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उपन्यास

चंद्रकांता संतति
खंड 6

देवकीनंदन खत्री

अनुक्रम चौबीसवां भाग पीछे    

बयान - 1

दिन घंटे भर से ज्यादे चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह सुनहरी चौकी पर बैठे दातुन कर रहे हैं और जीतसिंह, तेजसिंह, इंद्रजीतसिंह, आनंदसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ और राजा गोपालसिंह उनके सामने की तरफ बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहे हैं। रात महाराज की तबीयत कुछ खराब थी, इसलिये आज स्नान-संध्या में देर हो गई है।

सुरेन्द्र - (गोपालसिंह से) गोपाल, इतना तो हम जरूर कहेंगे कि गद्दी पर बैठने के बाद तुमने कोई बुद्धिमानी का काम नहीं किया बल्कि हर एक मामले में तुमसे भूल ही होती गई!

गोपाल - निःसंदेह ऐसा ही है और उस लापरवाही का नतीजा भी मुझे वैसा ही भोगना पड़ा।

वीरेन्द्र - धोखा खाये बिना कोई होशियार नहीं होता। कैद से छूटने के बाद तुमने बहुत-से अनूठे काम भी किये हें। हां यह तो बताओ कि दारोगा और जैपाल के लिये तुमने क्या सजा तजवीज की है।

गोपाल - इस बारे में दिन-रात सोचा ही करता हूं मगर कोई सजा ऐसी नहीं सूझती जो उन लोगों के लायक हो और जिससे मेरा गुस्सा शांत हो।

सुरेन्द्र - (मुस्कराकर) मैं तो समझता हूं कि यह काम भूतनाथ के हवाले किया जाय, यही उन शैतानों के लिए कोई मजेदार सजा तजवीज करेगा। (भूतनाथ की तरफ देख के) क्यों जी, तुम कुछ बता सकते हो?

भूत - (हाथ जोड़ के) उनके योग्य क्या सजा है इसका बताना तो बड़ा ही कठिन है, मगर एक छोटी-सी सजा मैं जरूर बता सकता हूं।

गोपाल - वह क्या?

भूत - पहले तो उन्हें कच्चा पारा खिलाना चाहिए जिसकी गरमी से उन्हें सख्त तकलीफ हो और तमाम बदन फूट जाय, जब जख्म खूब मजेदार हो जायं तो नित्य लाल मिर्च और नमक का लेप चढ़ाया जाय। जब तक वे दोनों जीते रहें तब तक ऐसा ही होता रहे।

सुरेन्द्र - सजा हलकी तो नहीं है, मगर किसी की आत्मा...।

गोपाल - (बात काटकर) खैर उन कम्बख्तों के लिए आप कुछ न सोचिये, उन्हें मैं जमानिया ले जाऊंगा और उसी जगह उनकी मरम्मत करूंगा।

वीरेन्द्र - इन सब रंज देने वाली बातों का ज्रिक्र जाने दो, यह बताओ कि अगर हम लोग जमानिया के तिलिस्म की सैर किया चाहें तो कैसे कर सकते हैं?

गोपाल - यह तो मैं आप ही निश्चय कर चुका हूं कि आप लोगों को वहां की सैर जरूर कराऊंगा।

इंद्रजीत - (गोपाल से) हां खूब याद आया, वहां के बारे में मुझे भी दो-एक बातों का शक बना हुआ है।

गोपाल - वह क्या?

इंद्र - एक तो यह बताइये कि तिलिस्म के अंदर जिस मकान में पहले-पहल आनंदसिंह फंसे थे, उस मकान में सिंहासन पर बैठी हुई लाडिली की मूरत कहां से आई1 और उस आईने (शीशे) वाले मकान में जिसमें कमलिनी, लाडिली तथा हमारे ऐयारों की-सी मूरतों ने हमें धोखा दिया, क्या था जब हम दोनों उसके अंदर गये तो उन मूरतों को देखा जो नालियों पर चला करती थीं2 मगर ताज्जुब है कि...।

गोपाल - (बात काटकर) वह सब कार्रवाई मेरी थी। एक तौर पर मैं आप लोगों को कुछ-कुछ तमाशा भी दिखाता जाता था। वे सब मूरतें बहुत पुराने जमाने की बनी हुई हैं मगर मैंने उन पर ताजा रंग-रोगन चढ़ाकर कमलिनी, लाडिली वगैरह की सूरतें बना दी थीं।

इंद्र - ठीक है, मेरा भी यही खयाल था। अच्छा एक बात और बताइये।

गोपाल - पूछिये।

इंद्र - जिस तिलिस्मी मकान में हम लोग हंसते-हंसते कूद पड़े थे उसमें कमलिनी के कई सिपाही भी जा फंसे थे और...।

गोपाल - जी हां, ईश्वर की कृपा से वे लोग कैदखाने में जीते-जागते पाये गये और इस समय जमानिया में मौजूद हैं। उन्हीं में के एक आदमी को दारोगा ने गठरी बांधकर रोहतासगढ़ के किले में छोड़ा था जब मैं कृष्णाजिन्न बनकर पहले-पहल वहां गया था।3

इंद्र - बहुत अच्छा हुआ, उन बेचारों की तरफ से मुझे बहुत ही खुटका था।

वीरेन्द्र - (गोपालसिंह से) आज दलीपशाह की जुबानी जो कुछ उसका किस्सा सुनने में आया उससे हमें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। यद्यपि उसका किस्सा अभी तक समाप्त नहीं हुआ और समाप्त होने तक शायद और भी बहुत-सी बातें मालूम हों, परतु इस बात का ठीक-ठीक जवाब

1. देखिए नौवां भाग, दूसरा बयान।

2. सोलहवां भाग, छठवां बयान।

3. बारहवां भाग, सातवां बयान

तो तुम्हारे सिवाय दूसरा शायद ही कोई नहीं दे सकता कि तुम्हें कैद करने में मायारानी ने कौन-सी ऐसी कार्रवाई की कि किसी को पता न लगा और सभी लोग धोखे में पड़ गये, यहां तक कि तुम्हारी समझ में भी कुछ न आया और तुम चारपाई पर से उठाकर कैदखाने में डाल दिये गये।

गोपाल - इसका ठीक-ठीक जवाब तो मैं नहीं दे सकता। कई बातों का पता मुझे भी नहीं लगा क्योंकि मैं ज्यादा देर तक बीमारी की अवस्था में पड़ा नहीं रहा, बहुत जल्द बेहोश कर दिया गया। मैं क्योंकर जान सकता था कि कम्बख्त मायारानी दवा के बदले मुझे जहर पिला रही है, मगर मुझको विश्वास है कि दलीपशाह को इसका हाल बहुत ज्यादे मालूम हुआ होगा।

जीत - खैर आज के दरबार में और भी जो कुछ है मालूम हो जायगा।

कुछ देर तक इसी तरह की बातें होती रहीं। जब महाराज उठ गये तब सब कोई अपने ठिकाने चले गये और कारिंदे लोग दरबार की तैयारी करने लगे।

भोजन इत्यादि से छुट्टी पाने के बाद दोपहर होते-होते महाराज दरबार में पधारे। आज का दरबार भी कल की तरह रौनकदार था और आदमियों की गिनती बनिस्बत कल के आज बहुत ज्यादे थी।

महाराज की आज्ञानुसार दलीपशाह ने इस तरह अपना किस्सा बयान करना शुरू किया -

मैं बयान कर चुका हूं कि मैंने अपना घोड़ा गिरिजाकुमार को देकर दारोगा का पीछा करने के लिए कहा, अस्तु जब वह दारोगा के पीछे चला गया तब हम दोनों में सलाह होने लगी कि अब क्या करना चाहिए। अंत में यह निश्चय हुआ कि इस समय जमानिया न जाना चाहिए, बल्कि घर लौट चलना चाहिए।

उसी समय इंद्रदेव के साथी लोग भी वहां आ पहुंचे। उनमें से एक का घोड़ा मैंने ले लिया और फिर हम लोग इंद्रदेव के मकान की तरफ रवाना हुए। मकान पर पहुंचकर इंद्रदेव ने अपने कई जासूसों और ऐयारों को हर एक बात का पता लगाने के लिए जमानिया की तरफ रवाना किया। मैं भी अपने घर जाने को तैयार हुआ मगर इंद्रदेव ने मुझे रोक लिया।

यद्यपि मैं कह चुका हूं कि अपने किस्से में भूतनाथ का हाल बयान न करूंगा तथापि मौका पड़ने पर कहीं-कहीं लाचारी से उसका जिक्र करना ही पड़ेगा, अस्तु इस जगह यह कह देना जरूरी जान पड़ता है कि इंद्रदेव के मकान ही पर मुझे इस बात की खबर लगी कि भूतनाथ की स्त्री बहुत बीमार है। मेरे एक शागिर्द ने आकर यह संदेशा दिया और साथ ही इसके यह भी कहा कि आपकी स्त्री उसे देखने के लिए जाने की आज्ञा मांगती है।

भूतनाथ की स्त्री शांता बड़ी नेक और स्वभाव की बहुत अच्छी है। मैं भी उसे बहिन की तरह मानता था इसलिए उसकी बीमारी का हाल सुनकर मुझे तरद्दुद हुआ और मैंने अपनी स्त्री को उसके पास जाने की आज्ञा दे दी तथा उसकी हिफाजत का पूरा-पूरा इंतजाम भी कर दिया। इसके कई दिन बाद खबर लगी कि मेरी स्त्री शांता को लेकर अपने घर आ गई।

आठ-दस दिन बीत जाने पर भी न तो जमानिया से कुछ खबर आई न गिरिजाकुमार ही लौटा। हां रियासत की तरफ से एक चीठी न्यौते की जरूर आई थी जिसके जवाब में इंद्रदेव ने लिख दिया कि गोपालसिंह से और मुझसे दोस्ती थी सो वह तो चल बसे, अब उनकी क्रिया मैं अपनी आंखों से देखना पसंद नहीं करता।

मेरी इच्छा तो हुई कि गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए मैं खुद जाऊं मगर इंद्रदेव ने कहा कि नहीं दो-चार दिन और राह देख लो, कहीं ऐसा न हो कि तुम उसकी खोज में जाओ और वह यहां आ जाय। अस्तु मैंने भी ऐसा ही किया।

बारहवें दिन गिरिजाकुमार हम लोगों के पास आ पहुंचा। उसके साथ अर्जुनसिंह भी थे जो हम लोगों की मंडली में एक अच्छे ऐयार गिने जाते थे, मगर भूतनाथ से और इनसे खूब ही चखाचखी चली आती थी (महाराज और जीतसिंह की तरफ देखकर) आपने सुना ही होगा कि इन्होंने एक दिन भूतनाथ को धोखा देकर कुएं में ढकेल दिया था और उसके बटुए में से कई चीजें निकाल ली थीं।

जीत - हां मालूम है, मगर इस बात का पता नहीं लगा कि अर्जुन ने भूतनाथ के बटुए में से क्या निकाला था।

इतना कहकर जीतसिंह ने भूतनाथ की तरफ देखा।

भूत - (महाराज की तरफ देखकर) मैंने जिस दिन अपना किस्सा सरकार को सुनाया था उस दिन अर्ज किया था कि जब वह कागज का मुट्ठा मेरे पास से चोरी गया तो मुझे बड़ा ही तरद्दुद हुआ और उसके बहुत दिनों के बाद राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी1 इत्यादि। यह वही कागज का मुट्ठा था जो अर्जुनसिंह ने मेरे बटुए से निकाल लिया था, तथा इसके साथ और भी कई कागज थे। असल बात यह है कि उन चीठियों की नकल के मैंने दो मुट्ठे तैयार किये थे, एक तो हिफाजत के लिए अपने मकान में रख छोड़ा था और दूसरा मुट्ठा समय पर काम लेने के लिए हरदम अपने बटुए में रखता था। मुझे गुमान था अर्जुनसिंह ने जो मुट्ठा ले लिया था उसी से मुझे नुकसान पहुंचा मगर अब मालूम हुआ कि ऐसा नहीं हुआ, अर्जुनसिंह ने न तो वह किसी को दिया और न उससे मुझे कुछ नुकसान पहुंचा। हाल में जो दूसरा मुट्ठा जैपाल ने मेरे घर से चुरवा लिया था उसी ने तमाम बखेड़ा मचाया।

जीत - ठीक है (दलीपशाह की तरफ देख के) अच्छा तब क्या हुआ।

दलीपशाह ने फिर इस तरह कहना शुरू किया -

दलीप - गिरिजाकुमार और अर्जुनसिंह में एक तरह की नातेदारी भी है परंतु उसका खयाल न करके ये दोनों आपस में दोस्ती का बर्ताव रखते थे। खैर, उस समय इन दोनों के आ जाने से हम लोगों को खुशी हुई और फिर इस तरह बातें होने लगीं -

1. चंद्रकान्ता संतति, इक्कीसवां भाग, दूसरा बयान।

मैं - गिरिजाकुमार, तुमने तो बहुत दिन लगा दिये!

गिरिजा - जी हां, मुझे तो और भी कई दिन लग जाते मगर इत्तिफाक से अर्जुनसिंह से मुलाकात हो गई और इनकी मदद से मेरा काम बहुत जल्द हो गया।

मैं - खैर यह बताओ कि तुमने किन-किन बातों का पता लगाया और मुझसे बिदा होकर तुम दारोगा के पीछे कहां तक गए?

गिरिजा - जैपाल को साथ लिए हुए दारोगा सीधे मनोरमा के मकान पर चला गया। उस समय मनोरमा वहां न थी, वह दारोगा के आने के तीन पहर बाद रात के समय अपने मकान पर पहुंची। मैं भी छिपकर किसी-न-किसी तरह उस मकान में दाखिल हो गया। रात को दारोगा और मनोरमा में खूब हुज्जत हुई मगर अंत में मनोरमा ने उसे विश्वास दिला दिया कि राजा गोपालसिंह को मारने के विषय में उससे जबर्दस्ती पुर्जा लिखा लेने वाला मेरा आदमी न था बल्कि वह कोई और था जिसे मैं नहीं जानती। दारोगा ने बहुत सोच-विचारकर विश्वास कर लिया कि यह काम भूतनाथ का है। इसके बाद इन दोनों में जो कुछ बातें हुर्ईं उनसे यही मालूम हुआ कि गोपालसिंह जरूर मर गए और दारोगा को भी यही विश्वास है, मगर मेरे दिल में यह बात नहीं बैठती, खैर जो कुछ हो। उसके दूसरे दिन मनोरमा के मकान में से एक कैदी निकाला गया जिसे बेहोश करके जैपाल ने बेगम के मकान में पहुंचा दिया। मैंने उसे पहचानने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया मगर पहचान न सका क्योंकि उसे गुप्त रखने की उन्होंने बहुत कोशिश की थी, मगर मुझे गुमान होता है कि वह जरूर बलभद्रसिंह होगा। अगर वह दो दिन भी बेगम के मकान में रहता तो मैं जरूर निश्चय कर लेता मगर न मालूम किस वक्त और कहां बेगम ने उसे पहुंचवा दिया कि मुझे इस बात का कुछ भी पता न लगा, हां इतना जरूर मालूम हो गया कि दारोगा भूतनाथ को फंसाने के फेर में पड़ा हुआ है और चाहता है कि किसी तरह भूतनाथ मार डाला जाय।

इन कामों से छुट्टी पाकर दारोगा अकेला अर्जुनसिंह के मकान पर गया, इनसे बड़ी नरमी और खुशामद के साथ मुलाकात की, और देर तक मीठी-मीठी बातें करता रहा जिसका तत्व यह था कि तुम दलीपशाह को साथ लेकर मेरी मदद करो और जिस तरह हो सके भूतनाथ को गिरफ्तार करा दो, अगर तुम दोनों की मदद से भूतनाथ गिरफ्तार हो जायगा तो मैं इसके बदले में दो लाख रुपया तुम दोनों को इनाम दूंगा, इसके अतिरिक्त वह आपके नाम का एक पत्र भी अर्जुनसिंह को दे गया।

अर्जुनसिंह ने दारोगा का वह पत्र निकालकर मुझे दिया, मैंने पढ़कर इंद्रदेव के हाथ में दे दिया और कहा, 'इसका मतलब भी वही है जो गिरिजाकुमार ने अभी बयान किया है' परंतु यह कदापि नहीं हो सकता कि मैं भूतनाथ के साथ किसी तरह की बुराई करूं, हां दारोगा के साथ दिल्लगी अवश्य करूंगा।'

इसके बाद कुछ देर तक और भी बातचीत होती रही। अंत में गिरिजाकुमार ने कहा कि मेरे इस सफर का नतीजा कुछ भी न निकला और न मेरी तबीयत ही भरी, आप कृपा करके मुझे जमानिया जाने की इजाजत दीजिये।

गिरिजाकुमार की दरखास्त मैंने मंजूर कर ली। उस दिन रात-भर हम लोग इंद्रदेव के यहां रहे, दूसरे दिन गिरिजाकुमार जमानिया की तरफ रवाना हुआ और मैं अर्जुनसिंह को साथ लेकर अपने घर मिर्जापुर चला आया।

घर पहुंचकर मैंने भूतनाथ की स्त्री शांता को देखा जो बीमार तथा बहुत ही कमजोर और दुबली हो रही थी, मगर उसकी सब बीमारी भूतनाथ की नादानी के सबब से थी और वह चाहती थी कि जिस तरह भूतनाथ ने अपने को मरा हुआ मशहूर किया था उसी तरह वह भी अपने और छोटे बच्चे के बारे में मशहूर करे। उसकी अवस्था पर मैं बड़ा दुःखी हुआ और जो कुछ वह चाहती थी उसका प्रबंध मैंने कर दिया। यही सबब था कि भूतनाथ ने अपने छोटे बच्चे के विषय में धोखा खाया जिसका हाल महाराज और राजकुमारों को मालूम है, मगर सर्वसाधारण के लिए मैं इस समय उसका जिक्र न करूंगा। इसका खुलासा हाल भूतनाथ अपनी जीवनी में बयान करेगा। खैर -

घर पहुंचकर मैंने दिल्लगी के तौर पर भूतनाथ के विषय में दारोगा से लिखा-पढ़ी शुरू कर दी मगर ऐसा करने से मेरा असल मतलब यह था कि मुलाकात होने पर मैं वह सब पत्र जो इस समय हरनामसिंह के पास मौजूद हैं भूतनाथ को दिखाऊं और उसे होशियार कर दूं। अस्तु अंत में मैंने उसे (दारोगा को) साफ-साफ जवाब दे दिया।

यहां तक अपना किस्सा कहकर दलीपशाह ने हरनामसिंह की तरफ देखा और हरनामसिंह ने सब पत्र जो एक छोटी-सी संदूकड़ी में बंद थे महाराज के आगे पेश किये जिसे मामूली तौर पर सभों ने देखा। इन चीठियों से दारोगा की बेईमानी के साथ-ही-साथ यह भी साबित होता था कि भूतनाथ ने दलीपशाह पर व्यर्थ ही कलंक लगाया। महाराज की आज्ञानुसार वह चीठियां कम्बख्त दारोगा के आगे फेंक दी गईं और इसके बाद दलीपशाह ने फिर इस तरह बयान करना शुरू किया -

''मेरे और दारोगा के बीच में जो कुछ लिखा-पढ़ी हुई थी उसका हाल किसी तरह भूतनाथ को मालूम हो गया या शायद वह स्वयं दारोगा से जाकर मिला और दारोगा ने मेरी चीठियां दिखाकर इसे मेरा दुश्मन बना दिया तथा खुद भी मेरी बर्बादी के लिए तैयार हो गया। इस तरह दारोगा की दुश्मनी का वह पौधा जो कुछ दिनों के लिए मुरझा गया था फिर से लहलहा उठा और हरा-भरा हो गया, और साथ ही उसके मैं भी हर तरह से दारोगा का मुकाबिला करने के लिए तैयार हो गया।

कई दिन के बाद गिरिजाकुमार जमानिया से लौटा तो उसकी जुबानी मालूम हुआ कि मायारानी का दिन बड़ी खुशी और चहल-पहल के साथ गुजर रहा है। मनोरमा और नागर के अतिरिक्त धनपत नामी एक औरत और भी है जिसे मायारानी बहुत प्यार करती है मगर उस पर मर्द होने का शक होता है। इसके अतिरिक्त यह भी मालूम हुआ कि दारोगा ने मेरी गिरफ्तारी के लिए तरह-तरह के बंदोबस्त कर रखे हैं और भूतनाथ भी दो-तीन दफे उसके पास आता-जाता दिखाई दिया है मगर यह बात निश्चय रूप से मैं नहीं कह सकता कि वह जरूर भूतनाथ ही था।

एक दिन संध्या के समय जब दारोगा अपने बाग में टहल रहा था तो भेष बदले हुए गिरिजाकुमार पिछली दीवार लांघ के उसके पास जा पहुंचा और बेखौफ सामने खड़ा होकर बोला, 'दारोगा साहब, इस समय आप मुझे गिरफ्तार करने का खयाल भी न कीजियेगा क्योंकि मैं आपके कब्जे में नहीं आ सकता।' साथ ही इसके यह भी समझ रखिए कि मैं आपकी जान लेने के लिए नहीं आया हूं बल्कि आपसे दो-चार बातें करने के लिए आया हूं।'

दारोगा घबड़ा गया और उसकी बातों का कुछ विशेष जवाब न देकर बोला, 'खैर कहो क्या चाहते हो।'

गिरिजा - मनोरमा और मायारानी के फेर में पड़कर तुमने राजा गोपालसिंह को मरवा डाला, इसका नतीजा एक-न-एक दिन तुम्हें भोगना ही पड़ेगा। मगर अब मैं यह पूछता हूं कि जिनके डर से तुमने लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को कैद कर रखा था वे तो मर ही गये अब अगर तुम उन दोनों को छोड़ भी दोगे तो तुम्हारा क्या बिगड़ेगा?

दारोगा - (ताज्जुब में आकर) मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कौन हो और क्या कह रहे हो?

गिरिजा - मैं कौन हूं इसके जानने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं मगर क्या तुम कह सकते हो कि जो कुछ मैंने कहा है वह सब झूठ है?

दारोगा - बेशक झूठ है! तुम्हारे पास इन बातों का क्या सबूत है?

गिरिजा - जैपाल और हेलासिंह के बीच जो कुछ लिखा-पढ़ी है उसके अतिरिक्त वह चीठी इस समय भी मेरे पास मौजूद है जो राजा गोपालसिंह को मार डालने के लिए तुमने मनोरमा को लिख दी थी।

दारोगा - मैंने कोई चीठी नहीं लिखी थी, मालूम होता है कि दलीपशाह और भूतनाथ वगैरह मिल-जुलकर मुझ पर जाल बांधना चाहते हैं और तुम उन्हीं में से किसी के नौकर हो।

गिरिजा - भूतनाथ तो मर गया, अब तुम भूतनाथ को क्यों बदनाम करते हो?

दारोगा - भूतनाथ जैसा मरा है सो मैं खूब जानता हूं, अगर खुद मुझसे मुलाकात न हुई होती तो शायद मैं धोखे में आ भी जाता।

गिरिजा - भूतनाथ तुम्हारे पास न आया होगा, किसी दूसरे आदमी ने सूरत बदलकर तुम्हें धोखा दिया होगा, वह बेशक मर गया!

