बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में संपूर्ण विश्व में समाजवादी व्यवस्थाओं के विघटन ने संगठित पूँजीवाद को और सशक्त किया। इस संगठित पूँजीवाद ने जिस भूमंडलीकरण को वैश्विक पटल पर प्रस्तुत किया वही उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रचार और प्रसार का वाहक बना। भारतीय परिप्रेक्ष्य में अगर देखें तो राजनीतिक अस्थिरता और आतंकवाद आदि भी वे प्रमुख मुद्दे रहे जिन्होंने हिंदी साहित्य को भी गहरे तौर पर प्रभावित किया क्योंकि किसी भी युग का साहित्य अपने समय की परिस्थितियों से दूर तक प्रभावित होता है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने जिस मुक्त बाजार की परिकल्पना को हमारे सामने रखा वह मुक्त बाजार अपने साथ उपभोक्तावादी संस्कृति को बाईप्रोडक्ट के रूप में लेकर आया था। मुक्त बाजार, जिसने धीरे-धीरे हमारे दैनिक जीवन में प्रवेश कर लिया और हमारा पथ-प्रदर्शक भी बन गया। वैसे देखा जाए तो बाजार का अस्तित्व उतना ही पुराना है जितना मनुष्य का तथा बाजार हर युग तथा सभ्यता में मौजूद रहा है लेकिन तब वह मनुष्य की आवश्यक जरूरतों की पूर्ति के लिए हुआ करता था। लेकिन आज का बाजार वैसा नहीं जहाँ बुनियादी जरूरत की चीजें मिला करती थीं तथा जिसके लिए ग़ालिब ने कहा था, "और ले आयेंगे बाजार से गर टूट गया, जामे-जम से मेरा ये जामे-सिफाल अच्छा है", बल्कि यह वह बाजार है जहाँ सब कुछ बिकता है और जिसके लिए ग़ालिब के ही शब्दों में कह सकते है, "ले आयेंगे बाजार से जाकर दिल-ओ-जान और"। पहले बाजार किसी भी समाज का आवश्यक अंग हुआ करता था लेकिन आज पूरा विश्व ही एक बाजार की शक्ल लेता दिख रहा है। दैनिक आवश्यकता की कोई भी वस्तु आज बिना बाजार से गुजरे हमारे पास नहीं पहुँच सकती। सच भी यही है कि बाजार की इस सभ्यता ने मनुष्य को भी एक उत्पाद के रूप में बदल दिया है। ज्याँ बौद्रीआ ने भी कहा है कि उपभोक्तावाद में समाज एक मास-हिस्टीरिया की स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ कुछ भी यथेष्ट नहीं होता। मैनेजर पांडेय के अनुसार, "पश्चिम के उपभोक्तावादी समाज और मुक्त बाजार की व्यवस्था में मनुष्य और संस्कृति की दुर्गति की ओर संकेत करते हुए ऑक्टोवियो पॉज़ ने लिखा है कि, "जिस समाज में अधिक उपभोग के लिए अधिक से अधिक उत्पादन का उन्माद बढ़ता है, वह विचारों, भावनाओं, कला, प्रेम, मित्रता और मनुष्य को भी उपभोग की वस्तु बना देता है। वहाँ हर चीज खरीदी जाती है, उसका उपभोग होता है और अंत में वह कूड़ेदान में फेंक दी जाती है।" १ - आलोचना की सामाजिकता, मैनेजर पांडेय, (पृष्ठ - १६२)
उपभोग और उपभोक्तावादी संस्कृति में फर्क करना आवश्यक है। समाज में उपभोग का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि बाजार। जब बाजार का अस्तित्व नहीं था और मनुष्य जो उगाता था वही खाता था या नदी या झरने के पानी का प्रयोग करता था। बाजार से गुजरे बिना ही तब दैनिक आवश्यकता की चीजें अगर सीधे हमारे घर आती थीं। पर आज बाजार किसी न किसी रूप में हमारे घर में घुस आता है। फिर चाहे वह पीने का पानी हो या खाने की वस्तुएँ, बाजार से गुजरे बिना सीधे हमारे पास नहीं आ पातीं। आज की सुरसावृत्ति से फैलती उपभोक्तावादी संस्कृति की शुरुआत १७वी शती से ही हो चुकी थी जैसा कि शंभुनाथ ने दिखाया है, "...