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लेख

रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर की दोस्ती

रविरंजन


तुम तकल्लुफ़ को भी इख़्लास समझते हो 'फ़राज़',
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलाने वाला! - अहमद फराज

कदाचित रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर की दोस्ती बस हाथ मिलाने वाली दोस्ती तक सीमित नहीं थी। बल्कि उनकी दोस्ती एक-दूसरे के प्रति परस्पर लगाव, श्रद्धा और प्रेम के गहरे रिश्तों से पगी हुई थी। वे मन से एक-दूसरे का भला चाहते थे। इन दोनों के बीच एक तीसरे भी थे - केदारनाथ अग्रवाल। इन तीनों में हद दर्जे की दोस्ती थी। वह एक-दूसरे के लिए जान देते थे और इसीलिए इनकी दोस्ती जीवनपर्यंत चली। अमृतलाल नागर जी का एक रोचक संस्मरण है 'तीस बरस का साथी : रामविलास शर्मा'; जिसकी शुरुआत ही वे रामविलास जी की इन पंक्तियों से करते हैं कि : "प्रिय भैय्यो, तुम्हारे और केदार के सब पत्र पढ़ गया हूँ। किसी अँग्रेजी पढ़े-लिखे मित्र से पूछना कि इंग्लैंड के दो (तीन तो बहुत है) साहित्यकारों का नाम लें जिसकी दोस्ती-सचमुच की दोस्ती, महज खत-किताबत वाली नहीं, और साहित्यकारों की दोस्ती, साहित्यकार और उसके भक्तों की नहीं - उसके साहित्यिक जीवन के आरंभ से लेकर तीस साल तक एक बार भी जूतमपैजार और मुँह-फुलौवल के बिना बनी ही न रही हो, वरन गढ़ियाई हो। यहाँ भी अँग्रेजी फॉक्स हुई..." (अत्र कुशलं तत्रास्तु, पृ. 292) और सबसे बड़ी बात कि इन तीनों को आपस में मिलाने वाले निराला जी थे। अमृतलाल नागर जी से रामविलास जी की पहली मुलाकात निराला जी के यहाँ ही हुई और जैसा कि रामविलास जी बतलाते हैं कि : 'भेंट होने के बाद उनसे ऐसी दोस्ती हुई कि लगभग हर दूसरे-तीसरे दिन उनसे मिलना जरूर होता था।'

यह संयोग ही है कि रामविलास जी किसी किताब की पहली भूमिका लेखन के लिए अमृतलाल नागर के 'चकल्लस' को चुनते हैं। रामविलास जी ने लिखा भी है : "अमृतलाल नागर 'चकल्लस' में 'नवाबी मनसद' लिख रहे थे। जब वह पुस्तक-रूप में छपने को हुआ तो अमृत ने कहा, इसकी भूमिका तुम लिखो। मैंने उसकी भूमिका लिखी। किसी पुस्तक की मेरी लिखी वह पहली भूमिका है।" (अपनी धरती अपने लोग, खंड-1, पृ. 92) जब अमृतलाल नागर का 'चकल्लस' बंद हो गया वे रोजगार की तलाश में बंबई (मुंबई) चले गए थे। यह दोनों की दोस्ती ही थी जिसके बहाने रामविलास जी पहली बार बंबई की यात्रा करते हैं। इस संदर्भ में वे लिखते हैं : "अमृत बंबई पहुँच गए तब मुझसे अनेक बार उन्होंने उधर आने का आग्रह किया। 'नया साहित्य' निकल रहा था। शमशेर वहाँ थे, नरेंद्र शर्मा थे। बड़ा आकर्षण था बंबई जाने का। सन 1943 की गर्मियों में वहाँ प्रगतिशील लेखक सम्मेलन होने वाला था। अमृत ने कहा, इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए आओ। अब तक मैं उ.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव हो गया था। उसके कामों में काफी दिलचस्पी लेता था। प्रगतिशील लेखक सम्मेलन में भाग लेने मैं बंबई गया। पहली बार बंबई जा रहा था। मुझे वहाँ का कुछ अनुभव नहीं था। एक छोटे से बक्से में सामान रखा और तीसरे दर्जे में यात्रा करके दादर उतर पड़ा।" (वही, पृ. 105) खैर, अमृतलाल नागर और रामविलास जी की मित्रता शुरू हुई सन 1935 में। और उम्र के हिसाब से रामविलास जी अमृतलाल नागर से लगभग चार साल बड़े थे। जिस समय अमृतलाल जी की उनसे मुलाकात हुई, उन दिनों वह लखनऊ विश्वविद्यालय के एम.ए. (अँग्रेजी) के अंतिम वर्ष के छात्र थे।

यद्यपि अमृतलाल नागर और रामविलास जी की मित्रता 1935 में शुरू हुई थी, लेकिन उनके पत्रों के संग्रह 'अत्र कुशलं तत्रास्तु' का पहला पत्र सन 1940 का है। असल में 1935 से 1940 तक दोनों मित्र लखनऊ में ही रहते थे, जाहिर है तब पत्र लिखने की जरूरत नहीं रहती हो। जब अमृतलाल जी बंबई चले गए तब पत्रों का यह सिलसिला शुरू होता है। इस संग्रह का पहला पत्र जिसमें रामविलास जी अपनी पी-एच.डी थीसिस एप्रूव्ड होने की सूचना अमृतलाल जी को लिखते हैं। "प्रिय अमृत, हमारा Thesis approved हो गया है। इस Convocation में डिग्री मिल जाएगी। अब लखनऊ आओ तो मिठाई खाई जाए।" (अत्र कुशलं तत्रास्तु, पृ. 21) तो दूसरे पत्र में अमृतलाल जी के लखनऊ में न होने का गहरा गम लिए हुए। कुछ ऐसे जैसे फैसल आजमी के इस शेर में व्यक्त है -

"अब वो तितली है न वो उम्र तआ'क़ुब वाली
मैं न कहता था बहुत दूर न जाना मिरे दोस्त!"

खैर, रामविलास जी अपने अजीज मित्र के पास न होने का गम दिल पर पत्थर रखकर बयाँ करते हैं और पत्र लिखने बैठते हैं : "प्रिय अमृत, जिंदाबाद। आपकी अनुपस्थिति में हम आपके दरे दौलत तक भटक कर लौट आए। कृपा कर बंबई का विस्तृत समाचार भेज दीजिए। मतलब यह कि जो कुछ तुम मिलने पर कहते, वह कलम हाथ में लेकर कह डालो। ...बहुत सी बातों की बनी - यह है कि दीक्षितजी मजे में हैं, निरालाजी अच्छे हैं, प्रदीप जी को नमस्कार। यहाँ गर्मी पड़ने लगी है। नरोत्तम की चिट्टी नहीं आई। मेरे राजनीतिक लेखों के छापने का कहीं डौल लगे तो लिखना। और बाकी सौ बातों की एक बात यह कि एक लंबा पत्र आज मुझे बहुत जल्दी रवाना कीजिए।" (वही, पृ. 21-22) अमृतलाल नागर को बंबई में फिल्म-संवाद-लेखन का काम मिल गया और उसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली। फिल्मकार किशोर साहू द्वारा निर्मित फिल्म 'बहुरानी' की सफलता के बाद उत्साहित हो रामविलास जी 13.07.1940 को अमृतलाल नागर को पत्र लिखते हैं जिसका मजमून यह है : "प्रिय अमृत, तुम्हारा पत्र मिला। विशेष आनंद इसलिए हुआ कि तुमने पत्र का उत्तर न देने का उलाहना नहीं दिया। 'बहुरानी' के संवाद लिखते तुम जितना डर रहे थे, उतना ही पत्र लिखकर तुम्हारे क्रोध की कल्पना से मैं डर गया था। 'बहुरानी' की सफलता सुन कर बड़ी प्रसन्नता हुई; यहाँ आते ही अठन्नी निछावर कर दूँगा। पुस्तिका भेजना; आँखें लगी हैं। तुम मुझसे मिलना चाहते हो ठीक है; मैं तुमको और बंबई को देखने के लिए अत्यंत उत्सुक हूँ। जब तुम्हारा पत्र आया तब निरालाजी हमारी पलंग पर लेटे आराम कर रहे थे। प्रणाम न कर मैंने आपका पत्र ही नजर कर दिया।" (वही, पृ. 22) 'बहुरानी' फिल्म का नाम है जिसमें अमृतलाल जी ने संवाद-लेखन का कार्य किया था और वह फिल्म काफी सफल रही थी। पत्रों के लिए बाट जोहने का एक मजमून कुछ यूँ प्रकट होता है जब 26.10.1941 को रामविलास जी लिखते हैं : "प्रिय अमृत, ईश्वर देता है तो छप्पर फाड़ के - वैसे ही कई दिन से तुम्हारा ध्यान करने पर तुम पत्र रूप में - लिफाफा फाड़कर - प्रकट हुए।" (वही, पृ. 26)

