निर्गुण भक्तिधारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के शीर्ष रचनाकार कबीर के कविताई पर
यों तो बहुत चर्चा होती रही है लेकिन हर बार कबीर की कविता एक नए आस्वाद से
भरी हुई दिखाई देती हैं और ''ज्यों ज्यों तिनहारिये नेने हवै नैननि त्यों
त्यों खरी निकरे सी निकाई'' को सार्थक करती है।
कबीर के होने के साढ़े पाँच सौ साल बाद जब हम उनकी कविता को पुनर्मूल्यांकित
करते हैं तो आज की तेजी से बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियाँ हमारे सामने आ खड़ी
होती हैं। यों तो कबीर ने जो कुछ लिखा वह उनके समय से उपजा हुआ सच था पर वही
सच आज भी किसी न किसी रूप में आज का सच भी है।
तमाम समीक्षकों और शोधकर्ताओं ने कबीर की रचनाओं का तात्विक विश्लेषण और
समीक्षा भी की है। वे वाणी के डिक्टेटर हैं, धर्मगुरू हैं, समाज सुधारक हैं,
सर्व धर्म समन्वयवादी हैं, दार्शनिक हैं आदि आदि। इनके इन रूपों में से किसी
एक अथवा अनेक को लेकर कबीर काव्य की व्याख्या और समीक्षा की गई है। आचार्य
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने तो निःसंकोच यह घोषणा की है कि हिंदी साहित्य के
हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं
हुआ। वे आगे लिखते हैं कि ''मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव और सब कुछ को झाड़ फटकार कर
चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया
है।''
ऐसे अद्वितीय कबीर की कविता को पढ़ते हुए उसे नए संदर्भों से जोड़ कर देखने की
मैंने कोशिश की है।
कबीर की रचनाएँ इसलिए भी आम जन के अधिक निकट हैं क्योंकि उन्होंने सायास या
योजना काव्य सृजन बनाकर नहीं किया वह तो अनायास ही उपजता है। आचार्य द्विवेदी
का मानना है कि कबीर को यह कवि रूप धलुए में मिली हुई वस्तु है। धलुआ अर्थात
मुख्य वस्तु के अतिरिक्त जो कुछ मिले। कबीर कभी भी अपनी जमीन को नहीं छोड़ते और
इसीलिए वे आज भी प्रासंगिक हैं जो व्यष्टिवाद कबीर में देखने को मिलता है वही
व्यष्टिवाद वर्तमान का एक अभिन्न अंग है। विष्णुपुराण में इस बात का उल्लेख
किया गया था कि भविष्य में सत्ता उनके हाथों में होगी जिनके पास 'अर्थ' अथवा
'धन' होगा। भौतिकता और उसमें गले तक डूबे हुए आज के समाज को देखकर विष्णुपुराण
की यह उक्ति सही जान पड़ती है। किंतु इन्हीं परिस्थितियों के बीच हमें
शक्तिकालीन कवियों की रचनाओं में उन संदर्भों की तलाश करनी होगी जो उन्हें समय
सापेक्ष और प्रासंगिक बनाते हैं।
कबीर की साखियों को पढ़ते हुए अनेक ऐसे स्थल मलते हैं, जहाँ हम ठिठक कर यह
सोचने को विवश हो जाते हैं कि क्या कबीर में एक कुशल प्रबंधक और पटु वक्ता
मोजूद नहीं हैं? ऐसे अनेक उदाहरण दृष्टव्य हैं जो कबीर को प्रबंधन के शीर्ष पर
बैठाते हैं। 'चितावणी को अंग' में कबीर मनुष्य के व्यर्थ के अहंकार की ओर
संकेत करते हुए लिखते हैं कि -
''कबीर कहा गरबियौ, इस जीवन की आस
टेसू फूल चारि दिन, खंखर भए पलास।''
व्यर्थ का अर्थ निरर्थक गर्व करने वाला मनुष्य टेसू के उस वृक्ष की तरह होता
है जो चार दिन तो खूब सुंदर दिखाई देता है लेकिन जल्दी ही वह पत्र और
पुष्पविहीन हो जाता है। यह बात बिलकुल सच है और एक कुशल प्रबंधक के उस गुण की
ओर संकेत करती है जो उसे व्यर्थ में अहंकारी नहीं बनाता। कुशल प्रबंधक अपने
कार्यों पर निरर्थक गर्व नहीं करता बल्कि वह विवेकपूर्ण ढंग से विकास के मार्ग
पर बढ़ने का प्रयास करता है।
उसे इस बात की प्रतीति होती है कि व्यर्थ का गर्व उसे ले डूबेगा और वह यह भी