दारोगा - (सिर हिलाकर) हां ठीक है, शायद ऐसा ही हो, मगर उन सब बातों से तुम्हें मतलब ही क्या है और तुम मेरे पास किसलिए आये हो सो कहो।

गिरिजा - मैं केवल इसीलिए आया हूं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह को छोड़ देने के लिए तुमसे प्रार्थना करूं।

दारोगा - पहले तुम अपना ठीक-ठीक परिचय दो तब मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूंगा।

गिरिजा - अपना ठीक परिचय तो नहीं देता।

दारोगा - तब मैं तुम्हारी बातों का जवाब भी नहीं दे सकता।

इतना कहकर दारोगा पीछे की तरफ हटा और उसने अपने आदमियों को आवाज दी मगर गिरिजाकुमार झपटकर एक मुक्का दारोगा की गर्दन पर मारने के बाद तेजी के साथ बाग के बाहर निकल गया।

उसके दूसरे दिन गिरिजाकुमार ने उसी तरह मायारानी से भी मिलने की कोशिश की मगर उसके खास बाग के अंदर न जा सका। लाचार उसने मायारानी के ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह का पीछा किया और दो ही तीन दिन की मेहनत में धोखा देकर बिहारीसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसे अर्जुनसिंह के यहां पहुंचाकर मेरे पास चला आया।

ऊपर लिखी बातें बयान करके गिरिजाकुमार चुप हो गया और तब मैंने उससे कहा, 'बिहारीसिंह को तुमने गिरफ्तार कर लिया यह बहुत बड़ा काम हुआ और जब तुम बिहारीसिंह बनकर वहां जाओगे और चालाकी से उन लोगों में मिल-जुलकर अपने को छिपा सकोगे तो बेशक बहुत-सी बातों का पता लग जायगा और हम लोगों के लिए जो कुछ दारोगा किया चाहता है वह भी मालूम हो जायगा।'

गिरिजा - बेशक ऐसा ही हो। मैं आपसे बिदा होकर अर्जुनसिंह के यहां जाऊंगा और फिर बिहारीसिंह बनकर जमानिया पहुंचूंगा। मेरे जी में तो यही आया था कि मैं कम्बख्त दारोगा को सीधे यमलोक पहुंचा दूं मगर यह काम आपकी आज्ञा के बिना नहीं कर सकता था।

मैं - नहीं-नहीं, इंद्रदेव की आज्ञा बिना यह काम कदापि न करना चाहिए, पहले वहां का असल हाल-चाल तो मालूम कर लो फिर इस बारे में इंद्रदेव से बातचीत करेंगे।

गिरिजा - जो आज्ञा।

इसके बाद और भी तरह-तरह की बातचीत होती रही। उस दिन गिरिजाकुमार मेरे ही घर पर रहा और दूसरे दिन मुझसे बिदा हो अर्जुनसिंह के पास चला गया।

इसके बाद आठ दिन तक मुझे किसी बात का पता नहीं लगा, आखिर जब गिरिजाकुमार का पत्र आया तब मालूम हुआ कि वह बिहारीसिंह बनकर बड़ी खूबी के साथ उन लोगों से मिल गया है। उन लोगों की गुप्त कमेटी में भी बैठकर हर एक बात में राय दिया करता है जिससे बहुत जल्द कुछ भेदों का पता लग जाने की आशा होती है। गिरिजाकुमार ने यह भी लिखा है कि दारोगा को उस चीठी की बड़ी ही चिंता लगी हुई है जो मनोरमा के नाम से राजा गोपालसिंह को मार डालने के लिए मैंने (गिरिजाकुमार ने) जबर्दस्ती उससे लिखवा ली थी। वह चाहता है कि जिस तरह हो वह चीठी उसके हाथ लग जाय और इस काम के लिए लाखों रुपये खर्च करने को तैयार है। वह कहता है और वास्तव में ठीक कहता है कि उस चीठी का हाल अगर लोगों को मालूम हो जायगा तो दूसरों की कौन कहे जमानिया की रियाया ही मुझे बुरी तरह से मारने के लिए तैयार हो जायगी। एक दिन हरनामसिंह ने उसे राय दी कि दलीपशाह को मार डालना चाहिए। इस पर वह बहुत ही झुंझलाया और बोला कि 'जब तक वह चीठी मेरे हाथ न लग जाय तब तक दलीपशाह और उसके साथियों को मार डालने से मुझे क्या फायदा होगा बल्कि मैं और भी बहुत जल्द बर्बाद हो जाऊंगा क्योंकि दलीपशाह के मारे जाने से उसके दोस्त लोग जरूर उस चीठी को मशहूर कर देंगे, इसलिए जब तक वह चीठी अपने कब्जे में न आ जाय तब तक किसी के मारने का ध्यान भी मन में न आना चाहिए। हां दलीपशाह को गिरफ्तार करने से बेशक फायदा पहुंच सकता है। अगर वह कब्जे में आ जायगा तो उसे तरह-तरह की तकलीफ पहुंचाकर किसी प्रकार उस चीठी का पता जरूर लगा लूंगा,' इत्यादि।

वास्तव में बात भी ऐसी ही थी, इसमें कोई शक नहीं कि उसी चीठी की बदौलत हम लोगों की जान बची रही, यद्यपि तकलीफें हर दर्जे की भोगनी पड़ीं मगर जान से मारने की हिम्मत दारोगा को न हुई, क्योंकि उसके दिल में विश्वास करा दिया गया था कि हम लोगों की मंडली का एक भी आदमी जिस दिन मारा जायगा उसी दिन वह चीठी तमाम दुनिया में मशहूर हो जायगी, इस बात का बहुत ही उत्तम प्रबंध किया गया है।

इसके बाद कई दिन बीत गये मगर गिरिजाकुमार की फिर कोई चीठी न आई जिससे एक तरह पर तरद्दुद हुआ और जी में आया कि खुद जमानिया चलकर उसका पता लगाना चाहिए।

दूसरे दिन अपने घर की हिफाजत का इंतजाम करके मैं बाहर निकला और अर्जुनसिंह के घर पहुंचा। ये उस समय अपने बैठक में अकेले बैठे हुए एक चीठी लिख रहे थे, मुझे देखते ही उठ खड़े हुए और बोले, 'वाह-वाह, बहुत ही अच्छा हुआ जो आप आ गये, मैं इस समय आप ही के नाम एक चीठी लिख रहा था और उसे अपने शागिर्द के हाथ आपके पास भेजने वाला था। आइये बैठिये।'

मैं - (बैठकर) क्या कोई नई बात मालूम हुई है?

अर्जुन - नहीं बल्कि एक नई बात हो गई है।

मैं - वह क्या?

अर्जुन - आज रात को बिहारीसिंह हमारी कैद से निकलकर भाग गया है।

मैं - (घबराकर) यह तो बुरा हुआ।

अर्जुन - बेशक बुरा हुआ। जिस समय वह जमानिया पहुंचेगा उस समय बेचारे गिरिजाकुमार पर जो बिहारीसिंह बनकर बैठा हुआ है आफत आ जायगी और वह भारी मुसीबत में गिरफ्तार हो जायगा। मैं यही खबर देने के लिए आपके पास आदमी भेजने वाला था।

मैं - आखिर ऐसा हुआ ही क्यों हिफाजत में कुछ कसर पड़ गई थी?

अर्जुन - अब तो ऐसा ही समझना पड़ेगा चाहे उसकी कैसी ही हिफाजत क्यों न की गई हो, मगर असल में यह मेरे एक सिपाही की बेईमानी का नतीजा है क्योंकि बिहारीसिंह के साथ ही वह भी यहां से गायब हो गया है। जरूर बिहारीसिंह ने उसे लालच देकर अपना पक्षपाती बना लिया होगा।

मैं - खैर जो कुछ होना था वह तो हो गया। अब किसी तरह गिरिजाकुमार को बचाना चाहिए क्योंकि असली बिहारीसिंह के जमानिया पहुंचते ही नकली बिहारीसिंह (गिरिजाकुमार) का भेद खुल जायगा और वह मजबूर करके कैदखाने में झोंक दिया जायगा।

अर्जुन - मैं खुद यही बात कह चुका हूं। खैर अब इस विषय में विशेष सोच-विचार न करके जहां तक जल्द हो सके जमानिया पहुंचना चाहिए।

मैं - मैं तो तैयार ही हूं क्योंकि अभी कमर भी नहीं खोली।

अर्जुन - खैर आप कमर खोलिये और कुछ भोजन कीजिये, मैं भी आपके साथ चलने के लिए घंटे-भर के अंदर ही तैयार हो जाऊंगा।

मैं - क्या आप जमानिया चलेंगे?

अर्जुन - (आवाज में जोर देकर) जरूर!

घंटे भर के अंदर ही हम दोनों आदमी जमानिया जाने के लिए हर तरह से तैयार हो गये और ऐयारी का पूरा-पूरा सामान दुरुस्त कर लिया। दोनों आदमी असली सूरत में पैदल ही घर से बाहर निकले और कई कोस निकल जाने के बाद जंगल में बैठकर अपनी सूरत बदली, इसके बाद कुछ देर आराम करके फिर आगे की तरफ रवाना हुए और इरादा कर लिया कि आज की रात किसी जंगल में पेड़ के ऊपर बैठकर बिता देंगे।

आखिर ऐसा ही हुआ। संध्या होने पर हम दोनों दोस्त जंगल में एक रमणीक स्थान देखकर अटक गये जहां पानी का सुंदर चश्मा बह रहा था तथा सलई का एक बहुत बड़ा और घना पेड़ भी था जिस पर बैठने के लिए ऐसी अच्छी जगह थी कि उस पर बैठे-बैठे घंटे-दो घंटे नींद भी ले सकते थे।

यद्यपि हम लोग किसी सवारी पर बहुत जल्द जमानिया पहुंच सकते थे और वहां अपने लिए टिकने का भी इंतजाम कर सकते थे मगर उन दिनों जमानिया की ऐसी बुरी अवस्था थी कि ऐसा करने की हिम्मत न पड़ी और जंगल में टिके रहना ही उचित जान पड़ा। दोनों आदमी एक दिल थे इसलिए कुछ तरद्दुद या किसी तरह के खुटके का भी कुछ खयाल न था।

अंधकार छा जाने के साथ ही हम दोनों आदमी पेड़ के ऊपर जा बैठे और धीरे-धीरे बातें करने लगे, थोड़ी ही देर बाद कई आदमियों के आने की आहट मालूम हुई, हम दोनों चुप हो गये और इंतजार करने लगे कि देखें कौन आता है। थोड़ी ही देर में दो आदमी उस पेड़ के नीचे आ पहुंचे। रात हो जाने के सबब हम उनकी सूरत अच्छी तरह देख नहीं सकते थे, घने पेड़ों में से छनी हुई कुछ-कुछ और कहीं-कहीं चंद्रमा की रोशनी जमीन पर पड़ रही थी, उसी से अंदाजा कर लिया कि ये दोनों सिपाही हैं, मगर ताज्जुब होता था कि ये लोग रास्ता छोड़, भेदियों और ऐयारों की तरह जंगल में क्यों टिके हैं!

दोनों आदमी अपनी छोटी गठरी जमीन पर रखकर पेड़ के नीचे बैठ गये और इस तरह बातें करने लगे -

एक - भाई हमें तो इस जंगल में रात काटना कठिन मालूम होता है।

दूसरा - सो क्यों?

पहला - डर मालूम होता है कि किसी जानवर का शिकार न बन जायं।

दूसरा - बात तो ऐसी ही है। मुझे भी यहां टिकना बुरा मालूम होता है। मगर क्या किया जाय, बाबाजी का हुक्म ही ऐसा है।

पहला - बाबाजी तो अपने काम के आगे दूसरे की जान का कुछ भी खयाल नहीं करते। जब से हमारे राजा साहब का देहांत हुआ है तब से इनका दिमाग और भी बढ़ गया है।

दूसरा - इनकी हुकूमत के आगे तो हमारा जी ऊब गया, नौकरी करने की इच्छा नहीं होती।

पहला - मगर इस्तीफा देते भी डर मालूम होता है, झट यही कह बैठेंगे कि 'तू हमारे दुश्मनों से मिल गया है।' अगर इस तरह की बात उनके दिल में बैठ गयी तो जान बचानी भी मुश्किल होगी।

दूसरा - इनकी नौकरी में यही तो मुश्किल है, रुपया खूब मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं, मगर जान का डर हरदम बना रहता है। कम्बख्त मनोरमा की हुकूमत के मारे तो और भी नाक में दम रहता है। जब से राजा साहब मरे हैं इसने महल में डेरा ही जमा लिया है, पहले डर के मारे दिखाई भी नहीं देती थी। एक बाजारू औरत का इस तरह रियासत में घुसे रहना कोई अच्छी बात है?

पहला - अजी जब हमारी रानी साहिबा ही ऐसी हैं तो दूसरे को क्या कहें मनोरमा तो बाबाजी की जान ही ठहरी।

दूसरा - (बीच में) यह बेगम कम्बख्त नई निकल पड़ी है, जहां घड़ी-घड़ी दौड़ के जाना पड़ता है!

पहला - (हंसकर) जानते नहीं हो यह जैपालसिंह की नानी (रंडी) है। पहले भूतनाथ के पास रही अब इनके गले पड़ी है। इसे भी तुम आफत की पुड़िया ही समझो। चार दफे मैं उनके पास जा चुका हूं, आज पांचवीं दफे जा रहा हूं, इस बीच में मैं उसे अच्छी तरह पहचान गया।

दूसरा - मैं समझता हूं कि बिहारीसिंह से और उससे भी कुछ संबंध है।

पहला - नहीं ऐसा तो नहीं है, अगर बिहारीसिंह से बेगम का कुछ लगाव होता तो जैपालसिंह और बिहारीसिंह से जरूर खटक जाती, तिसमें इधर तो बिहारीसिंह बहुत दिनों तक अर्जुनसिंह के यहां कैदी ही रहे, आज किसी तरह छूटकर अपने घर पहुंचे हैं, अब देखो गिरिजाकुमार पर क्या मुसीबत आती है!

दूसरा - गिरिजाकुमार कौन है?

पहला - वही जो बिहारीसिंह बना हुआ था।

दूसरा - वह तो अपना नाम शिवशंकर बताता है।

पहला - बताता है मगर मैं तो उसे खूब पहचानता हूं।

दूसरा - तो तुमने बाबाजी से कहा क्यों नहीं?

पहला - मुझे क्या गरज पड़ी है जो उसके लिए दलीपशाह से दुश्मनी पैदा करूं वह दलीपशाह का बहुत प्यारा शागिर्द है, खबरदार, तुम भी इस बात का जिक्र किसी से न करना, मैंने तुम्हें अपना दोस्त समझकर कह दिया।

दूसरा - नहीं जी मैं क्यों किसी को कहने लगा (चौंककर ) देखो यह किसी भयानक जानवर के बोलने की आवाज है।

पहला - तो डर के मारे तुम्हारा दम क्यों निकला जाता है ऐसा ही है तो थोड़ी-सी लकड़ी बटोरकर आग सुलगा लो या पेड़ के ऊपर चढ़कर बैठो।

दूसरा - इससे तो यह बेहतर होगा कि यहां से चले चलें, सफर ही में रात काट देंगे, बाबाजी कुछ देखने थोड़े ही आते हैं।

पहला - जैसा कहो।

दूसरा - हमारी तो यही राय है।

पहला - अच्छा चलो, जिसमें तुम खुश रहो वही ठीक है।

उन दोनों की बात सुनकर हम लोगों को बहुत-सी बातों का पता लग गया। गिरिजाकुमार की बात सुनकर मुझे बड़ा ही दुःख हुआ, साथ ही इस बात के जानने की उत्कंठा भी हुई कि वे दोनों बेगम के यहां क्यों जा रहे हैं। दिल दो तरफ के खिंचाव में पड़ गया, एक तो इच्छा हुई कि दोनों को कब्जे में करके मालूम कर लें कि बेगम के पास किस मजमून की चीठी ले जा रहे हैं और अगर उचित मालूम हो तो इनकी सूरत बनाकर खुद बेगम के पास चलें, संभव है कि बहुत-से भेदों का पता लग जाय, दूसरे इस बात की भी जल्दी पड़ गई कि किसी तरह शीघ्र जमानिया पहुंचकर गिरिजाकुमार की मदद करनी चाहिए। जब यह मालूम हुआ कि अब वे दोनों यहां से जाना चाहते हैं तब हम लोग भी झट पेड़ के नीचे उतर आए और उन दोनों के सामने खड़े होकर मैंने कहा, 'नहीं जानवरों के डर से मत भागो, हम लोग तुम्हारे साथ हैं।'

हम दोनों को यकायक इस तरह पेड़ से उतरकर सामने खड़े होते देख वे दोनों डर गये मगर कुछ देर बाद एक ने जी कड़ा करके कहा, 'भाई तुम लोग कौन हो भूत हो, प्रेत हो, या जिन्न हो?

मैं - डरो मत, हम लोग भूत-प्रेत नहीं हैं, आदमी हैं और ऐयार हैं, तुम लोगों में जो कुछ बातें हुई हैं हम लोग पेड़ पर बैठे-बैठे सुन रहे थे, जब देखा कि अब तुम लोग जाना चाहते हो तो हम दोनों भी उतर आये।

एक सिपाही - (घबड़ानी आवाज से) आप कहां के रहने वाले और कौन हैं?

मैं - हम दोनों आदमी दलीपशाह के नौकर हैं।

दूसरा - अगर आप दलीपशाह के नौकर हैं तो हम लोगों को विशेष न डरना चाहिये क्योंकि आप लोग न तो हमारे मालिकों से मिलेंगे और न इस बात का जिक्र करेंगे कि हम लोग क्या बातें करते थे, हां अगर कोई हमारा दरबार का आदमी होता तो जरूर हम लोग बर्बाद हो जाते।

मैं - बेशक ऐसा ही है और तुम लोगों की बातों से यह जानकर हम दोनों बहुत प्रसन्न हुए कि तुम लोग ईमानदार और इंसाफपसंद आदमी हो और हमें यह भी उम्मीद है कि जो कुछ हम पूछेंगे उसका ठीक-ठीक जवाब देंगे।

दूसरा - हमारी बातों से आप जान ही चुके हैं कि हम लोग कैसे खूंखार आदमी के नौकर हैं और आप लोगों से बातें करने का कैसा बुरा नतीजा निकल सकता है।

मैं - ठीक है मगर तुम्हारे दारोगा साहब को इन बातों की खबर कुछ भी न लगेगी।

पहला - इस समय हम आपके काबू में हैं क्योंकि सिपाही होने पर भी ऐयारों का मुकाबला नहीं कर सकते तिस पर ऐसी अवस्था में कि दोनों तरफ की गिनती बराबर हो इसलिये इस समय आप जो कुछ चाहें हम लोगों पर जबर्दस्ती कर सकते हैं।

मैं - नहीं-नहीं, हम लोग तुम पर जबर्दस्ती नहीं किया चाहते बल्कि तुम्हारी खुशी और हिफाजत का खयाल रखकर अपना काम निकाला चाहते हैं।

पहला - इसके अतिरिक्त हम लोगों को इस बात का भी निश्चय हो जाना चाहिए कि आप लोग वास्तव में दलीपशाह के ऐयार हैं और हम लोगों की हिफाजत के लिये आपने कोई अच्छी तरकीब सोच ली है अगर हम लोग आपकी किसी बात का जवाब दें।

सिपाही की आखिरी बात से हमें निश्चय हो गया कि वे लोग हमारे कब्जे में आ जायेंगे और हमारी बात मान लेंगे और अगर ऐसा न करते तो वे लोग कर ही क्या सकते थे आखिर हर तरह का ऊंच-नीच दिखाकर हमने उन्हें राजी कर लिया और अपना सच्चा परिचय देकर उन्हें विश्वास करा दिया कि जो कुछ हमने कहा है सब सच है। इसके बाद हमने जो कुछ पूछा उन्होंने साफ-साफ बता दिया और जो कुछ देखना चाहा (बेगम के नाम के पत्र इत्यादि) दिखा दिया। गिरिजाकुमार के बारे में तो जो कुछ पहले मालूम कर चुके थे उससे ज्यादा कुछ मालूम न हुआ क्योंकि उसके विषय में उन्हें कुछ विशेष खबर ही न थी, केवल इतना ही जानते थे असली बिहारीसिंह के पहुंचने पर नकली बिहारीसिंह (गिरिजाकुमार) गिरफ्तार कर लिया गया, हां दूसरी बात यह मालूम हो गई कि वे दोनों आदमी दारोगा और जैपाल की चीठी लेकर बेगम के पास जा रहे हैं, कल संध्या समय तक बेगम के पास पहुंच जायेंगे और परसों संध्या को बेगम को साथ लिए हुए किश्ती की सवारी से गंगाजी की तरफ से रातोंरात जमानिया लौटेंगे। अस्तु हम लोगों ने उन दोनों सिपाहियों को जिस तरह बन पड़ा इस बात पर राजी कर लिया कि जब तुम लोग बेगम को लिए हुए रातोंरात गंगाजी की राह लौटो तो अमुक समय अमुक स्थान पर कुछ देरी के लिए किसी बहाने किश्ती किनारे लगा के रोक लेना, उस समय हम लोग डाकुओं की तरह पहुंचकर बेगम को गिरफ्तार कर लेंगे और जो कुछ चीजें हमारे मतलब की उसके पास होंगी उन्हें ले लेंगे मगर तुम लोगों को छोड़ देंगे, इस तरह हमारा काम भी निकल जायगा और तुम लोगों पर कोई किसी तरह का शक भी न कर सकेगा।

रुपये पाने के साथ ही अपना किसी तरह का हर्ज न देखकर दोनों सिपाहियों ने इस बात को भी मंजूर कर लिया। इसके बाद हम लोगों में मेल-मुहब्बत की बातचीत होने लगी और तमाम रात हम लोगों ने उस पेड़ पर काट दी। सबेरा होने पर दोनों सिपाही हमसे बिदा होकर चले गये तब हम लोग आपस में विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिए। अंत में यह निश्चय करके कि अर्जुनसिंह तो गिरिजाकुमार को छुड़ाने के लिए जमानिया जायं और मैं बेगम को फंसाने का बंदोबस्त करूं, हम दोनों भी एक-दूसरे से बिदा हुए।

इस जगह मैं किस्से के तौर पर थोड़ा-सा हाल गिरिजाकुमार का बयान करूंगा जो कुछ दिन बाद मुझे उसी की जुबानी मालूम हुआ था।

अर्जुनसिंह की कैद से छुटकारा पाकर बिहारीसिंह सीधे जमानिया दारोगा के पास चला मगर ऐसे ढंग से गया कि किसी को कुछ मालूम न हुआ और न गिरिजाकुमार ही को इस बात का पता लगा। रात पहर भर से कुछ ज्यादा जा चुकी थी जब दारोगा ने नकली बिहारीसिंह अर्थात् गिरिजाकुमार को अपने घर बुलाया। बेचारे गिरिजाकुमार को क्या खबर थी आज मैं मुसीबत में डाला जाऊंगा। वह बेधड़क मामूली ढंग पर बाबाजी (दारोगा) के मकान पर चला गया और देखा कि दारोगा अकेले ऊंची गद्दी पर बैठा हुआ है और उसके सामने सात-आठ सिपाही तलवार लगाये खड़े हैं। दारोगा का इशारा पाकर गिरिजाकुमार उसके सामने बैठ गया। बैठने के साथ ही उन सब सिपाहियों ने एक साथ गिरिजाकुमार को धर दबाया और बात की बात में हाथ-पैर बांध के छोड़ दिया। बेचारा गिरिजाकुमार अकेला कुछ भी न कर सका और जो कुछ हुआ उसने चुपचाप बर्दाश्त कर लिया। इसके बाद दारोगा ने ताली बजाई, उसी समय असली बिहारीसिंह कोठरी में से निकलकर बाहर चला आया और गिरिजाकुमार की तरफ देख के बोला, 'अब तो तुम समझ गये होगे कि तुम्हारा भंडा फूट गया और मैं तुम्हारे कैद से छूटकर निकल आया। मगर शाबाश, तुमने बड़ी खूबी के साथ मुझे धोखा देकर गिरफ्तार किया था। अब मेरी पारी है, देखो मैं किस तरह तुमसे बदला लेता हूं।'

गिरिजा - यह तो ऐयारों का काम ही है कि एक दूसरे को धोखा दिया करता है, इसमें अनर्थ क्या हो गया मेरा दांव लगा? मैंने तुम्हें गिरफ्तार करके कैदखाने में डाल दिया, अब तुम्हारा दांव लगा है तो तुम मुझे कैदखाने में डाल दो, जिस तरह तुम अपनी चालाकी से छूट आये हो उसी तरह छूटने के लिए मैं भी उद्योग करूंगा।

बिहारी - सो तो ठीक है, मगर इतना समझ रखो कि हम लोग तुम्हारे साथ मामूली बर्ताव न करेंगे बल्कि हद दर्जे की तकलीफ देंगे।

गिरिजा - यह तो ऐयारों के कायदे के बाहर है।

बिहारी - जो भी हो।

गिरिजा - खैर कोई हर्ज नहीं, जो कुछ होगा झेलेंगे।

बिहारी - अगर तुम तकलीफ से बचना चाहो तो मेरी बातों का साफ और सच-सच जवाब दो।

गिरिजा - वादा तो नहीं करते मगर जो कुछ पूछना हो पूछो।

बिहारी - तुम्हारा नाम क्या है?