अमृतलाल जी बंबई रोजी-रोजगार के लिए गए थे। अपनी आत्मकथा 'टुकड़े-टुकड़े दास्तान' में बंबई यात्रा, प्रवास और रोजगार पर अमृतलाल जी बहुत ही रोचक और दिलचस्प संस्मरण लिखे हैं। वे लिखते हैं : "5 मार्च, सन 1940 को मैं पहली बार मुंबई गया था। इतने दिनों में बंबई कहाँ-से-कहाँ पहुँच गई है! ...धर्मशाला में जगह नहीं मिली पर चवन्नी रोज पर एक बड़े कमरे में कई मेहमानों के साथ बिस्तर डालकर पड़ रहने को जगह मिल गई। ...याद रखिएगा, मैं सन 40 की बात कर रहा हूँ, अब तो छोटी जेब वालों को बंबई रहने के लिए जगह भी नहीं देती ...मैंने रंग-बिरंगी बंबई के कुछ रंग देखे हैं। दोनों तरह के अनुभव अच्छी तरह से पाए ...कीमती स्वादिष्ट पदार्थों के अति भोजन से बदहजमी की दवा के लिए परेशान हुआ हूँ साथ ही पैसों के अभाव में महीनों आधे पेट खाकर संतोष किया है, तीन दिन तक फाके भी किए हैं। इस महानगरी में जहाँ अनेक प्रकार के ढंग देखे, वहाँ ही ऐसे निष्काम सेवाव्रती साधु भी देखे जो बिना भेद-भाव सबका भला करने में ही संलग्न रहते हैं।" (टुकड़े-टुकड़े दास्तान, पृ. 83-84) 'सात वर्ष का फिल्मी अनुभव' भी इसी किताब का संस्मरण-लेख है जिसमें तत्कालीन बंबई का हाल-ए-बयाँ दर्ज है। वे लिखते हैं जिस पर गौर करना हमें अमृतलाल नागर और रामविलास जी की दोस्ती को गहराई से जानने के लिए जरूरी होगा। बक़ौल अमृतलाल नागर : "सन'40 में मेरे फिल्म क्षेत्र में प्रवेश करने का समय युगसंधि का था। पुरानी थियेट्रिकल कंपनियों के अभिनेता, बाजारू गानेवालियाँ और लेखक मुंशी उस समय बहुतायत में थे। आमतौर पर शोहदापन अधिक था, लेखक मुंशी सेठों के मुसाहबमात्र थे। कहानियाँ धूम-धड़ाके और मारपीट की ही बना करती थीं। भोंडेपन और भोगविलास की ही धूम थी। कुछ स्टूडियोज में सेठों ने अपने लिए विलास कक्ष भी बना रख्खे थे। न्यू थिएटर्स, बांबे टाकीज और सागर मूवीटोन के स्वच्छ वातावरण से सामाजिक कहानियाँ और बंगला, गुजराती के कतिपय श्रेष्ठ उपन्यासों के आधार पर फिल्में बन चुकी थीं। प्रेमचंद जी गए और निराश लौटे, उग्रजी भी जस-तस निभाकर लौट आए थे। सुदर्शनजी अलबत्ता जमे हुए थे और उन दिनों बंबई में ही थे। कविवर प्रदीपजी ने नई-नई चमक पाई थी। ...आरंभ से सौभाग्यवश मुझे भले लोगों के बीच रहने और काम करने का अवसर मिल गया। आज के दो ख्यातनामा निर्माता-निर्देशक श्री महेश कौल और श्री किशोर साहू उस समय मेरे अंतरंग साथी बने। ये दोनों ही कोरे फिल्मी-जीवन थे। दोनों ही ने देशी-विदेशी साहित्य का अध्ययन किया था और लघु-कथाएँ भी लिखते थे। ...मैं किशोर की प्रारंभिक फिल्मों के लिए संवाद-लेखन कार्य किया। फिल्म में एक-एक दृश्य के लिए हम लोग बहस करते थे। यह सुविधा अन्य किसी भी निर्माता-निर्देशक के साथ मुझे प्राप्त नहीं हुई। सच तो यह है कि किशोर के काम में मैं अपनापन अनुभव करता था, दूसरों के लिए लिखना महज सौदे की बात ही हो जाती थी। ...अपने सात वर्ष के फिल्मी अनुभव में मैंने यह भी पाया कि निर्माता-निर्देशक प्रायः उसी रस प्रसंग को सराह पाते थे जो वे किसी न किसी हालीवुड फिल्म में देख चुके होते थे। कहानी अथवा चरित्र-चित्रण को समझने की बुद्धि बहुतों में तनिक भी नहीं थी।" (वही, पृ. 124-26)

कहना न होगा कि अमृतलाल जी ने 'बहुरानी' के अलावा 'संगम', 'कुँवारा बाप', 'किसी से न कहना', 'पराया धन', 'उलझन', 'राजा', 'वीर कुणाल', 'सावन', 'कल्पना' आदि लगभग अठारह फिल्मों में संवाद-लेखन किया और फिल्मी-उद्योग में 'डबिंग' का काम पहले-पहल और वह भी भारी सफलता के साथ उन्होंने ही किया। उन्होंने लिखा भी है : "जहाँ तक मेरा अनुमान है, बिना किसी प्रकार की नक़्शेबाजी दिखलाए ही मैं यह कह सकता हूँ कि भारतीय फिल्म में 'डबिंग' का कार्य करने वाला मैं पहला ही व्यक्ति था।" (वही, पृ. 127)

पहले उन्होंने दो रूसी फिल्में हिंदी में डब कीं, बाद में एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी की फिल्म 'मीरा' की तमिळ से हिंदी में डबिंग की। किशोर साहू की मित्रता के कारण उन्होंने 'कुँवारा बाप', 'आगे कदम' और 'वीर कुणाल' में बतौर अतिथि कलाकार के रूप में अभिनय भी किया। रामविलास जी इस बात से प्रसन्न होते हैं। 26.04.1943 को लिखे अपने पत्र में : "प्रिय अमृत - लल्लू के यहाँ आकर तुम्हारी तारीफ के पुल बाँध दिए। जब मिलता है तब बंबई का ही जिक्र करता है। 17-18 मई के लगभग मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ। तुम्हें एक Paper लिखना होगा - आधुनिक फिल्मों पर - प्रगतिशील दृष्टिकोण से - 'रोटी' जैसे फिल्मों का विशेष उल्लेख करते हुए - फिल्म-जगत की कठिनाइयों, प्रोड्यूसरों की मूर्खता, जोश मलीहाबादी जैसे लोग वहाँ क्या... कर लेंगे, 'कुँवारा बाप' आदि पर हो। अगर प्र.ले. कांफ्रेंस में पेपर न पढ़ा जा सका तो वह 'हंस' में छपेगा। लेकिन जब तक तैयार जरूर कर लेना।" (अत्र कुशलं तत्रास्तु, पृ.27)