जानता है कि अच्छाइयाँ अपनी जगह है लेकिन उसके द्वारा की गई एक भी त्रुटि उसके
लिए हानिकर होगी ठीक वैसे ही जैसे -
यह तन काचा कुंभ था, लियाँ फिरै था साथि
ढबका लागा फूटि गया, कछू न आया हाथि।
जीवन की निरर्थकता यह शरीर उसे कच्चे घड़े के समान है जो जरा सा धक्का लगते ही
फूट जाएगा। होने को तो यह मामूली उपदेश लगता है लेकिन गंभीरता से विचार करने
पर इसमें कर्म से जुड़ा हुआ गूढ़ार्थ भी दिखाई देता है। तन केवल शरीर नहीं है
बल्कि कर्मों की शरीर रूप में प्रस्तुति है जिसको अच्छाई में लगाए रखना आवश्यक
है और जो बुराई की हल्की सी चोट से अपना सारा अस्तित्व खो सकता है।
कुल खोयाँ, कुल ऊबरै, कुल राख्याँ, कुल जाइ।
राम निकुल कुल मेंटि लै, सब कुल रह्या समाइ।
परिवारवाद से मुक्ति एक कुशल प्रबंधक के गुणों में यह भी शामिल है कि वह अपने
व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठे और सबके हित की बात सोचे। इसी में उसकी महानता है।
यदि एक प्रबंधक केवल निजी हितों के बारे में सोचता रहेगा तो वह सबकुछ खो देगा
और विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा। यहाँ पर हमें गांधी के 'ट्रस्टीशिप' के
सिद्धांत क याद भी आती है। एक योग्य और श्रेष्ठ प्रबंधनकर्ता के गुणों में
शामिल अनेक सूक्ष्म बिंदुओं को हम कबीर की साखियों में अनायास पा जाते हैं। यह
एक शाश्वत सत्य है कि जो व्यक्ति जनता के बीच का है उसके दुर्ख दर्द को
भलीभाँति समझता है और विवेकशील है वह जनहित के कार्य अनायास ही करता चला जाता
है और जहाँ कहीं उसमें व्यवधान पाता है उसके तेवर कठोर हो जाते हैं।
प्रबंधन का एक श्रेष्ठ गुण है 'मैं' का तिरोभाव में - मैं बड़ी बताई है, सकै तो
निकसी भाजि, कब लग राखौं, हे सखी, रुई पलेटी आगि। मैं का तिरोभाव कर श्रेय
दूसरों को दें।
एक कुशल प्रबंधक समूचे कार्य का श्रेय अपनी टीम को देता है न कि स्वयं को।
जहाँ व्यक्ति केवल 'मैं' की बात करता है वहीं उसकी कार्यकुशलता पर प्रश्नचिन्ह
लग जाता है। कबीर इसी 'मैं' को बहुत बड़ी बला मानते हैं और उससे दूर होने की
सलाह देते हैं। यह मैं या अहं भाव उसी प्रकार हमें नष्ट कर देता है जैसे रुई
को अग्नि।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आए दिन हमें ऐसी घटनाओं की जानकारी मिलती रहती है
जहाँ मनुष्य केवल अहम के कारण बड़े से बड़े संगठन को भी विनाश के कगार तक पहुँचा
रहा है। आज के समय का एक भयावह सच है अविश्वसनीयता आज विश्वास की कमी ने न
केवल परस्पर संबंधों के दायरे को कम किया है बल्कि रोजगार के क्षेत्र में भी
यह अविश्वसनीयता बड़ी है। कबीर कहते हैं -
''कबीर हद के जीव सूँ, हित करि मुखाँ न बोलि
जे लागे बेहद सूँ, तिन सूँ अंतर खोलि।''
अर्थात् संसार के उस जीव से अपने मन की बात मत करो जो निंदा स्तुति में लगा
हुआ है बल्कि अपने अंतर की बात केवल उससे करनी चाहिए जो इन सबसे परे हैं और जो
ईश्वरत्व के निकट है। अर्थात न्यायपरक ढंग से वस्तुओं की परीक्षा करनी चाहिए,
यही बात व्यवस्थापन की कुंजी भी है। इसी संदर्भ में कबीर के एक और साखी याद
आती है -
''तेरा संगी कोई नहीं, सबि स्वारथ बंधी लोई
मनि परतीति न ऊपजै, जीव बेसास न होई।''
आज के समाज में हम सारे लोग स्वार्थ से बँधे हुए हैं, जब तक हमारे स्वार्थ
सिद्ध होते रहते हैं तब तक मैत्री भाव बना रहता है किंतु स्वार्थपूर्ति होते
ही मनुष्य हाथ झटक कर चल देता है। हम परिस्थितियों को जानने की जरूरत पर कबीर
