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कविता

घर

नरेंद्र जैन


कच्चा घर पीली मिट्टी से पुता हुआ
कमरे और दालान की छत बेहद नीची
खजूर के पुराने दरख्त की मयालें दीवारों
में पैबस्त
छोटी-छोटी खिड़कियों से थोड़ा बहुत उजाला
नीम अँधेरे में घुल रहा
बाहर ओटले से चार-पाँच सीढ़ियाँ छत की
तरफ जाती
सीढ़ियाँ गोबर से पुती हुई और
उन पर चढ़ने से साँस लेने का शब्द
सुनाई देता
सर्दियों की सुबह परिवार छत पर ही
गुजर-बसर करता
वहाँ पुरानी साड़ी से बंधे पालने में बच्चा सो रहा
चूल्हे पर चढ़ी हंडिया में भात पक रहा
छत की मुंडेर पर चढ़ा बच्चा किसी को पुकार रहा
लकड़ी के पुराने तखत पर बैठा शख्स
हुक्का गुड़गुड़ा रहा
सुनहरी धूप एक बड़ी नियामत उस घर में
वे मुझे जानते नहीं और मेरा कोई परिचय भी नहीं उनसे
सुबह से दोपहर तक मैं उनके बीच रहा
जो सत्कार किया जा सकता था वह सब मुझे मिला
जब मैं सीढ़ियाँ उतर रहा था किसी ने कहा
कभी-कभी ऐसे ही आ जाया करो ।


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