हिंदी कविता में जिन रचनाकारों ने स्त्री-रचनाशीलता को एक कोटि के तौर पर
स्थापित किया, अनामिका उनमें अग्रणी हैं। ऐसा नहीं है कि हिंदी में स्त्रियाँ
कविताएँ नहीं रचती थीं, अथवा उनकी कविताओं को जगह नहीं मिलती थी। काव्य-रचना
के इलाके में अनेक स्त्रियों ने, अपनी सृजनशीलता से, अलहदा मुकाम बनाया था।
इनकी रचनाओं में स्त्री की आवाज भी थी, जो इनके समकालीनों से जुदा थी। कई दफे
स्त्री रचनाकारों की रचनाओं में मुख्तलिफ स्वर भी मिलते हैं। इन तमाम किस्म के
स्वरों का समुच्चय थी सृजनात्मकता। इतिहास के जिस दौर में कवि अनामिका अपनी
रचनात्मक ऊर्जा के साथ सामने आईं, उस समय तक स्त्री की रचनाशीलता को एक
कैटेगरी की तरह देखने का चलन नहीं था। अकादमिक हलकों का, अगर दो मोटे किस्म का
विभाजन करें, तो कहना होगा कि समाज-शास्त्र से संबद्ध लोग इसे दबी जुबान से
सही स्वीकार करने लगे थे। परंतु साहित्य-संसार में वह दृष्टि विकसित नहीं हो
पाई थी कि स्त्री की रचनात्मकता को अलग तरीके से देखा जाए। यहाँ इशारा
पुरातनपंथी ख्याल के लोगों की तरफ नहीं किया जा रहा है अपितु तरक्की पसंदगी का
दावा करने वाले लोगों को इसके दायरे में रखा जा रहा है। अपनी वैचारिक समझ को
प्रगतिशील समझने वाले लोग स्त्री को वर्ग के वृत्त से बाहर नहीं देख पा रहे
थे। वर्ग की कैटेगरी से जुड़ने के बावजूद स्त्री की एक भिन्न कोटि होनी चाहिए,
हिंदी-साहित्य के नामवरों का ऐसा ख्याल नहीं बना था। इस दौर में सक्रिय
स्त्रियों पर भी इसका असर दिखता है। वे भी खुद की रचनाओं को पृथक कर देखे जाने
की हिमायती नहीं थीं। हालाँकि इनकी रचनाओं में वे चिह्न मौजूद थे, जो उन्हें
रचनाकारों के सामान्य वर्ग में रहने के बावजूद एक भिन्न कोटि का बतलाते थे।
कहना न होगा कि उन चिह्नों के मूल में उनकी रचनाओं में निहित विशिष्ट
स्त्री-तत्व था।
अनामिका की पीढ़ी की स्त्री-रचनाकारों की प्राथमिक अहमियत यही है कि इन लोगों
ने अपने स्वर की खासियत को देखे जाने का इसरार किया। साहित्य की व्यापकता में
शामिल होने के बावजूद निज अभिव्यक्ति की खसूसियत पर अतिरिक्त बल दिया। अनामिका
द्वारा संपादित 'कहती हैं औरतें' इसी इसरार का सबूत है। तब की
साहित्य-समीक्षा, स्त्री-रचनात्मकता की विशिष्ट व्याख्या करने में तंग प्रतीत
होती थी। ऐसे में, अनामिका ने दोनों मोर्चों पर काम किया। एक, उन कोनों-अँतरों
को काव्य-स्वर प्रदान किया, जो अब तक कविता की परिधि से बाहर थे। दो, ऐसी
कविताओं में अंतर्निहित, विशिष्टता की व्याख्या भी की। इन्हें सैद्धांतिक जामा
भी पहनाया। अपने इन्हीं अवदानों से अनामिका हिंदी स्त्री-कविता में अग्रणी
बनीं।
वैचारिक विमर्श में स्त्री को एक कोटि के तौर पर स्थापित करने के लिए
स्त्री-अस्मिता का अतिरिक्त रेखांकन आवश्यक है। स्त्री ही क्यों किसी भी
अस्मिता की पहचान के लिए यह पहल जरूरी है। किसी भी कैटेगरी की इयत्ता को अलग
समझा जाए, इसके लिए उसकी विशिष्टता को अलगाकर दिखाना अपेक्षित है। स्त्री के
