहा है, बल्कि वह है जिसे वे पिछले कई घंटों से उसे समझाने में लगे हैं। बहस का अन्त आमतौर से शर्मा के हस्तक्षेप से होता।

अध्यक्षजी दिल के मरीज थे। वैसे भी उनकी राजनीतिक दीक्षा गाँधीवादी परम्पराओं में हुई थी। उनका मानना था कि नादानी करना तो अधिकारियों का स्वभाव है, इसलिए उनकी नादानी पर नाराज नहीं होना चाहिए। वे मुस्कुराते रहते और धीमे स्वर में रुककर बातें करते। पर इस तरह की बन्दिश शर्मा और उनके दूसरे चेलों पर नहीं थी। इसलिए वे मुस्कुराते रहते और उनके चेले अपने फेफड़ों का इस्तेमाल करके अधिकारी का ध्यान उस स्थिति की तरफ आकर्षित करता जिसमें चप्पल पाँव से निकल हाथों में पहुँच जाती है। शर्मा किसी भी अधिकारी के समक्ष चप्पलों के भरतीय दफ्तरों में उपयोग नामक विषय पर घंटों भाषण दे सकता था। अक्सर अधिकारियों की इस भाषण में बहुत गहरी दिलचस्पी नहीं होती। कई बार कुछ नादान अधिकारी इस विषय में कुतर्क करने लगते। वे शर्मा को बताने की कोशिश करते कि चप्पल से ज्यादा मुफीद जूता होता है और अपने छात्र-जीवन में या अपनी पिछली तैनाती तक वे भी चप्पलें ही पहनते थे, पर अब वे जूता पहनने लगे हैं। बहस इस बात पर टिक जाती कि जूते और चप्पल में किसे पहले निकाला जा सकता है।

अध्यक्षजी मुस्कुराते रहते और इस बहस को देखते-सुनते रहते। कई बार यह बहस जूते-चप्पल निकालने की प्रतियोगिता में तब्दील हो जाती। तब उनकी मुस्कान बड़ी काम आती। अगर शर्मा जीतता तो वे अधिकारी को बताते कि शर्मा द्वारा फेंककर मारी गयी चप्पल उसकी उस सदिच्छा का प्रणाम है जिसके तहत वह चाहता है कि भारतीय नौनिहाल इस तरह के करतबों में पारंगत हों और ओलम्पिक में पदक जीतने की राष्ट्रीय इच्छा पूरी करने की तैयारी में जोर-शोर से लग सकें। अगर शर्मा हारता हुआ दिखाई पड़ता तो उनकी मुस्कान 'अभी बच्चा है' वाले भाव से उसकी रक्षा करने आगे बढ़ती।

अध्यक्षजी के घर शाम को इकट्ठे होनेवाला हल्ला-ब्रिगेड सिर्फ सरकारी दफ्तरों के बाबुओं के साथ तबादला-खयालात के लिए ही उपयोगी नहीं था, राजनीति में उनका ज्यादा उपयोग था। अध्यक्षजी वात्सल्य के साथ हल्ला-ब्रिगेड के नौजवानों को बच्चे कहा करते थे। उनके अनुसार इन बच्चों की उपयोगिता के आधार पर दो टुकड़ियों में बाँटा जा सकता था। एक तरफ फेफड़ेवादी थे और दूसरी तरफ चप्पलवादी। फेफड़ेवादी अपने फेफड़ों में हवा भरकर उसे मुँह के रास्ते से इस तरह निकालते थे कि सामनेवाला अफसर या राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी अकबकाया-सा मुँह खोले तब तक देखता रहा जाता जब तक उसके मुँह से लार न टपकने लगती। ज्यादातर समस्याएँ तो फेफड़ेवादियों के सहारे हल हो जातीं। कभी-कभी हाईकमांड का कोई प्रतिनिधि या कोई अफसर यह साबित करने का प्रयास करता कि उसके फेफड़ों में भी उतना ही दम है तब फेफड़ेवादी बगल हट जाते और चप्पलवादी टुकड़ी हल्ला बोलती।

शर्मा दोनो टुकड़ियों में था। इसलिए उसकी उपयोगिता ज्यादा थी।

शर्मा की उपयोगिता के और भी कारण थे।

हालाँकि शराब ने तकल्लुफ और शर्मो-हया की जरूरत खत्म कर दी थी, पर फिर भी शर्मा ने कमरे में चल रहे पंखे, कोनों और खिड़कियों-दरवाजों के ऊपर से झाँकते हुए जो कुछ कहा उससे बटुकचन्द की समझ में यह आया कि अध्यक्षजी लँगोट नामक किसी पोशाक के बड़े कच्चे थे। शराब शर्मा पी रहा था, पर समझ में आने पर बटुकचन्द ने भी खिड़की, दरवाजों और पंखों को घूरना शुरू कर दिया।

राजधानी में बहुत से राजनेता थे जो अध्यक्षजी की तरह लँगोट के कच्चे थे। राजधानी में ऐसी बहुत सी औरतें भी थीं जो सुमन की तरह सुन्दर और महत्त्वाकांक्षी थीं। इन दोनों तरह के प्राणियों के साथ शर्मा जैसे स्वयंसेवकों की एक लम्बी फौज थी जो सुन्दर महत्त्वाकांक्षी औरतों को लँगोट के कच्चे इन राजनेताओं से मिलाने को उत्सुक रहा करती थी। अक्सर ये स्वयंसेवक अँधेरी रातों में अपनी, राजनेता या महत्त्वाकांक्षिणी सुन्दरी की हैसियत के अनुसार चौपहिया, तिपहिया या दुपहिया सवारी से उतरते और उनके साथ उतरती वह महत्त्वाकांक्षिणी सुन्दरी जिसे नेताजी से बहुत जरूरी प्रश्नों पर राजनीतिक मन्त्रणाएँ करनी होती थीं। कई बार शर्मा की प्रजाति के लोग बाहर ही रुक जाते और बाज वक्तों ये सुन्दरी को स्वयं नेताजी के शयनकक्ष तक पहुँचा आते। यह भी समय, सामर्थ्य और सुविधा पर निर्भर करता था कि सुन्दरी को लानेवाला बाहर अपने वाहन में प्रतीक्षा करेगा या घर जाकर भोर होने के पहले आकर उसे वापस ले जाएगा।

शर्मा ने जब सुमन को अध्यक्षजी से मिलाने की बात कही तब उसे उम्मीद थी कि उसके साथ जीने-मरने की कसमें खानेवाली सुन्दरी भड़क जाएगी, लेकिन हर मूर्ख प्रेमी की तरह उसने भी उस सुन्दर जिस्म के अन्दर धड़कते हुए महत्त्वाकांक्षी दिल की टिक-टिक नहीं सुनी थी। जैसे ही उसने प्रस्ताव रखा वैसे ही मुहावरे की भाषा में सुमन ने उसे लपक लिया।

दो-चार दिन सुमन शामवाली गोष्ठियों में शरीक हुई। राजनीतिक विषयों पर उसकी बुद्धि इतनी तेज चलती कि कई बार शर्मा भी अचकचा जाता। अध्यक्षजी उसकी उपस्थिति से ही गद्गद रहते। अन्त में वह क्षण आ ही गया जिसके लिए शर्मा और सुमन प्रतीक्षा कर रहे थे। अध्यक्षजी सुमन से ज्यादा गम्भीर विषयों पर ज्यादा देर तक तबादला-खयालात करना चाहते थे। जाहिर है कि इतने गम्भीर विषयों पर शाम के दरबारे-आम में चर्चा नहीं हो सकती थी, इसलिए शर्मा रात को पहले रिक्शे पर और बाद में कार पर बैठाकर सुमन को अध्यक्षजी के घर पर लाने लगा। अन्दर अध्यक्षजी और सुमन गम्भीर राजनीतिक मन्त्रणा करते और बाहर रिक्शे पर बैठकर शर्मा 'मच्छरों से बचने के उपाय' नामक पुस्तक के पाठ दोहराता। बाद के दिनों में कार आ जाने पर उसमें रेडियो चलाकर सो जाता। मन्त्रणा समाप्त करके पौ फटने के पहले सुमन बाहर आती तो वह उसे वापस घर छोड़ता।

