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कविता

इस तरह ढक्कन लगाया रात ने

माखनलाल चतुर्वेदी


इस तरह ढक्कन लगाया रात ने
इस तरफ या उस तरफ कोई न झाँके।

बुझ गया सूर्य
बुझ गया चाँद, तस्र ओट लिए
गगन भागता है तारों की मोट लिए!

आगे-पीछे,ऊपर-नीचे
अग-जग में तुम हुए अकेले
छोड़ चली पहचान, पुष्पझर
रहे गंधवाही अलबेले।

ये प्रकाश के मरण-चिह्न तारे
इनमें कितना यौवन है?
गिरि-कंदर पर, उजड़े घर पर
घूम रहे निःशंक मगन हैं।

घूम रही एकाकिनि वसुधा
जग पर एकाकी तम छाया
कलियाँ किंतु निहाल हो उठीं
तू उनमें चुप-चुप भर आया

मुँह धो-धोकर दूब बुलाती
चरणों में छूना उकसाती
साँस मनोहर आती-जाती
मधु-संदेशे भर-भर लाती।


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