मामले में अपेक्षाकृत जटिल प्रत्यय है। कारण कि हर तरह की कैटेगरी में यह
समाहित है और उससे अलग भी। मिसाल के तौर पर कहना होगा कि वर्ग, जाति, दलित,
आदिवासी, अश्वेत (ब्लैक) आदि जितनी तरह की कोटियाँ बनाई जाएँगी, स्वाभाविक रूप
से स्त्री इनमें समाहित होगी। फिर भी स्त्री की एक अलग कोटि भी बनेगी। यह
जटिलता स्त्री-अस्मिता के मसले को और पेचीदा बनाती है। लिहाजा अन्य अस्मिताओं
के साथ इसकी संबद्धता और असंबद्धता की बारीक पहचान जरूरी है। स्त्री-अस्मिता
ने अन्य अस्मिताओं के साथ ही नहीं, बल्कि अपने 'अन्य' पुरुष व्यक्ति सत्ता के
साथ भी संबद्धता और असंबद्धता की तनाव भरी रस्सी पर कदम बढ़ाया है। स्त्री
'अन्य' के साथ संबद्ध होकर भी असंबद्ध रही है और असंबद्ध में भी संबद्ध रही
है। यह एक खास किस्म का विरागात्मक राग है और रागात्मक विराग, जो आज भी जारी
है। अनामिका की कविताएँ, इस वैचारिक जटिलता में संतुलन स्थापित करते हुए,
सार्थक हस्तक्षेप करती हैं।
यहाँ पर एक और आयाम गौरतलब है, सीधे-सीधे विचार की दुनिया में मुठभेड़ अलग बात
है और साहित्य (यहाँ कविता के क्षेत्र में) रचते हुए विचार की प्रस्तावना अलग
बात। कारण कि कविता महज विचार नहीं है। आखिर वे भिन्न अवयव ही होते हैं जो उसे
काव्यात्मकता प्रदान करते हैं। इसके बगैर कोई विशिष्ट विचार तो सामने आ सकता
है, पर उसे व्यक्त करने का अंदाज उसे कविता की श्रेणी में शामिल नहीं होने
देगा। अनामिका की पीढ़ी के रचनाकारों ने जिस तरह सपाट ढंग से विचारों को उगल
भर दिया है, वे महत्वपूर्ण विचार होने के बावजूद, कमजोर कविता ही बन पाई हैं।
कविता के शिल्प में विचार को अनुस्यूत करना जटिल कलात्मकता है। ऐसा कहने का
मतलब कविता के स्थापत्य में किसी बदलाव से इनकार करना नहीं है। नितांत भिन्न
परिप्रेक्ष्य और अलहदा स्वर के आने से कविता या किसी भी विधा के स्थापत्य में
नवाचार संभव है। पर यह नवाचार कविता की शर्त पर नहीं होगा। आशय यह है कि ऐसे
किसी भी अस्मितावादी स्वर को पहले कविता होना होगा। कविता होने के बाद उसकी
विशिष्टता का रेखांकन होगा। कहना न होगा कि अनामिका की कविताएँ इसकी सफल मिसाल
हैं।
'खुरदरी हथेलियाँ' अनामिका की कविताओं का एक विशिष्ट संग्रह है। इस संग्रह की
दो कविताओं के विश्लेषण के जरिये अनामिका की अभिव्यक्ति के अंदाज और उसमें
निहित विशिष्ट स्वर को इस आलेख में पेश किया जा रहा है। संग्रह की
शीर्षक-कविता 'खुरदरी हथेलियाँ' में अनामिका ने कहा है कि ''हालाँकि ज्योतिषी
नहीं हूँ मैं। दानवीर कर्ण भी नहीं हूँ - / पर देखी है मैंने फैलती सिकुड़ती
हथेलियाँ / कई तरह की!'' जाहिर है कवि ने किसी की हथेली को ज्योतिषी या दानवीर
की निगाह से नहीं देखी है। यहाँ 'हथेलियों के फैलने और सिकुड़ने' का बिंब
काबिले गौर है। हथेलियों का फैलाव और सिकुड़न पूरी कविता में विन्यस्त है। आखिर
किसकी हथेली फैलती है और किसकी सिकुड़ जाती है? सोचने की बात यह भी है कि कवि
ने कई तरह की हथेलियों को कैसे देखा है? बकौल अनामिका 'हाथों में हाथ लिए और