इस तरह की कहानी में जैसे मोड़ आ सकते हैं वैसे ही इस कहानी में भी आये। एक सुन्दर और महत्त्वाकांक्षिणी औरत अपनी राजनीतिक पटुता को उन लोगों तक बाँटना चाहती है जो जनता की सेवा में उसका बेहतर इस्तेमाल कर सकें। एक विधायक अपने क्षेत्र की जनता की सेवा के लिए मन्त्री बनना चाहता है। एक मुख्यमन्त्री जो सत्ता के रपटीले-पथरीले रास्तों पर साँप-सीढ़ी का खेल खेलते-खेलते शीर्ष पर पहुँच गया और दिन-भर की उबाऊ, एकरस और थका देनेवाली दिनचर्या के बाद अपनी क्लान्त और शिथिल काया को विश्राम देने के लिए, राजनीति में सफलता हासिल करने के लिए व्याकुल सुन्दरियों से गम्भीर मन्त्रणा करने को लालायित रहता है। ऊपर से देखने में तीनों में कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं लगता, पर थोड़ा गौर से झाँकने पर उनके बीच कल्लोल मारती कीच की एक ऐसी धारा बहती हुई दिखाई दे जाएगी जिसमें तीनों स्नान करने के लिए व्याकुल होंगे और कहानी का स्वाभाविक अन्त यही हो सकता था और यही हुआ कि शीघ्र ही तीनों उस पंक में छप-छपाकर नहाने लगे।

इस कहानी में भी यही हुआ। मन्त्री बनने को व्याकुल राजनेता महत्त्वाकांक्षिणी सुन्दरी को लेकर शिथिल गाल, थुल-थुल काया और पायरियाग्रस्त दाँतोंवाले मुख्यमन्त्री के दरबार में हाजिर हुआ और उन दोनों को गम्भीर मन्त्रणा में लीन छोड़कर बाहर कार में रात बिताने लगा। मन्त्री बन जाने के बाद भी अध्यक्षजी ने अपना रोल छोड़ा नहीं। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि पहले अपनी गाड़ी खुद चलाते हुए जाते थे और सुमन के अन्दर चले जाने के बाद गाड़ी की अगली सीट पर टाँग पसारकर सो जाते थे। अब झंडा लहराती हुई गाड़ी पर पिछली सीट पर सुमन के साथ बैठकर जाते और उसे अन्दर तक पहुँचाकर पिछली सीट पर सो जाते। अगली सीट पर ड्राइवर सोता। उसने पहले दूसरे मन्त्रियों के साथ इतनी बार यह क्रिया सम्पादित की थी कि मन्त्रणा समाप्त होने के समय उसकी नींद अपने आप खुल जाती। जब सुमन तेज कदमों से गाड़ी की तरफ आती दिखाई देती तो वह एक हाथ से दरवाजा खोलता होता और दूसरे हाथ से मन्त्री हो जाने के बाद भी अध्यक्षजी नाम से पुकारे जानेवाले प्राणी को जगाता हुआ दिखाई देता।

यह वह बिन्दु था जब शर्मा को फिर से वक्त का महत्त्व समझ में आने लगा।

''सब वक्त-वक्त की बात होती है बड़े साहब। उस समय मेरी मत मारी गयी थी...''

बटुकचन्द को समझ में आ गया कि मत कहाँ मारी गयी थी। इन कहानियों में एक गलती हमेशा दुहराई जाती है। महत्त्वाकांक्षिणी सुन्दरी का प्रेमी यह मानकर चलता है कि अपने पति से बेवफाई करनेवाली उसकी प्रेमिका उसके प्रति वफा से लबरेज है। यहीं वह धोखा खाता है और यहीं मंच पर वक्त का प्रवेश होता है।

शर्मा ने दो-तीन बार मुख्यमन्त्री निवास पर सुमन को ले जाने के लिए सारथी की भूमिका निभाने की पेशकश की, पर शुरू में विनम्रता से और बाद में सख्ती से यह अनुरोध ठुकरा दिया गया। अध्यक्षजी के व्यवहार में जरूर कुछ ऐसे बदलाव आ गये कि शर्मा को शाम की बैठकें काफी बेगानी-सी लगने लगीं। उसकी उपस्थिति में अध्यक्षजी को ऐसा कुछ महत्त्वपूर्ण प्रसंग याद आ जाता कि वे गम्भीर चर्चा में लीन हो जाते। अगर वह बहस में हस्तक्षेप करने की कोशिश करता तो अध्यक्षजी की श्रवणशक्ति कुछ ऐसी हो जाती कि उन्हें दूसरों की बातें तो सुनाई देतीं, लेकिन शर्मा की आवाज उनके कानों तक नहीं पहुँचती। शर्मा शाम की बैठकों के लिए कुर्सी-मेज लगवाने पहुँचता तो उसे नम्रतापूर्वक बताया जाता कि उसे तकलीफ करने की जरूरत नहीं है, उसकी दुआ से वहाँ ये सब काम करने के लिए दूसरे स्वयंसेवक मौजूद हैं।

बड़ी मुश्किल से शर्मा अध्यक्षजी को यह विश्वास दिलाने में सफल हुआ था कि सुमन को मुख्यमन्त्री निवास तक छोड़कर आने के प्रस्ताव के पीछे उसकी मंशा सिर्फ यह थी कि अध्यक्षजी को ऐसे काम न करने पड़ें जो उनकी गरिमा के अनुकूल न हों। अध्यक्षजी मन्त्री हो गये थे और किसी को मुख्यमन्त्री निवास पहुँचाकर स्वयं बाहर कार में सोते हुए इन्तजार करना उन्हें शोभा नहीं देता।

शर्मा अध्यक्षजी को इतना विश्वास तो नहीं दिला पाया कि उसे मुख्यमन्त्री और सुमन के बीच सेतु बनने का मौका मिल जाए पर इतना विश्वास जरूर दिला ले गया कि उनकी कोठी पर शाम को कुर्सी और चारपाई बिछाने का उसका पुराना काम उसे फिर मिल गया। अध्यक्षजी भी ज्यादा दिनों तक सन्देशवाहक का रोल नहीं निभा पाये। जल्द ही सुमन के पति ने यह भूमिका सँभाल ली। पति नामक ये प्राणी काफी दिनों से बरोजगार थे। मुख्यमन्त्रीजी ने सुमन के साथ पहली रात को ही गम्भीर मन्त्रणा के बाद यह तय कर दिया कि वे पति महाशय को ओ.एस.डी. बना देंगे।

ओ.एस.डी. यानी ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यानी विशेष कार्याधिकारी नौकरशाही पुराण में नारद की तरह होता है। यह हर जगह हो सकता है और कहीं भी नहीं हो सकता है। ओ.एस.डी. बनाकर चपरासी से मुख्य सचिव की भूमिका निभाने को कहा जा सकता है और बाज वक्त किसी मुख्य सचिव को उसकी औकात बताने के लिए ओ.एस.डी. बनाकर चपरासी की हैसियत में पहुँचा दिया जाता है।

सुमन का पति जब ओ.एस.डी. बना तब तक सुमन मिनी मुख्यमन्त्री बन चुकी थी। इसलिए प्रदेश की नौकरशाही के लिए इस ओ.एस.डी. पति की वही हैसियत बनी जो प्रदेश के मुख्यमन्त्री की पत्नी की थी। मुख्यमन्त्री के बहुत करीबी कुछ अफसरों को छोड़कर वह किसी को भी हड़का सकता था और कोई भी अफसर उसके बताये गये काम को कर उसको सूचित करने में स्वयं को धन्य महसूस कर सकता था।

''बड़े साहब क्या वक्त आ गया है?" इस बार वक्त की याद करने के पीछे शर्मा के मन में अकुलाती वह बेताबी थी जिसकी वजह से वह बटुकचन्द को ओ.एस.डी. पति की नयी भूमिका बताने के लिए व्यग्र था।

''अब आपने कभी सुना है बड़े साहब, कि कोई पति खुद ही अपनी बीवी को किसी साले के बेडरूम में पहुँचाकर बाहर स्टूल पर बैठकर चौकीदारी करे?"