ने जोर दिया है - और ऐसे मित्रों की खोज करने की सलाह दी है जो निश्च्छल और
पारदर्शी हों ठीक इन पंक्तियों की तरह -
''पाणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तैं झांण
पवनाँ बेगि उतावला, सो दोस्त कबीरै कीन्ह।''
अर्थात् कबीर ने ऐसे मित्र बना रखे हैं जो जल की तरह स्वच्छ और आरदर्शी हैं और
धुएँ की तरह सूक्ष्म हैं। किसी अच्छे संगठन में ऐसे व्यक्तियों का होना आवश्यक
हो जाता है जिनकी सोच पारदर्शी हो सूक्ष्म हो और तीव्रगामी भी। ये गुण
सांगठनिक दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। संगठन के कार्य व्यवहार में जितना आवश्यक
है पारदर्शक होना उतना ही जरूरी है। सूक्ष्मता और गतिशीलता का होना। इस दृष्टि
से कबीर की यह साखी वर्तमान संदर्भों में विशिष्ट प्रतीत होती है।
इसी क्रम में एक कुशल संगठक की अन्य विशेषता होती है लक्ष्य का सही ज्ञान उसके
लिए आवश्यक है कि वह गतिशील तो हो लेकिन अतिशय तीव्रता और विचारहीन उड़ानें उसे
असफलता के गर्त में डुबो देती हैं। तभी तो कबीर कहते हैं -
''कबीर मन पंछी भया, बहुतक चढ़या अकास
ऊँहा ही तैं गिर गया, मन माया कै पास।''
इसका ताजा उदाहरण है सेंसेक्स का अचानक बहुत बढ़ना। जब जब शेयर बाजार बहुत ऊँचे
उड़ता है तब तब वह मुँह की खाता है और न जाने कितने निवेशकों की बलि चढ़ जाता
है। भविष्य को ध्यान में रखकर जो लोग सही ढंग से योजनाएँ बनाते हैं वे न केवल
स्वयं सुखी होते हैं बल्कि दूसरों को भी सुख देते हैं, कुशल प्रबंधक
दूरद्रष्टा होता है और भविष्य की चिंता करते हुए योजनाएँ बनाता है। व्यवस्थित
ढंग से बनाई गई योजनाओं के दूरगामी परिणाम होते हैं और जनहित में ये परिणाम
सार्थक सिद्ध होते हैं इसे प्रतिबिंबित करता हुआ कबीर का यह दोहा देखिए -
"चिंतामणि मन में बसै, सोई चित में आणि
बिनि चिंता चिंता करै, इहै प्रभू की बाँणि।''
कबीर एक कुशल वक्ता थे और वाणी को शक्ति से भलीभाँति परिचित भी थे। उनकी यह
आकर्षक वक्तृत्व कला ही उन्हें कवियों में श्रेष्ठ साबित करती है। कबीर जानते
थे कि अच्छे संप्रेषण के माध्यम से ही कठिन से कठिन कार्य कुशलता से संपन्न
किया जा सकता है। और वे लिख उठते हैं -
''ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ
अपना तन सीतल करै, औरन को सुख होइ।''
आज की दुनिया में संप्रेषण कौशल पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है। जो जितना
अच्छा संप्रेषक है वह उतना ही कुशल व्यवस्थापक भी है। जब संप्रेषण की जिन
विशेषताओं का उल्लेख करते हुए काफी कुछ लिखा गया है और उनके अनेक विद्वतजन
संप्रेषण कौशल का प्रशिक्षण दे रहे हैं वहीं कबीर ने अपनी दो पंक्तियों में
कुशल संप्रेषक के गुणों को समाहित कर दिया है।
संप्रेषण कौशल के सिद्धांतों को सिखाने के लिए बड़ी संस्थाएँ मोटी राशि व्यय कर
रही हैं और दुनिया भर में संगोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ आयोजित कर संप्रेषण के
सिद्धांतों का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। कबीर सहज भाव से हमें संप्रेषण के
सिद्धांत सिखा जाते हैं। कड़ुवा बोलने पर और अप्रिय बोलने पर आपकी बात न तो कोई
सुनेगा और न ही उसका पालन करेगा। कुछ संप्रेषक प्रबंधक की राह का रोड़ा है।
क्योंकि जहाँ मधुर संप्रेषण जोड़ता है वहीं कटु संप्रेषण तोड़ने की शक्ति रखता
है। बिलकुल ऐसे ही जैसे -
''बोवै पेड़ बबूल का, अंब कहाँ तें खाइ।''
अर्थात् बबूल का पेड़ बोने पर काँटे ही मिलेंगे, सुस्वादु आम नहीं मिलेंगे।
