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कविता

अंधड़ और मानव

माखनलाल चतुर्वेदी


अंधड़ था, अंधा नहीं, उसे था दीख रहा,
वह तोड़-फोड़ मनमाना हँस-हँस सीख रहा,
पीपल की डाल हिली, फटी, चिंघाड़ उठी,
आँधी के स्वर में वह अपना मुँह फाड़ उठी।
उड़ गए परिंदे कहीं,
साँप कोटर तज भागा,
लो, दलक उठा संसार,
नाश का दानव जागा।
कोयल बोल रही भय से जल्दी-जल्दी,
पत्तों की खड़-खड़ से शांति वनों से चल दी,

युगों युगों बूढ़े, इस अंधड़ में देखो तो,
कितनी दौड, लगन कितनी, कितना साहस है,
इसे रोक ले, कहो कि किस साहस का वश है?
तिस पर भी मानव जीवित है,
हँसता है मनचाहा,
भाषा ने धिक्कारा हो,
पर गति ने उसे सराहा!
बंदर-सा करने में रत है, वह लो हाई जंप!
यह निर्माता हँसा और वह निकल गया भूकंप।


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