बटुकचन्द ने सुना और देखा दोनों था कि तरक्की और अच्छी तैनाती की चाह में कई मातहत अपनी बीवियों का इस तरह उपयोग भी करते थे, पर अभी शर्मा उनसे किसी उत्तर की उम्मीद नहीं कर रहा था, इसलिए चुपचाप श्रोता बने रहने को वक्त की पुकार मानकर उन्होंने सलाद में से मूली का एक टुकड़ा उठाया और उसे टूँगते रहे।

''ऊ साला कहता है कि उसकी मेहरारू सी.एम. के साथ पोलिटिकल डिस्कसन कर रही है और उसे अंदर पहुचाकर खुद को गाड़ी में मच्छरों से नुचवाता रहता है ... ड़िस्कसन नही ठेंगा करती है ... पूरा प्रदेश जानता है कि क्या ड़िस्कसन होता है ... "

इसके बाद शर्मा ने पोलिटिकल डिस्कशन का जो नख-शिख वर्णन किया उसका बटुकचन्द ने उस भारतीय परम्परा के अनुसार जमकर आनन्द लिया जिसमें श्रोता अपने चेहरे और आँखों में लगातार ऐसा भाव भरे होता है कि उसके लिए इस गलीज प्रसंग को सुनना साक्षात कुम्भीपाक नरक का दर्शन करना है पर उसके कान एकाग्र भाव से सामनेवाले की वाणी से छलकते रसीले प्रसंग का छककर पान करते रहते हैं। वे बीच-बीच में अपने शब्दकोश में उपलब्ध धिक्कार के पर्यायवाची शब्दों का जमकर उपयोग करते रहे और जब भी शराब के प्रभाव से शर्मा की जिह्वा कुछ लड़खड़ाती, उसे वापस कथा के सरस प्रसंगों की तरफ मोड़कर लाते रहे।

अगले कुछ मिनटों में शर्मा ने जो कथा सुनाई वह इस पिछड़े प्रदेश में कई बार दुहाराई जा चुकी थी और बटुकचन्द जैसे लोगों ने अलग-अलग मुख्यमन्त्रियों के शासनकाल में अलग-अलग तरीकों से सुन रखी थी। इसी प्रदेश में एक नरपुंगव मुख्यमन्त्री हो चुके थे जो अपनी बहू की सलाह से राजकाज चलाते थे। उनके जमाने में प्रदेश बहुमत से नहीं बहू-मत से चलता था। एक जिले में अक्सर दो कलक्टर चार्ज लेने पहुँच जाते थे। एक को सरकार आदेश देती थी, दूसरा बहूजी के दरबार से जारी आदेश की कापी फड़फड़ाता पहुँच जाता। जाहिर है कि बहूजी का कृपापात्र ही कलक्टर की कुर्सी पर विराजमान हो पाता। एक दूसरे महानुभव, जिनकी ख्याति चप्पल-उठाऊ मुख्यमन्त्री की थी, प्रदेश के हर शहर में डिस्कशन के लिए अलग-अलग पात्रों को रखने में विश्वास रखते थे। अपनी पत्नी से सन्तान उत्पन्न करने में असमर्थ इनकी सन्तानें प्रदेश के कोने-कोने में दिखाई पड़ जातीं। शर्मा जिन मुख्यमन्त्री की चर्चा कर रहा था उनकी दिक्कत यह थी कि वे पिछड़ी जाति के थे और डिस्कशन हमेशा अगड़ी जातियों की महिलाओं से करते थे। शर्मा के दुख का एक कारण यह भी था।

''अब आप बताइए बड़े साहब...साला वक्त इतना खराब आ गया है कि...'' इसके बाद शर्मा ने दुःख जाहिर करते हुए बताया कि इस खराब वक्त में अमुक-अमुक जातियों की महिलाओं को तमुक-तमुक जातियों के पुरुषों से पोलिटिकल डिस्कशन जैसा घृणित कार्य करना पड़ रहा है। उसके अनुसर, ''अमुक जाति के अध्यक्षजी तक तो ठीक था, पर तमुक जाति के मुख्यमन्त्री के साथ...छि...छि...।''

थोड़ी देर तक छि...छि...होती रही, पर जाहिर था कि छि...छि...से न तो वह व्यग्रता शान्त होती जो सब कुछ बयान कर देने के लिए उतावली थी और न उस उत्सुकता का शमन होता जो रस-भरे प्रसंगों का जी भरकर आस्वाद लेना चाहती थी। लिहाजा देर रात तक शर्मा वे सारे विवरण देता रहा जिन्हें सुनकर बटुकचन्द को लग रहा था कि उन्होंने आज दिन-भर जो कुछ बाबू और शर्मा पर खर्च किया था, वह बेकार नहीं जानेवाला था।

शर्मा की कथा का लुब्बो-लुआब यह था कि पहले अध्यक्षजी की निकटता में सुमन की जीवनचर्या बदली और फिर मुख्यमन्त्री के सान्निध्य ने तो पूरा जीवन ही बदल डाला। कैसे कुछ हजारों से शुरू करके सुमन ने लाखों और कभी-कभी करोड़ों फीस के रूप में वसूलना शुरू कर दिया। इसका दर्द-भरा वर्णन शर्मा ने अपनी खाली होनेवाली गिलास को बार-बार भरकर किया। दर्द उसे इस बात का था कि शुरू में तो कई सौदे उसके जरिये हुए थे और उसे भी उसका हिस्सा मिला गया था। बाद में सुमन के पति और देवरों ने सीधे सौदे करने शुरू कर दिये। शर्मा के पास शिकार नहीं आते थे, उसे खुद शिकार की तलाश में सचिवालय से लेकर रेलवे स्टेशन तक खाक छाननी पड़ती थी।

इस विवरण के बाद शर्मा कुछ ठिठका। शराब में उसका जिस्म जरूर धुत था, पर दिमाग अभी काम कर रहा था। उसने पूरी तरह बेसुध होकर लुढ़कने के पहले बटुकचन्द को आश्वस्त किया, ''पर कुछ भी कहो बड़े साहब...कितनी बड़ी तोप हो गयी है साली, पर अपने पुराने यार को अभी भी नहीं भूली। मैं कोई केस लेकर जाता हूँ तो कभी मना नहीं करती। आपका केस भी करेगी...बड़े साहब...आपने देखा नहीं कैसे मुझसे बात कर रही थी...''