गिरिजा - शिवशंकर।

बिहारी - किसके नौकर हो?

गिरिजा - किसी के भी नहीं।

बिहारी - फिर यहां आये थे किसके काम के लिये?

गिरिजा - गुरुजी के।

बिहारी - तुम्हारा गुरु कौन है

गिरिजा - वही जिसे तुम जान चुके हो और जिसके यहां इतने दिनों तक तुम कैद थे।

बिहारी - अर्जुनसिंह?

गिरिजा - हां।

बिहारी - उन्हें हम लोगों से क्या दुश्मनी थी?

गिरिजा - कुछ भी नहीं।

बिहारी - फिर यहां उत्पात मचाने के लिए तुम्हें भेजा क्यों?

गिरिजा - मुझे सिर्फ भूतनाथ का पता लगाने के लिए भेजा था क्योंकि उन्हें भूतनाथ से बहुत ही रंज है। यद्यपि भूतनाथ ने अपना मरना मशहूर किया है मगर उन्हें विश्वास है कि वह मरा नहीं और दारोगा साहब के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा है और उनकी (अर्जुनसिंह की) बर्बादी का बंदोबस्त करता है। इसी से उन्होंने मुझे आज्ञा दी थी कि दारोगा साहब के यहां घुसपैठ कर और कुछ दिन तक उन लोगों के साथ रहकर ठीक-ठीक पता लगाओ और बन पड़े तो उसे गिरफ्तार भी कर लो, बस।

बिहारी - भूतनाथ और अर्जुनसिंह से लड़ाई क्यों हो गई?

गिरिजा - लड़ाई तो बहुत पुरानी है मगर इधर जब से गुरुजी ने उसका ऐयारी का बटुआ ले लिया तब से रंज ज्यादे हो गया है।

बिहारी - (ताज्जुब से) क्या भूतनाथ का बटुआ अर्जुनसिंह ने ले लिया?

गिरिजा - हां।

बिहारी - उसमें से क्या चीज निकली?

गिरिजा - सो तो नहीं मालूम मगर इतना गुरुजी कहते थे कि उस बटुए से हमारा काम नहीं चला इसलिए उसे गिरफ्तार ही करना पड़ेगा।

बिहारी - मगर भूतनाथ के खयाल से तुम्हारे गुरुजी ने हमें क्यों तकलीफ दी?

गिरिजा - तुम्हें उन्होंने किसी तरह की तकलीफ नहीं दी बल्कि बड़े आराम के साथ कैद में रखा था, क्योंकि तुम लोगों से उन्हें किसी तरह की दुश्मनी नहीं है। उनका खयाल यही था कि बिहारीसिंह को तीन-चार दिन से ज्यादे कैद में रखने की जरूरत न पड़ेगी और इसके बीच ही में भूतनाथ का पता लग जायगा। उन्हें इस बात की भी खबर लगी थी कि भूतनाथ जमानिया में बिहारीसिंह के पास आया करता है, मगर यहां आने से मुझे उसका कुछ भी पता न लगा, अस्तु मैं एक-दो दिन में खुद ही लौट जाने वाला था, तुम अपनी बुद्धिमानी से अगर न भी छूटते तो एक-दो दिन में जरूर छोड़ दिये जाते।

गिरिजाकुमार ने ऐसे ढंग से सूरत बनाकर बातें कीं कि दारोगा और बिहारीसिंह को उसकी सच्चाई पर विश्वास हो गया। मैं पहले ही बयान कर चुका हूं कि गिरिजाकुमार बातचीत के समय सूरत बनाना बहुत ही अच्छा जानता था। अस्तु गिरिजाकुमार और बिहारीसिंह की बातें सुन दारोगा ने कहा - 'शिवशंकर, मालूम तो होता है कि तुम जो कुछ कहते हो वह सच ही है परंतु ऐयारों की बातों पर विश्वास करना जरा मुश्किल है, फिर भी तुम अच्छे और साफ दिल के मालूम होते हो।'

गिरिजा - जो आप चाहे खयाल करें मगर मैं तो यही समझता हूं कि आप लोगों से मुझे झूठ बोलने की जरूरत ही क्या है न मेरे गुरुजी को आप लोगों से दुश्मनी है न मुझी को, हां अगर यह मालूम हो जायगा कि हमारे मुकाबिले में आप लोग भूतनाथ की सहायता करते हैं तो बेशक दुश्मनी हो जायगी, यह मैं खुले दिल से कहे देता हूं चाहे आप मुझे बेवकूफ समझें चाहे नालायक।

दारोगा - नहीं-नहीं, शिवशंकर, हम लोग भूतनाथ की मदद किसी तरह नहीं कर सकते, हम तो उसे खुद ही ढूंढ़ रहे हैं मगर उस कम्बख्त का कहीं पता ही नहीं लगता, ताज्जुब नहीं कि वास्तव में मर ही गया हो।

गिरिजा - (सिर हिलाकर) कदापि नहीं, अभी महीने भर से ज्यादे न हुआ होगा कि मैंने खुद अपनी आंखों से उसे देखा था मगर उस समय मैं ऐसी अण्डस में था कि कुछ न कर सका। खैर कम्बख्त जाता कहां है, मुझे उसके दो-चार ठिकाने ऐसे मालूम हैं कि जिसके सबब से एक-न-एक दिन उसे जरूर गिरफ्तार कर लूंगा।

दारोगा - (ताज्जुब और खुशी से) क्या तुमने उसे खुद अपनी आंखों से देखा था और उसके दो-चार ठिकाने तुम्हें मालूम हैं?

गिरिजा - बेशक।

दारोगा - क्या उन ठिकानों का पता मुझे बता सकते हो?

गिरिजा - नहीं।

दारोगा - सो क्यों?

गिरिजा - गुरुजी ने मुझे जो कुछ ऐयारी सिखाना था सिखा चुके। मैं गुरुजी से वादा कर चुका हूं कि अब आपकी इच्छानुसार गुरुदक्षिणा में भूतनाथ को गिरफ्तार करके आपके हवाले करूंगा और जब तक ऐसा न करूंगा अपने घर कदापि न जाऊंगा। ऐसी अवस्था में अगर मैं भूतनाथ का कुछ पता आपको बता दूं तो मानो अपने पैर में आप ही कुल्हाड़ी मारूं क्योंकि आप अमीर और शक्ति संपन्न हैं, बनिस्बत मुझ गरीब के आप उसे बहुत जल्द गिरफ्तार कर सकते हैं, अस्तु अगर ऐसा हुआ और वह आपके हाथ में पड़ गया तो मैं सूखा ही रह जाऊंगा और गुरुदक्षिणा न दे सकने के कारण अपने घर भी न जा सकूंगा।

दारोगा - (हंसकर) मगर शिवशंकर, तुम बड़े ही सीधे आदमी हो और बहुत ही साफ-साफ कह देते हो, ऐयारों को ऐसा नहीं करना चाहिए।

गिरिजा - नहीं साहब, आपसे साफ-साफ कह देने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि आप हमारे दुश्मन नहीं हैं, दूसरे यह कि अभी तक मुझे ऐयार की पदवी नहीं मिली, जब गुरुदक्षिणा देकर ऐयार की पदवी पा जाऊंगा तो ऐयारों की-सी चाल चलूंगा, अभी तो मैं एक गरीब छोकरा हूं।

दारोगा - नहीं, तुम बहुत अच्छे आदमी हो। हम तुमसे खुश हैं। (बिहारीसिंह की तरफ देख के) इस बेचारे के हाथ-पैर खोल दो! (गिरिजाकुमार से) मगर तुम भूतनाथ का जो कुछ पता-ठिकाना जानते हो हमें बता दो, हम तुमसे वादा करते हैं कि भूतनाथ को गिरफ्तार करके अपना काम भी निकाल लेंगे और तुम्हारे सिर से गुरुदक्षिणा का बोझ भी उतरवा देंगे।

गिरिजा - (मुंह बिचकाकर और सिर हिलाकर) जी नहीं, हां अगर इसके साथ आप और भी दो-तीन बातों का वादा करें तो मैं बेशक आपकी मदद कर सकता हूं।

बिहारी - (गिरिजाकुमार के हाथ-पैर खोलकर) तुम जो कुछ चाहोगे बाबाजी देंगे मगर इनकी बातों से इंकार न करो।

गिरिजा - (अच्छी तरह बैठकर) ठीक है मगर मैं विशेष धन-दौलत नहीं चाहता और न मुझे इसकी जरूरत ही है क्योंकि ईश्वर ने मुझे बिल्कुल ही अकेला कर दिया है, न बाप, न मां, न भाई, न भौजाई, ऐसी अवस्था में मैं धन-दौलत लेकर क्या करूंगा, मगर दो-तीन बातों का इकरार लिए बिना मैं दारोगा साहब को कुछ भी न बताऊंगा चाहे मार ही डाला जाऊं!

दारोगा - (मुस्कराकर) अच्छा-अच्छा, बताओ तुम क्या चाहते हो

गिरिजा - एक तो यह कि उसकी खोज में मैं अगुआ रखा जाऊं।

दारोगा - मंजूर है। अच्छा और बताओ।

गिरिजा - बिहारीसिंह मेरी मदद के लिए दिये जायं क्योंकि मैं इन्हें पसंद करता हूं।

दारोगा - यह भी कबूल है, और बोलो!

गिरिजा - जहां तक जल्द हो सके मैं गुरुदक्षिणा के बोझ से हलका किया जाऊं क्योंकि इसके लिए मैं जोश में आकर बहुत बुरी कसम खा चुका हूं, यद्यपि गुरुजी मना करते थे कि तुम कसम न खाओ तुम्हारे जैसे जिद्दी आदमी का कसम खाना अच्छा नहीं है!

दारोगा - बेशक ऐसा ही किया जायगा, तुम जो चाहते हो, वही होगा। और कहो।

गिरिजा - गुरुदक्षिणा से छुट्टी पाकर मैं ऐयार की पदवी पा जाऊं तो मुझे यहां किसी तरह की नौकरी मिल जाय जिससे मेरा गुजारा चले, और मेरी शादी करा दी जाय। यह मैं इसलिए कहता हूं कि मुझे शादी करने का शौक है और मैं अपनी बिरादरी में ऐसा गरीब हूं कि कोई मुझे लड़की देना कबूत न करेगा।

दारोगा - यह सब-कुछ हो जायगा, तुम कुछ चिंता न करो। और फिर तुम गरीब भी न रहोगे। अच्छा बताओ और भी कुछ चाहते हो?

गिरिजा - एक बात और है।

दारोगा - वह भी कह डालो।

गिरिजा - (बिहारीसिंह की तरफ इशारा करके) ये हमारे गुरुजी से किसी तरह की दुश्मनी न रखें और मेरे साथ वहां चलने में कोई परहेज न करें, देखिये मैं अपने दिल का हाल बहुत साफ कह रहा हूं।

बिहारी - ठीक है, ठीक है, जो कुछ तुम कहते हो मंजूर है।

गिरिजा - (दारोगा की तरफ देखकर) तो बस मैं भी आपका हुक्म बजा लाने के लिए दिलोजान से तैयार हूं।

दारोगा - अच्छा तो अब उसके दो-तीन ठिकाने जो तुम्हें मालूम हैं उनका पता बताओ।

गिरिजा - पता क्या, अब तो मैं खुद इनको (बिहारीसिंह को) अपने साथ ले चलकर सब-कुछ दिखाऊंगा और पता लगाऊंगा। मैं उस कम्बख्त को बिना ढूंढ़े छोड़ने वाला नहीं। मुझे आप चाणक्य की तरह जिद्दी समझिये।

दारोगा - अच्छा यह तो बताओ तुमने भूतनाथ को कहां देखा था जिसका जिक्र अभी तुमने किया है?

गिरिजा - बेगम के मकान से बाहर निकलते हुए।

बिहारी - (ताज्जुब से) कौन बेगम?

गिरिजा - वही जिसे जैपालसिंह अपनी समझते हैं। ताज्जुब क्या करते हैं, उसे आप साधारण औरत मत समझिये, मैं साबित कर दूंगा कि उसका मकान भी भूतनाथ का एक अड्डा है मगर वहां इत्तिफाक ही से वह कभी जाता है, हां बेगम उससे मिलने के लिए कभी-कभी कहीं जाती है परंतु उसका ठीक हाल मुझे अभी मालूम नहीं हुआ। मैं तो अब तक उसका भी पता लगा लिए होता मगर क्या कहूं गुरुजी ने कहा कि तुम जमानिया ही जाओ वहां भूतनाथ जल्दी मिल जायगा, नहीं तो मैं बेगम का ही पीछा करने वाला था।

दारोगा - मुझे तुम्हारी इन बातों पर ताज्जुब मालूम पड़ता है!

गिरिजा - अभी क्या आगे चलकर और भी ताज्जुब होगा जब खुद बिहारीसिंह वहां की कैफियत आपसे बयान करेंगे।

दारोगा - खैर अगर तुम्हारी राय हो तो मैं बेगम को यहां बुलाऊं?

गिरिजा - बुलवाइए मगर मेरी समझ में उसे होशियार कर देना मुनासिब न होगा, बल्कि मैं तो कहता हूं कि इसका जिक्र अभी आप जैपाल से भी न कीजिये, कुछ सबूत इकट्ठा कर लेने दीजिए।

दारोगा - खैर जैसा तुम चाहते हो वैसा ही होगा, बेगम को यहां बुलवाकर भूतनाथ का जिक्र न करूंगा बल्कि उसकी तबीयत और नीयत का अंदाजा करूंगा।

गिरिजा - हां तो बुलावाइये!

दारोगा - तब तक तुम क्या करोगे

गिरिजा - कुछ भी नहीं, अभी तो दो-तीन दिन तक मैं यहां से न जाऊंगा, बल्कि मैं चाहता हूं कि दो रोज मुझे आप इन्हीं (बिहारीसिंह) की सूरत में रहने दीजिए और बिहारीसिंह को कहिए कि अपनी सूरत बदल लें। जब बेगम आकर यहां से चली जाएगी तब हम दोनों आदमी भूतनाथ की खोज में जाएंगे।

दारोगा - इसमें क्या फायदा है असली सूरत में अगर तुम यहां रहो तो क्या कोई हर्ज है?

गिरिजा - हां जरूर हर्ज है, यहां मैं कई ऐसे आदमियों से मिलजुल रहा हूं जिनसे भूतनाथ की बहुत-सी बातें मालूम होने की आशा है। उन्हें अगर मेरा असल भेद मालूम हो जायगा तो बेशक हर्ज होगा। इसके अतिरिक्त जब बेगम यहां आ जाय तो मैं बिहारीसिंह बना हुआ आपके सामने ऐसे ढंग पर बातें करूंगा कि ताज्जुब नहीं आपको भी इस बात का पता लग जाय कि भूतनाथ से और उससे कुछ संबंध है।

दारोगा - अगर ऐसी बात है तो तुम्हारा बिहारीसिंह ही बने रहना ठीक है।

गिरिजा - इसी से तो मैं कहता हूं।

दारोगा - खैर ऐसा ही होगा और मैं आज ही बेगम को लाने के लिए आदमी भेजता हूं। (बिहारीसिंह की तरफ देखकर) तुम अपनी सूरत बदलने का बंदोबस्त करो!

बिहारी - बहुत अच्छा।

यहां तक बयान करके दलीपशाह चुप हो गया और कुछ दम लेकर फिर इस तरह बयान करने लगा -

''इस समय मेरी बातें सुन-सुनकर दारोगा और जैपाल वगैरह के कलेजे पर सांप लोट रहा होगा और उस समय की बातें याद करके ये बेचैन हो रहे होंगे क्योंकि वास्तव में गिरिजाकुमार ने उन्हें ऐसा उल्लू बनाया कि उस बात को ये कभी भूल नहीं सकते। खैर, उस समय जब हम दोनों आदमी जंगल में दारोगा के सिपाहियों से जुदा हुए, हमें गिरजाकुमार के मामले की कुछ खबर न थी। अगर खबर होती तो बेगम को न लूटते और न अर्जुनसिंह ही गिरिजाकुमार की खोज में जमानिया जाते। खैर फिर भी जो कुछ हुआ अच्छा ही हुआ और अब मैं आगे का हाल बयान करता हूं।''

 

बयान - 2

दलीपशाह ने फिर इस तरह अपना किस्सा कहना शुरू किया -

''गिरिजाकुमार ने अपनी बातचीत में दारोगा और बिहारीसिंह को ऐसा उल्लू बनाया कि उन दोनों को गिरिजाकुमार पर पूरा-पूरा भरोसा हो गया और वह खुशी के साथ जमानिया में रहकर बेगम का इंतजार करने लगा बल्कि दारोगा के साथ जाकर उसने खास बाग का रास्ता और मायारानी को भी देख लिया। इधर अर्जुनसिंह गिरिजाकुमार की खोज में जमानिया गए और मैं बेगम को गिरफ्तार करने के फिक्र में पड़ा।

पहले तो मैं अपने घर गया और वहां से कई आदमियों का इंतजाम करके लौटा। ठीक समय पर गंगा के किनारे उस ठिकाने पहुंच गया जहां बेगम की किश्ती किनारे लगाकर लूट लेने की बातचीत कही-बदी थी।

मैं इस घटना का हाल बहुत बढ़ाकर न कहूंगा कि बेगम की किश्ती क्योंकर आई और क्या-क्या हुआ तथा मैंने किसको किस तरह गिरफ्तार किया - संक्षेप में केवल इतना ही कहूंगा कि बेगम पर मैंने कब्जा कर लिया और जो चीजें उसके पास थीं सब ले ली गईं। उन्हीं चीजों में ये सब कागज और वह हीरे की अंगूठी भी थी जो भूतनाथ बेगम के यहां से ले आया है और जो इस समय दरबार में मौजूद है। आगे चलकर मैं इन चीजों का हाल बयान करूंगा और यह भी कहूंगा कि ये सब चीजें मेरे कब्जे में आकर फिर क्योंकर निकल गईं। इस समय मैं पुनः गिरिजाकुमार का हाल बयान करूंगा जो उसी की जुबानी मुझे मालूम हुआ था।

गिरिजाकुमार जमानिया में बैठा हुआ दारोगा के साथ बेगम का इंतजार कर रहा था। जब बेगम को लुटवाकर दोनों सिपाही जिनके साथ बेगम के भी दो आदमी थे और जिन्हें मैंने जान-बूझकर छोड़ दिया था, रोते-कलपते जमानिया पहुंचे तो सीधे दारोगा के पास चले गये। उस समय वहां सूरत बदले हुए असली बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार भी बिहारीसिंह बना हुआ बैठा था। दारोगा के सिपाहियों और बेगम के आदमियों ने अपनी बरबादी और बेगम के लुट जाने का हाल बयान किया जिसे सुनते ही दारोगा को ताज्जुब और रंज हुआ। उसने गिरिजाकुमार की तरफ देखकर कहा, 'यह कार्रवाई किसने की होगी?'

गिरिजा - खुद बेगम ने या फिर भूतनाथ ने! (बेगम के आदमियों की तरफ देख के) क्यों जी! मैं समझता हूं कि शायद महीने-भर के लगभग हुआ होगा जब एक दिन भूतनाथ मेरे साथ बेगम के यहां गया था। उस समय तुम भी वहां थे, क्या तुमने मुझे पहचाना था?

बेगम का आदमी - जी नहीं, मैंने आपको नहीं पहचाना था।

गिरिजा - (दारोगा की तरफ देख के) आप ही के कहे मुताबिक मैं दो-तीन दफे भूतनाथ के साथ बेगम के यहां गया था, पर वास्तव में भूतनाथ अच्छा आदमी है और ये लोग भी बड़ी मुस्तैदी के साथ वहां रहते हैं। (बेगम के आदमियों की तरफ देख के) क्यों जी, है न यही बात?

बेगम का आदमी - (हाथ जोड़ के) जी हां सरकार!

बेगम के आदमियों के जुबान से गिरिजाकुमार ने बड़ी खूबी के साथ 'जी हां सरकार' कहलवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि भूतनाथ बेगम के यहां जाया करता था और गिरिजाकुमार को यह हाल मालूम था मगर ऐसे मौके पर उसके आदमियों की जुबान से 'हां' कहला लेना मामूली बात न थी। उन खुशामदी आदमियों ने यह सोचकर कि जब खुद बिहारीसिंह भूतनाथ के साथ अपना जाना कबूल करते हैं तो हां कहना ही अच्छा है - 'जी हां सरकार' कह दिया और गिरिजाकुमार दारोगा तथा बिहारीसिंह की निगाह में सच्चा बन बैठा। साथ ही इसके गिरिजाकुमार दारोगा से पहले ही कह चुका था कि बेगम आवेगी तो मैं बात-ही-बात में किसी तरह साबित करा दूंगा कि भूतनाथ उसके यहां आता-जाता है, वह बात भी दारोगा को खूब याद थी, अस्तु दारोगा को गिरिजाकुमार पर और भी विश्वास हो गया। उसने गिरिजाकुमार का इशारा पाकर बेगम के दोनों आदमियों को बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए बिदा किया और फिर आपस में इस तरह बातचीत करने लगा -

दारोगा - कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है!

गिरिजा - अजी यह उसी कम्बख्त भूतनाथ की बदमाशी और दोनों की मिलीजुली गठन है। बेगम जान-बूझकर यहां नहीं आई। अगर वह आती तो उसके आदमियों की तरह खास उसकी जुबान से भी मैं इस बात को साबित करा देता कि उससे और भूतनाथ से ताल्लुक है और इसीलिए मैं अभी तक बिहारीसिंह बना हुआ था, मगर खैर कोई चिंता नहीं। मैं बहुत जल्द इन सब भेदों का पूरा-पूरा पता लगा लूंगा और भूतनाथ को भी गिरफ्तार कर लूंगा!

दारोगा - तो अब देर क्यों करते हो?

