hindisamay head


अ+ अ-

कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 4. श्री उद्धव के ब्रज में पहुँचने के समय के कवित्त पीछे     आगे

२४.

दुख-सुख ग्रीषम और सिसिर न ब्यापै जिन्हें,

छापै छाप एकै हिये ब्रह्म-ज्ञान साने मैं।

कहै रतनाकर गंभीर सोई ऊधव कौ,

धीर उधरान्यौ आनि ब्रज के सिवाने मैं॥

औरे मुख-रंग भयौ सिथिलित अंग भयौ,

बैन दबि दंग भयौ गर गरुवाने मैं।

पुलकि पसीजि पास चाँपि मुरझाने काँपि,

जानैं कौन बहति बयारि बरसाने मैं॥

२५.

धाईं धाम-धाम तैं अवाई सुनि ऊधव की,

बाम-बाम लाख अबिलाषनि सौं भ्वै रहीं।

कहै रतनाकर पै विकल बिलोकि तिन्है,

सकल करेजौ थामि आपुनपौ ख्वै रहीं॥

लेखि निज-भाग-लेख रेख तिन आनन की,

जानन की ताहि आतुरी सौं मन म्वै रहीं।

आँस रोकि साँस रोकि पूछन-हुलास रोकि,

मूरति निरासा की-सी आस-भरी ज्वै रहीं॥

२६.

भेजे मनभावन के उद्धव के आवन की,

सुधि ब्रज-गाँवनि मैं पावन जबै लगीं।

कहै रतनाकर गुवालिनि की झौरि-झौरि,

दौरि-दौरि नंद पौरि आवन तबै लगीं॥

उझकि-उझकि पद-कंजनि के पंजनि पै,

पेखि-पेखि पाती छाती छोहनि छबै लगीं।

हमकौं लिख्यौ है कहा, हमकौं लिख्यौ है कहा,

हमकौं लिख्यौ है कहा कहन सबैं लगीं॥

२७.

देखि-देखि आतुरी बिकल-ब्रज-बारिन की,

उद्धव की चातुरी सकल बहि जात हैं।

कहै रतनाकर कुशल कहि पूछि रहे,

अपर सनेह की न बातैं कहि जात हैं॥

मौन रसना ह्वै जोग जदपि जनायो सबै,

तदपि निरास-बासना न गहि जाति हैं।

साहस कै कछुक उमाहि पूछिबै कौं ठाहि,

चाहि उत गोपिका कराहि रहि जाति हैं॥

२८.

दीन दशा देखि ब्रज-बालनि की उद्धव कौ,

गरिगौ गुमान ज्ञान गौरव गुठाने से।

कहै रतनाकर न आये मुख बैन नैन,

नीर भरि ल्याए भए सकुचि सिहाने से॥

सूखे से स्रमे से सकबके से सके से थके,

भूले से भ्रमे से भभरे से भकुवाने से,

हौले से हले से हूल-हूले से हिये मैं हाय,

हारे से हरे से रहे हेरत हिराने से॥

२९.

मोह-तम-राशि नासिबे कौं स-हुलास चले,

करिकै प्रकास पारि मति रति-माती पर।

कहै रतनाकर पै सुधि उधिरानी सबै,

धुरि परीं वीर जोग-जुगति संघाती पर॥

चलत विषम तायो बास ब्रज-बारिनि की,

विपति महान परी ज्ञान-बरी बाती पर।

लच्छ दुरे सकल बिलोकत अलच्छ रहे,

एक हाथ पाती एक हाथ दिये छाती पर॥


>>पीछे>> >>आगे>>