शर्मा तो बिस्तर पर लुढ़क गया, पर इस वाक्य से बटुकचन्द का चेहरा लटक गया।

उन्होंने सुमन के कमरे में जो देखा था उससे उनका चेहरा लटकना ही चाहिए था। सुमन उर्फ भाभीजी का एक जमीनी कार्यकर्ता जब शर्मा को बाँहों में भरकर अन्दर से कमरे में वापस ला रहा था और शर्मा उनकी तरफ इस तरह से देखकर मुस्कुरा रहा था कि ये तो अपना यार है और दोस्ती में यह सब चलता है, उन्होंने उस समय इसे मान लिया था और खुद भी मुस्कुराए थे। अब अचानक उन्हें लगने लगा था कि वह जमीनी कार्यकर्ता शर्मा को घर के अन्दर बिना इजाजत घुस आने पर गर्दनिया कर बाहर निकाल रहा था। इसी तरह जब सुमन की निगाहें कमरे में बैठे लोगों के चेहरों पर घूमते हुए शर्मा के मुखड़े पर बिना टिके उछलते-कूदते आगे बढ़ी जा रही थीं तब उन्होंने सोचा था कि पति और कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में पुराने प्रेमी के प्रति जान-बूझकर उपेक्षा दिखाई जा रही है, पर अब लगने लगा कि यह उपेक्षा तो स्थायी भाव की तरह सुमन की निगाहों में मौजूद थी। उन्होंने याददाश्त पर काफी जोर डाला, पर उन्हें एक भी मौका याद नहीं आया जब सुमन ने अपने पति से छिपाकर शर्मा से आँखें लड़ाई हों।

ऐसा याद न आने पर बटुकचन्द का चेहरा और लटक गया।

ऐसा तो नहीं कि दिन-भर जो खर्चा-पानी किया सब नाली में चला गया अब तो दो ही विकल्प थे-एक तो यह कि दबाकर मुर्गा तोड़ने और छककर दारू पीनेवाली इस मोटी थुल-थुल काया को जो इस समय अपने शरीर के हर छिद्र से हवा और ध्वनि का वितृष्णा उत्पन्न करनेवाला प्रभाव बाहर फेंकने में मशगूल थी, उठाकर होटल के बाहर फेंक दें। दूसरा विकल्प थोड़ा आसान लग रहा था। वे नींद में धुत इस शरीर को अपनी नाक से अन्य प्राणियों की गुर्राहट की ध्वनियाँ निकालने दें और इन सबसे बेखबर होकर सोने की कोशिश करें। उन्होंने यही किया और जल्दी ही उनके शरीर के छिद्र भी वही क्रिया सम्पादित करने लगे जो उनके कमरे में मौजूद दूसरे प्राणी के कर रहे थे।

दूसरे दिन जब बटुकचन्द की आँखें खुलीं तो उन्होंने पाया कि शर्मा नहा-धोकर, रात में लाये नये कुर्ते-पाजामे में सजा-धजा, सेंट्रल टेबल पर टाँग पसारे अखबार पढ़ रहा है।

''बड़े साहब, जल्दी उठिए। अब तक तो दरखास्ती भाभीजी के यहाँ इकट्ठे हो गये होंगे।''

बटुकचन्द हड़बड़ाकर उठे। कई बार का सीखा हुआ पाठ वे भूल गये थे। राजधानी में सोओ कभी भी, उठो मुँह-अँधेरे और नहा-धोकर निकल पड़ो नेता की कोठी की तरफ। इससे पहले कि नेता अपने घर से बाहर निकले उसे पकड़ लो।

जब बटुकचन्द और शर्मा कार से उतरे तो सुबह के साढ़े सात ही बजे थे, लेकिन पूरे माहौल में इस कदर गर्मी थी कि शर्मा का मन हुआ कि दौड़ते हुए मुलाकातियों के कमरे तक पहुँच जाये और पंखे के नीचे बैठकर पूरे बदन से चू रहे पसीने को सुखाये। उसने बटुकचन्द के सौजन्य से प्राप्त नये कुर्ते-पाजामे को धारण कर रखा था और बीती शाम के अपने प्रदर्शन को याद करके मुस्कुरा रहा था। इस प्रदर्शन ने उसे एक खास तरह का आत्म-विश्वास प्रदान कर दिया था जो इस घर की चारदीवारी लाँघते समय उसकी चाल से झलक रहा था। गेट पर पुलिस का एक सिपाही बन्दूक लिये खड़ा था। शर्मा ने उसकी प्रश्नाकुल आँखों की उपेक्षा की और इस धारणा का प्रदर्शन करते हुए कि अगर आप पूरे विश्वास के साथ सर उठायें और अपनी आँखें सीधी किये महल में प्रवेश करें तो किसी दरबान की हिम्मत नहीं कि आपको टोक सके, सीधे अन्दर चला गया। बटुकचन्द पीछे थे और उनकी चाल को सिपाही की आँखों ने लंगी मार दी। उन्होंने सिपाही की आँखों से अपनी आँखें टकराने दीं। नतीजे में वे लड़खड़ाये और सिपाही ने उन्हें डपट लिया।

''किसने मिलना है जी-- सबेरे-सबेरे मुँह उठाये चले आये...''

''अजीब लड़बहेर हो तुम...बड़े साहब को नहीं पहचानते!''

शर्मा जो कुछ आगे बढ़ गया था बटुकचन्द की रक्षा के लिए झपटा। लड़बहेर और साहब दो ऐसे शब्द थे जिनसे सिपाही के चेहरे का तनाव दूर हो गया। वह मुस्कुराया। अभी इस कोठी की गार्ड में वह नया-नया आया था, पर तीन-चार दिन में ही कुछ चीजें उसकी समझ में आ गयी थीं। लड़बहेर जैसा सांस्कृतिक शब्द भाभीजी के जमीनी कार्यकर्ता ही इस्तेमाल कर सकते थे। अपने छोटे से प्रवास के दौरान उसने तमाम बड़े साहबों को तबादलों और तरक्कियों के चक्कर में भाभीजी की ड्योढ़ी के चक्कर लगाते देखा था। इसलिए लड़बहेर और बड़े साहब शब्दों को सुनने के बाद उसने आदर के साथ रास्ता छोड़ दिया और बटुकचन्द कोठी के अन्दर दाखिल हो गये।

अन्दर का दृश्य किसी ऐसी रणभूमि का-सा था जहाँ से युद्धरत सेनाएँ लम्बे युद्ध के बाद रात्रि-विश्राम के लिए अपने-अपने शिवरों में वापस चली गयी हों। बाहर खुले मैदानी हिस्से में जिसे उसके अच्छे दिनों में लॉन कहा जा सकता था, पालीथीन के लिफाफे, मूँगफली के छिलके, अधखाये समोसों के टुकड़े, सिगरेट के ठूँठ और चाय के कागजी कप छितरे पड़े थे। यदि किसी वीर रस के कवि को इन मनोहारी छटा का वर्णन करने के लिए बुला लिया जाता तो शायद उसे इस तथाकथित लॉन में उल्टी बिखरी कुर्सियों को देखकर नरमुंडों की याद आ जाती।

बटुकचन्द खुश हुए। सुबह का सूरज माथे तक चढ़ आया था, पर लॉन में कोई नहीं था। राजधानी में लोग इधर आलसी हो गये हैं। पिछले महीने तक तो ऐसा नहीं था। वे अपने विभाग में मन्त्रीजी के यहाँ मुँह-अँधेरे पहुँचे थे, तब भी फरियादियों की अच्छी-खासी भीड़ थी। अच्छा है लोग देर तक सोने लगे हैं।

उनकी खुशी क्षणिक ही रही। जैसे ही शर्मा उन्हें लॉन से धकियाता हुआ बीती रातवाले मुलाकाती कमरे के अन्दर ले गया, उनका चेहरा उतर गया। अन्दर आधे से ज्यादा कमरा भरा था। फर्क सिर्फ इतना था कि लोग सोफों पर आराम से बैठे थे, कल की तरह दो की जगह पाँच नहीं थे और बटुकचन्द को आसानी से बैठने की जगह मिल गयी। शर्मा ने जरूर खाली जगह की तलाश नहीं की। पहले वह किसी की गोदी में बैठा, फिर उसने किसी का पैर कुचला, अन्त में दो-तीन लोगों के शरीर के विभिन्न हिस्सों को लाँघता-फलाँगता एक जगह पर स्थिर हो गया। उसके बैठने के बाद बटुकचन्द को समझ में आया कि उसे खाली जगह नहीं बल्कि सही जगह चाहिए थी। वह जहाँ बैठा था वहाँ से घर के अन्दर तक देखा जा सकता था। बीच में एक दरवाजा था जिस पर पड़ा पर्दा इतनी बार खिसकाया जा चुका था कि अब उसकी स्थिति होने-न-होने के बीच की थी।

