उठ महान ! तूने अपना स्वर
यों क्यों बेंच दिया?
प्रज्ञा दिग्वसना, कि प्राण का
पट क्यों खेंच दिया?
वे गाए, अनगाए स्वर सब
वे आए, बन आए वर सब
जीत-जीत कर, हार गए से
प्रलय बुद्धिबल के वे घर सब!
तुम बोले, युग बोला अहरह
गंगा थकी नहीं प्रिय बह-बह
इस घुमाव पर, उस बनाव पर
कैसे क्षण थक गए, असह-सह!
पानी बरसा
बाग ऊग आए अनमोले
रंग-रँगी पंखुड़ियों ने
अंतर तर खोले;
पर बरसा पानी ही था
वह रक्त न निकला!
सिर दे पाता, क्या
कोई अनुरक्त न निकला?
प्रज्ञा दिग्वसना? कि प्राण का पट क्यों खेंच दिया!
उठ महान तूने अपना स्वर यों क्यों बेंच दिया!