दिए हैं कितनी बार!'' हाथों में हाथ लेने और देने से एक मजबूती पैदा होती है।
दो हाथों की संवेदनात्मक ऊष्मा से रिश्ता प्रगाढ़ बनता है और कोमल भी।
यह एक बड़ी सच्चाई है कि 'दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं। दो
लोगों के बढ़कर मिले हुए हाथ!' कहना न होगा कि हाथों के जरिये दो लोगों के
रिश्तों में व्यापकता आती है और गहराई भी। 'मजबूत' और 'नाजुक' को इस प्रसंग
में अनामिका ने जिस तरह अभिव्यक्त किया है, वह ध्यान देने लायक है। अमूनन
'मजबूत' और 'नाजुक' को विपर्यय समझा जाता है; पर यहाँ दोनों एकाकार हो गए हैं।
मजबूती के साथ नाजुक। यहाँ मजबूती न तो आक्रामक वृत्ति से जुड़ती है और न
नाजुक कमजोरी के साथ।
अनामिका की यह कविता अपनी विशिष्टता के बावजूद बरबस ही हिंदी के दो श्रेष्ठ
कवियों - केदारनाथ सिंह और अरुण कमल - की कविताओं की याद दिलाती है। खास बात
यह भी है कि अनामिका की यह कविता उक्त दोनों कवियों की कविताओं से जुड़ती है
और अलग भी हो जाती है। केदारनाथ सिंह अपनी कविता में किसी कोमल हाथ को अपने
हाथ में लेकर सोचते हैं कि दुनिया को ऐसे ही मुलायम और नर्म होना चाहिए। यह
कवि की सदिच्छा भर है। इस कविता का दायरा रोमानी भावों तक सीमित है, जबकि
अनामिका की कविता में दो लोगों से बढ़कर मिले हुए हाथ, दुनिया का सबसे मजबूत और
नाजुक पुल होते हैं। इस पंक्ति में 'बढ़कर' शब्द, अर्थ-विस्तार करता है। हाथ
बढ़ाना, रिश्ते के प्रारंभ का सूचक है। हाथ बढ़ाने से ही हाथ बँटाने की शुरुआत
होती है।
अनामिका की यह कविता का काल-बोध तीन चरणों का है। मुहम्मद रफी की आवाज के
जरिये अपने बचपन को अनामिका ने समाहित किया है। जब 'रफी साहब' गाते थे
'नन्हें-मुन्ने बच्चे, तेरी मुट्ठी में क्या है?' तो अगली पंक्ति 'मुट्ठी में
है तकदीर देश की' - सुनने के पहले बालमन भोलेपन में, अपनी नन्हीं हथेली में
रखे चॉकलेट को जेब में छुपाने लगता था। दूसरा चरण, युवावस्था का है; जब हाथों
के तोते उड़ गए। अनामिका लोक में प्रचलित कहावतों, मुहावरों और शब्दावली से
रचनात्मकता के पाट को चौड़ा करती हैं और कलात्मक भी बनाती हैं। इस कविता के
विश्लेषण के दौरान केदारनाथ सिंह के अलावा अरुण कमल को भी याद किया गया था।
अरुण कमल की कविता 'खुशबू रचते हाथ' में वर्ग-वैषम्य को उजागर किया गया है।
खूशबू निर्मित करने वाले हाथ कितने अभाव और गंदगी में जीवन बिताते हैं, इसे
रचनात्मक कौशल से अरुण कमल ने चित्रित किया है। अनामिका की कविता का आखिरी
हिस्सा 'खुशबू रचते हाथ' से, भिन्न आयाम रचता है। वैचारिक बिंदु के हिसाब से
यह भी कहना होगा कि अरुण कमल ने मजदूर वर्ग को अपनी उक्त कविता में चित्रित
किया है, पर अनामिका की कविता का चित्र मजदूर की कैटेगरी में शामिल होने के
साथ-साथ स्त्री पर केंद्रित है।
अनामिका की कविता का यह अंश पढ़ें - ''कल एक बरतन पोंछने वाले जूने से छिदी
हुई, पानी की खाई / सुंदर-सी खुरदरी हथेली / तपते हुए मेरे माथे पर / ठंडी