बैठकर बटुकचन्द ने कमरे में निगाहें दौड़ायीं। पहले से बैठे कुछ लोगों ने पहलू बदले। जासूसी फिल्मों जैसा माहौल हो गया। एक साहब ने अखबार इस तरह पढ़ना शुरू किया कि उनका चेहरा तो ढक गया, पर पन्ने उलटे हो गये। एक के चेहरे पर पसीना इस कदर चुहचुहाने लगा कि उसने रुमाल जेब की जगह चेहरे पर ही रख ली। बटुकचन्द ने भी बाईं तरफ बैठे सज्जन से बचने के लिए दाहिनी तरफ गर्दन मोड़ ली, पर दाहिनी तरफ एक ज्यादा परिचित चेहरा था इसलिए घबराकर वे सीधे देखने लगे। जिस तरह कमरे में दूसरे लोग गम्भीर थे और यह मानकर चल रहे थे कि उन्हें कोई नहीं देख रहा है उसी तरह वे भी गम्भीर हो गये और उनके तईं कमरे में सारे अन्धे मौजूद थे।

थोड़ी देर में माहौल सामान्य हो गया। अखबार और रुमाल अपनी-अपनी जगह पहुँच गये। हम्माम में दूसरों को नंगा देखकर अपने नंगे होने का अहसास शर्मिन्दगी की जगह कौतूहल उत्पन्न करने लगा। अखबार से चेहरा ढँके व्यक्ति ने जैसे ही अखबार सीधा किया, बटुकचन्द ने उसे अभिवादन किया-''गुडमार्निंग सर।''

''गुडमार्निंग कपूर...कैसे हो?"

''जी आपका आशीर्वाद है...मेरा नाम बटुकचन्द उपाध्याय है। आपसे पिछले साल मुलाकात...''

बटुकचन्द ने उन्हें याद दिलाने की कोशिश की कि किस तरह पिछले साल वे सचिवालय में, कब उनसे मिले थे और कौन उस मुलाकात के पीछे था, पर जिन्हें 'सर' कहकर सम्बोधित किया गया था उन्होंने कुछ भी याद करने से इनकार कर दिया।

बटुकचन्द को उन्हें याद दिलाने में कुछ-कुछ ऐसा आनन्द आ रहा था जिसे कुछ विद्वान कुटिल आनन्द कहते हैं। सर भूल रहे थे और बटुकचन्द याद दिला रहे थे। उन्हें याद दिलाकर वे अपने अपमान का बदला ले रहे थे। जिन्हें याद दिलाया जा रहा था वे बटुकचन्द के विभाग के कुछ दिन पहले तक प्रमुख सचिव थे। बटुकचन्द पिछले साल एक विधायक को पकड़कर उनके पास पैरवी के लिए ले गये थे। प्रमुख सचिव महोदय काफी देर तक उन्हें डाँटते रहे। उन्होंने हर वाक्य में डिसिप्लिन नामक उस तत्त्व को तलाशने की कोशिश की जो पोलिटिकल इंटरफियरेंस नामक लकड़बग्घे के जबड़े में नुचा-चुथा तड़फड़ा रहा था और जिसे बचाना उन जैसे नौकरशाह का परम कर्तव्य था। जिस विधायक के साथ बटुकचन्द गये थे, उसने दहाड़ने से ज्यादा मिमियाना शुरू कर दिया। यह तो बाद में पता चला कि जिस विधायक को लेकर वे सचिव के कक्ष में घुस थे, मिमियाना उनके चरित्र का स्थायी भाव था। नौकरशाह उसी विधायक के साथ अदब से बातचीत करते हैं जिसकी जुबान और जूता एक साथ चलते हैं। गनीमत थी कि अन्दर आने के पहले उन्होंने सिर्फ आधी फीस ही दी थी। निकलने के बाद उन्हें इशारों से कई बार समझाया गया, लेकिन उन्होंने बकाया राशि के बारे में याद करने से इनकार कर दिया।

बटुकचन्द को पता था कि इन महोदय का तबादला किसी ऐसे विभाग में हो गया है जहाँ गजेटियर नामक किसी पुस्तक को संशोधित-परिवर्द्धित किया जाता था। भारतीय नौकरशाहों को दुःख इसी बात का था कि अंग्रेज जैसी चुतर और साहिबी तबीयत की कौम ने ऐसे-ऐसे महकमे बना दिये थे जो नौकरशाही के लिए कलंक की तरह थे। अगर उनके बीच कुछ ऐसे सिरफिरे थे जिन्हें वनस्पतियों, पशु-पक्षियों या जनजातियों जैसी फिजूल की चीजों के पीछे मारे-मारे फिरना अच्छा लगता था तो उन्हें करने देते ये सारे काम। वे लिखते रहते किताबें, बनाते रहते गजेटियर। पर यहाँ से जाते-जाते तो उन्हें ये सारे फिजूल के महकमे खत्म कर ही देने चाहिए थे। यह क्या बात हुई कि उनके जाने के बाद भी कुछ भारतीय नौकरशाहों को झाड़-झंखाड़ साफ करने पड़ रहे थे।

इन महोदय का भी कुछ ऐसा ही दुख था। उन्हें सार्वजनिक निर्माण विभाग से हटाकर गजेटियर विभाग में भेज दिया गया था। पिछले तीन महीनों से वे इसी उलझन में डूबे थे कि गजेटियर नाम की यह चिड़िया है क्या चीज और अगर अंग्रेजों ने इसे ढूँढ़ निकालने की हिमाकत कर ही दी थी तो अब इसे शान्ति के साथ अपने घोंसले में बैठने क्यों नहीं दिया जा रहा? उसमें नये रंग-रोगन करने की कोशिश क्यों जी जा रही है उनके पहले जो सज्जन वहाँ तैनात थे वे तो कई सालों तक इन प्रश्नों का उत्तर नहीं ढूँढ़ पाये। ये तो तीन महीनों में ही घबराकर भाभीजी की शरण में आ गये थे।

प्रमुख सचिव महोदय की याददाश्त दुरुस्त करने के साथ-साथ बटुकचन्द कमरे की उस गतिविधि पर भी निगाह रखे हुए थे जिसके अन्तर्गत बैठा कोई व्यक्ति अचानक उठता और अन्दर वाले दरवाजे से होता हुआ अन्तर्धान हो जा रहा था। कोई इस कमरे में वापस नहीं आ रहा था। स्पष्ट था कि अन्दर बात करने के बाद उसे किसी दूसरे निकास से बाहर भेजा जा रहा था।

अन्त में वह क्षण भी आ ही गया जिसकी उन्हें प्रतीक्षा थी।

एक जमीनी कार्यकर्ता अन्दर आया। अन्दर क्या आया, दरवाजे की दहलीज से उसने एक कदम आगे बढ़ाया और शेष हरकत उसकी गर्दन ने की। सारस की तरह लम्बी गर्दन चारों तरफ घूमी और कमरे में बैठे लोगों पर घूमती हुई बटुकचन्द पर स्थिर हो गयी।

''आइए बड़े साहब।''

बटुकचन्द उठे। शर्मा भी उठ गया।

''आप नहीं...बड़े साहब को बुलाया है।''

बटुकचन्द ने कहना चाहा कि शर्मा उनके साथ है, बल्कि वही उन्हें लाया है, पर उन्हें बोलने की जरूरत नहीं पड़ी। शर्मा खुद ही बोल पड़ा, ''अरे भाई जी, हम भी साहब के साथ हैं न।''