दुनिया में उपभोक्तावाद की शुरुआत भारतीय सूती कपड़े और मलमल की उस खेप से हुई, जो १७वीं सदी के आखिरी दशक में किसी समय इंग्लैंड पहुँची थी। इस फैशन ने अंग्रेजों की रुचि में परिवर्तन ला दिया था। भारतीय कपड़े उनके लिए प्रतिष्ठा चिह्न बन गए थे। उस समय दुनिया में उपभोक्तावाद सिर्फ मुट्ठी भर अभिजनों के बीच सीमित था। धीरे-धीरे उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ी। तरह-तरह की वस्तुएँ बनने लगीं। सामाजिक प्रतिष्ठा की होड़ बढ़ गई। अभी कुछ दशकों पहले तक उपभोक्ता-माल अपना स्वायत्त संसार न बनाकर अपनी वस्तुगत उपयोगिता के बल पर लोगों की रुचियों, विचारों और जीवन-शैलियों के आधुनिकीकरण में निर्णायक भूमिका अदा कर रहे थें। लोग चमक-दमक देख कर नहीं, अपनी निश्चित जरूरतों के तहत सामान खरीदते थे। बाजार के सामान प्रलुब्ध करते थे, पर कैद नहीं। वे मानवीय सोच का बंध्याकरण नहीं करते थे और वस्तुओं के उस पार का संसार भी साफ दिखता था।"२ (शंभुनाथ, संस्कृति की उत्तरकथा, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण - २०००, पृष्ठ-१५३) जिस उपभोक्तावादी संस्कृति की शुरुआत १७वीं शती से हुई, उसका प्रसार २१वीं शती तक इतना बढ़ गया है कि उसे सामान्य जीवन से अलग कर पाना आसान नहीं। उपभोक्तावाद, स्वतंत्रता के नाम पर मनुष्य को कई विकल्प प्रस्तुत करता है, मसलन अगर जेब में पैसा है तो मनुष्य कुछ भी खरीद सकता है और अगर पैसा नहीं है तो फिर वह कर्ज लेकर भी उस वस्तु को खरीद सकता है। यह एक तरह से छद्म स्वतंत्रता का विस्तार ही है जहाँ जरूरत की जगह चाहत ले लेती है और वह चाहत होती है अधिक से अधिक नई वस्तुओं के क्रय की। इस स्थिति में तर्क का लोप हो जाता है और मनुष्य दिग्भ्रमित होता जाता है।
बाजार ने मनुष्य को जितना ही अधिक अमानवीय बनाया है, साहित्य, मनुष्य की मनुष्यता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उतना ही प्रतिबद्ध है। कविता, साहित्य का वह महत्वपूर्ण हस्तक्षेप है जो बाजार के आक्रमण से मनुष्य की रक्षा के लिए किसी कारगर हथियार की तरह है। जिन समकालीन कवियों ने अपनी कविता के माध्यम से सशक्त रूप से उपभोक्तावादी संस्कृति की चुनौतियों का सामना करने का सार्थक प्रयास किया है, कुँवर नारायण उनमें एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। वे न सिर्फ एक गंभीर कवि और कथाकार हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण आलोचक भी हैं। एक व्यवसायिक परिवार से संबंधित होने के बावजूद कविता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है और उनकी पहचान मुख्य रूप से एक कवि की ही है, एक व्यवसायी की नहीं। परंपरागत विवेक, मानवतावाद तथा आशा और विश्वास कुँवर नारायण की कविताओं का मूल स्वर रहा है। अपनी कविताओं के माध्यम से वह बाजार को चुनौती देने के लिए जिस तरह से तत्पर रहते हैं उसका संबंध कहीं न कहीं उनके उस परिवेश से जरूर है, बाजार जिसका अभिन्न अंग है। लेकिन एक संवेदनशील मन, बाजार से उचाट होता है, उसकी तरफ प्रवृत्त नहीं होता -
"बाजार एक ऐसी जगह है
जहाँ मैंने हमेशा पाया है
एक ऐसा अकेलापन जैसा मुझे
बड़े-बड़े जंगलों में भी नहीं मिला
और एक खुशी
कुछ-कुछ सुकरात की तरह
कि इतनी ढेर-सी चीजें
जिनकी मुझे कोई जरूरत नहीं
(बाजारों की तरफ, कवि ने कहा - पृष्ठ-२१-२२, कुँवर नारायण)
बाजार की तरफ मनुष्य का भागना हमेशा अपनी जरूरत के हिसाब से नहीं होता बल्कि एक-दूसरे की अंधाधुंध नकल करने की प्रवृत्ति से भी होता है -
"बाजार -
जहाँ जरूरतों का दम घुटता है...