रामविलास जी और अमृतलाल नागर के यह पत्र मात्र औपचारिक नहीं हैं, न ही बेहद निजी बल्कि आज वह समाज की संपत्ति बन गए हैं। वह जितना व्यक्तिगत है उतना ही सामाजिक। रामदरश मिश्र ने लिखा है : "डॉ. रामविलास शर्मा और अमृतलाल नागर के बीच हुए पत्र-व्यवहार को देखकर यह सहज ही अनुभव किया जा सकता है कि इन मित्रों की मित्रता का माध्यम न तो कोई स्वार्थ था, न आपसी प्रशंसा-भाव। दोनों ही मित्र एक-दूसरे के प्रति गहरा आत्मीय लगाव रखते हुए एक-दूसरे में व्याप्त होते गए, एक-दूसरे के सुख-दुख की चिंता घनीभूत होती गई। उनका मैत्री-भाव उन तक सीमित नहीं था, वह उनके परिवारों में भी व्याप्त था। यानी कि यह साहित्यिक समीकरण वाली मैत्री नहीं थी, बल्कि अपने घर-परिवार को प्यार करने वाले, उसकी समस्याओं से जूझने और उनका हल खोजने वाले दो व्यक्तियों की मैत्री थी जिसमें उनके साथ-साथ उनका पूरा परिवार भी समाया हुआ था। इसलिए वे अपने पत्रों में साहित्य और समाज की अनेक बातों से गुजरते हुए भी परिवार को कभी विस्मृत नहीं करते थे।" (वही, 'बहुआयामी पत्र संवाद'; पृ.15)

सन 43 के मध्य रामविलास जी आगरा के बलवंत राजपूत कॉलेज में पहुँच गए थे। 16.07.1943 को लिखे अमृतलाल जी के इस पत्र से यह ज्ञात होता है। वे लिखते हैं : "प्रिय विलास, तुम्हारे जाने के बाद घरेलू चक्कर में पड़ गया। ...प्रिय चौबे के विवाह का सारा हाल राधेश्याम से मालूम हुआ। मैंने उनके बखान से ही बारात का पूरा मजा ले लिया। तुम लोगों के व्यवहार की हजार मुँह से तारीफ कर रहे थे। ...निरालाजी बराती बन कर गए थे - इसकी भी चर्चा की। ...बलवंत राजपूत कॉलेज का यह सौभाग्य है जो तुम वहाँ पहुँच गए। तो आखिरकार तुम आगरे पहुँच ही गए!" (वही, पृ. 30) बंबई में रहते हुए भी अमृतलाल जी साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में लगे रहे। 'रंगभूमि' के वार्षिकांक का संपादन भार उन्हीं पर है। वे रामविलास जी को आलेख के लिए 02.02.1944 को पत्र लिखते हैं : "कामरेड विलास, 'रंगभूमि' का वार्षिकांक मेरे जिम्मे हैं। तुमसे एक लेख चाहता हूँ। काशी सम्मेलन में जो पेपर, 'हिंदी की राष्ट्रीयता' तुमने पढ़ा था, उसी तरह का। सिनेमा के क्षेत्र में उर्दू की चमत्कारी गजलें, और बंगाल का जादू लोगबागों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। गुजराती और मराठी भाषा-भाषी यहाँ अधिक हैं। इन चारों चीजों को ध्यान में रखते हुए हिंदी को उठाओ और सिनेमा के क्षेत्र को अपने ध्यान में रख्खो। ...एक लेख भारतेंदु, प्रेमचंद आदि के जीवन संबंधी चित्र बनाने के सुझाव पर हो। अँग्रेजी में 'जोला' की जीवनी पर जैसा चित्र बना था, वैसा ही इन लोगों के जीवन-चरित्र पर बन सकता है। भारतेंदु और प्रेमचंद की life of action की नाटकीय विशेषताएँ बताते हुए एक लेख किसी से लिखवा दो। चाहो तो तुम ही लिखना।" (वही, पृ. 37) अमृतलाल जी को बंबई रहते ही 1857 के संघर्ष के ऊपर एक दुर्लभ किताब हाथ लगी थी नाम था 'माझा प्रवास'। इसकी सूचना अपने परम मित्र रामविलास शर्मा को 12.11.1944 को लिखे पत्र में इस तरह देते हैं : "प्रिय विलास, अपने एक मराठी साहित्यिक बंधु की कृपा से आज मुझे एक पुरानी और अत्यंत महत्व की पुस्तक पढ़ने को मिली। पुस्तक का नाम है 'माझा प्रवास'। ...लेखक महाशय पेशेवर लेखक नहीं। अपने प्रवास की मुसीबतों की सच्ची तस्वीर खींची है। चूँकि उनकी सारी मुसीबतों की जड़ 57 का गदर था, इसलिए वही उनके प्रवास की कहानी बन गया है। अपने ऊपर बीती घटनाओं का चित्र है, कि उसका सच्चे रूप में तुम्हारे सामने बखान करने के लिए मुझे इस किताब का हिंदी अनुवाद करना पड़ेगा। हिंदी में ही नहीं, यह किताब भारतीय साहित्य में अपने ढंग की एक चीज है। 1909 ई. में मराठी के स्वनामधन्य इतिहासकार रावबहादुर चिंतामण विनायक वैद्य ने इस किताब का पता पाकर इसे छपवाया था। आज यह पुस्तक अप्राप्य है। किताब तुम तक पहुँचाने के लिए मैं इतना उत्सुक हूँ कि इसे जल्द-से-जल्द हिंदी में लिख डालने की इच्छा है।" (वही, पृ.47) विष्णुभट्ट गोड्से द्वारा मराठी में लिखित 1857 के गदर का आँखों देखा विवरण जिसका अनुवाद हिंदी में अमृतलाल जी ने किया और जो पहले 'मेरा प्रवास' तथा बाद में 'आँखों देखा गदर' शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