''सिर्फ बड़े साहब को बुलाया है।''

आवाज की सख्ती ने बहस खत्म कर दी। बटुकचन्द अन्दर चले गये। अन्दर आँगन था, आँगन के बाद बरामदा था और बरामदे की तरफ खुलनेवाले कई छोटे-बड़े कमरों में से एक कमरे में उन्हें ले जाया गया।

कमरा छोटा ही था। इतना भर कि उसमें एक सोफासेट आ जाय और एक कोने में टी.वी. रखकर उसे एक तरह चलाया जा सके जिससे बातचीत करनेवाले जब बातचीत से ऊबें तो टी.वी. देखने लगें।

अन्दर भाभीजी थीं, भाई साहब थे, ढेर सारे अखबार थे और एक टी.वी. था। अखबार भाई साहब और भाभीजी के हाथों में थे, उनके कदमों पर बिखरे हुए थे, सोफों पर थे और फर्श में जहाँ कहीं जगह बची थी वहाँ पर भी छितरे हुए थे। बटुकचन्द अखबारों के ऊपर चलकर आये थे और जब सोफे पर बैठे तो कुछ उनके पृष्ठ भाग के नीचे दब गये। उन्होंने पहले तो उन्हें निकालने की कोशिश की फिर थोड़ी देर में यह हरकत छोड़कर उस टी.वी. की तरफ देखने लगे जो इस तरह चल रहा था कि उसकी आवाज में बात की भी जा सकती थी और नहीं भी की जा सकती थी और जिसकी उपस्थिति से यह जानना मुश्किल था कि कमरे में मौजूद पति-पत्नी अखबार पढ़ रहे थे या उसे देख रहे थे।

भाभीजी ने पूरा मुँह खोलकर जमुहाई ली। उन्होंने ढीला-ढाला गाउन पहन रखा था। रात का मेकअप बदरंग धब्बों की तरह कहीं-कहीं चेहरे पर चिपका हुआ था। भाई साहब पाजामे और बनियान में थे। वहाँ बैठने पर बटुकचन्द को पता चला कि उनके शरीर के अलग-अलग अंगों में खुजली थी। वे एक हाथ से एक के बाद दूसरे अंग को खुजला रहे थे, एक हाथ से अखबार पकड़े हुए थे, एक आँख से अखबार पढ़ रहे थे और दूसरी आँख टी.वी. के पर्दे पर गड़ाए हुए थे। टी.वी. के पर्दे पर एक नायिका अपने वक्ष मटकाती हुई नायक के पीछे दौड़ रही थी। जब नायक पर्दे पर रह जाता, भाई साहब दूसरी आँख भी अखबार पर गड़ा देते। नायिका का उछलता-कूदता वक्ष जैसे ही पर्दे पर आता उनकी दोनों आँखें टी.वी. पर टिक जातीं और खुजली मिटाता हाथ एक ही अंग पर घूमने लगता।

जमुहाई दोबारा ली गयी और पूरी तबीयत से ली गयी। जमुहाई इस तरह से ली गयी कि उसके दो अर्थ निकलते थे। एक तो जमुहाई लेने वाले की नींद पूरी नहीं हुई थी और दूसरे आगन्तुक को कमरे में अखबार पढ़ने या टी.वी. देखने के लिए नहीं बुलाया गया है।

बटुकचन्द ने दोनों अर्थ ग्रहण करने से इनकार कर दिया और टी.वी. पर नायिका के मटकते हुए वक्ष देखने में मशगूल भाई साहब का अनुसरण करने लगे।

''बताइए बड़े साहब, क्या आज्ञा है?" भाभीजी ने फिर जमुहाई ली।

इस सवाल का भी जो लम्बा उत्तर दिया गया उसका आशय यह था कि आज्ञा वे क्या देंगे, वे तो सौभाग्यशाली हैं कि आज भाभीजी के दर्शन हो गये। रही बात पहले न आने की तो उसी का दंड ही तो भुगत रहे हैं वे। पहले अगर इस दरबार की शरण में आ गये होते तो आज का दिन क्यों देखना पड़ता

टी.वी. पर कोई दूसरा कार्यक्रम शुरू हो गया था और नायिका अपने वक्ष के साथ अदृश्य हो गयी थी। इसलिए भाई साहब ने वार्तालाप में हस्तक्षेप किया।

''फिर बताइए क्या करना है...कैसे करना है?"

बटुकचन्द का अनुभव बताता था कि यही प्रश्न ऐसे मौके पर किया जाता है। उनका अनुभव यह भी बताता था कि ऐसे प्रश्न का फौरन और सीधा उत्तर नहीं देना चाहिए।

''मैं क्या बताऊँ भाई साहब।...बताना तो आपको ही है।'' इसके आगे फिर उन्होंने एक लम्बा वाक्य कहा जिसका आशय यह था कि वे उम्र में बड़े भले हों, पर हैं उनके बच्चों की तरह। इसलिए इस मुसीबत से, जिसे लोग तबादला नाम से पुकारते हैं, निकालने के लिए क्या करना है, कैसे करना है, यह तो भाई साहब या भाभीजी के श्रीमुख से सुनना ही अच्छा लगेगा।

''उस साले मन्त्रिया को कितना दिया था?" प्रश्न इतना सीधा-सपाट था कि बटुकचन्द अचकचा गये। यह समझने में भी उन्हें थोड़ा समय लगा कि जिसे मन्त्रिया कहकर इंगित किया गया था, वे उनके विभाग के मन्त्रीजी थे।

इस सवाल का जवाब किसी लम्बे वाक्य से नहीं दिया जा सकता था, इसलिए उन्होंने इसका जवाब देने के लिए एक लम्बे पैराग्राफ का सहारा लिया। उनके पैराग्राफ में प्रयुक्त भूमिका, अभिधा, लक्षणा और रूपकों को निकाल दिया जाय तो उसमें निम्नलिखित अर्थ काम के निकलते थे-

कि बटुकचन्द अज्ञानी प्राणी हैं और दूसरे अज्ञानियों की तरह उनसे भी जीवन में तमाम गलतियाँ हुई हैं, पर जीवन की सबसे बड़ी दो गलतियाँ इस तबादले के प्रकरण में हुईं। पहली तो यह कि वे शुरू ही में भाभीजी की शरण में नहीं आये और दूसरी यह कि कुछ दुष्टात्माओं की सलाह मानकर वे मन्त्रीजी के पास चले गये।

कि पैसा तो हाथ के मैल की तरह है, आता-जाता रहता है। एक बार हाथ से निकल जाने के बाद बटुकचन्द उसे याद नहीं करना चाहते। मन्त्रीजी को कितना पैसा दिया था, इसे वे भूल गये हैं और इस दरबार की भी जो सेवा करेंगे उसे यहाँ से निकलते ही भूल जाएँगे।

कि तबादले तो जीवन में होते रहते हैं और उनका सिद्धान्त है कि सरकार जहाँ तैनात कर दे वहीं वे नौकरी करने लगते हैं और भाई साहब तथा भाभीजी के आशीर्वाद से ठसक के साथ करते हैं। इस बार तो मामला इज्जत का फँस गया है। पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी माई के लाल ने उनको हटाकर अपनी तैनाती करायी है। इस अपमान को वे नहीं सह सकते इसलिए कुछ भी करना पड़े, वे वापस उसी जगह जाना चाहते हैं।

अपने लम्बे पैराग्राफ का अन्त उन्होंने उस निवेदन के साथ किया जो ऐसे मौके पर किया जाता है कि वे उनसे बाहर थोड़े हैं, जो हुकुम हो, वो सेवा इस बार करेंगे और जीवन-भर सेवा के मौके तलाशते रहेंगे।

लम्बे पैराग्राफ का एक नतीजा यह हुआ कि भाभीजी को याद आ गया कि उन्होंने अभी कुछ ऐसी क्रियाएँ नहीं सम्पादित की हैं जिन्हें स्वस्थ रहने के इच्छुक लोग सुबह-सवेरे करते हैं और उनके मुलाकाती हमेशा उनकी इस इच्छा में बाधक बन जाते हैं। उन्होंने एक लम्बी जमुहाई ली और उठ खड़ी हुईं।

''मेरे लिए क्या आदेश है?" बटुकचन्द हाथ जोड़कर खड़े हो गये।

''साहब बता देंगे। आप बात करिए, मैं आती हूँ'', भाभीजी ने भाई साहब की तरफ इशारा किया।

''अब यह गरीब ब्राह्मण आपकी शरण में है। आदमी अपनों के ही पास जाता है। अब ब्राह्मणों के नेता ही कितने बचे हैं?"