पट्टी-सी उतर आई! मारे सुख के मैं / सिहर ही गई!'' झाड़ू पोंछा करने वाली
मजदूरनी की, पानी की खाई खुरदरी हथेली के साथ कवि ने 'सुंदर' विशेषण का उपयोग
किया है। खुरदरापन सौंदर्य के पारंपरिक शास्त्र का अतिक्रमण करता है।
खुरदुरापन, अनगढ़पन सौंदर्य के साथ नवाचार करता है। यह श्रम के कारण निर्मित
हुआ है। इस प्रसंग में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की 'तोड़ती पत्थर' और
संजीव की कहानी 'दुनिया की सबसे हसीन औरत' की याद भी स्वाभाविक है। कोमल हथेली
के बरअक्स कड़ी, खुरदरी हथेली को सौंदर्य का मानक बनाना सुंदरता के मयार को
बदलने की प्रस्तावना है। जब जूने से छिदी हुई और पानी की खाई, एक सुंदर
खुरदुरी हथेली से तपते माथे को सहलाया तो गोया वह ठंडी पट्टी जैसी अंदर उतर
गई। इस स्पर्श ने सुख दिया और सिहरन भी पैदा की। तपते माथे को खुरदरी हथेली
अटपटी नहीं लगी। रूखड़ी भी नहीं। अनामिका का कवि-मन यहीं तक सीमित नहीं रहता।
वह पानी की खाई उसकी उँगलियों को उठाकर देर तलक सोचती रहती हैं। ''फिर पानी की
खाई / उसकी वे उँगलियाँ उठाकर / देर तक सोचती रही / निचली सतह का तरफदार।
आबदार / सीधा-सरल होने के बावजूद / पानी खा पाता है कैसे भला / मांस-मज्जा /
दुनिया की सबसे पानीदार / नमकीन, कामगार हथेली को?''
काम करने वाली स्त्री की सबसे पानीदार, नमकीन और कामगार हथेली की मांस-सज्जा
को पानी कैसे खा जाता है, यह कवि की चिंता का सबब है। दुनिया की सबसे पानीदार
हथेली को पानी ही खा जाता है। अनामिका ने जिस पक्ष को अपनी कविता के इस हिस्से
में चित्रित किया है, वह निहायत निजी स्वर है कवि का। माथे की तपन पर हाथ ठंडी
पट्टी का अहसास देती है, अगर यहीं तक सीमित होता कवि-मन तो आगे की पंक्तियाँ,
जहाँ इस कविता की आत्मा है, अभिव्यक्ति पाने से वंचित रह जाती। उस मजूदर
स्त्री की उँगलियाँ उठाकर कवि देर तलक सोचती है। उसे विस्मय होता है कि
आखिरकार पानी कैसे खा जाता है, मांस-मज्जा को? और वह भी उस हथेली की, जो
दुनिया की सबसे पानीदार नमकीन कामगार की है। विडंबना देखिए कि पानी भी किसकी
मांस-मज्जा को खाता है? ज्यादा देर तलक पानी में जो हाथ डूबा रहता है, उसी को।
जो हथेलियाँ पानी के साथ अधिक वक्त बिताती हैं, उसे खा जाता है।
अनामिका ने 'डाक टिकट' पर एक कविता लिखी है। 'डाक टिकट' शीर्षक कविता में
रचनाकार स्त्री-पुरुष के रिश्ते की जटिलता का बखान करती है। इसमें
स्त्री-पुरुष संबंध की कोमलता और तनाव को अनामिका ने डाक-टिकट के बिंब से रचा
है, वह बरबस ध्यान खींचता है। स्त्री-पुरुष के मध्य अन्योन्याश्रय संबंध होता
है। दोनों की परस्परता और पूरकता से परिवार की रचना होती है। इस परस्परता में
सत्ता-संबंध भी निर्मित होता है और रिश्ते की कोमलता के साथ-साथ तनाव भी पनपता
है। अनामिका की पंक्तियाँ देखें - ''बच्चे उखाड़ते हैं / डाक टिकट / पुराने
लिफाफों से जैसे - / वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता / कौशल से मैं खुद को / हर बार
करती हूँ तुमसे अलग!''