'रंगभूमि' के बाद अमृतलाल जी बंबई से 'नया साहित्य' नाम से एक साहित्यिक पत्रिका निकालना शुरू करते हैं। संपादक में वे खुद और नरेंद्र शर्मा होते हैं तथा संपादक मंडल में यशपाल, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चंद्र गुप्त के साथ रामविलास शर्मा भी। रचना के लिए 16.04.1945 को आदेश भरा पत्र : "प्रिय विलास, 'नया साहित्य' के लिए एक लेख निरालाजी पर भेजो। 'निराला : साहित्यकार और मनुष्य'। 1 जून को पहला अंक प्रकाशित करने का इरादा है। इस महीने के आखीर तक भेज दो। दूसरी चीज तैयार करो - बनारस, लखनऊ और प्रयाग में हिंदी पर जितनी रिसर्चेज हुई हैं उनका अपटुडेट ब्यौरा। पाठक इससे हिंदी की प्रगति का अंदाजा लगा सकेगा। हो सके तो इसी अंक के लिए लिख दो।" (वही, पृ. 52) दूसरी तरफ से रामविलास जी निराला की हालचाल देते हुए लिखते हैं : "प्रिय भैयो, निरालाजी की हालत बहुत खराब है। राशन वगैरह का प्रबंध करते नहीं हैं; साग उबाल कर जब तब खा लेते हैं। बिना एक आदमी के उनके पास रहे उनका प्रबंध ठीक नहीं हो सकता। मैंने रामकृष्ण को लिखा है कि वहीं रहे और उनकी देखभाल भी करें। रामकृष्ण अपने संगीत से कुछ कमा लेंगे लेकिन आरंभ में उन्हें हमीं लोगों पर निर्भर रहना होगा। मैं चाहता हूँ कि तुम इस मद में मदद करो। पैसा यहीं भेजना जिससे 'चिरंजीव' पितृवत उसका एकबारगी सदुपयोग न कर डालें।" (वही, पृ. 63) पर निराला जी अपने साथ किसी को रहने देने को लेकर तैयार नहीं थे। अपने पुत्र रामकृष्ण को भी नहीं। 27.03.1946 को रामविलास जी फिर से पत्र लिखते हैं : "प्रिय अमृत, निराला जी का हाल अच्छा नहीं है। रामकृष्ण (चिरंजीव) वहाँ जाकर रहने को कहते हैं। गए भी थे लेकिन नि. जी अब किसी को ज्यादा देर अपने पास किसी को टिकने नहीं देते। रामकृष्ण को अलग मकान लेना पड़ेगा। कुछ रुपया भेज सकते हो तो भेज दो। उनका शुरू में प्रबंध करा दिया जाय। सारा प्रबंध नि. जी से गोप्य रहेगा।" (वही, पृ. 64) निरालाजी के कवि निर्माण में इन साहित्यकारों की कितनी बड़ी भूमिका रही होगी यह हम इन पत्रों से लगा सकते हैं। कितनी तड़प है दोनों मित्रों के बीच निराला के खैरियत के लिए। कुछ ऐसे -

"किसी पहलू नहीं चैन आता है उश्शाक को तेरे,
तड़पते हैं फ़ुग़ाँ करते हैं और करवट बदलते हैं!" - भारतेंदु हरिश्चंद्र

अमृतलाल जी 09.04.1946 को रामविलास जी को पत्र लिखते हैं जिसमें निराला जी के देखरेख के लिए रुपये भेजने की बात भी है : "प्रिय डॉक्टर, निरालाजी के लिए 15 ता तक 50/रु. भेज दूँगा। नि. जी का यह हाल सुनकर बहुत तकलीफ होती है।" (वही, पृ. 64)

अक्टूबर, 1947 में बंबई छोड़ने के बाद अमृतलाल जी लगभग छ महीने आगरे में बिताए थे और इस समय का उपयोग उन्होंने अपने वृहद उपन्यास 'बूँद और समुद्र' पर सोचने के लिए किया। लगभग आधा 1948 बीतते-बीतते उन्होंने इस उपन्यास के लिए अपने आस-पड़ोस से सामग्री जुटानी शुरू की। अपने आत्मकथा 'टुकड़े-टुकड़े दास्तान' में अमृतलाल जी ने लिखा भी है : "3 अक्टूबर सन' 47 को बंबई से बोरिया-बिस्तर बाँधकर उत्तर प्रदेश के लिए चल पड़ा। कारणवश छ महीनों तक आगरा में रहा। वहाँ मेरा उपन्यास संबंधी कार्य खूब बढ़ा, लेकिन उपन्यास न फूट सका। सन 48 के मई मास में अपने घर लखनऊ आ गया। एकाध महीना नए सिरे से गृहस्थी बसाने में लगाया और फिर उसके बाद गली-मुहल्ले में घूम-घूमकर विभिन्न जातियों के बड़े-बूढ़ियों से सामाजिक रीति-रिवाज और पुराने किस्से बटोरने लगा। किस्से तो बढ़ते जाते थे, परंतु उपन्यास अब भी न खुलता था।" (टुकड़े-टुकड़े दास्तान, पृ. 151) अंततः नवंबर, 1953 में इसका लेखन प्रारंभ हुआ और जून 1955 में समाप्त हुआ। प्रकाशित होता है जाकर नवंबर, 1956 में। 03.12.1956 को रामविलास जी को पत्र लिखते हुए अमृतलाल जी : "प्रिय डॉक्टर, 'बूँद और समुद्र' किताब पहुँच गई होगी। ...अधिक क्या लिखूँ? 9/10 को लखनऊ पहुँच जाऊँगा।" (अत्र कुशलं तत्रास्तु, पृ. 94)

भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 की शतवार्षिकी शुरू हो गई है। अमृतलाल जी का हास्य-व्यंग्य 'हे बाबू सन्तावन आया है' आ जाता है जिसमें वे रामविलास शर्मा के तत्संबंधी लेखन की बात तो उठाते ही हैं। खुद भी सन सत्तावन के प्रति विशेष उत्सुक दिखलाई पड़ते हैं। उनका कहना लेखन में : "डॉक्टर के अक्सर सत्तावन चर्चा करने के कारण अनेक पढ़े-लिखे बाबू लोगों से भी प्रायः सुनकर मेरा कौतूहल एक नए रूप में जाग उठा। आखिर सत्तावन को लेकर हमारे जनसाधारण में इतनी चर्चा क्यों?" (चकल्लस, पृ. 84) बेशक, 1857 का गदर या भारत का प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम विषय जितना अमृतलाल जी को प्रिय था उतना ही रामविलास शर्मा को भी। इसी को केंद्र में रखकर अमृतलाल जी एक उपन्यास लिखना चाहते थे। गदर से संबंधित विष्णुभट्ट गोड्से की मराठी पुस्तक 'माझा प्रवास' का हिंदी अनुवाद वे 1946 में कर चुके थे। 12.12.1956 को लिखे रामविलास शर्मा को अपने पत्र में अमृतलाल जी लिखते भी हैं : "माई डिअर डॉक्टर, तुम्हारी रिव्यू की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करूँगा। 'गदर पर उपन्यास' लिखना आरंभ कर दिया। सामाजिक समस्या के तौर पर इस बार जातियों और जातिवाद को गहराई से पहचानना चाहता हूँ।" (अत्र कुशलं तत्रास्तु, पृ. 95) बाजाप्ता 1957 उन्होंने वे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन सूचना निदेशक श्री भगवतीचरण सिंह की सहायता से अवध के ग्रामीण क्षेत्रों का व्यापक दौरा किया और जो स्थल गदर की घटनाओं से जुड़े हुए थे। वहाँ के निवासियों से मिलकर गदर की स्मृतियों, घटनाओं और किवदंतियों पर बहुत सारी सामग्री इकट्ठी की। यह कार्य मूलतः वे अपने इस उपन्यास की रचना के संबंध में कर रहे थे। पर इस व्यापक यात्रा और उत्खनन के फलस्वरूप परिकल्पित उपन्यास नहीं बल्कि 'गदर के फूल' नामक हिंदी में अपने ढंग की एक अद्वितीय कृति सामने आई। लेकिन उन्हें उपन्यास भी लिखना था। इसलिए जब वे तमाम छानबीन को अपने पत्रों में समेटते हैं तो वह बात खुलकर सामने आ जाती है। 26.04.1957 को रामविलास जी को लिखे पत्र में : "प्यारे कोतवाल, तुम्हारी गवाही पर शाहाबाद को बधाई देता हूँ। लखनऊ-कानपुर-अर्थात तुम्हारा इलाका तो छापेमार रहा ही है, बांगर के लोग भी इस कला में अपना जवाब नहीं रखते। सिकंदराबाद के युद्ध के कई वर्णन मिला कर तुम्हारे सामने पेश करूँगा। 1857 ई. में अवध देश सब नाड़ियाँ छूट जाने के बाद भी भारत का वज्र कठोर फूल सा हृदय बन कर धड़कता रहा। ...सच्ची क्रांति का रूप यहीं प्रकट हुआ। 'आँखों देखा गदर' रख्खा है। मई के दूसरे सप्ताह में आगरा आऊँगा तब लेता आऊँगा। ...भैयो, गदर पढ़ना है तो लखनऊ आओ। उपन्यास गर्मा गया है, अब तो जी के यारों को सुना-सुना कर बढ़ने को जी चाहता है।" (वही, पृ. 102) यहाँ 'उपन्यास गर्मा गया है' से आशय उपन्यास 'शतरंज के मोहरे' से हैं। यह उपन्यास 1959 में प्रकाशित हुआ जो एक ऐतिहासिक महत्व को सामने रखती है। 1857 के गदर के बीस-तीस साल पहले अवध के इलाके और विशेषतः उसकी राजधानी लखनऊ की घटनाओं और परिस्थितियों से संबंधित यह उपन्यास गदरकालीन पूर्वपीठिका के रूप में लिखा गया था।