गिरिजा - कुछ नहीं, कल मेरे साथ चलने के लिए बिहारीसिंह तैयार हो जायं।

बिहारी - अच्छी बात है, यह बताओ कि किस सूरत-शक्ल में सफर किया जायगा।

गिरिजा - मैं एक ज्योतिषी की सूरत बनूंगा और आप...।

बिहारी - मैं वैद्य बनूंगा।

गिरिजा - बस-बस, यही ठीक है, मगर एक बात मैं अभी से कहे देता हूं कि दो घंटे के लिए मैं गुरुजी से मिलने जरूर जाऊंगा।

बिहारी - क्या हर्ज है, अगर कहोगे तो मैं भी तुम्हारे साथ चला चलूंगा या कहीं अटक जाऊंगा।

मुख्तसर यह कि दूसरे दिन दोनों ऐयार ज्योतिषी और वैद्य बने हुए जमानिया के बाहर निकले।

मजा तो यह कि गिरिजाकुमार ने चालाकी से उस समय तक किसी को अपनी असली सूरत देखने नहीं दी। जब तक वहां रहा बिहारीसिंह ही बना रहा, जब बाहर निकला तो ज्योतिषी बनकर निकला। खैर दारोगा का तो कहना ही क्या है, खुद बिहारीसिंह और हरनामसिंह व्यर्थ ही ऐयार कहलाए, असल में कोई अच्छा काम इन दोनों के हाथ से होते देखा-सुना नहीं गया।

अब हम थोड़ा-सा हाल अर्जुनसिंह का बयान करते हैं, जो गिरिजाकुमार का पता लगाने के लिए हमसे जुदा होकर जमानिया गए थे। जमानिया में रामसरन नामी एक महाजन अर्जुनसिंह का दोस्त था, अस्तु ये सूरत बदले हुए सीधे उसी के मकान पर चले गए और मौका पाकर उससे मुलाकात करने के बाद सब हाल बयान किया और उससे मदद चाही। पहले तो वह दारोगा और मायारानी के खिलाफ कार्रवाई करने के नाम से बहुत डरा मगर अर्जुनसिंह ने उसे बहुत भरोसा दिलाया और कहा कि जो कुछ हम करेंगे, वह ऐसे ढंग से करेंगे कि तुम पर किसी को किसी तरह का शक न होगा, इसके अतिरिक्त हम तुमसे और किसी तरह की मदद नहीं चाहते केवल एक गुप्त कोठरी ऐसे ढंग की चाहते हैं जिसमें अगर हम किसी को गिरफ्तार करके लावें तो दो-चार दिन के लिए कैद कर रखें और यह काम भी ऐसी खूबी के साथ किया जायगा कि कैदी को इस बात का गुमान भी न होगा कि वह कहां और किसके मकान में कैद किया गया था।

खैर, रामसरन ने किसी तरह अर्जुनसिंह की बात मंजूर कर ली और तब अर्जुनसिंह उसके मकान से बाहर निकलकर हरनामसिंह को फांसने की फिक्र करने लगे, क्योंकि इन्होंने निश्चय कर लिया था कि बिना किसी को फंसाए हुए गिरिजाकुमार का पता लगाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है।

मुख्तसर यह कि दो दिन की कोशिश में अर्जुनसिंह ने भुलावा दे हरनामसिंह को गिरफ्तार कर लिया, उसे रामसरन के मकान की एक अंधेरी कोठरी में ले जाकर कैद किया तथा खाने-पीने का भी प्रबंध कर दिया। हरनामसिंह को यह मालूम न हुआ कि उसे किसने कैद किया है और वह किस स्थान पर रखा गया है, तथा उसे खाने-पीने को कौन देता है। इस काम से छुट्टी पाकर हरनामसिंह की सूरत बना अर्जुनसिंह दारोगा के दरबार में जा घुसे और इस तरकीब से बहुत जल्द गिरिजाकुमार को पहचान लिया और उसका पता लगा लिया। गिरिजाकुमार ने जिस चालाकी से अपने को बचा लिया था उसे जानकर उसकी बुद्धिमानी पर अर्जुनसिंह को आश्चर्य हुआ मगर भंडा फूटने के डर से अपने को बहुत ही बचाए हुए थे और दारोगा तथा असली बिहारीसिंह से सिरदर्द का बहाना करके बातचीत कम करते थे।

जब बिहारीसिंह को साथ लेकर गिरिजाकुमार शहर के बाहर निकला तो अर्जुनसिंह ने भी सूरत बदलकर उसका पीछा किया। जब दोनों मुसाफिर एक मंजिल रास्ता तै कर चुके तो दूसरे दिन सफर में एक जगह मौका पाकर और कुछ देर के लिए गिरिजाकुमार को अकेला देखकर अर्जुनसिंह उसके पास चले गए और उन्होंने अपने को उस पर प्रकट कर दिया। जल्दी-जल्दी बातचीत करके इन्होंने उसे यह बता दिया कि उसके जमानिया चले जाने के बाद क्या हुआ था अब उसे क्या और किस-किस ढंग पर कार्रवाई करनी चाहिए और हमसे-तुमसे कहां-कहां किस-किस मौके पर या कैसी सूरत में मुलाकात होगी।

अर्जुनसिंह ने गिरिजाकुमार को जो कुछ समझाया उसका हाल आगे चलकर मालूम होगा, इस जगह केवल इतना ही कहना काफी है कि गिरिजाकुमार को समझा कर अर्जुनसिंह फिर जमानिया चले गए और रात के समय हरनामसिंह को कैदखाने से निकाला, शहर के बाहर बहुत दूर मैदान में ले जाकर छोड़ दिया और अपना रास्ता पकड़ा, जिससे होश में आकर वह अपने घर चला जाय और उसे मालूम न हो कि उसके साथ किसने क्या सलूक किया, बल्कि यह बात उसे स्वप्न की तरह याद रहे।

इसके बाद अर्जुनसिंह बहुत जल्द मेरे पास पहुंचे और जो कुछ हो चुका था उसे बयान किया। गिरिजाकुमार का हाल सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने बेगम के साथ जो कुछ सलूक किया था उसका हाल अर्जुनसिंह से बयान किया तथा जो कुछ चीजें उसकी मेरी हाथ लगी थीं दिखाकर यह भी कहा कि बेगम अभी तक मेरे यहां कैद है अस्तु सोचना चाहिए कि अब उसके साथ क्या कार्रवाई की जाय?

उन दिनों असल में मुझे तीन बातों की फिक्र लगी थी। एक तो यह कि यद्यपि भूतनाथ से और मुझसे रंज चला आता था और भूतनाथ ने अपना मरना मशहूर कर दिया था, मगर भूतनाथ की स्त्री मेरे यहां आई हुई थी और उसकी अवस्था पर मुझे दुःख होता था इसलिए मैं चाहता था कि किसी तरह भूतनाथ से मुलाकात हो और मैं उसे समझा-बुझाकर ठीक रास्ते पर लाऊं, दूसरे यह कि राजा गोपालसिंह के मरने का असली सबब दरियाफ्त करूं और तीसरे बलभद्रसिंह तथा लक्ष्मीदेवी को दरोगा की कैद से छुड़ाऊं, जिनका कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम हो चुका था। बस इन्हीं कामों के लिए हम लोगों ने इतनी मेहनत अपने सिर उठाई थी, नहीं तो जमानिया के बारे में हम लोगों के लिए अब किसी तरह की दिलचस्पी नहीं रह गई थी।

बेगम की जो चीजें मेरे हाथ लगी थीं उनमें से कई कागज ओैर एक हीरे की अंगूठी ऐसी थी जिस पर ध्यान देने से हम लोगों को मालूम हो गया कि बेगम भी कोई साधारण औरत नहीं थी। उन कागजों में से कई चीठियां ऐसी थीं जो भूतनाथ के विषय में जैपाल ने बेगम को लिखी थीं और कई चीठियां ऐसी थीं जिनके पढ़ने से मालूम होता था कि मायारानी के बाप को इसी जैपाल ने मायारानी और दारोगा की इच्छानुसार मारकर जहन्नुम में पहुंचा दिया है और बलभद्रसिंह अभी तक जीता है, मगर साथ ही इसके उन चीठियों से यह भी जाहिर होता था कि असली लक्ष्मीदेवी निकलकर भाग गई, जिसका पता लगाने के लिए दारोगा बहुत उद्योग कर रहा है मगर पता नहीं लगता। वह जो हीरे की अंगूठी थी वह वास्तव में हेलासिंह (मायारानी के बाप) की थी जो उसके मरने के बाद जैपाल के हाथ लगी थी। उस अंगूठी के साथ एक कागज का पुर्जा बंधा हुआ था जिस पर बलभद्रसिंह को कैद में रखने और हेलासिंह को मार डालने की आज्ञा थी और उस पर मायारानी तथा दारोगा दोनों के हस्ताक्षर थे।

वे कागज, पुर्जे और अंगूठी इस समय महाराज के दरबार में मौजूद हैं जो भूतनाथ बेगम के यहां से उस समय ले आया था जब वह असली बलभद्रसिंह को छुड़ाने के लिए गया था। आप लोगों को इस बात पर आश्चर्य होगा कि जब ये सब चीजें बेगम के गिरफ्तार करने पर मेरे कब्जे में आ ही चुकी थीं तो पुनः बेगम के कब्जे में कैसे चली गईं इसके जवाब में केवल इतना ही कह देना काफी है कि जब मैं भी बेगम तथा दारोगा के कब्जे में चला गया और इन सब बातों का कर्ता-धर्ता भूतनाथ ही है जिसने उस समय बहुत बड़ा धोखा खाया और जिसके सबब से कुछ दिन बाद उसे भी तकलीफ उठानी पड़ी। मैंने यह भी सुना कि अपनी इस भूल से शर्मिन्दा होकर भूतनाथ ने बेगम और जैपाल को बड़ी तकलीफें दीं मगर उसका नतीजा उस समय कुछ भी न निकला, खैर अब मैं पुनः किस्से की तरफ झुकता हूं।''

दलीपसिंह की इस बात को सुनकर महाराज ने पुनः हीरे की अंगूठी और उन चीठियों को देखने की इच्छा प्रकट की जो भूतनाथ बेगम के यहां से उठा लाया था। तेजसिंह ने पहले महाराज को और फिर और लोगों को भी वे चीजें दिखाईं और उसके बाद फिर दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया -

''अर्जुनसिंह ज्यादे देर तक मेरे पास नहीं ठहरे, उस समय जो कुछ हम लोगों को करना चाहिए था बहुत जल्द निश्चय कर लिया गया और इसके बाद अर्जुनसिंह के साथ मैं घर से बाहर निकला और हम दोनों मित्र गिरिजाकुमार की तरफ रवाना हुए।

अब गिरिजाकुमार का हाल सुनिए कि अर्जुनसिंह से मिलने के बाद फिर क्या हुआ।

बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार दोनों आदमी सफर करते हुए एक ऐसे स्थान में पहुंचे जहां से बेगम का मकान केवल पांच कोस की दूरी पर था। यहां पर एक छोटा गांव था जहां मुसाफिरों के लिए खाने-पीने की मामूली चीजें मिल सकती थीं और जिसमें हलवाई की एक छोटी-सी दुकान भी थी। गांव के बाहरी प्रांत में जमींदारों के देहाती ढंग के बगीचे थे और पास ही में पलास का छोटा-सा जंगल भी था। संध्या होने में घंटे-भर की देर थी और बिहारीसिंह चाहता था कि हम लोग बराबर चले जायं, दो-तीन घंटे रात जाते बेगम के मकान तक पहुंच ही जाएंगे, मगर गिरिजाकुमार को यह बात मंजूर न थी। उसने कहा कि मैं बहुत थक गया हूं और अब एक कोस भी आगे नहीं चल सकता, इसलिए यही अच्छा होगा कि आज की रात इसी गांव के बाहर किसी बगीचे अथवा जंगल में बिता दी जाय।

यद्यपि दोनों की राय दो तरह की थी, मगर बिहारीसिंह को लाचार हो गिरिजाकुमार की बात माननी पड़ी और यह निश्चय करना ही पड़ा कि आज की रात अमुक बागीचे में बिताई जायगी, अस्तु संध्या हो जाने पर दोनों आदमी गांव में हलवाई की दुकान पर गए और वहां पूरी-तरकारी बनवाकर पुनः गांव के बाहर चले आए।

चांदनी निकली हुई थी और चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार एक पेड़ के नीचे बैठे हुए धीरे-धीरे भोजन और निम्नलिखित बातें करते जाते थे -

गिरिजा - आज की भूख में ये पूरियां बड़ा ही मजा दे रही हैं।

बिहारी - यह भूख ही के कारण नहीं बल्कि बनी भी अच्छी हैं, इसके अतिरिक्त तुमने आज बूटी (भांग) भी गहरी पिला दी।

गिरिजा - अजी इसी बूटी की बदौलत तो सफर की हरारत मिटेगी।

बिहारी - मगर नशा तो तेज हो रहा है और अभी तक बढ़ता ही जाता है।

गिरिजा - तो हम लोगों को करना ही क्या है?

बिहारी - और कुछ नहीं तो अपने कपड़े-लत्ते और बटुए का खयाल तो है ही।

गिरिजा - (हंसकर) मजा तो तब हो जो इस समय भूतनाथ से सामना हो जाय।

बिहारी - हर्ज ही क्या है मैं इस समय भी लड़ने को तैयार हूं मगर वह बड़ा ही ताकतवर और काइयां ऐयार है।

गिरिजा - उसकी कदर तो राजा गोपालसिंह जानते थे।

बिहारी - मेरे खयाल से तो यह बात नहीं है।

गिरिजा - तुम्हें खबर नहीं है, अगर मौका मिला तो मैं इस बात को साबित कर दूंगा।

बिहारी - किस ढंग से साबित करोगे?

गिरिजा - खुद राजा गोपालसिंह की जुबान से।

बिहारी - (हंसकर) क्या भंग के नशे में पागल हो गए हो राजा गोपालसिंह अब कहां हैं?

गिरिजा - असत बात तो यह है कि मुझे राजा गोपालसिंह के मरने का विश्वास ही नहीं है।

बिहारी - (चौकन्ना होकर) सो क्या तुम्हारे पास उनके जीते रहने का क्या सबूत है।

गिरिजा - बहुत कुछ सबूत है मगर इस विषय पर मैं हुज्जत या बहस करना पसंद नहीं करता, जो कुछ असल बात है तुम स्वयम् जानते हो, अपने दिल से पूछ लो।

बिहारी - मैं तो यही जानता हूं कि राजा साहब मर गए।

गिरिजा - खैर यह तो मैं कह ही चुका हूं कि इस विषय पर बहस न करूंगा।

बिहारी - मगर बताओ तो सही कि तुमने क्या समझ के ऐसा कहा?

गिरिजा - मैं कुछ भी न बताऊंगा।

बिहारी - फिर हमारी-तुम्हारी दोस्ती ही क्या ठहरी जो एक जरा-सी बात छिपा रहे हो और पूछने पर भी नहीं बताते!

गिरिजा - (हंसकर) तुम्हें ऐसा कहने का हक नहीं है। जब तुम खुद दोस्ती का खयाल न करके ये बातें छिपा रहे हो तो मैं क्यों बताऊं।

बिहारी - (संकोच के साथ) मैं तो कुछ भी नहीं छिपाता।

गिरिजा - अच्छा मेरे सिर पर हाथ रखकर कह तो दो कि वास्तव में राजा साहब मर गए। मैं अभी साबित कर देता हूं कि तुम छिपाते हो या नहीं। अगर तुम सच कह दोगे तो मैं भी बता दूंगा कि इसमें कौन-सी नई बात पैदा हो गई और क्या रंग खिला चाहता है।

बिहारी - (कुछ सोचकर) पहले तुम बताओ फिर मैं बताऊंगा।

गिरिजा - ऐसा नहीं हो सकता।

इस समय बिहारीसिंह नशे में मस्त था, एक तो गिरिजाकुमार ने उसे भंग पिला दी थी, दूसरे उसने जो पूरियां खाईं उसमें भी एक प्रकार का बेढब नशा मिला हुआ था, क्योंकि वास्तव में उस हलवाई के यहां अर्जुनसिंह ने पहले ही से प्रबंध कर लिया था और ये बातें गिरिजाकुमार से कही-बदी थीं जैसा कि ऊपर के बयान से आपको मालूम हो चुका है, अस्तु गिरिजाकुमार ने पहले ही से एक दवा खा ली थी जिससे उन पूरियों का असर उस पर कुछ भी न हुआ, मगर बिहारीसिंह धीरे-धीरे अलमस्त हो गया और थोड़ी ही देर में बेहोश होने वाला था। वह ऐसा मस्त और खुश करने वाला नशा था जिसके बस में होकर बिहारीसिंह ने अपने दिल का भेद खोल दिया, मगर अफसोस भूतनाथ ने हमारी कुल मेहनत पर मिट्टी डाल दी और हम लोगों को बरबाद कर दिया। उस भेद का पता लग जाने पर भी हम लोग कुछ न कर सके जिसका सबब आगे चलकर आपको मालूम होगा। जब गिरिजाकुमार और बिहारीसिंह से बातें हो रही थीं उस समय हम दोनों मित्र भी वहां से थोड़ी ही दूर पर छिपे हुए खड़े थे और इंतजार कर रहे थे कि बिहारीसिंह बेहोश हो जाय और गिरिजाकुमार बुलाये तो हम दोनों भी वहां जा पहुंचें।

गिरिजाकुमार ने पुनः जोर देकर कहा, 'ऐसा नहीं हो सकता, पहले तुम्हीं को दिल का परदा खोल के और सच्चा-सच्चा हाल कह के दोस्ती का परिचय देना चाहिए और यह बात मुझसे छिपी नहीं रह सकती कि तुमने सच कहा या झूठ क्योंकि जो कुछ भेद है उसे मैं खूब जानता हूं।'

बिहारी - मुझे भी ऐसा ही मालूम होता है, खैर अब मैं कोई बात तुमसे न छिपाऊंगा, सब भेद साफ कह दूंगा। मगर इस समय केवल इतना ही कहूंगा कि कि वास्तव में राजा साहब मरे नहीं बल्कि अभी तक जीते हैं।

गिरिजा - इतना तो मैं खुद कह चुका हूं, इससे ज्यादा कुछ कहो तो मुझे विश्वास हो।

'गिरिजाकुमार की बात का बिहारीसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा जो पास आते ही चांदनी के सबब से बहुत जल्द पहचान लिया गया कि भूतनाथ है। बिहारीसिंह ने, जो भूतनाथ को देखकर घबरा गया था गिरिजाकुमार से कहा, 'लो सम्हल जाओ, भूतनाथ आ पहुंचा!' दोनों आदमी सम्हलकर खड़े हो गए और भूतनाथ भी वहां पहुंच दिलेराना ढंग पर उन दोनों के सामने अकड़कर खड़ा हो गया और बोला, 'तुम दोनों को मैं खूब पहचानता हूं और यकीन है कि तुम लोगों ने भी मुझे पहचान लिया होगा कि यह भूतनाथ है।'

बिहारी - बेशक मैंने तुमको पहचान लिया मगर तुमको हम लोगों के बारे में धोखा हुआ है।

भूत - (हंसकर) मैं तो कभी धोखा खाता ही नहीं। मुझे खूब मालूम है कि तुम दोनों बिहारीसिंह और गिरिजाकुमार हो और साथ ही इसके मुझे यह मालूम है कि तुम लोग मुझे गिरफ्तार करने के लिए जमानिया से बाहर निकले हो! मुझे तुम अपने जैसा बेवकूफ न समझो। (गिरिजाकुमार की तरफ बताकर) जिसे तुम लोगों ने आज तक नहीं पहचाना और जिसे तुम अभी तक शिवशंकर समझे हुए हो उसे मैं खूब जानता हूं कि यह दलीपशाह का शागिर्द गिरिजाकुमार है। जरा सोचो तो सही कि तुम्हारे जैसा बेवकूफ आदमी मुझे क्या गिरफ्तार करेगा जिसे एक लौंडे (गिरिजाकुमार) ने धोखे में डालकर उल्लू बना दिया और जो इतने दिनों तक साथ रहने पर भी गिरिजाकुमार को पहचान न सका। खैर इसे जाने दो, पहले अपनी हिम्मत और बहादुरी ही का अंदाज कर लो, देखो मैं तुम्हारे सामने खड़ा हूं, मुझे गिरफ्तार करो तो सही!

भूतनाथ की बातें सुनकर बिहारीसिंह हैरान बल्कि बदहवास हो गया क्योंकि वह भूतनाथ के जीवट और उसकी ताकत को खूब जानता था और उसे विश्वास था कि इस तरह खुले मैदान भूतनाथ को गिरफ्तार करना दो-चार आदमियों का काम नहीं है। साथ ही वह यह सुनकर और भी घबरा गया कि हमारा साथी वास्तव में शिवशंकर या हमारा मददगार नहीं है बल्कि हमें धोखे में डालकर उल्लू बनाने और भेद ले लेने वाला एक चालाक ऐयार है। इससे मैंने जो गोपालसिंह के जीते रहने का भेद बता दिया सो अच्छा नहीं किया।

गिरिजा - मगर मुझसे आपको किसी तरह की दुश्मनी न होनी चाहिए क्योंकि मैंने आपका कुछ नुकसान नहीं किया है।

भूत - सिवाय इसके कि मुझे गिरफ्तार करने की फिक्र में थे।

गिरिजा - कदापि नहीं, यह तो एक तरकीब थी जिससे कि मैंने अपने को कैद होने से बचा लिया, यही सबब था कि इस समय मैंने इसे (बिहारीसिंह को) धोखा देकर बेहोशी की दवा दी और इसे बांधकर अपने घर ले जाने वाला था।

भूत - तुम्हारी बातें मान लेने के योग्य हैं मगर मैं इस बात को भी खूब जानता हूं कि तुम बड़े बातूनी हो और बातों के जाल में बड़े-बड़े चालाकों को फंसाकर उल्लू बना सकते हो।

इतना कहकर भूतनाथ ने अपनी जेब में से कपड़े का एक टुकड़ा निकालकर गिरिजाकुमार के मुंह पर रख दिया और फिर गिरिजाकुमार को दीन-दुनिया की कुछ भी खबर न रही। इसके बाद क्या हुआ सो उसे मालूम नहीं और न मैं ही जानता हूं, क्योंकि इस विषय में मैं वही बयान करूंगा जो गिरिजाकुमार ने मुझसे कहा था।

हम दोनों मित्र जो उस समय छिपे हुए थे बैठे-बैठे घबड़ा गये और जब लाचार होकर उस बाग में गये तो न गिरिजाकुमार को देखा न बिहारीसिंह को पाया। कुछ पता न लगा कि दोनों कहां गये, क्या हुए या उन पर कैसी बीती। बहुत खोजा, पता लगाया, कई दिन तक इस इलाके में घूमते रहे, मगर नतीजा कुछ न निकला। लाचार अफसोस करते हुए अपने घर की तरफ लौट आए।

अब बहुत विलंब हो गया, महाराज भी घबड़ा गये होंगे। (जीतसिंह की तरफ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं अपनी राम कहानी यहां पर रोक दूं और जो कुछ बाकी है उसे कल के दरबार में बयान करूं।''

इतना कहकर दलीपशाह चुप हो गया और महाराज का इशारा पाकर जीतसिंह ने उसकी बात मंजूर कर ली। दरबार बर्खास्त हुआ और लोग अपने-अपने डेरे की तरफ रवाना हुए।

 

बयान - 3

दूसरे दिन मामूली ढंग पर दरबार लगा और दलीपशाह ने इस तरह अपना हाल बयान करना शुरू किया -

''कई दिन बीत गये मगर मुझे गिरिजाकुमार का कुछ पता न लगा और न इस बात का ही खयाल हुआ कि वह भूतनाथ के कब्जे में चला गया होगा। हां जब मैं गिरिजाकुमार की खोज में सूरत बदलकर घूम रहा था तब इस बात का पता जरूर लग गया कि भूतनाथ मेरे पीछे पड़ा हुआ है और दारोगा से मिलकर मुझे गिरफ्तार करा देने का बंदोबस्त कर रहा है।

उस मामले के कई सप्ताह बाद एक दिन आधी रात के समय भूतनाथ पागलों की-सी हालत में मेरे घर आया और उसने मेरा लड़का समझकर अपने हाथ से खुद अपने लड़के का खून कर दिया जिसका रंज इस जिंदगी में उसके दिल से नहीं निकल सकता और जिसका खुलासा हाल वह स्वयं अपनी जीवनी में बयान करेगा। इसी के थोड़े दिन बाद भूतनाथ की बदौलत मैं दारोगा के कब्जे में जा फंसा।

जब तक मैं स्वतंत्र रहा मुझे गिरिजाकुमार का हाल कुछ भी मालूम न हुआ, जब मैं पराधीन होकर कैदखाने में गया और वहां गिरिजाकुमार से जिसे भूतनाथ ने दारोगा के सुपुर्द कर दिया था मुलाकात हुई तब गिरिजाकुमार की जुबानी सब हाल मालूम हुआ।

भूतनाथ के कब्जे में पड़ जाने के बाद जब गिरिजाकुमार होश में आया तो उसने अपने को एक पत्थर के खंभे के साथ बंधा हुआ पाया जो किसी सुंदर सजे हुए कमरे के बाहरी दालान में था। वह चौकन्ना होकर चारों तरफ देखने और गौर करने लगा मगर इस बात का निश्चय न कर सका कि यह मकान किसका है, हां शक होता था कि यह दारोगा का मकान होगा क्योंकि अपने सामने भूतनाथ के साथ ही साथ बिहारीसिंह और दारोगा साहब को भी बैठे हुए देखा।

गिरिजाकुमार, दारोगा, बिहारीसिंह और भूतनाथ में देर तक तरह-तरह की बातें होती रहीं और गिरिजाकुमार ने भी बातों की उलझन में उन्हें ऐसा फंसाया कि किसी तरह असल भेद का वे लोग पता न लगा सके मगर फिर भी गिरिजाकुमार को उनके हाथों छुट्टी न मिली और वह तिलिस्म के अंदर वाले कैदखाने में ठूंस दिया गया, हां उसे इस बात का विश्वास हो गया कि वास्तव में राजा गोपालसिंह मरे नहीं बल्कि कैद कर लिए गए हैं।

राजा गोपालसिंह के जीते रहने का हाल यद्यपि गिरिजाकुमार को मालूम हो गया मगर इसका नतीजा कुछ भी न निकला क्योंकि इस बात का पता लगाने के साथ ही वह गिरफ्तार हो गया और यह हाल किसी से भी बयान न कर सका। अगर हम लोगों में से किसी को भी मालूम हो जाता कि वास्तव में राजा गोपालसिंह जीते हैं और कैद में हैं तो हम लोग उन्हें किसी-न-किसी तरह जरूर छुड़ा ही लेते मगर अफसोस!!