बटुकचन्द ने जिस तरफ इशारा किया था उसके कारण भाभीजी ने स्वास्थ्य में सहायक क्रियाओं को थोड़ी देर के लिए स्थगित किया और बैठ गयीं।

उन्होंने बताया कि वक्त ऐसा आ गया है कि छोटी जातियों के लोग चोरी, छिनैती या बूट पॉलिश जैसे आदर्श काम छोड़कर आई.ए.एस., पी.सी.एस. बन रहे हैं या मन्त्री, मुख्यमन्त्री की कुर्सियों पर बैठे नजर आ रहे हैं। अब ऐसे में ब्राह्मण बेचारे कहाँ जाएँ, पर इसमें गलती उनकी भी है। भाभीजी ने कितनी बार अपील की है कि वे आपसी झगड़े छोड़कर एक हो जाएँ और एक ही न हों उनके नेतृत्व में भी आ जाएँ। इसके बाद भी अगर वे एक नहीं होते और आपस में लड़ते रहते हैं तो इसमें उनका क्या दोष पर अपनी ऐंठ में डूबी ऊँची जातियाँ अपना फर्ज भूल जाएँ तो भूल जाएँ, वे कैसे भूल सकती हैं उनका दरबार हमेशा इन लोगों के लिए खुला रहता है।

इसके बाद भाभीजी के चेहरे पर शरारती मुस्कान तैर गयी। उन्होंने भाई साहब की तरफ इठलाती निगाहों से देखते हुए कहा, ''मैं तो मुख्यमन्त्रीजी से भी कहती हूँ कि आप लोग कहाँ से इस कुर्सी पर बैठ गये...आपको तो...''

उन्होंने बहुत सारे ऐसे धन्धों का जिक्र किया जिसे मुख्यमन्त्रजी को इसलिए करना चाहिए था क्योंकि वही उनकी जाति के लोगों को शोभा देते हैं। वहाँ सिर्फ वही तीन लोग थे इसलिए तीनों धन्धों की इस सूची पर ठठाकर हँसे।

''अरे भाई, मुख्यमन्त्रीजी के सलाहकार कौन लोग हैं, ये भी तो देखो। हमारी सलाह पर चलेंगे तो परमानेंट मुख्यमन्त्री रहेंगे।'' भाई साहब के कथन पर भाभीजी और बटुकचन्द ने सर हिलाया।

भाभीजी उठीं और अन्दर चली गयीं।

''हाँ तो बताइए बड़े साहब...क्या करना है?"

''मुझे क्या बताना है मैं तो आपकी शरण में आया हूँ। बताना तो आपको है।''

इसके बाद दोनों पक्षों में इस बात पर लम्बी बहस हुई कि किसे बताना है। इतना जरूर हुआ कि बहस के दौरान भाई साहब ने जानने की कोशिश की कि कमलाकान्त को हटाकर कुम्भ मेला डिवीजन में पहुँचने के लिए बटुकचन्द ने मन्त्री की कितनी सेवा की थी। बटुकचन्द ने एक बार फिर बताया कि वे पैसे को हाथ की मैल समझते हैं और एक बार किसी की सेवा करने के बाद उस रकम को याद करने की इच्छा उनके मन में कभी नहीं उठती। इस दरबार की सेवा करने के बाद तो उनके प्राण भी निकाल लिये जाएँ वे किसी के सामने मुँह नहीं खोलेंगे। भाई साहब ने इसके उत्तर में जो कहा उसका आशय यह था कि बटुकचन्दजी के प्राण बड़े कीमती हैं और उनकी इस भावना की वे कद्र करते हैं कि ऐसे सम्बन्धों में गोपनीयता बड़ी जरूरी चीज है।

इसके बाद जो वार्तालाप हुआ उसे अगर सन्दर्भ से अपरिचित कोई छात्र आड़ में बैठकर सुनता तो यही समझता कि इस कमरे में अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित की कुछ जटिल समस्याओं पर दो कमजोर विद्यार्थी विचार-विमर्श कर रहे हैं।

भाई साहब ने कुम्भ के बजट की राशि का उल्लेख करते हुए बताया कि अब तो प्रधानमन्त्री ने भी घोषित कर दिया है कि सोलह आने में सिर्फ चार आने जनता तक पहुँचता है इसलिए इस कुम्भ में तो बड़े साहब की चाँदी है और उनकी सात पुश्तों को इस कुम्भ के बाद कोई काम नहीं करना पड़ेगा।

बटुकचन्द ने विनम्र निवदेन किया कि हालाँकि भाई साहब खुद राजनीति में हैं, पर अगर वे बुरा न मानें तो बटुकचन्द उन्हें बताना चाहेंगे कि राजनीतिज्ञों की बातों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। वे लोग अक्सर गम्भीर मुद्रा बनाकर मजाक करते हैं। प्रधानमन्त्री ने भी जनता को हँसाने के लिए कुछ कहा था, पर हमारे देश में लोगों का सेंस ऑफ ह्यूमर इतना कम है कि लोगों ने हँसने की जगह उसे मुँह लटकाकर सुना और ज्यादा गम्भीर हो गये।

फिर कुछ देर तक कुम्भ के बजट पर गम्भीर चर्चा हुई। दोनों अनुमानों में कुछ इतना अन्तर था कि अगर उसे कोई सुन रहा होता तो सुननेवाले को संसद में बजट पर होनेवाली बहसों का-सा आनन्द आ जाता। भाई साहब ट्रेजरी बेंच पर बैठे वक्ता की तरह बोल रहे थे जिसके अनुसार बजट में इतना पैसा था कि देश इस साल तो क्या अगले कई सालों में इस बजट का पैसा खर्च नहीं कर पाएगा। बटुकचन्द की भूमिका विपक्षी सदस्य की थी जो यह साबित करने में लगा था कि इस बजट से तो बस इतना ही हो सकता है कि सरकार पिछले कर्जे चुका दे और नये कर्जों के लिए फिर कटोरा लेकर निकल पड़े। कुम्भ का बजट भी कुछ ऐसा है कि बस राम-राम करते कुम्भ निकल जाएगा।