रामविलास शर्मा को भी गदर पर अपनी किताब पूरी करनी थी। वे 29.04.1957 को अमृतलाल जी को पत्र लिखते हैं : "प्रिय भैयो, तुम्हारा कार्ड अभी मिला। औरों के लिए टेलीपैथी हो चाहे न हो, अपने-तुपने लिए तो है ही। तुम हमेशा पास रहते हो, कोई दूसरा हो चाहे न हो। ...माझा प्रवास भेजो या लेकर आओ। अब जरूरत है। तुम कब आ रहे हो; निश्चित दिन लिखो। ...तुमने लिखा है, 'गदर पढ़ना है तो लखनऊ आओ।' और तुम यहाँ क्या हाथ हिलाते आओगे? जो लिखा हो, जो सामग्री इकट्ठी की हो, सब लाना। हमारा तुम्हारा मिलना बहुत जरूरी है जिससे लिखने में एक ही बातें न दुहराई जाएँ।" (वही, पृ. 103) लगे-लगे 17.05.1957 एक और पत्र : "प्रिय भैयो, National Herald में 1857 के संबंध में जो चीजें निकली हैं, उनकी Cutting हों तो लेते आना। 'जनयुग' में तुम्हें देखा। अजीमुल्ला और नाना साहब ने विप्लव संगठित किया - ठीक - लेकिन तुम्हारे पास क्या सबूत हैं। कुछ मेरे पास भी हैं। कब आ रहे हो? गोड्से का 'माझा प्रवास' न भूलना।" (वही, पृ.103) 1857 की राज्यक्रांति प्रकाशित हो जाती है। अमृतलाल नागर की बेचैनी किताब को जल्द-से-जल्द पाने की है। 28.02.1958 को वे रामविलास जी को पत्र लिखकर बोलते भी हैं : "प्रिय डॉक्टर, प्रकाशक से कहो कि तुम्हारी गदर वाली किताब मुझे फौरन भेजे। बाजार में भी अभी तक नहीं आई।" (वही, पृ. 108)

तिरा वजूद गवाही है मेरे होने की,
मैं अपनी जात से इनकार किस तरह करता! - फरहत शहजाद

निराला डॉ. रामविलास शर्मा के प्रिय कवि थे। वे निराला पर हुए प्रहार और आलोचना का जमकर प्रत्युत्तर देते हैं। एक ऐसे ही वाकये का जिक्र अमृतलाल जी 23.07.1962 को लिखे रामविलास शर्मा के नाम अपने पत्र में करते हैं, जिसमें पंत जी निराला पर चुटकी लेने की कोशिश करते हैं। अमृतलाल जी लिखते है : "माई डिअर, इलाहाबाद में पंतजी कह रहे थे, कि 'रामविलास निरालाजी पर पुस्तक लिख रहे हैं ये बहुत अच्छा है। रामविलास ही लिख सकते हैं।' ...मैंने कहा, 'रामविलास निरालाजी और उनके काल की फिल्म बना रहे हैं।" (वही, पृ. 124) पंतजी छायावाद पर एक पुस्तक लिखे थे, और रामविलास जी निराला पर पुस्तक लिख रहे थे। इस कारण अमृतलाल जी अपने मित्र रामविलास शर्मा को यह आगाह करते हुए अपने 05.06.1965 के पत्र में लिखते हैं : "प्रिय डॉक्टर, तुम्हारी निरालाजी वाली पुस्तक चल पड़ी है, यह मुंशी से जानकर संतुष्ट हुआ था। ...यह कार्ड एक खास सूचना देने के लिए लिख रहा हूँ। इधर प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़े गए पंतजी के तीन निबंधों पर साहित्याकाश में बड़ी कौआरोर मची है। पुस्तक अब प्रकाशित हो गई है। 'छायावाद पुनर्मूल्यांकन : पंत,' लोकभारती प्रकाशन। ...चूँकि तुम नि. जी पर पुस्तक लिख रहे हो इसलिए पं. जी की यह पुस्तक अवश्य पढ़ जाना। मुझे ऐसा लगा कि तुम्हें उनके छायावाद और नि. जी से संबंधित कुछ प्रश्नों के उत्तर अपनी पुस्तक में देने चाहिए। बस, यही कहना था।" (वही, पृ.146)

अमृतलाल नागर का बहुप्रतीक्षित उपन्यास 'अमृत और विष' प्रकाशित हुआ। 29.08.1966 को वे रामविलास जी को पत्र लिखते हैं : "अमृत और विष' पढ़कर लिखना, तुम्हारी राय की उत्सुकता बनी रहेगी। 'रिव्यू' की जल्दी नहीं। वह तो तुम जम कर ही करोगे। अभी इलाहाबाद में विद्यानिवास मिश्र, बालकृष्ण राव, रघुवंश जैसे भिन्न मति के लोगों की बातचीत में जब यह सुना कि सर्वांग सुंदर रिव्यू (बूँद और समुद्र की) डॉ. रामविलास ही की थी तो ऐसा फूला, मानों मेरी ही तारीफ हुई हो। स्व. देवीशंकर अवस्थी भी मुझसे यही कहते थे। इसलिए पंडितवर, इस किताब की रिव्यू भी आप चैन से लिखें।" (वही, पृ.152) साहित्य अकादेमी द्वारा 'अमृत और विष' उपन्यास पर वर्ष 1967 का अकादेमी पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा होती है, अमृतलाल नागर नववर्ष की शुभकामना के साथ 31.12.1967 को रामविलास शर्मा के नाम लिखे पत्र में यह सूचना कुछ इस प्रकार से देते हैं : "परमप्रिय डॉक्टर, चि. शरद के नाम तुम्हारा कार्ड मिला। यह हकीकत है कि इस बार फकीरे के घर में भोला नाच गया। 24 ता. को सबेरे अपने कमरे में बैठा हुआ एक आगंतुक महाशय से बातें कर रहा था कि दूसरे कमरे से एकाएक सौ. अचला, चि. आरती और चि. पोते दोहतों का जोरदार हुल्लड़ मेरे कमरे में घुसकर मुझे भी 'पंचहजारी सूचना' से मन ही मन में उछाल गया।" (वही, पृ. 167) यह 'पंचहजारी सूचना' ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार की खबर है। उस वक्त साहित्य अकादेमी का पारितोषिक पाँच हजार रुपया ही मिला करता था। अमृतलाल नागर को यह पुरस्कार मिलने के बाद डॉ. रामविलास शर्मा साहित्य अकादेमी के सदस्य बनाए गए थे, पहले नहीं। जिन्हें यह मुगालता हो कि अमृतलाल नागर को यह पुरस्कार उनके परमप्रिय मित्र की कृपा से मिली थी, वे 1 फरवरी, 1968 को रामविलास जी के नाम लिखा अमृतलाल नागर का यह पत्र देख सकते हैं : "अभी-अभी दिल्ली के भारतभूषण अग्रवाल ने फोन मिलाया था। मेरी नालायकी देखो कि जिस संस्था के बदौलत मुझे ढाई-पौने तीन सौ कार्ड लिखने पड़े उसी संस्था के पत्र का जवाब देकर आभार मानना भूल गया था। अस्ल में मुझे यह भ्रम हो गया था कि अकादेमी को पत्र भेज चुका हूँ। कल कागजों के जंगल से रात में उनका 'रिमाइंडर' 6 जनवरी का निकल पड़ा। आज सुबह ही मैंने फोन मिलाया। खुशखबरी यह मिली कि तुम अकादेमी के सदस्य हो गए हो और फरवरी में ही दिल्ली में तुम्हारे दर्शन होंगे।" (वही, पृ. 168) स्पष्ट है रामविलास शर्मा 1968 में साहित्य अकादेमी के सदस्य बनाए गए थे। पर फरवरी में रामविलास जी दिल्ली नहीं पहुँचते। अमृतलाल जी 04.03.1968 के पत्र में लिखते हैं : "परम प्रिय डॉक्टर, दो महीने केवल बधाइयाँ बटोरता रहा। नारद और व्यास मेरे मन से बँधे कसमसाते रहे। सुख में यों दुख पाता रहा पर 'ना' किसी से भी न कर सका। दिल्ली में तुम्हारे न पहुँच पाने का दुख मुझसे अधिक भारतभूषण अग्रवाल को हुआ। वे सोच रहे थे कि तुम आते तो 'एग्जक्युटिव' के सदस्य हो जाते और उससे अकादेमी की साख बढ़ जाती।" (वही, पृ. 168) हालाँकि रामविलास जी के लिए यह बहुत ज्यादा चिंता की बात नहीं थी कि दिल्ली पहुँच गए होते तो एक मुख्य ओहदा हाथ लगता। यह आज के प्रोफेसरों में ज्यादा ही देखने को मिलती है। रामविलास जी तो लगे हुए थे साधना में! 'निराला की साहित्य साधना' किताब अंतिम चरण में थी। जैसा कि अमृतलाल जी 01.02.1968 के पत्र में यह आशा व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि: "निराला (निराला की साहित्य साधना) अब इसी साल प्रकाशित हो जाए।" (वही, पृ. 168)

