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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 8. उद्धव के ब्रज से लौटते समय के कवित्त पीछे     आगे

१०२.

गोपी, ग्वाल, नंद, जसुदा सौं तौं विदा ह्वै उठे

उठत न पाँय पै उठावत डगत हैं।

कहै रतनाकर संभारि सारथी पै नीठि

दीठिन बचाइ चल्यौ चोर ज्यौं भगत हैं॥

कुंजनि की कूल की कलिंदी की रूएँदी दसा

देखि-देखि आँस औ उसाँस उमगत हैं।

रथ तैं उतरि पथ पावत जहाँ ही तहाँ

बिकल बिसूरि धूरि लोटन लगत हैं॥

१०३.

भूले जोग-छेम प्रेमनेमहिं निहारि ऊधौ

सँकुचि समाने उर-अंतर हरास लौं।

कहै रतनाकर प्रभाव सब ऊने भए

सूने भए नैन बैन अरथ-उदास लौं॥

माँगी बिदा माँगत ज्यौं मीच उर भीचि कोऊ

कीन्यौं मौन गौन निज हिय के हुलास लौं।

बिथकित साँस-लौं चलत रुकि जात फेरि

आँस लौं गिरत पुनि उठत उसास लौं॥


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