जब जन आंदोलन, विद्रोही और तेवर से भरी कविता की बात की जाती है तो सरकार द्वारा तत्कालीन विद्रोही रचनाओं को जब्त किए जाने के कुछ समय बाद सामने आए 'प्रतिबंधित साहित्य' को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता खासकर उस समय की कविता पर बात किए बिना प्रतिबंधित साहित्य की बात अधूरी जान पड़ती है।
'आजादी की 50वीं वर्षगाँठ के मौके पर अंग्रेजी शासन द्वारा प्रतिबंधित हिंदी कविताओं, गीतों, गजलों और लोक-साहित्य से हमारा अपरिचय निश्चय ही आश्चर्यजनक है। इसी भूमिका में आगे लिखा गया है - "कहने की आवश्यकता नहीं कि आजादी की लड़ाई की रफ्तार के साथ अंग्रेजी शासन के दमन की रफ्तार भी तेज हुई। 1857 की विफलता ने भारतीयों का मनोबल क्षय तो किया; किंतु उन्हें एकता का पाठ भी पढ़ा दिया। भारतेंदु और उनके युग के लेखकों ने अंग्रेजों के शोषण और उनकी दमनमूलक नीति का विरोध करते हुए देश की तत्कालीन दुर्दशा और हीनावस्था के प्रति क्षोभ व्यक्त किया।"1
यह स्पष्ट है कि 1857 के राष्ट्रीय आंदोलन ने भारत में जनतांत्रिक विचारों और संस्थाओं को लोकप्रिय बनाया। शुरू से ही प्रेस, अभिव्यक्ति और संगठन की आजादी पर सरकार द्वारा किए गए हमले के खिलाफ राष्ट्रवादी नेताओं, लेखकों ने संघर्ष किया और आजादी के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग बताया। यह भारतीय राष्ट्रीय जन आंदोलन था जिसमें सभी वर्ग एक साथ शामिल थे। यह पूँजीपतियों के नियंत्रण से बाहर का आंदोलन था, इसका स्वरूप बहुवर्गीय, लोकप्रिय और मुक्त था। कुल मिलाकर इस आंदोलन ने अपने विभिन्न रूपों के साथ आधुनिक राजनीति को जनता के समक्ष लाकर खड़ा किया जो वर्ग, जाति से परे जनता के हित की हिमायत की बात करती है। 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' पुस्तक में विपिन चंद्र लिखते हैं -
"जन आंदोलन के रूप में अनेक प्रकार के लोगों की क्षमता, प्रतिभा और विभिन्न प्रकार की ऊर्जा का राष्ट्रीय आंदोलन ने प्रयोग किया। इस आंदोलन में सबके लिए जगह थी। बूढ़े, नौजवान, धनी-गरीब, स्त्री-पुरुष, बुद्धिजीवी और आम जनता, सब इसमें शामिल थी। इस आंदोलन में लोगों ने अनेक रूपों में हिस्सा लेना, हड़ताल करना, रास्ते में दोनों ओर खड़े होकर कांग्रेस स्वयंसेवकों के जत्थे को प्रोत्साहित करना, कांग्रेसी आंदोलनकारियों को शरण देना 'यंग इंडिया' और 'हरिजन' जैसे अखबारों को बेचना, बाँटना और पढ़ना, गैर कानूनी करार दी गई पत्र-पत्रिकाएँ और पर्चे बाँटना और पढ़ना, राष्ट्रीय नाटक खेलना और देखना, कविताएँ पढना, उत्सव मनाना, राष्ट्रीय उपन्यास, कहानी और कविता लिखना या पढ़ना, प्रभातफेरी निकालना, उसमें गीत गाना आदि आंदोलनों में भाग लेने के ये अलग-अलग रूप थे।"2
यही कारण था कि लेखकों, कवियों में एक अलग तरह का ओज, तेवर उत्पन्न हुआ, जो उनकी उस समय की रचनाओं में देखा जा सकता है। हालाँकि तत्कालीन समय में अंग्रेजी सरकार द्वारा ये रचनाएँ जब्त कर ली गई थीं जो प्रतिबंधित हिंदी साहित्य, खंड-1, खंड-2 के माध्यम से रुस्तम राय के संकलन/संपादन में सामने आया है। जिसका क्रम रुस्तम राय ने 'ख़ून के छींटे', 'मुक्त संगीत', 'विद्रोहिणी' और 'तूफ़ान' शीर्षक से बनाया है। इन शीर्षक से ही विद्रोही कविताओं का आकलन किया जा सकता है।
'मतवाला भिक्षुक' शीर्षक कविता में बलभद्र प्रसाद गुप्त विशारद 'रसिक' लिखते हैं -
"नमक अदा कर रही
देश के दीवानों की टोली!