बहुत दिनों तक खोजने और पता लगाने पर भी जब गिरिजाकुमार का कुछ हाल मालूम न हुआ तब लाचार होकर मैं इंद्रदेव के पास गया और सब हाल बयान करने के बाद मैंने इनसे सलाह पूछी कि अब क्या करना चाहिए। बहुत गौर करने के बाद इंद्रदेव ने कहा कि मेरा दिल यही कहता है कि गिरिजाकुमार गिरफ्तार हो गया और इस समय दारोगा के कब्जे में है। इसका पता इस तरह लग सकता है कि तुम किसी तरह दारोगा को गिरफ्तार करके ले आओ और उसकी सूरत बनकर दस-पांच दिन उसके मकान में रहो, इस बीच में उसके नौकरों की जुबानी कुछ न कुछ हाल गिरिजाकुमार का जरूर मालूम हो जायगा, मगर इसमें कुछ शक नहीं कि दारोगा को गिरफ्तार करना जरा मुश्किल है।

इंद्रदेव की राय मुझे बहुत पसंद आई और मैं दारोगा को गिरफ्तार करने की फिक्र में पड़ा। इंद्रदेव से बिदा होकर मैं अर्जुनसिंह के घर गया और जो कुछ सलाह हुई थी बयान किया। इन्होंने भी यह राय पसंद की और इस काम के लिए मेरे साथ जमानिया चलने को तैयार हो गये, अस्तु हम दोनों आदमी भेष बदलकर घर से निकले और जमानिया की तरफ रवाना हुए।

संध्या हुआ ही चाहती थी जब हम दोनों आदमी जमानिया शहर के पास पहुंचे, उस समय सामने से दारोगा का एक सिपाही आता हुआ दिखाई पड़ा। हम लोग बहुत खुश हुए और अर्जुनसिंह ने कहा - 'लो भाई सगुन तो बहुत अच्छा मिला कि शिकार सामने आ पहुंचा और चारों तरफ सन्नाटा भी छाया हुआ है। इस समय इसे जरूर गिरफ्तार करना चाहिए, इसके बाद इसी की सूरत बनाकर दारोगा के पास पहुंचना और उसे धोखा देना चाहिए।'

हम दो आदमी थे और सिपाही अकेला था, ऐसी अवस्था में किसी तरह की चालबाजी की जरूरत न थी, केवल तकरार कर लेना ही काफी था। हुज्जत और तकरार करने के लिए किसी मसाले की जरूरत नहीं पड़ी, जरा छेड़ देना ही काफी होता है। पास आने पर अर्जुनसिंह ने जान-बूझकर उसे धक्का दिया और वह भी दारोगा के घमंड पर फूला हुआ हम लोगों से उलझ पड़ा। आखिर हम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया और बेहोश करके वहां से दूर एक सन्नाटा जंगल में ले जाकर उसकी तलाशी लेने लगे। उसके पास से भूतनाथ के नाम की एक चीठी निकली जो खास दारोगा के हाथ की लिखी हुई थी और जिसमें यह लिखा हुआ था -

'प्यारे भूतनाथ,

कई दिनों से हम तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। ठीक-ठीक बताओ कि कब मुलाकात होगी और कब तक काम हो जाने की उम्मीद है।'

इस चीठी को पढ़कर हम दोनों ने सलाह की कि इस आदमी को छोड़ देना चाहिए और इसके पीछे चलकर देखना चाहिए कि भूतनाथ कहां रहता है। उसका पता लग जाने से बहुत काम निकलेगा।

हम दोनों ने वह चीठी फिर उस आदमी की जेब में रख दी और उसे उठाकर पुनः सड़क पर लाकर डाल दिया जहां उसे गिरफ्तार किया था। इसके बाद लखलखा सुंघाकर हम दोनों दूर हटकर आड़ में खड़े हो गये और देखने लगे कि यह होश में आकर क्या करता है। उस समय रात आधी से ज्यादे जा चुकी थी।

होश में आने के बाद वह आदमी ताज्जुब और तरद्दुद में थोड़ी देर तक इधर-उधर घूमता रहा और इसके बाद आगे की तरफ चल पड़ा। हम लोग भी आड़ देते हुए उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

आसमान पर सुबह की सफेदी फैला ही चाहती थी जब हम लोग एक घने और सुहावने जंगल में पहुंचे। थोड़ी देर तक चलकर वह आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गया। मालूम होता था कि थक गया है और कुछ देर तक सुस्ताना चाहता है, मगर ऐसा न था। लाचार हम दोनों भी उसके पास ही आड़ देकर बैठ गये और उसी समय पेड़ों की आड़ से कई आदमियों ने निकलकर हम दोनों को घेर लिया। उन सभों के हाथ में नंगी तलवारें और चेहरे पर नकाबें पड़ी हुई थीं।

बिना लड़े-भिड़े यों ही गिरफ्तार होकर दुःख भोगना हम लोगों को मंजूर न था, अस्तु फुर्ती से तलवार खींचकर उन लोगों के मुकाबले में खड़े हो गये। उस समय एक ने अपने चेहरे पर से नकाब उलट दी और मेरे पास आकर खड़ा हो गया। असल में वह भूतनाथ था जिसका चेहरा सुबह की सफेदी में बहुत साफ दिखाई दे रहा था और मालूम हो रहा था कि वह हम दोनों को देखकर मुस्करा रहा है।

भूतनाथ की सूरत देखते ही हम दोनों चौंक पड़े और मेरे मुंह से निकल पड़ा 'भूतनाथ'। उसी समय मेरी निगाह उस आदमी पर जा पड़ी जिसके पीछे-पीछे हम लोग वहां तक पहुंचे थे, देखा कि दो आदमी खड़े-खड़े उससे बातें कर रहे हैं और हाथ के इशारे से मेरी तरफ कुछ बता रहे हैं।

मेरे मुंह से निकली हुई आवाज सुनकर भूतनाथ हंसा और बोला, 'हां, मैं वास्तव में भूतनाथ हूं, और आप लोग?

मैं - हम दोनों गरीब मुसाफिर हैं।

भूत - (हंसकर) यद्यपि आप लोगों की तरह भूतनाथ अपनी सूरत नहीं बदला करता मगर आप लोगों को पहचानने में किसी तरह की भूल भी नहीं कर सकता।

मैं - अगर ऐसा है तो आप ही बताइए हम लोग कौन हैं?

भूत - आप लोग दलीपशाह और अर्जुनसिंह हैं, जिन्हें मैं कई दिनों से खोज रहा हूं।

मैं - (ताज्जुब के साथ) ठीक है, जब आपने पहचान ही लिया तो मैं अपने को क्यों छिपाऊं मगर यह तो बताइये कि आप मुझे क्यों खोज रहे थे?

भूत - इसलिये कि मैं आपसे अपने कसूरों की माफी मांगूं, आरजू-मिन्नत और खुशामद के साथ अपने को आपके पैरों पर डाल दूं और कहूं कि अगर जी में आवे तो अपने हाथ से मेरा सिर काट लीजिये मगर एक दफे कह दीजिये कि मैंने तेरा कसूर माफ किया।

मैं - बड़े ताज्जुब की बात है कि तुम्हारे दिल में यह बात पैदा हुई क्या तुम्हारी आंखें खुल गईं और मालूम हो गया कि तुम बहुत बुरे रास्ते पर चल रहे हो

भूत - जी हां, मुझे मालूम हो गया और समझ गया कि मैं अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मार रहा हूं।

मैं - बड़ी खुशी की बात है अगर तुम सच्चे दिल से कह रहे हो।

भूत - बेशक मैं सच्चे दिल से कह रहा हूं और अपने किये पर मुझे बड़ा अफसोस है।

मैं - भला कह तो जाओ कि तुम्हें किन-किन बातों का अफसोस है।

भूत - सो न पूछिये, सिर से पैर तक मैं कसूरवार हो रहा हूं, एक-दो हों तो कहा जाय, कहां तक गिनाऊं?

मैं - खैर न सही, अच्छा यह बताओ कि मुझसे किस कसूर की माफी चाहते हो मेरा तो तुमने कुछ नहीं बिगाड़ा।

भूत - यह आपका बड़प्पन है जो आप ऐसा कहते हैं, मगर वास्तव में मैंने आपका बहुत बड़ा कसूर किया है। और बातों के अतिरिक्त मैंने आपके सामने आपके लड़के को मार डाला है यह कहां का...।

मैं - (बात काटकर) नहीं-नहीं भूतनाथ! तुम भूलते हो, अथवा तुम्हें मालूम नहीं है कि तुमने मेरे लड़के का खून नहीं किया बल्कि अपने लड़के का खून किया है।

भूत - (चौंककर बेचैनी के साथ) यह आप क्या कह रहे हैं?

मैं - बेशक मैं सच कह रहा हूं। इस काम में तुमने धोखा खाया और अपने लड़के को अपने हाथ से मार डाला। उन दिनों तुम्हारी स्त्री बीमार होकर मेरे यहां आई और अपनी आंखों से तुम्हारी इस कार्रवाई को देख रही थी।

भूत - (घबराहट के साथ) तो क्या अब भी मेरी स्त्री आप ही के मकान में है?

मैं - नहीं, वह मर गई क्योंकि बीमारी में वह इस दुःख को बर्दाश्त न कर सकी।

भूत - (कुछ देर चुप रहने और सोचने के बाद) नहीं-नहीं, यह बात नहीं है। मालूम होता है कि तुमने खुद मेरे लड़के को मारकर अपने लड़के का बदला चुकाया!

अर्जुन - नहीं-नहीं, भूतनाथ, वास्तव में तुमने खुद अपने लड़के को मारा है और मैं इस बात को खूब जानता हूं।

भूत - (भारी आवाज में) खैर अगर मैंने अपने लड़के का खून किया है तब भी दलीपशाह का कसूरवार हूं। इसके अतिरिक्त और भी कई कसूर मुझसे हुए हैं, अच्छा हुआ कि मेरी स्त्री मर गई नहीं तो उसके सामने...।

मैं - मगर हरनामसिंह और कमला को ईश्वर कुशलपूर्वक रखें।

भूत - (लंबी सांस लेकर) बेशक भूतनाथ बड़ा ही बदनसीब है।

मैं - अब भी सम्हल जाओ तो कोई चिंता नहीं।

भूत - बेशक मैं अपने को सम्हालूंगा और जो कुछ आप कहेंगे वही करूंगा। अच्छा मुझे थोड़ी देर के लिए आज्ञा दीजिये तो मैं उस आदमी से दो-दो बातें कर आऊं जिसके पीछे आप यहां तक आए हैं।

इतना कहकर भूतनाथ उस आदमी के पास चला गया मगर उसके साथी लोग हमें घेरे खड़े ही रहे। इस समय मेरे दिल का विचित्र ही हाल था। मैं निश्चय नहीं कह सकता था कि भूतनाथ की बातें किस ढंग पर जा रही हैं और इसका नतीजा क्या होगा, तथापि मैं इस बात के लिए तैयार था कि जिस तरह हो सकेगा मेहनत करके भूतनाथ को अच्छे ढर्रे पर ले आऊंगा। मगर में वास्तव में ठगा गया और जो कुछ सोचता था वह मेरी नादानी थी।

उस आदमी से बातचीत करने में भूतनाथ ने बहुत देर नहीं की और उसे झटपट बिदा करके वह पुनः मेरे पास आकर बोला, 'कम्बख्त दारोगा मुझसे चालबाजी करता है और मेरे ही हाथों से मेरे दोस्त को गिरफ्तार कराना चाहता है।'

मैं - दारोगा बड़ा ही शैतान है और उसके फेर में पड़कर तुम बर्बाद हो जाओगे। अच्छा अब हम लोग भी बिदा होना चाहते हैं, यह बताओ कि तुमसे किस तरह की उम्मीद अपने साथ लेते जायं?

भूत - मुझसे आप हर तरह की उम्मीद कर सकते हैं, जो आप कहेंगे मैं वही करूंगा बल्कि आपके साथ ही साथ आपके घर चलूंगा।

मैं - अगर ऐसा करो तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना न रहे।

भूत - बेशक मैं ऐसा ही करूंगा मगर पहले आप यह बता दें कि आपने मेरा कसूर माफ किया या नहीं?

मैं - हां मैंने माफ किया।

भूत - अच्छा तो अब मेरे डेरे पर चलिये।

मैं - तुम्हारा डेरा कहां पर है?

भूत - यहां से थोड़ी ही दूर पर।

मैं - खैर चलो मैं तैयार हूं, मगर इस बात का वादा करो कि लौटते समय मेरे साथ चलोगे।

भूत - जरूर चलूंगा।

इतना कहकर भूतनाथ चल पड़ा और हम दोनों भी उसके पीछे-पीछे रवाना हुए।

आप लोग खयाल करते होंगे कि भूतनाथ ने हम दोनों को उसी जगह क्यों नहीं गिरफ्तार कर लिया मगर यह बात भूतनाथ के किये नहीं हो सकती थी। यद्यपि उसके साथ कई सिपाही या नौकर भी मौजूद थे मगर फिर भी वह इस बात को खूब जानता था कि इस खुले मैदान में दलीपशाह और अर्जुनसिंह को एक साथ गिरफ्तार कर लेना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। साथ ही इसके यह भी कह देना जरूरी है कि उस समय तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी कि उसके बटुए को चुरा लेने वाला यही अर्जुनसिंह है। उस समय तक क्या बल्कि अब तक भूतनाथ को इस बात की खबर न थी। उस दिन जब स्वयं अर्जुनसिंह ने अपनी जुबान से कहा तब मालूम हुआ!

कोस-भर से ज्यादे हम लोग भूतनाथ के पीछे-पीछे चले गये और इसके बाद एक भयानक सुनसान और उजाड़ घाटी में पहुंचे जो दो पहाड़ियों के बीच में थी। वहां से कुछ दूर तक घूमघुमौवे रास्ते पर चलकर भूतनाथ के डेरे पर पहुंचे। वह ऐसा स्थान था जहां किसी मुसाफिर का पहुंचना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव था। जिस खोह में भूतनाथ का डेरा था वह बहुत बड़ी और बीस-पचीस आदमियों के रहने लायक थी और वास्तव में इतने ही आदमियों के साथ वह वहां रहता भी था।

वहां भूतनाथ ने हम दोनों की बड़ी खातिर की और बार-बार आजिजी करता और माफी मांगता रहा। खाने-पीने का सब सामान वहां मौजूद था अस्तु इशारा पाकर भूतनाथ के आदमियों ने तरह-तरह का खाना बनाना आरंभ कर दिया और कई आदमी नहाने-धोने का सामान दुरुस्त करने लगे।

हम दोनों बहुत प्रसन्न थे और समझते थे कि अब भूतनाथ ठीक रास्ते पर आ जायेगा, अस्तु हम लोग जब तक संध्या-पूजन से निश्चिंत हुए तब तक भोजन भी तैयार हुआ और बेफिक्री के साथ हम तीनों आदमियों ने एक साथ भोजन किया। इसके बाद निश्चिंती से बैठकर बातचीत करने लगे।

भूत - दलीपशाह, मुझे इस बात का बड़ा दुःख है कि मेरी स्त्री का देहांत हो गया और मेरे हाथ से एक बहुत ही बुरा काम हो गया।

मैं - बेशक अफसोस की जगह है, मगर खैर जो कुछ होना था हो गया, अब तुम घर पर चलो और नेकनीयती के साथ दुनिया में काम करो।

भूत - ठीक है, मगर मैं यह सोचता हूं कि अब घर पर जाने का फायदा ही क्या है मेरी स्त्री मर गई और अब दूसरी शादी मैं कर ही नहीं सकता, फिर किस सुख के लिए शहर में चलकर बसूं।

मैं - हरनामसिंह और कमला का भी तो कुछ खयाल करना चाहिये। इसके अतिरिक्त क्या विधुर लोग शहर में रहकर नेकनीयती के साथ रोजगार नहीं करते?

भूत - कमला और हरनामसिंह होशियार हैं और एक अच्छे रईस के यहां परवरिश पा रहे हैं, इसके अतिरिक्त किशोरी उन दोनों ही की सहायक है, अतएव उनके लिए मुझे किसी तरह की चिंता नहीं है। बाकी रही आपकी दूसरी बात, उसका जवाब यह हो सकता है कि शहर में नेकनीयती के साथ अब मैं कर ही क्या सकता हूं क्योंकि मैं तो किसी को मुंह दिखलाने के लायक ही नहीं रहा। एक दयाराम वाली वारदात ने मुझे बेकाम कर ही दिया था, दूसरे इस लड़के के खून ने मुझे और भी बर्बाद और बेकाम कर दिया। अब मैं कौन-सा मुंह लेकर भले आदमियों में बैठूंगा?

मैं - ठीक है, मगर इन दोनों मामलों की खबर हम लोग दो-तीन खास-खास आदमियों के सिवाय और किसी को नहीं है और हम लोग तुम्हारे साथ कदापि बुराई नहीं कर सकते।

भूत - तुम्हारी इन बातों पर मुझे विश्वास नहीं हो सकता क्योंकि मैं इस बात को खूब जानता हूं कि आजकल तुम मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव कर रहे हो और मुझे दारोगा के हाथ में फंसाना चाहते हो, ऐसी अवस्था में तुमने मेरा भेद जरूर कई आदमियों से कह दिया होगा।

मैं - नहीं भूतनाथ, यह तुम्हारी भूल है कि तुम ऐसा सोच रहे हो मैंने तुम्हारा भेद किसी को नहीं कहा और न मैं तुम्हें दारोगा के हवाले किया चाहता हूं। बेशक दारोगा ने मुझे इस काम के लिए लिखा था मगर मैंने इस बारे में उसे धोखा दिया। दारोगा के हाथ की लिखी चीठियां मेरे पास मौजूद हैं, घर चलकर मैं तुम्हें दिखाऊंगा और उनसे तुम्हें मेरी बातों का पूरा सबूत मिल जायगा।

इसी समय बात करते-करते मुझे कुछ नशा मालूम हुआ और मेरे दिल में एक प्रकार का खुटका हो गया। मैंने घूमकर अर्जुनसिंह की तरफ देखा तो उनकी भी आंखें लाल अंगारे की तरह दिखाई पड़ीं। उसी समय भूतनाथ मेरे पास से उठकर दूर जा बैठा और बोला -

भूत - जब मैं तुम्हारे घर जाऊंगा तब मुझे इस बात का सबूत मिलेगा मगर मैं इसी समय तुम्हें इस बात का सबूत दे सकता हूं कि तुम मेरे साथ दुश्मनी कर रहे हो।

इतना कह के भूतनाथ ने अपनी जेब से निकालकर मेरे हाथ की लिखी वे चीठियां मेरे सामने फेंक दीं जो मैंने दारोगा को लिखी थीं और जिनमें भूतनाथ के गिरफ्तार करा देने का वादा किया था।

मैं सरकार से बयान कर चुका हूं कि उस समय दारोगा से इस ढंग का पत्र-व्यवहार करने से मेरा मतलब क्या था, और मैंने भूतनाथ को दिखाने के लिए दारोगा के हाथ की चीठियां बटोरकर किस तरह दारोगा से साफ इंकार कर दिया था, मगर उस मौके पर मेरे पास वे चीठियां मौजूद न थीं कि मैं उन्हें भूतनाथ को दिखाता और भूतनाथ के पास वे चीठियां मौजूद थीं जो दारोगा ने उसे दी थीं और जिनके सबब से दारोगा का मंत्र चल गया था। अस्तु उन चीठियों को देखकर मैंने भूतनाथ से कहा -

मैं - हां-हां, इन चीठियों को मैं जानता हूं और बेशक ये मेरे हाथ की लिखी हुई हैं, मगर मेरे इस लिखने का मतलब क्या था और इन चीठियों से मैंने क्या काम निकाला सो तुम्हें नहीं मालूम हो सकता जब तक कि दारोगा के हाथ की लिखी हुई चीठियां तुम न पढ़ लो जो मेरे पास मौजूद हैं।

भूत - (मुस्कराकर) बस बस बस, ये सब धोखेबाजी के ढर्रे रहने दीजिए। भूतनाथ से यह चालाकी न चलेगी, सच तो यों है कि मैं खुद कई दिनों से तुम्हारी खोज में हूं। इत्तिफाक से तुम स्वयं मेरे पंजे में आ गए और अब किसी तरह नहीं निकल सकते। उस जंगल में मैं तुम दोनों को काबू में नहीं कर सकता था इसलिए सब्जबाग दिखाता हुआ यहां ले आया और भोजन में बेहोशी की दवा खिलाकर बेकार कर दिया। अब तुम लोग मेरा कुछ नहीं कर सकते। समझ लो कि तुम दोनों जहन्नुम में भेजे जाओगे जहां से लौटकर आना मुश्किल है।

भूतनाथ की ऐसी बातें सुनकर हम दोनों को क्रोध चढ़ आया मगर उठने की कोशिश करने पर भी कुछ न कर सके, क्योंकि नशे का पूरा-पूरा असर हो गया था और पूरे बदन में कमजोरी आ गई थी।

थोड़ी ही देर बाद हम लोग बेहोश हो गये और तनोबदन की सुध न रही। जब आंखें खुलीं तो अपने को दारोगा के मकान में कैद पाया और सामने दारोगा, जैपाल, हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बैठे हुए देखा। रात का समय था और मेरे हाथ-पैर एक खंभे के साथ बंधे हुए थे, अर्जुनसिंह न मालूम कहां थे और उन पर न जाने क्या बीत रही थी।

दारोगा ने मुझसे कहा, 'कहो दलीपशाह, तुमने तो मुझ पर बड़ा जाल फैलाया था मगर नतीजा कुछ नहीं निकला।'

मैं - मैंने क्या जाल फैलाया था?

दारोगा - क्या इसके कहने की भी जरूरत है नहीं, बस इस समय हम इतना ही कहेंगे कि तुम्हारा शागिर्द हमारी कैद में है और तुमने मेरे लिए जो कुछ किया है उसका हाल हम उसकी जुबानी सुन चुके हैं। अब अगर वह चीठी मुझे दे दो जो गोपालसिंह के बारे में मनोरमा का नाम लेकर जबर्दस्ती मुझसे लिखवाई गई थी तो मैं तुम्हारा सब कसूर माफ कर दूं।

मैं - मेरी समझ में नहीं आता कि आप किस चीठी के बारे में मुझसे कह रहे हैं।

दारोगा - (चिढ़कर) ठीक है, यह तो मैं पहले ही समझे हुए था कि तुम बिना लात खाये नाक पर मक्खी नहीं बैठने दोगे, खैर देखो मैं तुम्हारी क्या दुर्दशा करता हूं।

इतना कहकर दारोगा ने मुझे सताना शुरू किया। मैं नहीं कह सकता कि इसने मुझे किस-किस तरह की तकलीफें दीं और सो भी एक-दो दिन तक नहीं बल्कि महीने भर तक। इसके बाद बेहोश करके मुझे तिलिस्म के अंदर पहुंचा दिया। जब मैं होश में आया तो अपने सामने अर्जुनसिंह और गिरिजाकुमार को बैठे हुए पाया। बस यही तो मेरा किस्सा है और यही मेरा बयान!