कबीर की यह भी विशेषता है कि वे चुटीले व्यंग्य करते हैं। उनके व्यंग्य तीखे
और धारदार होते हैं जो तिलमिला देने की क्षमता रखते हैं। आचार्य द्विवेदी ने
लिखा है कि - ''अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने वाला
केवल धूल झाड़ के चल देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं पाता।''
कबीर ने अपनी व्यंग्योक्तियों से लगातार सचेत करने की कोशिश की है। इसी क्रम
में वे लिखते हैं -
''निदंक दूर न कीजिये, दीजे आदर मान
निरमल तन मन सब करै, बकि बकि आनहिं आन।''
कुशल व्यवस्थापक के गुणों में यह भी समिम्मलित है कि वह अपने कार्यों की
समीक्षा और आलोचना अवश्य सुने हालाँकि यह बहुत जटिल कार्य है जो कबीर के समय
से लेकर आज के समय तक लगातार जटिल ही बना हुआ है। किंतु प्रबंधक को सही दिशा
देने में आलोचनाओं का बहुत बड़ा योगदान होता है। आलोचना की स्वस्थ परंपरा का न
केवल स्वागत किया जाना चाहिए बल्कि उसे सही दिशा खोजने की कोशिश भी करनी
चाहिए।
वर्तमान संदर्भों में अर्थ तत्व की प्रधानता ने मनुष्य को इतना अधिक लोभी और
लालची बना दिया है कि वह किसी भी हद तक गिरने को तैयार है। वह न केवल समझौते
कर रहा है बल्कि सही और गलत के भेद को भी नजरअंदाज कर रहा है। कलयुग की इस
सत्यता को कबीर ने पाँच सौ साल पहले ही जान लिया था तभी तो उन्होंने लिखा था -
''कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोई
लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होई।''
कबीर की इस चेतावनी को वैश्विक परिदृश्य में देखा जाना बहुत जरूरी है। कुशल
व्यवस्थापक के लिए यह नितांत आवश्यक है कि वह न केवल कलियुग के इन दुर्गणों से
स्वयं दूर रहे बल्कि लालची और अयोग्य व्यक्तियों की पहचान कर अपने संगठन में
उन्हें कोई स्थान न दे। कबीर कहते हैं -
''मूरखि संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ
कदली सीप भुजंग मुखि, एक बूँद तिहुँ भाइ।''
यदि विवेकहीन और अयोग्य व्यक्तियों को संगठन में रखा जाएगा तो संगठन का परिणाम
वहीं होगा जैसे स्वाति की बूँद का भुजंग के मुख में जाकर विष बन जाना।
अकुशल व्यवस्थापन की स्थितियों में कबीर की यह पंक्तियाँ सत्य साबित होती हैं
कि -
एक अचंभा देखिया, हीरा हाट बिकाय
परिरवण हारे बाहिरा, कौड़ी बदले जाय।
या फिर
जब गुण कूँ गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाई
जब गुण कूँ गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
ऐसी कितनी ही साखियाँ कबीर ने लिखी हैं जो वर्तमान संदर्भों में प्रबंधन के
साथ साथ संप्रेषण के महत्व की ओर संकेत करती हैं। कबीर ने सहज भाव से कितनी ही
गूढ़ बातों को कह दिया है। लिखते समय कबीर ने यह कभी भी नहीं सोचा कि उनकी
कविता की पंक्तियाँ प्रबंधन की रहस्यों को खोलने में सहायक होंगी।
वास्तव में कबीर का सारा ध्यान अकाव्य को कहने में था। काव्यत्व तो उनके लिए
गौण था। बकौल द्विवेदी जी काव्यत्व उनके पदों में फोकट का माल है -
बायप्रोडक्ट है - वह कोलतार और सीरे की भाँति और चीजों के बनते बनते अपने आप
बन गया है।'' यदि कबीर को वर्तमान संदर्भों में मैनेजमेंट गुरु कहा जाय तो यह
अतिश्योक्ति नहीं होगी।
कबीर संसार को तो दृढ़ता प्रदान करते हैं पर स्वयं हर बात से निर्लिप्त रहते
हैं वे संसार के लिए दुखी हैं। वे कहते हैं -
"सुखिया सब संसार है खावै और सोवे
दुखिया दास कबीर है जागो अरु रोवे।''
गहराई से संसार के दुख की अनुभूति करते हुए भी कबीर लोकोत्तर हैं।