इस कविता की स्त्री खुद को समर्पित कर, पुरुष की व्यक्ति-सत्ता में लीन होकर,
प्रसन्न-भाव से रहने वाली नहीं है। वह आहिस्ता-आहिस्ता खुद को अलगाती है। पूरी
कुशलता के साथ। ऐसा लगता है कि यह स्त्री परंपरा प्रदत्त पितृसत्ता के प्रभाव
से खुद को अलगाती है, जैसे प्यार से बच्चे पुराने लिफाफों से डाक-टिकट उखाड़ते
हैं। इस प्रक्रिया में डाक-टिकट की मानिंद ''मेरे किनारे फट जाते हैं। कभी-कभी
कुछ-न-कुछ मेरा तो / निश्चित ही / सटा हुआ रह जाता है तुमसे!'' कविता समझाती
है कि अलगाव के क्रम में किनारे जरूर फटेंगे और व्यक्तित्व का कुछ-न-कुछ अवश्य
जुड़ा रह जाएगा। यह कविता स्त्री-विमर्श के विकास का सूचक है। इससे पता चलता
है कि स्त्री और पुरुष भिन्न व्यक्ति-सत्ता होते हुए भी एकमएक हैं। यह कविता
स्त्री की तरफ से लिखी गई है। कविता बताती है कि स्त्री का कुछ-न-कुछ पुरुष
में सटा रह जाता है। आशय यह है कि स्त्री को अलगाना पड़ता है, खुद को पुरुष
से। कारण कि स्त्री के व्यक्तित्व का विलय हुआ था पुरुष सत्ता में। अनामिका की
कविता इस विलय को बखूबी समझती है और अपने व्यक्तित्व की हिफाजत के लिए, अलगाव
पर बल देती है। बगैर अलगाव के स्त्री व्यक्तित्व की स्थापना नहीं हो सकती है।
अनामिका ने इस दौरान जो काव्य उपचार किया है, काबिलेगौर है। कविता में, अलग
करने के दौरान जैसे कभी किनारे फट जाते हैं, डाक टिकट के; वैसे ही स्त्री का
भी अलगाव के दौरान कुछ-न-कुछ छूट जाता है, चिपका रह जाता है। इसी वजह से
'थोड़ा-सा विरल/झीना-सा हो जाता है। मेरा कागज। धुँधली पड़ जाती हैं। मेरी
तसवीरें। पानी के छींटे से। और बाद उसके हवा मालिक। उड़ा लिए जाए मुझे, जहाँ
चाहे।''
थोड़ा विरल, थोड़ा झीना होने की हालत में हवा का झोंका उड़ा ले जाएगा, यह
रचनाकार को गवारा है। परंतु अपने व्यक्तित्व को पुरुष-सत्ता में विलय कर देना
नहीं, यह खास बात है।
कविता के जरिये स्त्री-विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए अनामिका स्त्री और पुरुष
को भिन्न कोटि में रखते हुए भी, दोनों को एक-दूसरे का विरोधी बनाकर नहीं
रचतीं। स्त्री और पुरुष की आपसी संबद्धता और परस्पर तनाव को अनामिका कलात्मक
तरीके से सृजित करती हैं। यही खूबी इन्हें अनन्य बनाती है।