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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 3. श्री उद्धव के मथुरा से ब्रज के मार्ग के कवित्त पीछे     आगे

२१.

आइ ब्रज-पथ रथ ऊधौ कौं चढ़ाइ कान्ह,

अकथ कथानि की व्यथा सौं अकुलात हैं।

कहै रतनाकर बुझाइ कछु रोकै पाय,

पुनि कछु ध्यान उर धाइ उरझात हैं॥

उसीस उसाँसनि सौं बहि बहि आँसनि सौं,

भूरि भरे हिय के हुलास न उरात हैं।

सीरे तपे विविध सँदेसनि सो बातनि की,

घातनि की झोंक मैं लगेई चले जात हैं॥

२२.

लै कै उपदेश-औ-सँदेस पन ऊधौ चले,

सुजस-कमाइबैं उछाह-उदगार मैं।

कहै रतनाकर निहारि कान्ह कातर पै,

आतुर भए यौं रह्यौ मन न सँभार मैं॥

ज्ञान-गठरी की गाँठि छरकि न जान्यौ कब,

हरैं-हरैं पूँजी सब सरकि कछार मैं।

डार मैं तमालनि की औअर कछु बिरमानी अरु,

कछु अरुझानी है करीरनि के झार मैं॥

२३.

हरैं-हरैं ज्ञान के गुमान घटि जानि लगे,

जोग के विधान ध्यान हूँ तैं टरिबै लगे।

नैननि मैं नीर रोम सकल शरीर छयौ,

प्रेम-अद्भुत-सुख सूक्ति परिबै लगे॥

गोकुल के गाँव की गली में पग पारत हीं,

भूमि कैं प्रभाव भाव औरै भरिबै लगे।

ज्ञान-मारतंड के सुखाये मनु मानस कौं,

सरस सुहाये घनश्याम करिबै लगे॥


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