दलीपशाह का हाल सुनकर सभों को बड़ा दुःख हुआ और सभी कोई लाल-लाल आंखें करके दारोगा तथा जैपाल वगैरह की तरफ देखने लगे। दरबार बर्खास्त करने का इशारा करके महाराज उठ खड़े हुए, कैदी जेलखाने भेज दिये गये और बाकी सब अपने डेरों की तरफ रवाना हुए।

 

बयान - 4

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है। महाराज सुरेन्द्रसिंह के कमरे में राजा वीरेन्द्रसिंह, राजा गोपालसिंह, कुंवर इंद्रजीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, तारासिंह, भैरोसिंह, भूतनाथ और इंद्रदेव बैठे आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे हैं। वृद्ध महाराज सुरेन्द्रसिंह मसहरी पर लेटे हुए हैं।

सुरेन्द्र - दलीपशाह की जीवनी ने दारोगा की शैतानी और भी अच्छी तरह झलका दी।

जीत - बेशक ऐसा ही है, सच तो यों है कि ईश्वर ही ने इन पांचों कैदियों की रक्षा की, नहीं तो दारोगा ने कोई बात उठा नहीं रखी थी।

भूत - साथ ही इसके यह भी है कि उससे ज्यादे दलीपशाह के किस्से ने दरबार में मुझे शर्मिन्दा किया, मगर क्या करूं लाचार था कि चालबाज दारोगा ने दलीपशाह की चीठियों का मुझे ऐसा मतलब समझाया कि मैं अपने आपे से बाहर हो गया, बल्कि यों कहना चाहिए कि अंधा हो गया!

तेज - वह जमाना ही चालबाजियों का था और चारों तरफ ऐसी ही बातें हो रही थीं। भूतनाथ, तुम अब उन बातों को एकदम से भूल जाओ और जिस नेक रास्ते पर चल रहे हो उसी का ध्यान रखो।

जीत - अच्छा तो अब कैदियों के बारे में जो कुछ फैसला हो, कर ही देना चाहिए जिससे अगले दरबार में उन्हें हुक्म सुना दिया जाय।

सुरेन्द्र - (गोपालसिंह से) कहो साहब, तुम्हारी क्या राय है, किस-किस कैदी को क्या-क्या सजा देनी चाहिए?

गोपाल - जो दादाजी (महाराज) की इच्छा हो, हुक्म दें, मेरी प्रार्थना केवल इतनी ही है कि कम्बख्त दारोगा मेरे हवाले किया जाय और मुझे हुक्म हो जाय कि जो मैं चाहूं, उसे सजा दूं।

सुरेन्द्र - केवल दारोगा ही नहीं बल्कि तुम्हारे और कैदी भी तुम्हारे हवाले किये जायेंगे।

गोपाल - और दलीपशाह, अर्जुनसिंह, भरतसिंह, हरदीन और गिरिजाकुमार भी मुझे दे दिये जायं क्योंकि ये लोग मेरे सहायक हैं और इनके साथ रहकर मेरा दिन बड़ी खुशी के साथ बीतेगा!

सुरेन्द्र - (जीतसिंह से) ऐसा ही किया जाय।

जीत - बहुत अच्छा, मैं नंबरवार कैदियों के बारे में जो कुछ हुक्म होता है लिखता हूं।

इतना कहकर जीतसिंह ने कलम-दवात और कागज ले लिया और महाराज की आज्ञानुसार इस तरह लिखने लगे -

(1) कम्बख्त दारोगा सजा पाने के लिए राजा साहब गोपालसिंह के हवाले किया जाय, राजा साहब जो मुनासिब समझें उसे सजा दें।

(2) शिखण्डी (दारोगा का चचेरा भाई), मायाप्रसाद, जैपालसिंह, हरनामसिंह, बिहारीसिंह, हरनामसिंह की लड़की, लीला, मनोरमा, नागर, बेगम, नौरतन और जमालो वगैरह भी जिन्हें जमानिया से घना संबंध है राजा गोपालसिंह के हवाले कर दिया जाय।

(3) बेगम के घर से निकली दौलत जो काशीराज ने यहां भेजवा दी है बलभद्रसिंह को दे दी जाय।

(4) गौहर और गिल्सन शेर अली खां के पास भेज दी जायं।

(5) किशोरी से पूछकर भीमसेन छोड़ दिया जाय। और उसे पुनः शिवदत्त की गद्दी पर बैठाया जाय।

(6) कुबेरसिंह, बाकरअली, अजायबसिंह, खुदाबख्श, यारअली, धर्मसिंह, गोविंदसिंह, भगवनिया, ललिता और धन्नूसिंह, तथा वे कैदी जो कमलिनी के तालाब वाले मकान से आये थे सब जन्म भर के लिए कैदखाने में भेज दिये जायं इसके अतिरिक्त और भी जो कैदी हों, (नानक इत्यादि) कैदखाने में भेज दिए जायं।

(7) दलीपशाह, अर्जुनसिंह, हरदीन, भरतसिंह और गिरिजाकुमार को राजा गोपालसिंह ले जायं और इन सभों को बड़ी खातिर और अरमान के साथ रखें।

कैदियों के विषय में इस तरह का हुक्म देकर महाराज चुप हो गये ओैर फिर आपस में दूसरे ढंग की बातें होने लगीं। थोड़ी देर के बाद दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये।

 

बयान - 5

कुंअर इंद्रजीतसिंह इस छोटे-से दरबार से उठकर महल में गये और किशोरी के कमरे में पहुंचे। इस समय कमलिनी भी उसी कमरे में मौजूद किशोरी से हंसी-खुशी की बातें कर रही थी। कुमार को देखकर दोनों उठ खड़ी हुईं और जब हंसते हुए कुमार बैठ गए तो किशोरी भी उनके सामने बैठ गई मगर कमलिनी कमरे के बाहर की तरफ चल पड़ी। उस समय कुमार ने उसे रोका और कहा, ''तुम कहां चलीं बैठो-बैठो, इतनी जल्दी क्या पड़ी है?'

कम - (बैठती हुई) बहुत अच्छा बैठती हूं, मगर क्या आज रात को सोना नहीं है?

कुमार - क्या यह बात मेरे आने से पहले नहीं सूझी थी?

किशोरी - आपको देख के सोना याद आ गया।

किशोरी की बात ने दोनों को हंसा दिया और कमलिनी ने कहा -

कमलिनी - दलीपशाह के किस्से ने मेरे दिल पर एक ऐसा असर किया है कि कह नहीं सकती। देखा चाहिए दुष्टों को महाराज क्या सजा देते हैं! सच तो यों है कि उनके लिए कोई सजा है ही नहीं।

कुमार - तुम ठीक कहती हो, इस समय मैं महाराज के पास से चला आता हूं, वहां एक छोटा-सा निज का दरबार लगा हुआ था और कैदियों ही के विषय में बातचीत हो रही थी, बल्कि यों कहना चाहिए कि उन बदमाशों का फैसला लिखा जा रहा था।

कमलिनी - (उत्कंठा से) हां! अच्छा बताइये तो सही दारोगा और जैपाल के लिए क्या सजा तजवीज की गई?

कुमार - उन्हें क्या सजा दी जायगी इसका निश्चय गोपाल भाई करेंगे, क्योंकि महाराज ने इस समय यही हुक्म लिखवाया है कि दारोगा, जैपाल, शिखंडी, हरनाम, बिहारी, मनोरमा और नागर वगैरह जितने जमानिया और गोपाल भाई से संबंध रखने वाले कैदी हैं सब उनके हवाले किये जाएं और वे जो कुछ मुनासिब समझें उन्हें सजा दें।

कमलिनी - चलिए यह भी अच्छा हुआ, क्योंकि मुझे इस बात का बहुत बड़ा खयाल बना हुआ था कि हमारे रहमदिल महाराज इन कैदियों के लिए कोई अच्छी सजा नहीं तजवीज कर सकेंगे, अगर वे लोग जीजाजी के सुपुर्द किये गये हैं तो उन्हें सजा भी वाजिब ही मिल जाएगी।

कुमार - (हंसकर) अच्छा तुम ही बताओ कि अगर सजा देने के लिए सब कैदी तुम्हारे सुपुर्द किए जाते तो तुम उन्हें क्या सजा देतीं?

कमलिनी - मैं (कुछ सोचकर) मैं पहले तो इन सभों के हाथ-पैर कटवा डालती, फिर इनके जख्म आराम करवाकर बड़े-बड़े लोहे के पिंजड़ों में इन्हें बंद करके और सदर चौमुहानी पर लटकाकर हुक्म देती कि जितने आदमी इस राह से जायें वे सब इनके मुंह पर थूककर तब आगे बढ़ें।

कुमार - (मुस्कराकर) सजा तो बहुत अच्छी सोची है, तो बस अपने जीजा साहब को समझा देना कि उन्हें ऐसी ही सजा दें।

कमलिनी - जरूर कहूंगी बल्कि इस बात पर जोर दूंगी। यह बताइए कि नानक के लिए क्या हुक्म हुआ है?

कुमार - केवल इतना ही कि जन्म भर के लिए कैदखाने भेज दिया जाय। बाकी के और कैदियों के लिए भी यही हुक्म हुआ!

किशोरी - भीमसेन के लिए भी यही हुक्म हुआ होगा?

कुमार - नहीं, उसके लिए दूसरा ही हुक्म हुआ।

किशोरी - वह क्या?

कुमार - वह तुम्हारा भाई है इसलिए हुक्म हुआ कि तुमसे पूछकर वह एकदम छोड़ दिया जाय, बल्कि शिवदत्तगढ़ की गद्दी पर बैठा दिया जाय।

किशोरी - जब उसे छोड़ देने ही का हुक्म हुआ तो मुझसे पूछना कैसा!

कुमार - यही कि शायद तुम उसे छोड़ना न चाहो तो कैद ही में रखा जाय।

किशोरी - भला मैं इस बात को कब पसंद करूंगी कि मेरा भाई जन्म-भर के लिए कैद रहे मगर हां इतना खयाल जरूर है कि कहीं वह छूटने के बाद पुनः आपसे दुश्मनी न करे।

कुमार - खैर अगर पुनः बदमाशी करेगा तो देखा जायगा।

कमलिनी - (मुस्कराती हुई) उसके विषय में तो चपला चाची से पूछना चाहिए, क्योंकि वह असल में उन्हीं का कैदी है। अगर सूअर के शिकार में उन्होंने उसे गिरफ्तार किया था।1 तो तरह-तरह की कसमें खिलाकर छोड़ा था कि भविष्य में पुनः दुश्मनी पर कमर न बांधेगा।

कुमार - बात तो ऐसी ही थी मगर नहीं, अब वह दुश्मनी का बर्ताव न करेगा। (किशोरी से) अगर कहो तो तुम्हारे पास उसे बुलवाऊं जो कुछ तुम्हें कहना-सुनना हो कह-सुन लो।

किशोरी - नहीं-नहीं, मैं बाज आई, मैं स्वप्न में भी उससे मिलना नहीं चाहती जो कुछ उसकी किस्मत में बदा होगा, भोगेगा।

कुमार - आखिर उसे छोड़ने के विषय में तुमसे पूछा जायगा तो क्या जवाब दोगी?

किशोरी - (कमलिनी की तरफ देखकर और मुस्कराकर) बस कह दूंगी कि मेरे बदले चपला चाची से पूछ लिया जाय क्योंकि वह उन्हीं का कैदी है।

कुमार - खैर इन बातों को जाने दो, (कमलिनी से) जमानिया तिलिस्म के अंदर मायारानी और माधवी के मरने का सबब मुझे अभी तक मालूम न हुआ। इसका पता न लगा कि वे दोनों खुद मर गईं या गोपाल भाई ने उन्हें मार डाला! और अगर भाई साहब ने ही उन्हें मार डाला तो ऐसा क्यों किया?

कमलिनी - इसका असल हाल तो मुझे भी मालूम नहीं है, मैंने दो दफे जीजाजी से इस विषय में पूछा था मगर वह बात टालकर बतोला दे गए।

कुमार - मैंने भी एक दफे उनसे पूछा था तो यह कहकर रह गये कि फिर कभी बता देंगे।

किशोरी - बहिन लक्ष्मीदेवी को इसका हाल जरूर मालूम होगा।

कमलिनी - उन्हें बेशक मालूम होगा, उन्होंने भुलावा देकर जरूर पूछ लिया होगा। इस समय तो वे अपने रंगमहल में होंगी नहीं तो मैं जरूर बुला लाती।

कुमार - नहीं, आज तो अकेली ही अपने कमरे में बैठी होंगी क्योंकि इस समय गोपाल भाई इंद्रदेव को साथ लेकर कहीं बाहर गए हैं, मुझसे कह गए हैं कि कल पहर दिन तक आवेंगे।

कमलिनी - तब तो कहिए, मैं जाकर बुला लाऊं?

कुमार - अच्छा जाओ।

कमलिनी उठकर चली गई और थोड़ी देर में लक्ष्मीदेवी को साथ लिए हुए आ पहुंची।

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, पहला भाग, आठवां बयान।

लक्ष्मी - (मुस्कराती हुई) कहिए क्या है जो इतनी रात गए मेरी याद हुई है?

कुमार - मैंने सोचा कि आज आप अकेली उदास बैठी होंगी अतएव मैं ही बुलाकर आपका दिल खुश करूं।

लक्ष्मी - (हंसकर) क्या बात है! बेशक आपकी मेहरबानी मुझ पर बहुत ज्यादे रहती है। (बैठकर) यह बताइये कि आप लोगों में किसी तरह की हुज्जत-तकरार तो नहीं हुई है जो मुझे फैसला करने के लिए बुलाया है।

कुमार - ईश्वर न करे ऐसा हो, हां इतना जरूर है कि माधवी और मायारानी की मौत के विषय में तरह-तरह की बातें हो रही हैं क्योंकि उन दोनों के मरने का असल हाल तो किसी को मालूम नहीं है और न भाई साहब ने पूछने पर किसी को बताया ही, इसलिए आपको तकलीफ दी है क्योंकि मुझे पूरा विवास है कि आपने किसी-न-किसी तरह यह हाल जरूर पूछ लिया होगा।

लक्ष्मी - (मुस्कराकर) बेशक बात तो ऐसी ही है, मैंने जिद करके किसी-न-किसी तरह उनसे पूछ तो लिया मगर सुनने से घृणा हो गई। इसीलिए वे भी यह हाल किसी से खुलकर नहीं कहते और समझते हैं कि जो कोई सुनेगा उसी को घृणा होगी। इसी खयाल से आपको भी उन्होंने टाल दिया होगा।

कुमार - आखिर उसमें क्या बात है कुछ भी तो बताओ।

लक्ष्मी - माधवी को तो उन्होंने नहीं मारा मगर मायारानी को जरूर मारा और इस बेइज्जती और तकलीफ से मारा कि सुनने से रोंगटे खड़े होते हैं। यद्यपि माधवी को उन्होंने कुछ भी नहीं कहा मगर मायारानी की मौत की कार्रवाई वह देख न सकी जो उसके सामने की जाती थी और उसी डर से वह बेहोश होकर मर गई। इसमें कोई ऐसी अनूठी बात नहीं है जो सुनने लायक हो। मुझे वह हाल बयान करते लज्जा और घृणा होती है अस्तु...।

कुमार - बस-बस मैं समझ गया, इससे ज्यादा सुनने की मुझे कोई जरूरत नहीं है केवल इतना ही जानना था कि उनकी मौत के विषय में कोई अनूठी बात तो नहीं हुई है।

लक्ष्मी - जी नहीं। अच्छा यह तो बताइए कि कल कैदी लोगों के विषय में क्या किया जायगा दलीपशाह का किस्सा तो समाप्त हो गया और अब कोई ऐसी बात मालूम करने लायक भी नहीं रह गई है।

कुमार - कैदियों का मामला तो कब का साफ हो गया, इस समय तो महाराज ने उनके विषय में हुक्म भी लिख दिया है जो कल या परसों के दरबार में सभों को सुना दिया जाएगा।

लक्ष्मी - किस-किस के लिए क्या हुक्म हुआ है?

इसके जवाब में कुमार ने फैसले का सब हाल बयान किया जो थोड़ी देर पहले किशोरी और कमलिनी को सुना चुके थे।

लक्ष्मी - बहुत अच्छा फैसला हुआ है।

किशोरी - (हंसकर) क्यों न कहोगी। तुम्हारे दुश्मन तुम्हारे कब्जे में दे दिए गये, अब तो दिल खोलकर बदला लोगी।

लक्ष्मी - बेशक! (कुमार से) हां, यह तो बताइए कि भूतनाथ ने अपनी जीवनी लिखकर दे दी या नहीं?

कुमार - नहीं, आज देने वाला है?

लक्ष्मी - और हम लोगों को उस तिलिस्मी मकान का तमाशा कब दिखाया जायगा जिसमें लोग हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं।

कुमार - परसों या कल उसका भेद भी सभों पर खुल जाएगा।

लक्ष्मी - अच्छा यह तो बताइये कि आपके भाई साहब कहां गए हैं?

किशोरी - (हंसकर ताने के ढंग पर) आखिर रहा न गया! पूछे बिना जी न माना!

इतने में ही बाहर की तरफ से आवाज आई, ''इसमें भी क्या किसी का इजारा है ये अपनी चीज की खबरदारी करती है किसी दूसरे की जमा नहीं छीनती! बहुत दिनों के बाद जो खोई चीज मिलती है उसके लिए अकारण पुनः खो जाने का खटका बना ही रहता है इसलिए अगर इन्होंने पूछा तो बुरा ही क्या किया!''

इस आवाज के साथ ही कमला पर सभों की निगाह पड़ी जो मुस्कराती हुई कमरे के अंदर आ रही थी।

किशोरी - (हंसती हुई) यह आई लक्ष्मी बहिन की तरफदार बीबी नक्को। तुमको यहां किसने बुलाया था?

कमला - (मुस्कराती हुई) बुलावेगा कौन क्या मेरा रास्ता देखा हुआ नहीं है यह तो बताओ कि तुम लोग इस आधी रात के समय इतना गुल-शोर क्यों मचा रही हो?

किशोरी - (मसखरेपन के साथ हाथ जोड़कर) जी हम लोगों को इस बात की खबर न थी कि इस शोर-गुल से आपकी नींद उचट जायगी और फिर सादी चारपाई पर पड़े रहना मुश्किल होगा।

कुमार - यह क्यों नहीं कहतीं कि अकेले जी नहीं लगता, लोगों को खोजती फिरती हूं।

कमला - जी हां, आप ही को खोज रही थी।

कुमार - अच्छा तो फिर आओ बैठ जाओ और समझ लो कि मैं मिल गया।

कमला - (बैठकर किशोरी से) आज तुम्हें कोई आराम न करने देगा। (कुमार से) कहिए दलीपशाह का किस्सा तो खतम हो गया, अब कैदियों को कब सजा दी जाएगी।

कुमार - कैदियों का फैसला हो गया, उसमें किसी को ऐसी सजा नहीं दी गई जो तुम्हारे पसन्द हो।

इतना कहकर कुमार ने पुनः सब हाल बयान किया।

कमला - तो मैं बहिन लक्ष्मीदेवी के साथ जरूर जमानिया जाऊंगी और दारोगा वगैरह की दुर्दशा अपनी आंखों से देखूंगी।

थोड़ी देर तक इसी तरह की हंसी-दिल्लगी होती रही, इसके बाद लक्ष्मीदेवी और कमला अपने-अपने ठिकाने चली गईं।

 

बयान - 6

सुबह की सफेदी आसमान पर फैला ही चाहती है और इस समय की दक्षिणी हवा जंगली पेड़ों और पौधों-लताओं और पत्तों से हाथापाई करती हुई मैदान की तरफ दौड़ी जाती है। ऐसे समय में भूतनाथ और देवीसिंह हाथ में हाथ दिए जंगल के किनारे-किनारे मैदान में टहल रहे हैं और धीरे-धीरे हंसी-दिल्लगी की बात करते जाते हैं।

देवी - भूतनाथ, लो इस समय एक नई और मजेदार बात तुम्हें सुनाते हैं।

भूत - वह क्या?

देवी - फायदे की बात है, अगर तुम कोशिश करोगे तो लाख-दो लाख रुपया मिल जायगा।

भूत - ऐसा कौन-सा उद्योग है जिसके करने से सहज ही इतनी बड़ी रकम हाथ लग जायगी और अगर इस बात को तुम जानते ही हो तो खुद क्यों नहीं उद्योग करते?

देवी - मैं भी उद्योग करूंगा मगर यह कोई जरूरी बात नहीं है कि जिसका जी चाहे उद्योग करके लाख-दो लाख पा जाय, हां जिसका जेहन लड़ जायगा और जिसकी अक्ल काम कर जाएगी वह बेशक अमीर हो जायगा। मैं जानता हूं कि हम लोगों में तुम्हारी तबीयत बड़ी तेज है और तुम्हें बहुत दूर की सूझा करती है इसलिए कहता हूं कि अगर तुम उद्योग करोगे तो लाख-दो लाख रुपया पा जाओगे। यद्यपि हम लोग सदा ही अमीर बने रहते हैं और रुपए-पैसे की कुछ परवाह नहीं करते मगर फिर भी यह रकम थोड़ी नहीं है, और तिस पर बाजी के ढंग पर जीतना ठहरा, इसलिए ऐसी रकम पाने की खुशी हौती है।

भूत - आखिर बात क्या है कुछ कहो भी तो सही?

देवी - बात यही है कि वह जो तिलिस्मी मकान बनाया गया है, जिसके अन्दर लोग हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं, उसके विषय में महाराज ने रात को हुक्म दिया है कि तिलिस्मी मकान के ऊपर सर्वसाधारण लोग तो चढ़ चुके और किसी को कामयाबी नहीं हुई, अब कल हमारे ऐयार लोग उस पर चढ़कर अपनी अक्ल का नमूना दिखावें और इनके लिए इनाम भी दुगना कर दिया जाए, मगर इस काम में चार आदमी शरीक न किए जायें - एक जीतसिंह, दूसरे तेजसिंह, तीसरे भैरो, चौथे तारा।

भूत - बात तो बहुत अच्छी हुई, कई दिनों से मेरे दिल में गुदगुदी हो रही थी कि किसी तरह इस मकान के ऊपर चढ़ना चाहिए मगर महाराज की आज्ञा बिना ऐसा कब कर सकता था। मगर यह तो कहो कि उन चारों के लिए मनाही क्यों कर दी गई?

देवी - इसलिए कि उन्हें इसका भेद मालूम है।

भूत - यों तो तुमको भी कुछ-न-कुछ भेद मालूम ही होगा क्योंकि एक दफे तुम भी ऐसे ही मकान के अन्दर जा चुके हो जब शेरसिंह भी तुम्हारे साथ थे।

देवी - ठीक है मगर इससे क्या असल भेद का पता लग सकता है अगर ऐसा ही हो तो इस जलसे में हजारों आदमी उस मकान के अन्दर गए होंगे, किसी को दोहराकर जाने की मनाही तो थी नहीं, कोई पुनः जाकर जरूर बाजी जीत ही लेता।

भूत - आखिर उसमें क्या है?

देवी - सो मुझे नहीं मालूम हां, दो दिन के बाद वह भी मालूम हो जायगा।

भूत - पहले दफे जब तुम ऐसे ही मकान के अन्दर कूदे थे तो उसमें क्या देखा था और हंसने की क्या जरूरत पड़ी थी?

देवी - अच्छा उस समय जो कुछ हुआ था सो मैं तुमसे बयान करता हूं क्योंकि अब उसका हाल कहने में कोई हर्ज नहीं है। जब मैं कमन्द लगाकर दीवार के ऊपर चढ़ गया तो ऊपर से दीवार बहुत चौड़ी मालूम हुई और इस सबब से बिना दीवार पर गए भीतर की कोई चीज दिखाई नहीं देती थी, अस्तु मैं लाचार होकर दीवार पर चढ़ गया और अन्दर झांकने लगा। अन्दर की जमीन पांच या चार हाथ नीची थी जो कि मकान की छत मालूम होती थी, मगर इस समस मैं अन्दाज से कह सकता हूं कि वह वास्तव में छत न थी, बल्कि कपड़े का चन्दवा तना हुआ या किसी शामियाने की छत थी, मगर उसमें से एक प्रकार की ऐसी भाप (वाष्प) निकल रही थी कि जिससे दिमाग में नशे की-सी हालत पैदा होती थी और खूब हंसने को जी चाहता था मगर पैरों में कमजोरी मालूम होती थी और वह बढ़ती जाती थी...।

भूत - (बात काटकर) अच्छा यह तो बताओ कि अन्दर झांकने से पहले ही कुछ नशा-सा चढ़ आया था या नहीं?