खैर, 'अमृत और विष' में अमृतलाल जी ने समाज की स्थिति को बदलाव के बारे में 'बूँद और समुद्र' के मुकाबले कुछ ज्यादा यथार्थवादी रुझान दिखाई है। 1973 के आस-पास डॉ. बिंदु अग्रवाल को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंन बताया भी है : "प्रेमचंद के 'आदर्शोमुख यथार्थवाद' के मुकाबले मैं यथार्थोंमुख अधिक हूँ। थोथे आदर्श के लिए यथार्थ की अनदेखी नहीं कर सकता। पूर्ण यथार्थवादी मैं अभी नहीं हूँ, यद्यपि वैसा बनना चाहता हूँ। हम पूर्ण यथार्थवादी नहीं बन पाते हैं। इसके भी कारण हैं - मन के आदर्शवादी संस्कार। जिस चीज की हिम्मत हम 'बूँद और समुद्र' में नहीं कर सके वह 'अमृत और विष' में कर सके हैं। इस उपन्यास को लिखते-लिखते हम यथार्थ की राह की ओर बढ़ गए।" (अमृतलाल नागर, साहित्य अकादेमी; पृ. 48) कहना न होगा कि 1970 में उन्हें 'अमृत और विष' पर ही 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' दिया गया।

यही तशवीश शब-ओ-रोज है बंगाले में,
लखनऊ फिर कभी दिखलाए मुक़द्दर मेरा! - वाजिद अली शाह अख़्तर

काश! अमृतलाल जी की स्थायी चाकरी हो जाती। वे भला यह क्योंकर लिखते, कि 'चार-पाँच महीनों के लिए पेट चिंता से मुक्त हो जाऊँगा'। 16.04.1968 को लिखे अपने पत्र में रामविलास जी को यह कहते हैं कि : "परम प्रिय डॉक्टर, आजकल हम 'नैमिषारण्य' (एकदा नैमिषारण्य) से एक महीने की छुट्टी लेकर पाकेट बुक के लिए 'बेगम समरू' लिख रहे हैं। आठ दस रोज में उपन्यास पूरा हो जाएगा। 4/5 महीनों के लिए पेट चिंता से मुक्त हो जाऊँगा। फिर नवंबर-दिसंबर में एक पॉकेट बुक और लिख डालूँगा। मैं समझता हूँ दो पॉकेट बुकों से नैमिषारण्य लिखने लायक निश्चिंतता मिल जाएगी और अगली मार्च तक वह काम पूरा हो जाएगा।" (वही, पृ.169) बावजूद 'एकदा नैमिषारण्य' प्रकाशित होते-होते चार वर्ष का समय लिया और 1972 में प्रकाशित हुआ।