जैसा कि इस तरह की लम्बी बहसों में होता है, यहाँ भी हुआ कि दोनों पक्षों को याद आने लगा कि उनके पास सब कुछ है, पर एक बहुमूल्य चीज जिसे समय कहते हैं, उसकी कमी है। दोनों की अपनी विवशताएँ थीं। भाई साहब को उन दुखियारों की चिन्ता सता रही थी जो प्रदेश के दूर-दराज इलाकों से आकर उनके ड्राइंग रूम में बैठे थे और चूँकि राजधानी में कोई काम नहीं करता, सिर्फ उनके दरबार में उनके दुख-दर्द सुने जाते हैं इसलिए उनका यह फर्ज बनता है कि वे इन दुखीजनों का दुख-दर्द सुनें और उनकी मदद करें। यह मदद तभी हो सकती है जब बटुकचन्दजी अपना दुखड़ा कुछ संक्षेप में कहें और शीघ्र ही मंच से प्रस्थान करें। बटुकचन्द को भी समय की चिन्ता कम नहीं थी। कुम्भ सर पर आ गया है। अभी तक कुछ हुआ नहीं। कमलाकान्त नामक एक अयोग्य प्राणी सिर्फ सिफारिश के बल पर मेला डिवीजन का अधिशासी अभियन्ता बनकर बैठा था और सब कुछ बर्बाद करने पर तुला हुआ था। अभी तक जितना नुकसान वह कर चुका था उसी को सँभालने में बटुकचन्द के छक्के छूट जाएँगे, उसे और कुछ दिन रहने दिया गया तो बटुकचन्द भी क्या कर पाएँगे जो कुछ नुकसान होगा उसकी भरपाई असम्भव हो जाएगी। बटुकचन्द को आज ही आदेश मिला जाना चाहिए।

समय की कमी का अहसास होते ही दोनों में उसी राशि के बारे में तबादला-खयालात होने लगा जिसे भाई साहब पार्टी फंड में जमा करने की बात कर रहे थे और जिसका उल्लेख करने से पहले वे हर बार यह स्पष्ट करना जरूरी समझते थे कि उनके और उनकी पत्नी के लिए तो किसी तरह का धन छूना गो-माँस खाने के बराबर है। वो तो मुख्यमन्त्रीजी ने पार्टी फंड के लिए कुछ धन-संग्रह करने का काम सौंप रखा है इसलिए वे लोग दुखी जनों से उनकी श्रद्धा के अनुसार कुछ शुल्क ले लेते हैं। पार्टी का मसला न होता तो उनके छोटे-से परिवार के लिए भगवान ने बहुत कुछ दे रखा है। बटुकचन्द भी हर बार बड़ी श्रद्धा के साथ सर हिलाकर यह स्पष्ट कर देते कि उन्हें भाई साहब के कथन में पूरा यकीन है। पूरे प्रदेश में उनकी और भाभीजी की ईमानदारी के डंके बज रहे हैं, अब तो अदालतों में लोग उनकी कसमें खाकर गवाही देते हैं।

समय की कमी थी, राशि पार्टी फंड के लिए माँगी जा रही थी, बाहर बैठे दुखियारों के दूत के रूप में कुछ जमीनी कार्यकर्ता आकर ताक-झाँक कर गये थे-पर इन सब के बावजूद काफी जद्दो-जहद के बाद ही एक राशि पर बात टूटी। बहस में भाग लेने वाले दोनों प्राणी अन्तर्यामी नहीं थे, अगर होते तो भाई साहब पाते कि ऊपर से लुट गये का भाव बनाये, मुँह लटकाये बटुकचन्द का दिल अन्दर-अन्दर खुशी से उछल रहा था। उन्होंने जितने का अनुमान लगाया था उससे काफी कम में सौदा पट गया था। इसी तरह बटुकचन्द अगर भाई साहब का मन पढ़ सकते तो पाते कि वे भी खुश थे।वे इस समय यह हिसाब लगाने मे जुटे थे कि मुम्बई में जिस फ्लैट का सौदा उन्होंने अपने साले के नाम किया है उसके लिए बकाया रकम का इन्तजाम आज सुबह के दुखियारों से हो जाएगा या नहीं ? उन्हें लग रहा था कि हो जाएगा।

रकम तय हो जाने के बाद उसके भुगतान की अवधि और स्थान पर थोड़ी देर तक बहस हुई। बटुकचन्द की राय थी कि विश्व बैंक और आई.एम.एफ. की तरह भाई साहब इस रकम को एक लम्बी अवधि के कर्जे की शक्ल में चुकाने का अवसर दें। भाई साहब की राय थी कि इस तरह के मामलों में अपने बाप का भी यकीन नहीं किया जा सकता। बटुकचन्द के बार-बार यह कहने पर कि वे उन लोगों से बाहर थोड़े ही हैं और अब तो उनके परिवार के सदस्य बन चुके हैं, भाई साहब ने हर बार सहमति में सर हिलाया, लेकिन हर बार यह बताने से नहीं चूके कि भुगतान की देरी तरह-तरह की गलतफहमियों को जन्म देती है और वे नहीं चाहते कि उनके और बटुकचन्द के बीच, जो अब उनके परिवार के अंग हो गये हैं, कोई गलतफहमी हो। उन्होंने बटुकचन्द को वह मुहावरा सुनाया जिसे बटुकचन्द बचपन से पंसारियों की दुकानों पर पढ़ते आये थे और जिसका मतलब था कि उधार नामक कैंची प्रेम नामक किसी तत्त्व को काटती है। भाई साहब नहीं चाहते थे कि यह कैंची उनके बीच चले।

सहमति इस बात पर बनी कि तयशुदा रकम का आधा बटुकचन्द अभी दे दें। शेष का आधा आदेश की प्रति हाथ में आने पर शाम को पहुँचा दें। शेष कुम्भ का पहला टेंडर पास होते ही दे दिया जाय। इसके लिए बटुकचन्द ने आश्वस्त किया कि पहले टेंडर की नोटिस अखबार में छपते ही वे स्वयं इस रकम को लेकर राजधानी हाजिर हो जाएँगे।

भाई साहब ने प्यार से मना किया और अनुरोध किया कि बटुकचन्दजी बड़े अफसर हैं और कुम्भ में इतने व्यस्त हो जाएँगे कि उनके लिए राजधानी आना सरकारी काम में बाधा पहुँचाने जैसा होगा। इसलिए वे स्वयं न आएँ, उनके किसी दूत द्वारा यह कार्य सम्पादित हो सकता है।

बटुकचन्द ने अपने ब्रीफकेस को खोलकर रुपये गिनने शुरू कर दिये और वे तब तक उन्हें गिनते रहे जब तक भाभीजी वापस नहीं आ गयीं। रुपये भाई साहब के हाथ में थमाते हुए उन्होंने रकम का उच्चारण इस तरह किया कि भाभीजी भी उसे सुन लें।

''आप निशाखातिर रहें। शाम तक ऑर्डर मिल जाएगा।''

भाई साहब के इस वाक्य की जरूरत नहीं थी। बटुकचन्द को मालूम था कि भाभीजी जो आदेश चाहेंगी वही शाम तक हो जाएगा। वर्तमान मुख्यमन्त्रीजी जब तक हैं तब तक इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं थी। इसीलिए अपने उसूल के खिलाफ उन्होंने आधी रकम एडवांस में दे दी थी।

''तो मुझे आदेश दें,'' बटुकचन्द ने खड़े होकर आधा झुककर पति-पत्नी को बारी-बारी से नमस्कार किया।

''अरे क्यों धर्म-संकट में डालते हैं बड़े साहब...आप तो हमारे बुजुर्ग हैं।''

बटुकचन्द बाहर दरवाजे की तरफ बढ़े।

''बड़े साहब यह दलाल आपको कहाँ मिल गया?"

बटुकचन्द खड़े हो गये। उन्होंने पीछे मुड़कर भाभीजी की तरफ देखा।

''अरे यही लड़बहेर। शर्मा...कल भी था...आज भी आपके साथ आया है।''

बटुकचन्द हौले से हँसे-

''आपके दरबार में कैसे-कैसे जीव-जन्तु पलते हैं भाभीजी, कल आया तो बाहर खड़ा था। मेरे साथ-साथ दरबार में घुस आया। आज भी सुबह पहुँचा तो गेट पर मिल गया। लगता है, आपने कल मुझे आज सुबह आने के लिए कहा तो इसने सुन लिया था।''

''अच्छा ऽ ऽ ऽ तभी...आप इधर से निकल जाइए। उसे हमारे लड़के देख लेंगे।''


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