देवी - कब दीवार पर चढ़ने के बाद?

भूत - हां, दीवार पर चढ़ने के बाद और अन्दर झांकने के पहले।

देवी - (कुछ सोचकर) नशा तो नहीं मगर कुछ शिथिलता जरूर मालूम हुई थी।

भूत - खैर अच्छा, तब?

देवी - अन्दर की तरफ जो छत थी उस पर मैंने देखा कि किशोरी हाथ में एक चाबुक लिए खड़ी है और उसके सामने की तरफ कुछ दूर हटकर कई मोटे ताजे आदमी खड़े हैं जो किशोरी को पकड़कर बांधना चाहते हैं मगर वह किसी के काबू में नहीं आती। ताल ठोंक-ठोंककर लोग उसकी तरफ बढ़ते हैं मगर वह कोड़ा मार-मारकर हटा देती है। ऐसी अवस्था में उन आदमियों की मुद्रा (जो किशोरी को पकड़ना चाहते थे) ऐसी खराब होती थी कि हंसी रोके नहीं रुकती थी, तथा उस भाप की बदौलत आया हुआ नशा हंसी को और भी बढ़ा देता था। पैरों में पीछे हटने की ताकत न थी मगर भीतर की तरफ कूद पड़ने में किसी तरह का हर्ज भी नहीं मालूम था क्योंकि जमीन ज्यादा नीची न थी, अस्तु मैं अन्दर की तरफ कूद पड़ा बल्कि यों कहो कि ढुलक पड़ा और उसके बाद तनोबदन की सुध न रही। मैं नहीं जानता कि उसके बाद क्या हुआ और क्योंकर हुआ, हां, जब मैं होश में आया तो अपने को कैद में पाया।

भूत - अच्छा तो इससे तुमने क्या नतीजा निकाला?

देवी - कुछ भी नहीं, केवल इतना ही खयाल किया कि किसी दवा के नशे से दिमाग खराब हो जाता है।

भूत - केवल इतना ही नहीं है, मैंने इससे कुछ ज्यादे खयाल किया है, खैर कोई चिन्ता नहीं कल देखा जाएगा, सौ में नब्बे दर्जे तो मैं जरूर बाहरी रास्ते ही से लौट जाऊंगा। यहां उस तिलिस्मी मकान के अन्दर लोगों ने जो कुछ देखा है वह भी करीब-करीब वैसा ही है जैसा तुमने देखा था, तुमने किशोरी को देखा और इन लोगों ने किसी दूसरी औरत को देखा, बात एक ही है।

इसी तरह की बातें करते हुए दोनों ऐयार कुछ देर तक सुबह की हवा खाते रहे और इसके बाद मकान की तरफ लौटे। जब महाराज के पास गये तो पुनः सुनने में आया कि ऐयारों को तिलिस्मी मकान पर चढ़ने की आज्ञा हुई है।

 

बयान - 7

दिन अनुमान दो घण्टे चढ़ चुका है। महाराज सुरेन्द्रसिंह, राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, इन्द्रजीसिंह और आनन्दसिंह वगैरह खिड़कियों में बैठे उस तिलिस्मी मकान की तरफ देख रहे हैं जिसके अन्दर लोग हंसते-हंसते कूद पड़ते हैं। उस मकान के नीचे बहुत-सी कुर्सियां रखी हुई हैं जिन पर हमारे ऐयार तथा और भी कई प्रतिष्ठित आदमी बैठे हुए हैं और सब लोग इस बात का इन्तजार कर रहे हैं कि इस मकान पर बारी-बारी से ऐयार लोग चढ़ें और अपनी अक्ल का नमूना दिखावें।

और ऐयारों की पोशाक तो मामूली ढंग की है मगर भूतनाथ इस समय कुछ अजब ढंग की पोशाक पहने हुए है। सिवाय चेहरे के उसका कोई अंग खुला हुआ नहीं। ढीला-ढाला मोटा पायजामा और गंवारू रूईदार अचकन के अतिरिक्त बहुत बड़ा काता मुंड़ासा बांधे हुए है। जिसका पिछला सिरा पीठ पर से होता हुआ जमीन तक लटक रहा है। हाथ दोनों बल्कि नाखून तक अचकन की आस्तीन में घुसा रखे हैं और पैर के जूते की भी विचित्र सूरत हो रही है। भूतनाथ का मतलब चाहे कुछ भी क्यों न हो मगर लोग इसे केवल मसखरापन ही समझ रहे हैं।

सबके पहले पन्नालाल उस मकान की दीवार पर चढ़ गये और अन्दर की तरफ झांककर देखने लगे, मगर पांच-सात पल से ज्यादे अपने को न बचा सके और हंसते हुए अन्दर की तरफ कूद पड़े।

इसके बाद पण्डित बद्रीनाथ, रामनारायण और चुन्नीलाल ने कोशिश की मगर ये तीनों भी लौटकर न आ सके और पन्नालाल की तरह हंसते हुए अन्दर कूद पड़े। इसके बाद और ऐयारों ने भी उद्योग किया मगर कोई सफल-मनोरथ न हुआ। यहां तक कि जीतसिंह, तेजसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह को छोड़कर सभी ऐयार बारी-बारी से जाकर मकान के अन्दर कूद पड़े, केवल भूतनाथ रह गया जिसने सबके आखिर में चढ़ने का इरादा कर लिया था।

भूतनाथ मस्तानी चाल से चलता हुआ सीढ़ी के पास गया और धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा। देखते ही देखते वह दीवार के ऊपर जा पहुंचा। उस पर खड़े होकर एक दफे चारों और मैदान के अन्दर की तरफ झांका। यहां जो कुछ था उसे देखने के बाद उसने अपना चेहरा उस तरफ किया जिधर खिड़कियों में बैठे हुए महाराज और राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह बड़े शौक से उसकी कैफियत देख रहे थे। भूतनाथ ने हाथ उठाकर तीन दफे महाराज को सलाम किया और जोर से पुकारकर कहा, ''मैं इसके अन्दर झांककर देख चुका और बड़ी देर तक दीवार पर खड़ा रहा, अब हुक्म हो तो नीचे उतर आऊं!''

महाराज ने नीचे उतर आने का इशारा किया और भूतनाथ मुस्कराता हुआ मकान के नीचे उतर आया, इस बीच में ऐयार लोग भी जो भूतनाथ के पहले मकान के अन्दर कूद चुके थे घूमते हुए बड़े तिलिस्मी मकान के अन्दर से आ पहुंचे और भूतनाथ की कैफियत देख-सुनकर ताज्जुब करने लगे।

भूतनाथ के उतर आने के बाद सब ऐयार मिल-जुलकर महाराज के पास गये ओर महाराज ने प्रसन्न होकर भूतनाथ को दो लाख रुपये इनाम देने का हुक्म दिया। सभी ऐयारों को इस बात का ताज्जुब था कि उस तिलिस्म का असर भूतनाथ पर क्यों नहीं हुआ और वह कैसे सभों को बेवकूफ बनाकर आप बु़द्धिमान बन बैठा और दो लाख रुपये का इनाम भी पा गया।

जीतसिंह - भूतनाथ, यह तुमने क्या किया कौन-सी तरकीब निकाली जिससे इस तिलिस्मी हवा का तुम पर कुछ भी असर न हुआ?

भूत - बात मामूली-सी है, जब तक मैं नहीं कहता तभी तक आश्चर्य मालूम पड़ता है।

तेज - आखिर कुछ कहो भी तो सही।

भूत - मेरे दिल को इस बात का निश्चय हो गया था कि इस मकान के अन्दर से किसी तरह की हवा, भाप या धुआं ऊपर की तरफ जरूर उठता है जो झांक कर देखने वाले के दिमाग में सांस के रास्ते से चढ़कर उसे मदहोश या पागल बना देता है, और दीवार के ऊपरी हिस्से पर भी कुछ-कुछ बिजली का असर जरूर है जो उस पर पैर रखने वाले के शरीर को शिथिल कर देती है या और भी किसी तरह का असर कर जाती है। मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूं कि लकड़ी पर बिजली का असर कुछ भी नहीं होता, अर्थात् जिस तरह धातु, मिट्टी, जल, चमड़ा और शरीर में बिजली घुसकर पार निकल जाती है उस तरह लकड़ी का छेदकर बिजली पार नहीं हो सकती अतएव मैंने अपने पैर में लकड़ी के बुरादे का थैला चढ़ा लिया, बल्कि जूते के अन्दर भी लकड़ी की तख्ती रख दी, जिससे दीवार से पैदा होने वाली बिजली का मुझ पर असर न हो, इसके बाद बेहोशी का असर न होने के लिए दवा भी खा ली, इतना करने पर भी जब तक मैं मकान के अन्दर झांकता रहा तब तक अपनी सांस को रोके रहा। मैंने अन्दर की तरफ चलती-फिरती और नाट्य करके हंसाने वाली पुतलियों को देखा और उस पीतल की चादर पर भी ध्यान दिया जो दीवार के ऊपर जड़ी थी और जिसके साथ कई तारें भी लगी हुई थीं। यद्यपि उसका असल भेद मुझे मालूम न हुआ मगर मैंने अपने बचाव की सूरत निकाल ली।

इतना कहकर भूतनाथ ने खंजर की नोक से अपने पायजामे में एक छेद कर दिया और उसमें से लकड़ी का बुरादा निकालकर सभों को दिखाया। भूतनाथ की बातें सुनकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भूतनाथ तथा और ऐयारों की तरफ देखकर कहा, ''वास्तव में भूतनाथ ने बहुत ठीक तरकीब सोची। उस तिलिस्म के अन्दर जो कुछ भेद है, हम बता देते हैं, इसके बाद तुम लोग उसके अन्दर जाकर देख लेना। जमानिया तिलिस्म के अन्दर से इन्द्रजीतसिंह एक कुत्ता लाये हैं जो देखने में बहुत छोटा और संगमरमर का बना हुआ मालूम होता है और बहुत-सी पीतल की बारीक तारें उस पर लिपटी हुई हैं। असल में वह कुत्ता कई तरह के मसालों और दवाइयों से बना हुआ है। वह कुत्ता जब पानी में छोड़ दिया जाता है तो उसमें से मस्त और मदहोश कर देने वाली भाप निकलती है और उसके साथ जो तारें लिपटी हुई हैं उनमें बिजली पैदा हो जाती है। दीवार के ऊपर जो पीतल की चादर बिछाई गई है उसी के साथ वे तारें लगा दी गई हैं और उनसे कुछ नीचे हटकर एक अच्छे तनाव का शामियाना तान दिया गया है जिससे कूदने वाले को चोट न लगे। इसके अतिरिक्त(भूतनाथ से) जिन्हें तुम पुतलियां कहते हो वे वास्तव में पुतलियां नहीं हैं बल्कि जीते-जागते आदमी हैं जो भेष बदलकर काम करते हैं और एक खास किस्म की पोशाक पहिरने और दवा सूंघने के सबब उन सब पर उस बिजली ओैर बेहोशी का असर नहीं होता। इस खेल के दिखाने की तरकीब भी एक ताम्रपत्र पर लिखी हुई है जो उसी कुत्ते के साथ पाया गया था। इन्द्रजीत का बयान है कि जमानिया तिलिस्म में इस तरह के और भी कुत्ते मौजूद हैं।

महाराज की बातें सुनकर सभों को बड़ा ताज्जुब हुआ, इसी तरह हमारे पाठक महाशय भी ताज्जुब करते और सोचते होंगे कि यह तमाशा संभव है या असम्भव मगर उन्हें समझ रखना चाहिए कि दुनिया में कोई बात असम्भव नहीं है। जो अब असम्भव है वह पहले जमाने में सम्भव थी और जो पहिले जमाने में असम्भव थी वह आज सम्भव हो रही है। 'दीवार कहकहा' वाली बात आप लोगों ने जरूर सुनी होगी। उसके विषय में भी यही कहा जाता है कि उस दीवार पर चढ़कर दूसरी तरफ झांकने वाला हंसता-हंसता दूसरी तरफ कूद पड़ता है और फिर उस आदमी का पता नहीं लगता कि क्या हुआ और कहां गया। इस मशहूर और ऐतिहासिक बात को कई आदमी झूठ समझते हैं मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। इसके विषय में हम नीचे एक लेख की नकल करते हैं जो तारीख 14 मार्च सन् 1905 ई. के अवध अखबार में छपा था -

''अगले जमाने में फिलासफर (वैज्ञानिक लोग) अपनी बु़द्धि से जो चीजें बना गये हैं अब तक यादगार हैं। उनकी छोटी-सी तारीफ यह है कि इस समय के लोग उनके कामों को समझ भी नहीं सकते। उनके ऊंचे हौसले और ऊंचे खयाल की निशानी चीन के हाते की दीवार है और हिन्दुस्तान में भी ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनका किस्सा आगे चलकर मैं लिखूंगा। इस समय 'दीवार कहकहा' पर लिखना चाहता हूं।

मैंने सन् 1899 ई. में 'अखबार आलम' मेरठ में कुछ लिखा था जिसकी मालिक अखबार ने बड़ी प्रशंसा की थी, अब उसके और विशेष सबब खयाल में आये हैं जो बयान करना चाहता हूं।

मुसलमानों के प्रथम राज्य में उस समय के हाकिम ने इस दीवार की अवस्था जानने के लिए एक कमीशन भेजा था जिसके सफर का हाल दुनिया के अखबारों से प्रकट हुआ है।

संक्षेप में यह कि कई आदमी मरे परन्तु ठीक तौर पर नहीं मालूम हो सका कि उस दीवार के उस तरफ क्या हाल-चाल है।

उसकी तारीफ इस तरह पर है कि उस दीवार की ऊंचाई पर कोई आदमी जा नहीं सकता और जो जाता है वह हंसते-हंसते दूसरी तरफ गिर जाता है, यदि गिरने से किसी तरह रोक लिया जाय तो जोर से हंसते-हंसते मर जाता है।''

यह एक तिलिस्म कहा जाता है या कोई और बात है, पर यदि सोचा जाय तो यह कहा जायगा कि अवश्य किसी बु़द्धिमान आदमी ने हकीमी कायदे से इस विचित्र दीवार को बनाया है।

यह दीवार अवश्य कीमियाई विद्या से मदद लेकर बनाई गई होगी।

यह बात जो प्रसिद्ध है कि दीवार के उस तरफ जिन्न और परी रहते हैं जिनको देखकर मनुष्य पागल हो जाता है और उसी तरफ को दिल दे देता है, यह बात ठीक हो सकती है परन्तु हंसता क्यों है यह सोचने की बात है।

काश्मीर में केशर के खेत की भी यही तारीफ है। तो क्या उसकी सुगन्ध वहां जाकर एकत्र होती है, या वहां भी केशर के खेत हैं जिससे हंसी आती है परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा होता तो यह भी मशहूर होता कि केशर की महक आती है। नहीं-नहीं, कुछ और ही हिकमत है जैसा कि हिन्दुस्तान में किसी शहर के मसजिद की मीनारों में यह तारीफ थी कि ऊपर खड़े होकर पानी का भरा गिलास हाथ में लो तो वह आप ही आप छलकने लगता था। इसकी जांच के लिए एक इन्जीनियर साहब ने उसे गिरवा दिया और फिर उसी जगह पर बनवाया परन्तु वह बात न रही। या आगरा में ताजबीबी के रौजे के फव्वारों के नल जो मिट्टी के खरनेचे की तरह थे जैसे खपरैल या बगीचे के नल होते हैं। संयोग से फव्वारों का एक नल टूट गया, उसकी मरम्मत की गई, दूसरी जगह से फट गया यहां तक कि तीस-चालीस वर्ष से बड़े-बड़े कारीगरों ने अपनी-अपनी कारीगरी दिखाई परन्तु सब व्यर्थ हुआ। अब तक तलाश है कि कोई उसे बनाकर अपना नाम करे, मतलब यह कि 'दीवार कहकहा' भी ऐसी ही कारीगरी से बनी है जिसकी कीमियाई बनावट मेरी समझ में यों आती है कि सतह जहां जमीन से आसमान तक कई हिस्सों में अलग की गई लम्बाई का भाग कई हवाओं से मिला है जैसे आक्सीजन,नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बोलिकएसिड गैस, क्लोराइन इत्यादि। फिर इन हवाओं में से और भी कई चीजें बनती हैं जैसा कि नाइट्रोजन का एक मोरक्कब पुट ओक्साइड आफ नाइट्रोजन है (जिसको लाफिंग गैस भी कहते हैं।) बस दुनिया के उस सतह पर जहां लाफिंग गैस जिसको हिन्दी में हंसाने वाली हवा कहते हैं पाई गई है, उस जगह पर यह दीवार सतह जमीन से ऊंचाई तक बनाई गई है। इस जगह पर बड़ी दलील यह होगी कि फिर वह बनाने वाले आदमी कैसे उस जगह अपने होश में रहेंगे, वह क्यों न हंसते-हंसते मर गये और यही हल करना पहले मुझसे रह गया था जिसे अब उस नजीर से जो अमेरिका में कायम हुई है हल करता हूं, याने जिस तरह एक मकान कल के सहारे एक जगह से उठाकर दूसरी जगह रख दिया जाता है उसी तरह यह दीवार भी किसी नीची जगह में इतनी ऊंची बनाकर कल से उठाकर उस जगह रख दी गई है जहां अब है। लाफिंग गैस में यह असर है कि मनुष्य उसके सूंघने से हंसते-हंसते दम घुटकर मर जाता है।

अब यह बात रही कि आदमी उस तरफ क्यों गिर पड़ता है इस खिंचाव को भी हम समझे हुए हैं परन्तु उसकी केमिस्ट्री (कीमियाई) अभी हम न बतावेंगे इसको फिर किसी समय पर कहेंगे।

दृष्टान्त के लिए यह नजीर लिख सकते हैं कि ग्वालियर की जमीन की यह तासीर है कि जो मनुष्य वहां जाता है, वहीं का हो जाता है, जैसे यह कहावत है कि एक कांवर वाला जिसके कांवर में उसके माता-पिता थे वहां पहुंचा और कांवर उतारकर बोला कि तुम्हारा जहां जी चाहे जाओ, मुझे तुमसे कुछ वास्ता नहीं। उसके तपस्वी माता-पिता बुद्धिमान थे, उन्होंने अपने प्यारे लड़के की आरजू-मिन्नत करके कहा कि हमको चम्बल दरिया के पार उतार दो फिर हम चले जाएंगे। लाचार होकर बड़ी हुज्जत से लड़का उनको दरिया के पार ले गया, ज्योंही उस पार हुआ त्योंही चाहा कि अपनी नादानी से लज्जित होकर माता-पिता के चरणों पर गिरकर माफी चाहे परन्तु उसकी माता ने कहा कि 'ऐ बेटा, तेरा कुछ कसूर नहीं, यह तासीर उस जमीन की थी।'

दीवार कहकहा के उस तरफ भी ऐसा ही खिंचाव है, जिसको हम ग्वालियर की हिस्टरी तैयार हो जाने पर यदि जीते रहे तो किसी समय परमेश्वर की कृपा से आप लोगों पर जाहिर करेंगे, अभी तो हमको यह विश्वास है कि इतिहास ग्वालियर के बनाने वाले ग्रेटर साहब ही इस खिंचाव के बारे में कुछ बयान करेंगे। इतिहास लेखक महाशय को चाहिए कि ग्वालियर की तारीफ में इस किस्से की हकीकत जरूर बयान करें कि कांवर वाले ने कांवर क्यों रख दी थी और इसकी तवारीख लिखें या इस किस्से को झूठ साबित करें, क्योंकि जो बात मशहूर होती है ग्रंथकर्ता को उसके झूठ-सच के बारे में जरूर कुछ लिखना चाहिए। तो भी इतिहास ग्वालियर तैयार हो जाने पर उस खिंचाव के बारे में जो दीवार के उस तरफ है पूरा-पूरा हाल लिखेंगे।

ग्वालियर की जमीन में तरह-तरह की खासियत है जिसको हम उस हिस्टरी की समालोचना में (यदि वह बातें हिस्टरी से बच रहीं) जाहिर करेंगे। दीवार कहकहा के सम्बन्ध में जहां तक अपना खयाल था आप लोगों पर प्रकट किया, याने दुनिया के उस हिस्से की सतह पर दीवार नहीं बनाई गई है जहां ओक्साइड आफ नाइट्रोजन है बल्कि पहले दूसरी जगह बनाकर फिर कल के जरिये से वहां उठाकर रख दी गई है। यदि यह कहा जाय कि गैस सिर्फ उसी जगह थी और जगह क्यों नहीं है तो उसका सहज जवाब यह है कि जमीन से आसमान तक तलाश करो किसी न किसी ऊंचाई पर तुमको मिल ही जाएगी। दूसरे यह कि कोई हवा सिर्फ खास जगह पर मिलती है मसलन बन्द जगह की हलाक करने वाली बन्द हवा, जैसा कि अक्सर कुएं में आदमी उतरते हैं और घबड़ाकर मर जाते हैं। यदि यह कहा जाय कि वहां हवा नहीं है तो यह नहीं हो सकता।

पिछले जमाने के आदमी अपनी कारीगरी का अच्छा-अच्छा नमूना छोड़ गये हैं - जैसे मिट्टी की मीनार, या नौशेरवानी बाग या जवाहिरात के पेड़ों पर चिड़ियों का गाना या आगरे का ताज जिसकी तारीफ में तारीख तुराब के बुद्धिमान लेखक ने किसी लेखक का यह फिकरा लिखा है जिसका संक्षेप यह है कि 'इसमें कुछ बुराई नहीं, यदि है तो यही है कि कोई बुराई नहीं'। देखिये आगरा में बहुत-सी बादशाही समय की टूटी-फूटी इमारतें हैं जिनमें पानी दौड़ाने के नल (पाइप) वैसे ही मिट्टी के हैं जैसे कि आजकल मिट्टी के गोल परनाले होते हैं, उन्हीं नलों से दूर-दूर से पानी आता और नीचे से ऊपर कई मरातिब तक जाता था। इसी तरह से ताजगंज के फव्वारों के नल भी थे तथा और भी इसी तरह के हैं जिनमें से एक के टूटने पर लोहे के नल लगाये गये, जब उनसे काम न चला तो बड़े-बड़े भारी पत्थरों में छेद करके लगाये गये, परंतु बेफायदा हुआ।

उन फव्वारों की तारीफ है कि जो जितना ऊंचा जा रहा है उतनी ही ऊंचाई पर यहां से वहां तक बराबर धारें गिरती हैं। अब जो कहीं बनते हैं तो धार बराबर करने को ऊंची-नीची सतह पर फव्वारे लगाने पड़ते हैं।

इसी तरह का तिलिस्म के विषय का एक लेख ता. 30 मार्च सन् 1905 के अवध अखबार में छपा था उसका अनुवाद भी हम नीचे लिखते हैं -

''गुजरे हुए जमाने की काबिले कदर यादगारो! तुमको याद कर-करके हम कहां तक रोएं और कहां तक विलाप करें जमाने के बेकदर हाथों की बदौलत तुम अब मिट गये और मिटते चले जाते हो, जमीन तुमको खा गई और उनको भी खा गई जो तुम्हारे जानने वाले थे, यहां तक कि तुम्हारा निशान तो निशान तुम्हारा नाम तक भी मिट गया!