बहरहाल, इन पत्रों से यह ज्ञात होता है कि अमृतलाल जी बेहद आर्थिक समस्या से घिरे हुए थे। बावजूद उनके लेखन में कोई विशेष अड़चन नहीं पैदा होती। वे निरालाजी की पोती यानी रामकृष्ण की पुत्री की शादी के लिए धन जुटाने में भी पीछे नहीं हटते। यहाँ उस महत्वपूर्ण पत्र को रखना जरूरी होगा जो निरालाजी, उनके समकालीन और प्रकाशकों की दकियानूसी को सामने लाता है। निरालाजी अपने जीवनकाल में ही यह कहा करते थे कि 'प्रकाशकों के यहाँ मेरे लाखों रुपये बकाया हैं।' हालाँकि कोई विश्वास नहीं करता था, उल्टे उन्हें मानसिक रोगी के रूप में भी घोषित किया गया। 16.05.1968 को रामविलास जी को लिखा अमृतलाल जी का यह पत्र वह मजमून के तौर पर है जो यह खबर देती है कि वाकई निरालाजी ही सही थे। यद्यपि पत्र बहुत लंबा है, पर उल्लेख भी जरूरी है। अमृतलाल जी लिखते हैं : "प्रिय डॉक्टर, ...तुम्हें अपने इलाहाबाद पहुँचने की बात बड़े जोश से लिख भेजी थी। एक पत्र सौ. अचला को भी लिख भेजा। रात में घरैतिन से बातें करने पर पर यह समझा कि इस समय मेरा सत्तर-अस्सी रुपये खर्च करना उचित नहीं होगा क्योंकि बंबई से आने वाले बच्चों को कुछ कपड़े खरीद कर देना पहली आवश्यकता है। इसलिए तुम्हें इस समय पत्र लिखने बैठा हूँ। एक पत्र सौ. अचला को भी लिखूँगा। महँगाई उबरने ही नहीं देती, क्या करूँ। खैर! [स्व. छाया के विवाह से पहले रामकृष्ण आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए लीडर प्रेस गए थे। वाचस्पति पाठक उन्हें रुपया देना तो चाहते थे किंतु निरालाजी के हस्ताक्षर कानूनी ख़ाना पूरी के लिए आवश्यक थे। निरालाजी दस्तखत करने की बात रामकृष्ण अथवा उनके किसी पैरोकार के सामने यह कह कर गोल कर चुके थे कि 'मेरे बाद यह पैसा रामकृष्ण को ही मिलेगा।' संयोग से मैं और भगवती बाबू रेडियो के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए उसी समय इलाहाबाद गए थे। मैं लीडर प्रेस में पाठकजी के यहाँ ही ठहरा था। पाठकजी ने प्रस्ताव किया कि एक बार तुम और भगवती बाबू भी निरालाजी से मिलकर उन्हें रसीद पर हस्ताक्षर करने के लिए समझा-बुझा कर राजी करने का प्रयत्न करो। विचार-विमर्श के बाद अंत में यह तय हुआ कि हम दोनों के अलावा पाठकजी और गंगाप्रसाद पांडेय भी साथ चलें। पाठकजी के दामाद चि. प्रेमचंद्र भी उन दिनों वहीं आए हुए थे। चूँकि पाठकजी की बेटी, सौ. मुन्नी को बचपन में निरालाजी का बड़ा लाड़ मिला था इसलिए यह तय हुआ कि चि. प्रेमचंद्र को भी साथ ले लिया जाए जिससे कि निरालाजी पर अनुकूल मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़े। यह सब तय होने के बाद हम लोग पंतजी के यहाँ गए... (या शायद मेरा और भगवती बाबू का वहाँ पहले ही से जाना तय था इसलिए वहाँ गए।) पंतजी स्वयं भी निरालाजी से हस्ताक्षर करने की प्रार्थना करने चलना चाहते थे पर उनसे कहा गया कि आप कृपया न चलें। हो सकता है कि प्रभाव उलटा पड़े। बहरहाल भगवती बाबू, पाठकजी, उनके जामाता और मैं दारागंज गए। रामकृष्ण और गंगाप्रसाद पांडेय रास्ते में एक दुकान पर बैठ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पांडेय हमारे साथ चले। पाठकजी को देखते ही नि. जी शायद आने का कारण भाँप गए। भगवती बाबू ने बात आरंभ की। उन्होंने कहा, कोई और बात करो। मैंने चि. प्रेमचंद्र को बहाना बना कर बात उठाई; किंतु बात के उस बिंदु को छूते ही वे डपट कर बोले : 'क्वायट-क्यू.यू.आई.ई.टी - अंडरस्टैंड।' उमाशंकर सिंह ने तब सूत्र साधना चाहा परंतु निरालाजी जोर से गर्मा उठे। वैसवारी में बमकना शुरू किया। वह गद्य भगवती बाबू को प्रलाप लगा लेकिन मैं उनकी नाराजगी के सूत्र पकड़ रहा था। रायबरेली में रामकृष्ण के दूसरे ससुर के प्रति नि. जी का क्रोध बरस रहा था। हस्ताक्षर करने की बात फिर उठ ही न सकी। बाद में एक पंचनामा बना जिसमें नि. जी को मानसिक रोगी और रामकृष्ण को उनका एकमात्र वारिस बतला कर नि. जी की पौत्री के विवाह कार्य के लिए रामकृष्ण को रुपया देने की सिफारिश की गई थी। पंचनामे पर महादेवीजी, पंतजी, भगवती बाबू, गंगा पांडेय और मैंने हस्ताक्षर किए थे।] (वही, पृ.172-73) यह पत्र गवाह है कि निरालाजी ही नहीं बल्कि उनके परिवार के सदस्यों के प्रति अमृतलाल जी और रामविलास शर्मा कितनी बेहतरी की बात सोचते थे।

डॉ. रामविलास शर्मा द्वारा लिखा 'निराला की साहित्य साधना' का प्रथम खंड प्रकाशित होता है। उसके कुछ अंश 'आलोचना' में भी प्रकाशित हुए थे। उसे पढ़कर 13.09.1968 को अमृतलाल जी अपने पत्र में लिखते हैं : "प्रिय विलास, 'आलोचना' में 'सुर्यकुमार तेवारी' पढ़कर नशा आ गया। ज्ञानचंद भी उस पर मुग्ध है। अब यह मत कहना कि 'चार दिन' तुम्हारा प्रथम और अंतिम उपन्यास था। निराला की साहित्य साधना का प्रथम खंड नि. जी की प्रामाणिक जीवनी के अतिरिक्त प्रथम श्रेणी का उपन्यास भी माना जाएगा।" (वही, पृ.173) बेशक, निराला की साहित्य साधना का प्रथम खंड एक औपन्यासिक ढाँचे में सृजित रचना है, जिसे पढ़ने में कोई अंतराल ग्राह्य नहीं होता। अमृतलाल जी यह किताब पढ़ते हुए 26.02.1969 के पत्र में भी लिखते हैं : "परम प्रिय डॉक्टर, कल, या अब रात के 12.52 बजते देख कर कहूँ कि परसों दिन में ढ़ाई बजे के लगभग रजिस्ट्री से 'निराला की साहित्य साधना' पुस्तक मिली। इस समय उसी तिलिस्म से बाहर आकर यह पत्र लिख रहा हूँ। इतनी देर तक गुजरे हुए जमाने के एक-एक पल फिर से अज सरे नौ गुजरा हूँ। क्या कहूँ। तुम्हारी कलम का जादू सिर चढ़ कर बोल रहा है। पहले पंद्रह अध्याय ऐसे सजीव और गठे हुए हैं कि उपन्यासों की रोचकता भी उनके आगे मात है। अंतिम पाँच छह चैप्टरों में निरालाजी पंतजी आदि का मनोविश्लेषण, विवेक और बारीकी से करके तुमने सचमुच कमाल ही किया है। इस समय तुम्हारे प्रति श्रद्धानत हूँ। हृदय से ऐसी स्नेह रस धार बह रही है जैसे माँ की छाती से दूध।" (वही, पृ. 175-76) 'निराला की साहित्य साधना' दूसरा खंड निराला साहित्य की डॉ. रामविलास शर्मा की कलम से की गई बेजोड़ समीक्षा है। दूसरे खंड का प्रकाशन 1971 में संभव होता है। गौरतलब है कि यह निरालाजी पर किताब लिखते हुए रामविलास जी एक-दो पत्र ही लिखे हैं ज्यादातर अमृतलाल नागर का ही पत्र है। रामविलास जी कुछ यूँ साधनारत थे। बहरहाल, 26.06.1971 को अमृतलाल जी अपने परम मित्र को पत्र लिखते हैं : "परम प्रिय डॉक्टर, 'निराला की साहित्य साधना' का दूसरा खंड पूरा कर लेने पर मेरी हार्दिक बधाई। मैं समझता हूँ कि गतवर्ष सा. हिंदुस्तान और धर्मयुग में अज्ञेय से लेकर मुक्तिबोध तक का मूल्यांकन करते हुए तुमने जो कतिपय लेख लिखे थे वे इसी किताब के अंश होंगे। बहरहाल तुम्हारा यह पंडिताऊ काम देखने के लिए भी जीवनी खंड से कम उत्सुक नहीं हूँ।" (वही, पृ. 189)