सहकर कोमल वक्षस्थल पर बंदूकों की गोली
वे निज घोर दमन का चाहे जितना चक्र चलाएँ।
मौत और फाँसी से डरती कहीं वीर आत्माएँ?"3
आजादी के प्रति ये जुनून कवियों की कविताओं में दिख रहा था। इन पंक्तियों से अंग्रेजी ताज उखड़ने का डर होना अवश्यंभावी था। यही कारण था कि उस समय इस रचना को प्रतिबंधित कर दिया गया। इन क्रांतिकारी कविताओं का ही असर था कि तत्कालीन आंदोलन में पूरा वर्ग शामिल था। हर कोई सीना तानकर गोलियों का सामने करने को तत्पर था।
'आहों की चिनगारियाँ' शीर्षक कविता में वीरों को दुश्मनों का सामना करने का आह्वान है -
"अत्याचारी! कर तू चाहे सर को तन से हीन।
किंतु आत्मा कभी न होगी तेरे सम्मुख दीन।।"4
ये प्रतिबंधित हिंदी कविताएँ ही हैं जो स्वाधीनता आंदोलन और तत्कालीन भारतीय जनमानस को तन, मन, धन से स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए तैयार कर रही थीं और ब्रिटिश राज की नींव हिला रही थीं। प्रतिबंधित कविताओं की खासियत 'क्या करना होगा?' शीर्षक कविता में देखी जा सकती है यानी कविताओं के माध्यम से आगे के संघर्ष की योजना तैयार की जाती थी -
"स्वेच्छाचारी निरंकुशों का गर्व तुम्हें हरना होगा।
याद रहे नूतन जीवन के लिए तुम्हें मरना होगा।।"5
और इस स्वाधीनता आंदोलन के रास्ते में कितना बाधाएँ आएँगी और उन संकटों से कैसे जूझना है और आगे बढ़ना है ये इन पंक्तियों के माध्यम से देखा जा सकता है -
"कंटक-पथ पर नंगे पैरों ही तुमको चलना होगा।
ग्रीष्मकाल के प्रखर सूर्य की ज्वाला से जलना होगा।।
तुम्हें न अपने प्रण से वीरों! लेशमात्र टलना होगा।
स्वाधिकार के लिए बर्फ के टुकड़ों सा गलना होगा।।"6
प्रतिबंधित कविताओं में स्वाभिमान के लिए मर-मिटने, स्वाधीनता के लिए कुछ भी कर गुजरने का आह्वान है- 'कैसा जीवन?' शीर्षक कविता में लिखा गया है -
"तुमको जीवन इतना प्यारा।
पर का लिया सहारा।
स्वाभिमान खोकर बैठे हो, कह दो अपनी ममता से
तज दे संग हमारा।"7
स्पष्ट है कि जहाँ जनांदोलनकारी कविताएँ व्यंग्यात्मक, प्रतीकात्मक और कहीं-कहीं मुखर रूप में सामने आई हैं पर जिन जनांदोलनकारी कविताओं यानी प्रतिबंधित कविताओं को जब्त किए जाने के कारण प्रतिबंधित दायरे में रखा गया उन कविताओं का स्वर आक्रोश से भरपूर सीधे रूप में चुनौती से भरा है, प्रतिबंधित कविताओं में बिना प्रतीकात्मक शब्द का प्रयोग किए शोषणकारियों के प्रति प्रत्यक्ष शब्दों में आरोप है, यही कारण है कि तत्कालीन सरकार इन कविताओं को जनता के सामने आने से पहले ही लगभग नष्ट और प्रतिबंधित कर चुकी थी।
'माता की पुकार' शीर्षक कविता को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु या अन्य नौजवानों के बलिदान के बीज के रूप में देखा जा सकता है -
"परतंत्रता के पाश में माता अधीर है।
बढ़कर छुड़ाए उसको कोई ऐसा वीर है?
क्यों मोह में पड़े हो,
न किंचित विचार है।।"8
प्रतिबंधित कविताओं में सिर्फ राष्ट्रीय आंदोलन के लिए ही आह्वान नहीं है बल्कि समाज के अन्य शोषित वर्गों पर भी लिखा गया है। 'मजदूर' शीर्षक कविता के माध्यम से प्रतिबंधित कविताओं के भाषाई तेवर को देखा जा सकता है जो बिना किसी लाग-लपेट के सत्य का बयान करती हैं -
"जिसके रक्त-दान से निर्मित
नील-व्योम-चुंबित मीनारें।
मानवपन की अस्थि अस्थि से,
चुनी गई जिनकी दीवारें।।"9
और आगे इसी कविता में कवि पूँजीपतियों को शर्मसार करता हुआ कहता है -
"भूखे नर की बेचैनी को,
देख स्वयं तू भूखा रह कर।
तभी समझ पाएगा नर का,
नर को नर पहचान सका क्या?
तोष पूर्ण उच्छवास, दृगों की,
मूर्छित भाषा जान सका क्या?"10
इसी प्रतिबंधित साहित्य पुस्तक में एक वक्तव्य के माध्यम से रामशाह पांडेय 'चंद्र' साहित्य और उसमें से निकली कविता विधा को विप्लव धर्मी कविता बनाना चाहते हैं वे लिखते हैं - "कवियों! इस कंटकाकीर्ण मार्ग में क्या अवतरित होंगे? यदि अब भी नहीं सुनाते हुए 'विप्लव गान' तो क्षमा करना, तुम वास्तविक कवि नहीं हो।"
जाहिर है प्रतिबंधित साहित्य में कविता की, भाषा, शिल्प, कथ्य उसे अन्य काव्यों से अलग करती है। जनांदोलनकारी कविताओं के उद्देश्य और प्रतिबंधित कविताओं के उद्देश्य में साम्य देखते हुए प्रतिबंधित कविताओं को मुख्यधारा में रखकर इसकी आंदोलनधर्मिता और सामाजिक परिवर्तन की लालसा को देखते हुए इस पर काम करने की जरूरत है।
संदर्भ सूची
1. प्रतिबंधित हिंदी साहित्य, संपादक - रुस्तम राय, भूमिका से
2. भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, भूमिका से, पृ. xxx-xxxi
3. प्रतिबंधित हिंदी साहित्य, संपादक - रुस्तम राय, पृ. 15
4. वही, पृ. 25
5. वही, पृ. 39
6. वही, पृ. 39
7. वही, पृ. 92
8. वही, पृ. 104
9. वही पृ. 169
10. वही, पृ. 170