१०२.
गोपी, ग्वाल, नंद, जसुदा सौं तौं विदा ह्वै उठे
उठत न पाँय पै उठावत डगत हैं।
कहै रतनाकर संभारि सारथी पै नीठि
दीठिन बचाइ चल्यौ चोर ज्यौं भगत हैं॥
कुंजनि की कूल की कलिंदी की रूएँदी दसा
देखि-देखि आँस औ उसाँस उमगत हैं।
रथ तैं उतरि पथ पावत जहाँ ही तहाँ
बिकल बिसूरि धूरि लोटन लगत हैं॥
१०३.
भूले जोग-छेम प्रेमनेमहिं निहारि ऊधौ
सँकुचि समाने उर-अंतर हरास लौं।
कहै रतनाकर प्रभाव सब ऊने भए
सूने भए नैन बैन अरथ-उदास लौं॥
माँगी बिदा माँगत ज्यौं मीच उर भीचि कोऊ
कीन्यौं मौन गौन निज हिय के हुलास लौं।
बिथकित साँस-लौं चलत रुकि जात फेरि
आँस लौं गिरत पुनि उठत उसास लौं॥