खलीफा बिन उम्मीयां के जमाने में जिन दिनों अब्दुल मलिक बिनमर्दा की तरफ से उसका भाई अब्दुल अजीज बिनमर्दा मिस्र देश का गवर्नर था, एक दिन उसके सामने दफीना (जमीन के नीचे छिपा हुआ खजाना) का हाल बतलाने वाला कोई शख्स हाजिर हुआ। अब्दुल अजीज ने बात-बात ही में उससे कहा, 'किसी दफीना का हाल तो बतलाइये!' जिसके जवाब में उसने एक टीले का नाम लेकर कहा कि उसमें खजाना है और इसकी परख इस तौर से हो सकती है कि वहां की थोड़ी जमीन खोदने पर संगमर्मर और स्याह पत्थर का फर्श मिलेगा जिसके नीचे फिर खोदने से एक खाली दरवाजा दिखाई देगा, उस दरवाजे के उखड़ने के बाद सोने का एक खंभा नजर आवेगा, जिसके ऊपरी हिस्से पर एक मुर्ग बैठा होगा, उसकी आंखों में जो सुर्ख मानिक जड़े हैं, वह इस कदर कीमती हैं कि सारी दुनिया उनके बदले और दाम में काफी हो तो हो। उसके दोनों बाजू मानिक और पन्ने से सजे हुए हैं और सोने वाले खंभे से सोने के पत्तरों का कुछ हिस्सा निकलकर उस मुर्ग के सिर पर छाया किये हुए है।

यह ताज्जुब की बात सुनकर उस गवर्नर का कुछ ऐसा शौक बढ़ा कि आमतौर पर हुक्म दे दिया कि वह जगह खोदी जाय और जो लोग उसको खोदेंगे और उसमें काम करेंगे उनको हजारों रुपये दिये जायंगे। वह जगह एक टीले पर थी, इस वजह से बहुत घेरा देकर खुदाई का काम शुरू हुआ। पता देने वाले ने जो संगमर्मर और स्याह पत्थर के फर्श वगैरह बताये थे वे मिलते जाते थे और बताने वाले के फन की तसदीक होती जाती थी और इसी वजह से अब्दुल अजीज का शौक बढ़ता जाता था तथा खुदाई का काम मुस्तैदी के साथ होता जाता था कि यकायक मुर्ग का सिर जाहिर हुआ। सिर के जाहिर होते ही एकबारगी आंखों को चकाचौंक करने वाली तेज रोशनी उस खोदी हुई जगह से निकलकर फैल गई, मालूम हुआ कि बिजली तड़प गई।

यह गैरमामूली रोशनी मुर्ग की आंखों से निकल रही थी। दोनों आंखों में बड़े-बड़े मानिक जड़े हुए थे, जिनकी यह बिजली थी। और ज्यादे खोदे जाने पर उसके दोनों जड़ाऊ बाजू भी नजर आये और फिर उसके पांव भी दिखाई दिये।

उस मुर्ग वाले सोने के खंभे के अलावा एक और खंभा भी नजर आया जो एक इमारत की तरह पर था। यह इमारती खंभा रंग-बिरंगे पत्थरों का बना हुआ था, जिसमें कई कमरे थे और उनकी छतें बिलकुल छज्जेदार थीं। उसके दरवाजों पर बड़े और खूबसूरत आलों (ताकों) की एक कतार थी जिनमें तरह-तरह की रखी हुई मूरतें और बनी हुई सूरतें खूबी के साथ अपनी शोभा दिखा रही थीं, सोने और जवाहिरात के जगह-जगह पर ढेर थे जो छिपे हुए थे, ऊपर से चांदी के पत्तर लगे थे और पत्तरों पर सोने की कीलें जड़ी थीं। अब्दुल अजीज बिनमर्दा यह खबर पाते ही बड़े चाह से उस मौके पर पहुंचा, और जो आश्चर्यजनक तिलिस्म वहां जाहिर था उसको बहुत दिलचस्पी के साथ देर तक देखता रहा और तमाम खलकत की भीड़-भाड़ थी, तमाशबीन अपने बढ़े हुए शौक से एक-दूसरे पर गिरे पड़ते थे। एक जगह ढले हुए तांबे की सीढ़ी ऊपर तक लगी हुई थी, उसको देखकर एक शख्स ऊपर जल्दी-जल्दी चढ़ने लगा, हर एक तमाशबीन ताज्जुब के साथ वहां की हर चीज को देख रहा था।

उस जीने की चौथी सीढ़ी पर जब चढ़ने वाले ने कदम रखा तो जीने की दाहिनी और बाईं तरफ से दो नंगी तलवारें, अपना काट और तड़प दिखाती हुई निकलीं। यद्यपि इस चढ़ने वाले ने बचने के लिए हर तरह की कोशिश की मगर दोनों निकलने वाली तलवारें प्राणघातक शत्रु थीं, जिन्होंने देखते ही देखते इस चढ़ने वाले आदमी का काम तमाम कर दिया, और फिर यह देखा गया कि इस शख्स के टुकड़े नीचे कट-कटकर गिरे। उनके गिरते ही वह खंभा झोंके ले-लेकर आप से आप हिलने लगा और उस पर से वह बैठा हुआ मुर्ग कुछ अजब शान से उड़ा कि देखने वाले अचंभे में होकर देखते रह गये।

जिस वक्त उसने उड़ने के लिए अपने बाजू (डैने) फटफटाये तो अद्भुत सुरीली और दिल लुभाने वाली आवाजें उससे निकलीं लोग सुनकर दंग रह गये, और यह आवाजें हवा में गूंजकर दूर-दूर तक फैल गईं।

उस मुर्ग के उड़ते ही एक किस्म की गर्म हवा चली जिसकी वजह से जिस कदर तमाशबीन आस-पास में खड़े थे सब के सब उसी तिलिस्मी गार (खोह) में गिर पड़े। उस गड्ढे के अंदर उस वक्त खोदने वाले बेलदार, मिट्टी को बाहर फेंकने वाले मजदूर और मेठ वगैरह जिनकी तादाद 1000 कही जाती है मौजूद थे, जो सब के सब बेचारे फौरन मर गये। अब्दुल अजीज ने यह हाल देखकर एक चीख मारी और कहा, यह भी अजीब दुखदायी बात हुई! इससे क्या उम्मीद रखनी चाहिए।

इसके बाद और मजदूर उसमें लगा दिए गये। जिस कदर मिट्टी वगैरह निकली थी वह सब की सब अंदर डाल दी गई, वह मर जाने वाले तमाशबीन सब भी उसी के अंदर दफना दिए गए और आखीर में उस तिलिस्म की जगह अच्छा-खासा एक 'कब्रिस्तान' बन गया। गए थे दफीना निकालने के लिए और इतनी जानें दफन कर आये, खर्च खाटे में रहा।''

 

बयान - 8

तीसरे दिन पुनः दरबार हुआ और कैदी लोग लाकर हाजिर किए गए। महाराज सुरेन्द्रसिंह का लिखाया हुआ फैसला सभों के सामने तेजसिंह ने पढ़कर सुनाया। सुनते ही कम्बख्त दारोगा, जैपाल, हरनामसिंह वगैरह रोने-कलपने-चिल्लाने और महाराज से कहने लगे कि इसी जगह हम लोगों का सिर काट लिया जाय या जो चाहें महाराज सजा दें मगर हम लोगों को गोपालसिंह के हवाले न करें।

कैदियों ने बहुत सिर पीटा मगर उनकी कुछ न सुनी गई, जो कुछ महाराज ने फैसला किया था उसी मुताबिक कार्रवाई की गई और इस फैसले को सभों ने पसंद किया।

इन सब कामों से छुट्टी पाने के बाद एक बहुत बड़ा जलसा किया गया और कई दिनों तक खुशी मनाने के बाद सब कोई बिदा कर दिये गये। राजा गोपालसिंह कैदियों को साथ लेकर जमानिया चले गए, लक्ष्मीदेवी उनके साथ गई और तेजसिंह तथा और भी बहुत आदमी महाराज की तरफ से उनको पहुंचाने के लिए साथ गए। जब वे लौट आए तब औरतों को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह वगैरह पुनः तिलिस्म में गए और उन्हें तिलिस्म की खूब सैर कराई। कुछ दिन बाद रोहतासगढ़ के तहखाने की भी उन लोगों को सैर कराई और फिर सब कोई हंसी-खुशी से दिन बिताने लगे।

प्रेमी पाठक महाशय, अब इस उपन्यास में मुझे सिवाय इसके और कुछ कहना नहीं है कि भूतनाथ ने प्रतिज्ञानुसार अपनी जीवनी लिखकर दरबार में पेश की और महाराज ने पढ़-सुनकर उसे खजाने में रख दिया। इस उपन्यास का भूतनाथ की खास जीवनी से कोई संबंध न था इसलिए इसमें वह जीवनी नत्थी न की गई। हां खास-खास भेद जो भूतनाथ से संबंध रखते थे खोल दिए गए, तथापि भूतनाथ की जीवनी जिसे चंद्रकान्ता संतति का उपसंहार भाग भी कह सकेंगे स्वतंत्र रूप से लिखकर अपने प्रेमी पाठकों की नजर करूंगा, मगर इसके बदले में अपने प्रेमी पाठकों से इतना जरूर कहूंगा कि इस उपन्यास में जो कुछ भूल-चूक रह गई हो और जो भेद रह गये हों वह मुझे अवश्य बतावें जिससे ''भूतनाथ की जीवनी'' लिखते समय उन पर ध्यान रहे, क्योंकि इतने बड़े उपन्यास में मेरे ऐसे अनजान आदमी से किसी तरह की त्रुटि का रह जाना कोई आश्चर्य नहीं है।

प्रिय पाठक महाशय, अब चंद्रकान्ता संतति की लेख-प्रणाली के विषय में भी कुछ कहने की इच्छा होती है।

जिस समय मैंने चंद्रकान्ता लिखनी आरंभ की थी उस समय कविवर प्रताप नारायण मिश्र और पंडितवर अम्बिकादत्त व्यास जैसे धुरंधर किंतु अनुद्धत सुकवि और सुलेखक विद्यमान थे, तथा राजा शिवप्रसाद, राजा लक्ष्मणसिंह जैसे सुप्रतिष्ठित पुरुष हिंदी की सेवा करने में अपना गौरव समझते थे, परंतु अब न वैसे मार्मिक कवि हैं और न वैसे सुलेखक। उस समय हिंदी के लेखक थे परंतु ग्राहक न थे, इस समय ग्राहक हैं पर वैसे लेखक नहीं हैं। मेरे इस कथन का यह मतलब नहीं है कि वर्तमान समय के साहित्य-सेवी प्रतिष्ठा के योग्य नहीं हैं बल्कि यह मतलब है कि जो स्वर्गीय सज्जन अपनी लेखनी से हिंदी के आदि युग में हमें ज्ञान दे गए हैं वे हमारी अपेक्षा बहुत बढ़-चढ़कर थे। उनकी लेख-प्रणाली में चाहे भेद रहा हो परंतु उन सबका लक्ष्य यही था कि इस भारत भूमि में किसी तरह मातृ-भाषा का एकाधिपत्य हो लेकिन यह कोई नियम की बात नहीं है कि वैसे लोगों से कुछ भूल हो ही नहीं। उनसे भूल हुई तो यही कि प्रचलित शब्दों पर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। राजा शिवप्रसादजी के राजनीति के विचार चाहे कैसे ही रहे हों पर सामाजिक विचार उनके बहुत ही प्रांजल थे और वे समयानुकूल काम करना खूब जानते थे, विशेषतः जिस ढंग की हिंदी वे लिख गए हैं उसी से वर्तमान में हिंदी का रास्ता कुछ साफ हुआ है।

चाहे कोई हिंदू हो चाहे जैन या बौद्ध हो और आर्य समाजी या धर्म समाजी ही क्यों न हो परंतु जिन सज्जनों के माननीय अवतारों और पूर्वजनों ने इस पुण्य भूमि का अपने आविर्भाव से गौरव बढ़ाया है उनमें ऐसा अभागा कौन होगा जो पुण्यता और मधुरता युक्त संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रचुर प्रचार न चाहेगा मेरे विचार में किसी विवेकी भारत संतान के विषय में केवल यह देखकर कि वह विदेशी भाषा के शब्दों का प्रचार कर रहा है यह गढ़ंत कर लेना कि वह देववाणी के पवित्र शब्दों का विरोधी है भ्रम ही नहीं किंतु अन्याय भी है। देखना यह चाहिए कि ऐसा करने से उसका मतलब क्या है। भारतवर्ष में आठ सौ वर्ष तक विदेशी यवनों का राज्य रहा है इसलिए फारसी-अरबी के शब्द हिंदू समाज में 'नपठेत यावनी भाषा'' की दीवार लांघकर उसी प्रकार आ घुसे जिस प्रकार हिमालय के उन्नत मस्तक को लांघकर वे स्वयं आ गए, यहां तक कि महात्मा तुलसीदास जैसे भगवद्भक्त कवियों को भी ''गरीब-निवाज'' आदि शब्दों का बर्ताव दिल खोल के करना पड़ा।

आठ सौ वर्ष के कुसंस्कार को जो गिनती के दिनों में दूर करना चाहते हैं उनके उत्साह और साहस की प्रशंसा करने पर भी हम यह कहने के लिए मजबूर हैं कि वे अपने बहुमूल्य समय का सदुपयोग नहीं करते बल्कि जो कुछ वे कर सकते थे उससे भी दूर हटते हैं। यदि ईश्वरचंद्र विद्यासागर सीधे-सादे शब्दों से बंगला में काम न कर लेते तो उत्तरकाल के लेखकों को संस्कृत शब्द के बाहुल्य प्रचार का अवसर न मिलता और यदि ''राजा शिवप्रसाद हिंदी'' प्रकट न होती तो सरकारी पाठशालाओं में हिंदी के चंद्रमा की चांदनी मुश्किल से पहुंचती। मेरे बहुत से मित्र हिंदुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चंद्रजी जैसे देशहितैषी पुरुष की उत्तम-उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदीं पर मैं कहता हूं कि यदि बाबू हरिश्चंद्र अपनी भाषा को थोड़ा सरल करते तो हमारे भाइयों को अपने समाज पर कलंक लगाने की आवश्यकता न पड़ती और स्वाभाविक शब्दों के मेल से हिंदी की पैसिंजर भी मेल बन जाती। प्रवाह के विरुद्ध चलकर यदि कोई कृतकार्य हो तो निःसंदेह उसकी बहादुरी है परंतु बड़े-बड़े दार्शनिक पंडितों ने इसको असंभव ठहराया है। सारसुधानिधि और कविवचनसुधा की भाषा यद्यपि भावुकजनों के लिए आदर की वस्तु थी परंतु समय के उपयोग की न थी। हमारे 'सुदर्शन' की लेख-प्रणाली को हिंदी के धुरंधर लेखकों और विद्वानों ने प्रशंसा के योग्य ठहराया है परंतु साधारणजन उससे कितना लाभ उठा सकते हैं यह सोचने की बात है। यदि महाकवि भवभूति के समान किसी भविष्य पुरुष की आशा ही पर ग्रंथकारों और लेखकों को यत्न करना चाहिए तब तो मैं सुदर्शन संपादक पंडित माधवप्रसाद मिश्र को भी भविष्य की आशा पर बधाई देता हूं पर यदि ग्रंथकारों को भविष्य की अपेक्षा वर्तमान से अधिक संबंध है तो निःसंदेह इस विषय में मुझे आपत्ति है।

किसी दार्शनिक ग्रंथ या पत्र की भाषा के लिए यदि किसी बड़े कोश को टटोलना पड़े तो कुछ परवाह नहीं, परंतु साधारण विषयों की भाषा के लिए भी कोश की खोज करनी पड़े तो निःसंदेह दोष की बात है। मेरी हिंदी किस श्रेणी की हिंदी है इसका निर्धारण मैं नहीं करता परंतु मैं यह जानता हूं कि इसके पढ़ने के लिए कोश की तलाश करनी नहीं पड़ती। चंद्रकान्ता के आरंभ के समय मुझे यह विश्वास न था कि उसका इतना अधिक प्रचार होगा, यह मनोविनोद के लिए लिखी गई थी, पर पीछे लोगों का अनुराग देखकर मेरा भी अनुराग हो गया और मैंने अपने उन विचारों को जिनको मैं अभी तक प्रकाशित नहीं कर सका था फैलाने के लिए इस पुस्तक को द्वार बनाया और सरल भाषा में उन्हीं मामूलीं बातों को लिखा जिससे मैं उस होनहार मंडली का प्रिय पात्र बन जाऊं जिसके हाथ में भारत का भविष्य सौंपकर हमें इस असार संसार से बिदा होना है। मुझे इस बात से बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई। यह बात बहुत-से सज्जनों पर प्रकट है कि 'चंद्रकान्ता' पढ़ने के लिए बहुत से पुरुष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिंदी सीखनी न थी उन लोगों ने इसके लिए सीखी।

हिंदी के हितैषियों में दो प्रकार के सज्जन हैं। एक तो वे जिनका विचार यह है कि चाहे अक्षर फारसी क्यों न हों पर भाषा विशुद्ध संस्कृत-मिश्रित होनी चाहिए और दूसरे वे जो यह चाहते हैं कि चाहे भाषा में फारसी के शब्द मिले भी हों पर अक्षर नागरी होने चाहिए। पहले में मैं पंजाब के आर्य समाजियों और धर्म सभा वालों को मान लेता हूं जिनके लेखों में वर्णमाला के सिवाय फारसी-अरबी को कुछ सहारा नहीं, सब-कुछ संस्कृत का है, और दूसरे पक्ष में मैं अपने को ठहरा लेता हूं जो इसके विपरीत हैं। मैं इस बात को भी स्वीकार करता हूं कि जिस प्रकार फारसी वर्णमाला उर्दू का शरीर और अरबी-फारसी के उपयुक्त शब्द उसके जीवन हैं, ठीक उसी प्रकार नागरी वर्णमाला हिंदी का शरीर और संस्कृत के उपयुक्त शब्द उसके प्राण कहे जा सकते हैं। यदि यह देश यवनों के अधिकार में न हुआ होता और यदि कायस्थादि हिंदू जातियों में उर्दू भाषा का प्रेम अस्थिमज्जागत न हो गया होता तो हिंदी का शरीर और जीवन पृथक दिखलाई देता। उसी प्रकार हमारे ग्रंथों की सजीव उत्पत्ति होती जिस प्रकार द्विज बालकों की होती है। शरीर में यदि आत्मा न हो तो तब वह बेकार है और यदि आत्मा को उपयुक्त शरीर न मिलकर पशु-पक्षी आदि शरीर मिल जाय तो भी वह निष्फल ही है, इसलिए शरीर बनाकर फिर उसमें आत्मदेव की स्थापना करना ही न्याययुक्त और लाभप्रद है। 'चंद्रकान्ता' और 'संतति' में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहां भाषा का परिवर्तन हो गया परंतु उसके आरंभ और अंत में आप ठीक वैसा ही पायेंगे जैसा बालक और वृद्ध में। एकदम से बहुत से शब्दों का प्रचार करते तो कभी संभव न था कि उतने संस्कृत शब्द हम उन कुपढ़ ग्रामीण लोगों को याद करा देते जिनके निकट काला अक्षर भैंस के बराबर था। मेरे इस कर्त्तव्य का आश्चर्यमय फल देखकर वे लोग भी बोधगम्य उर्दू के शब्दों को अपनी विशुद्ध हिंदी में लाने लगे हैं जो आरंभ में इसीलिए मुझ पर कटाक्षपात करते थे। इस प्रकार प्राकृतिक प्रवाह के साथ-साथ साहित्यसेवियों की सरस्वती का प्रवाह बदलते देखकर समय के बदलने का अनुमान करना कुछ अनुचित नहीं है। जो हो भाषा के विषय में हमारा वक्तव्य यही है कि वह सरल हो और नगरी वाणी में हो, क्योंकि जिस भाषा के अक्षर होते हैं उनका खिंचाव उन्हीं मूल भाषाओं की ओर होता है जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है।

भाषा के सिवाय दूसरी बात मुझे भाव के विषय में कहनी है। मेरे कई मित्र अपेक्षा करते हैं कि मुझे देश-हितपूर्ण और धर्मभावमय कोई ग्रंथ लिखना उचित था जिससे मेरी प्रसरणशील पुस्तकों के कारण समाज का बहुत कुछ उपकार व सुधार हो जाता। बात बहुत ठीक है, परंतु एक अप्रसिद्ध ग्रंथकार की पुस्तकों को कौन पढ़ता यदि मैं चंद्रकान्ता और संतति को न लिखकर अपने मित्रों से भी दो-चार बातें हिंदी के विषय में कहना चाहता तो कदाचित् वे भी सुनना पसंद नहीं करते। गंभीर विषय के लिए जैसे एक विशेष भाषा का प्रयोजन होता है वैसे ही विशेष पुरुष का भी। भारतवर्ष में विशेषता की भी अधिकता न देखकर मैंने साधारण भाषा में साधारण बातें लिखना ही आवश्यक समझा। संसार में ऐसे भी लोग हुए होंगे जिन्होंने सरल और भावमय एक ही पुस्तक लिखकर लोगों का चित्त अपनी ओर खींच लिया हो पर वैसा कठिन काम मेरे जैसे के करने के योग्य न था। तथापि पात्रों की चाल-चलन दिखाने में जहां तक हो सका ध्यान रखा गया है, सब पात्र यथासंभव संध्या-तर्पण करते हैं और अवसर पड़ने पर पूजा प्रकार भी वीरेन्द्रसिंह आदि के वर्णन में जगह-जगह दिखाई देता है।

कुछ दिनों की बात है मेरे एक मित्र ने संवाद-पत्रों में इस विषय का आंदोलन उठाया था कि इनके कथानक संभव हैं या असंभव। में नहीं समझता कि यह बात क्यों उठाई और बढ़ाई गई जिस प्रकार पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रंथ बालकों की शिक्षा के लिए लिखे गये उसी प्रकार यह लोगों के मनोविनोद के लिए पर यह संभव है या असंभव इस विषय में कोई यह समझे कि 'चंद्रकान्ता' और 'वीरेन्द्रसिंह' इत्यादि पात्र और उनके विचित्र स्थानादि सब ऐतिहासिक हैं तो बड़ी भारी भूल है। कल्पना का मैदान बहुत विस्तृत है और उसका एक छोटा-सा नमूना है। अब रही संभव की बात अर्थात् कौन-सी बात हो सकती है और कौन-सी नहीं हो सकती! इसका विचार प्रत्येक मनुष्य की योग्यता और देश-काल-पात्र से संबंध रखता है। कभी ऐसा समय था कि यहां के आकाश में विमान उड़ते थे, एक-एक वीर पुरुष के तीरों में यह सामर्थ्य थी कि क्षणमात्र में सहस्रों मनुष्यों का संहार हो जाता था, पर अब वह बातें खाली पौराणिक कथा समझी जाती हैं। पर दो सौ वर्ष पहले जो बातें असंभव थीं आजकल विज्ञान के सहारे वे सब संभव हो रही हैं। रेल, तार, बिजली आदि के कार्यों को पहले कौन मान सकता था। और फिर यह भी है कि साधारण लोगों की दृष्टि में जो असंभव है कवियों की दृष्टि में भी वह असंभव ही रहे यह कोई नियम की बात नहीं। संस्कृत साहित्य के सर्वोत्तम उपन्यास 'कादम्बरी' की नायिका युवती की युवती रही, उसके नायक के तीन जन्म हो गये, तथापि कोई बुद्धिमान पुरुष इसको दोषवह न समझकर गुणधायक ही समझेगा। चंद्रकान्ता में जो अद्भुत बातें लिखी गई हैं वे इसलिए नहीं कि लोग उनकी सच्चाई-झुठाई की परीक्षा करें, प्रत्युत इसलिए कि उसका पाठ कौतूहल-वर्द्धक हो।

एक समय था कि लोग सिंहासन बत्तीसी, बैतालपचीसी आदि कहानियों को विश्राम काल में रुचि से पढ़ते थे, फिर चहारदरवेश और अलिफलैला के किस्सों का समय आया, अब इस ढंग के उपन्यासों का समय है। अब भी वह समय दूर है जब लोग बिना किसी प्रकार की न्यूनाधिकता के ऐतिहासिक पुस्तकों को रुचि से पढ़ेंगे। जब वह समय आवेगा उस समय कथासरित्सागर के समान 'चंद्रकान्ता' बतलावेगी कि एक वह भी समय था जब इसी प्रकार के ग्रंथों से ही वीरप्रसु भारत भूमि की संतान का मनोविनोद होता था। भगवान उस समय को शीघ्र लावें।

(चौबीसवां भाग समाप्त)


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