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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 10. ब्रज से लौटने पर उद्धव-वचन श्री भगवान-प्रति पीछे    

१०९.

आँसुनि कि धार और उभार कौं उसाँसनि के

तार हिचकीनि के तनक टारि लैन देहु।

कहै रतनाकर फुरन देहु बात रंच

भावनि के विषम प्रपंच सरि लेन देहु॥

आतुर ह्वै और हू न कातर बनावौ नाथ

नैसुक निवारि पीर धीर धरि लेन देहु।

कहत न अबै हैं कहि आवत जहाँ लौं सबै

नैंकु थिर कढ़त करेजौ करि लेन देहु॥

११०.

रावरे पठाए जोग देन कौं सिधाए हुते

ज्ञान गुन गौरव के अति उद्गार मैं।

कहै रतनाकर पै चातुरी हमारी सबै

कित धौं हिरानी दसा दारुन अपार मैं॥

उड़ि उधिरानी किधौं ऊरध उसासन मैं

बहि धौं बिलानी कहूँ आँसुनि की धार मैं।

चूर ह्वै गई धौं भूरि दुख के ददेरनि मैं

छार ह्वै गई धौं बिरहानल की झार मैं॥

१११.

सीत-घाम-भेद खेद-सहित लखाने सब

भूले भाव भेदता-निषेधन बिधान के।

कहै रतनाकर न ताप ब्रजबालनि के

काली-मुख ज्वालना दवानल समान के॥

पटकि पराने ज्ञान-गठरी तहाँ ही हम

थमत बन्यौ न पास पहुँचि सिवान के।

छाले परे पगनि अधर पर जाले परे

कठिन कसाले परे लाले परे प्रान के॥

११२.

ज्वालामुखी गिरि तैं गिरत द्रवे द्रव्य कैधौं

बारिद पियौ है बारि बिष के सिवाने मैं।

कहै रतनाकर कै काली दाँव लेन-काज

फेन फुफकारै उहि गाँव दुख-साने मैं॥

जीवन बियोगिनी कौ मेघ अँचयौ सो किधौं

उपच्यौ पच्यौ न उर ताप अधिकाने मैं।

हरि-हरि जासौं बरि-बरि सब बारी उठैं

जानै कौन बारि बरसत बरसाने मैं॥

११३.

लैके पन सूछम अमोल जो पठायौ आप

ताकौ मोल तनक तुल्यौ न तहाँ साँठी तैं।

कहै रतनाकर पुकारे ठौर-ठौर पर

पौरि वृषभान की हिरान्यौ मति नाँठी तैं॥

लीजै हरि आपुहीं न हेरि हम पायौ फेरि

याही फेर माहि भए माठी दधि आँठी तैं।

ल्याए धूरि पूरि अंग अंगनि तहाँ की जहाँ

ज्ञान गयौ सहित गुमान गिरि गाँठी तैं॥

११४.

ज्यौंही कछु कहन संदेस लग्यौ त्यौंही लख्यौ

प्रेम-पूर उमंगि गरे लौं चढ़यौ आवै है।

कहै रत्नाकर न पाँव टिकि पावैं नैंकु।

एसौ दृग-द्वारनि स-बेग कढ़यौ आवै है।।

मधुपुर राखन कौ वेगि कछु ब्यौंत गढ़ौ

धाइ चढ़ौ वट कै न जोपै गढ़यौ आवै है।

आयौ भज्यौ भूपति भागीरथ लौं हौं तौ नाथ

साथ लायौ सोई पुन्य-पाथ बढ़यौ आवै है।।

११५.

जैहै व्यथा विषम बिलाइ तुम्हैं देखत ही

ताते कही मेरी कहूँ झूठ ठहरावौ ना।

कहै रत्नाकर न याही भय भाषैं भूरि

याही कहैं जावौ बस बिलंब लगावौ ना।

एतौ और करत निवेदन स वेदन है

ताकौ कछु बिलग उदार उर ल्यावौ ना।

तब हम जानैं तुम धीरज-धुरीन जब

एक बार ऊधौ बनि जाइ पुनि आवौ ना।।

११६.

छावते कुटीर कहूँ रम्य यमुना कैं तीर

गौंन रौन-रेती सौं कदापि करते नहीं।

कहैं रत्नाकर बिहाय प्रेम गाथा गूढ़

स्रौन रसना में रस और भरते नहीं।।

गोपी ग्वाल बालनि के उमड़त आँसू देखि

लेखि प्रलयागम हूँ नैंकु डरते नहीं।

होतौ चित चाव जो न रावरे चितावन को

तज ब्रज-गाँव इतै पाँव धरते नहीं।

११७.

भाठी के वियोग जोग-जटिल-लुकाठी लाइ

लाग सौं सुहाग के अदाग पिघलाए हैं।

कहै रत्नाकर सुबृत्त प्रेम साँचे माहिं

काँचे नेम संजम निबृत्त के ढराए हैं।।

अब परि बीच खीचि विरह-मरीचि-बिंब

देत लव लाग की गुविंद-उर लाए हैं।

गोपी - ताप - तरून - तरनि - किरनावलि के

ऊधव नितांत कांत मनि बनि आए हैं।।


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