अमृतलाल जी तुलसीदास के जीवन पर आधारित उपन्यास 'मानस का हंस' के लेखन का मसौदा तैयार कर रहे होते हैं। इसके लिए वे चौक के निकट लाजपतनगर में किराये पर एक कमरा ले रखा था जिसे वे वानप्रस्थ आश्रम कहते थे। पर वे अपने मित्र को यह भी लिखते हैं कि : "जब तुलसीदास का चरित्रांकन तुम्हारी आलोचना से समृद्ध हो जाएगा तब ही उसे 'धर्मयुग' में छपने देंगे।" (वही, पृ. 191) तुलसी की बात आते ही डॉ. रामविलास शर्मा मुखर हो उठते हैं। 29.06.1971 तड़ाक से एक पत्र लिखते हैं : "प्रिय अमृत, बड़ी मेहनत की थी तुलसीदास ने। शायद ही वैसी मेहनत की हो किसी दूसरे कवि ने। बहुत पढ़ा, बहुत पचाया; उनकी विद्या उनके सहज भाव के प्रकाश में दिखाई नहीं देती। ऋग्वेद से निश्चित परिचित थे। पुराण यों ही देखे थे; नाटक काव्य खूब घोटे थे। शंकराचार्य की सौंदर्य लहरी भी पढ़ी होगी। सूर को भी घोखा था। सबसे बड़ी साधना भाषा की। ऐसी गढ़ंत भाषा - रामचरित मानस में - और किसी ने नहीं लिखी, मिल्टन ने भी नहीं। इस युग में निराला ने गढ़ी है। दोनों अनगढ़ सहज भाषा के भी माहिर हैं - तुलसीदास गुरु, निराला शिष्य। पर उनकी गढ़ंत का क्या कहना। दर्शन में भी वे सारे चौखटे तोड़ देते हैं। अपनी कला के प्रति अत्यंत सजग, परम स्वाभिमानी, अत्यंत विनम्र तुलसीदास लोकभाषा, लोक संस्कृति और लोकगीतों में भी डूबे हुए थे। ...तुम्हारी पोथी उनके व्यक्तित्व को उजागर कर, लिखो। ...हाँ, कवितावली, विनयपत्रिका, गीतावली जरूर घोखना। इन्हीं में उनके व्यक्तित्व की कुंजी है। रामचरितमानस के अर्थ भी इनकी सहायता से खुलते हैं।" (वही, पृ. 191-92) जवाब में अमृतलाल जी का लिखा 05.07.1971 खत : "परमप्रिय डॉक्टर, पत्र पढ़ कर मगन हूँ। ऐसा लगा कि मेरे नोट्स ही आगरे से तुम्हारे द्वारा लिखे जाकर दोबारा मेरे पास आ गए। घबरा मत शेरे, तेरा तुलसी ही मेरा तुलसी है।" (वही, पृ. 192) तो 07.11.1971 के पत्र में : "मानस के हंस में जिस सहज बैकग्राउंड के साथ उभरी है उसे देखकर तुम खुश हो जाओगे।" (वही, पृ. 195)

'मानस का हंस' प्रकाशित हुआ। रामविलास जी पढ़कर 03.11.1972 को चार पृष्ठ एक लंबा पत्र लिख भेजते हैं जिसमें उपन्यास की गंभीर समीक्षा तो है ही, अपने मित्र के प्रति गहरा आत्मीयता भी। वे लिखते हैं : "प्रिय अमृत, कई विघ्न बाधाओं को पार करते हुए कल तुम्हारा उपन्यास समाप्त किया। तुम्हारी कला का निखार और बाहर और भीतर की दुनिया में तुम्हारी पैठ देख कर मन आनंद से भर गया। किसी आलोचक ने अभी तक तुलसीदास को उनके परिवेश में इतने गहरे उतर कर न देखा था जितने गहरे तुमने देखा है। तुम्हारी पुस्तक तमाम टटपुंजिये 'आधुनिकता बोध' वादियों, अनास्था-निगारों और वामपंथी लफ्फाजों के मुँह पर करारा झापड़ है जो अपनी मूल्यहीनता के गर्द गुबार में तुलसीदास को घसीट कर उन्हें सामंतों का चाकर और वर्ण व्यवस्था का पोषक मानते हैं। तुम्हारे किसी भी बड़े उपन्यास की कथा वस्तु ऐसी सुगठित नहीं हैं जैसे 'मानस के हंस' की है। तुम लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों तक बाबा के साथ रहे, बड़ी बात है।" (वही, पृ. 197) इसी प्रकार सूरदास के जीवन पर लिखे 'खंजन नयन' उपन्यास पढ़कर 06.04.1981 को रामविलास जी का पत्र : "प्रिय अमृत, तुम्हारे सूरस्वामी की भक्ति धर्म के ठेकेदारों से कतराती नहीं, उनसे टकराती है, और इस्लामी कट्टरता के विरोधी सूफियों को साथ लेकर चलती है, इतिहास की यह परख सही है। पर भक्ति आंदोलन ने साहित्य में रीतिवादी, धर्म में नाथपंथी चमत्कार समाप्त किए, तुम्हारी कथा में चमत्कारों का जाल बिछा हुआ है। ...'खंजन नयन' पढ़कर आनंद आया।" (वही, पृ. 229)

"यूनानो मिस्रो रोमां सब मिट गए जहाँ से,
बाकी अभी है लेकिन नामोनिशां हमारा।" - इकबाल

डॉ. रामविलास शर्मा के घर का पता अब बदल गया है क्योंकि अब वे अपने पुत्र विजय मोहन शर्मा के साथ उनके दिल्ली के विकासपुरी स्थित घर में रहने चले जाते हैं। अमृतलाल जी 29.01.1982 को लिखे पत्र में अपने मित्र को सलाह देते हैं : "भैयो प्यारे, कल नामवर से पूछा तो मालूम हुआ तुमसे मिले थे और रामकृपा से सौ. भाभी अब तरकैट हैं अतः तुम भी मन से फौक्स नहीं हो। दिल्ली कब तक रहोगे? वैसे तुम्हारा और भाभी का अब किसी बहू-बेटे के संरक्षण में रहना ही मुझे उचित जान पड़ता है।" (वही, पृ. 232) 25.11.1983 के पत्र में रामविलास जी की लिखी 'घर की बात' मिलने की सूचना : "परमप्रिय रामविलास, 'घर की बात' आज मिली। इसे पढ़ने के लिए उत्सुक था। आचार्य रामविलास शर्मा की भूमिका तो पढ़ डाली पर बाकी किताब अभी एक घंटे सवा घंटे में केवल उलट-पलट कर ही देखी है। 'चार दिन' के उपन्यासकार रामविलास शर्मा के सर्जक दिमाग पर लट्टू हो गया। ...मैं प्रामाणिक रूप से तो कह नहीं सकता पर फिलहाल गर्व से मुझे यह कहने दो कि व्यक्ति, घर और समाज की ऐसी रोचक कहानी शायद केवल हिंदी भाषा में ही लिखी गई है। कमाल है।" (वही, पृ. 234) रामविलास शर्मा अब अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक 'भारतीय साहित्य की भूमिका' लिखने की योजना बना रहे हैं और इसी को ध्यान में रखकर 20.08.1985 को अमृतलाल जी को पत्र लिखते हैं : "प्रिय अमृत, मेरी पुस्तक 'मार्क्स और पिछड़े हुए समाज' भी प्रेस में है, इसमें युरूप और भारत के इतिहास से संबंधित समस्याओं पर निबंध हैं, एक निबंध कौटिल्य के अर्थशास्त्र पर भी है। '...भारतीय साहित्य की भूमिका' के सिलसिले में अभी पढ़ाई कर रहा हूँ। तुलना के लिए युरूप के इतिहास को लेकर कुछ सामग्री इकट्ठी की है। अगले महीने बनारस जाने का विचार है। छह महीने रह कर कुछ पढ़ाई वहाँ करूँगा। साल भर बाद शायद लिखने का काम शुरू हो सके।" (वही, पृ.240) इस संग्रह का अंतिम पत्र 13.02.1990 का है, रामविलास जी द्वारा अमृतलाल नागर को लिखा हुआ। 1940 से 1990 तक पत्रों का यह सिलसिला चलता रहता है। रामविलास जी के लिखे इस अंतिम पत्र के 10 दिन बाद यानी 23.02.1990 को अमृतलाल नागर का देहांत हो जाता है। बिरल है ऐसी मैत्री, साहित्य में तो बिल्कुल देखने को नहीं मिलती। बक़ौल गालिब :

"देखना तकरीर की लज़्जत कि जो उसने कहा,
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।"


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