बाजार -
जहाँ भीड़ का एक युग चलता है
(लखनऊ, कवि ने कहा, पृष्ठ-९५, कुँवर नारायण, प्रथम संस्करण, २०१४)
पहले बाजार का स्वरूप छोटा हुआ करता था लेकिन अब मनुष्य की इच्छाओं में विस्तार के साथ ही बाजार के स्वरूप का विस्तार भी स्वाभाविक ही है। बाजार के चंगुल में सबसे ज्यादा वे ही लोग हैं जो अपनी चिंतन क्षमता और तर्क विवेक को खो चुके हैं। शिक्षित वर्ग बाजार से सबसे अधिक प्रभावित है क्योंकि उपभोक्तावादी संस्कृति उसकी जीवन शैली का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी है। कुँवर नारायण, समकालीन समाज की उन विसंगतियों को हमारे सामने लेकर आते हैं जहाँ मानवीय संबंध भी बाजार के द्वारा संचालित हो रहे हैं -
"अगर तुम मालामाल हो
तो हर आदमी एक बिकाऊ माल है
आज जबकि हर चीज का दाम सिर्फ बढ़ने की ओर है
आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है
(शिकायत)
भारी छूट बाजार की भाषा का शब्द है जिसका कुँवर नारायण ने बड़ी कुशलता से अपनी कविता में इस्तेमाल किया है। मानवीय रिश्तों की दृढ़ता भी व्यक्ति की जेब देख कर ही बताई जा सकती है। जहाँ चारों तरफ वस्तुओं की कीमत बढ़ रही है वहीं मनुष्य की कीमत में छूट दी जा रही है। इसकी मुख्य वजह नैतिक मूल्यों में गिरावट भी है। यह पूरी कविता नैतिक मूल्यों के वर्तमान दौर में तेजी से क्षरण पर करारा व्यंग्य है। उपभोक्तावादी संस्कृति का मुख्य लक्ष्य है बाजार और उपभोक्ता के मध्य संबंध स्थापित करना। यह संस्कृति व्यक्ति का संबंध वस्तु के साथ जोड़ने पर बल दे रही है। अतः व्यक्ति का अर्थ इस संस्कृति में हुआ कोई खास ब्रांड अर्थात झूठी प्रतिष्ठा। इस संस्कृति ने वास्तविक और अवास्तविक जरूरतों के बीच के फर्क को मिटा दिया है।
बाजार, आज जिस तरह के मनोरंजन को लेकर आया है, उसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी मनुष्य को, इसका अहसास है कुँवर नारायण को। वह स्वयं तो सतर्क हैं ही, साथ ही पाठकों भी इस दिशा में सावधान करना चाहते हैं। बाजार में तो आज नैतिकता भी थोक के भाव बिक रही है। सच को झूठ और झूठ को सच बना कर उपभोक्ता के सामने इस तरह प्रस्तुत किया जा रहा है कि झूठ और सच का फर्क मिटता जा रहा है। कुछ इसी तरह की स्थिति को बयान करते हैं कुँवर नारायण -
"सभी चाहते कि शब्दों के बीच
सच्चाई को ज्यादा-से-ज्यादा जगह मिले
लेकिन परेशान हैं इन दिनों
काले की जगह
सफेद नामक झूठ ने ले ली है
और दोनों से मिलकर
एक बहुत बड़ी दुकान खोल ली है"
(काला और सफेद)
इस बाजार में कोमल और संवेदनशील भावनाएँ भी सरेआम नीलाम हो रही हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति में हर चीज बिकाऊ है, चाहे वह प्यार हो या फिर दोस्ती। पैसे खर्च करने के एवज में डेटिंग और सेटिंग जैसी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो मनुष्य को मनचाहा पार्टनर उपलब्ध कराने की शर्तिया गारंटी देती हैं। मनुष्य को बाजार की चकाचौंध के बीचोंबीच भी कभी-कभी उदासी रूपी संगीत का गान सुनाई पड़ता है -
बाजार की चौंधिया देने वाली जगमगाहट के बीच
अचानक संगीत की एक उदास ध्वनि में
हम पा सकते हैं
उसके वैभव की एक ज्यादा सच्ची पहचान
(कुँवर नारायण, इन दिनों, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-२००७, पृष्ठ-९५)
बाजार और उपभोक्तावाद आज किस तरह के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य को हमारे सामने प्रस्तुत कर रही है, इस पर समकालीन कई कवियों की दृष्टि गई है। स्वप्निल श्रीवास्तव ने "बाजार" नामक कविता में उस भयावह परिदृश्य का जिक्र किया है जहाँ बच्चे बेचे जाते हैं और मानव अंगों की भी तस्करी होती है। यहाँ राजनीति, ग्लैमर, भ्रष्टाचार, धर्म और संस्कृति आदि का इतना घाल-मेल है कि -
"बाजार में आते ही ग्राहक का
लग जाता है मोल
वह नहीं खरीदेगा तो मारा जाएगा"
विनोददास की "बाजार की आग" कविता में भी बाजार के एक अन्य रूप का जिक्र है -
"बाजार में आग लगी है
यह मात्र सूचना न थी"।
उपभोक्तावादी संस्कृति का ही एक प्रमुख अंग हैं विज्ञापन, जो किसी भी उत्पाद की व्यवसायिक सफलता के लिए आवश्यक बन गए हैं तथा जिनका प्रमुख काम है बाजार में आए किसी भी उत्पाद के विषय में उपभोक्ता को महत्वपूर्ण जानकारी कंपनी के उत्पाद के बारे में उपभोक्ता की वफादारी को भी बनाए रखना। अगर भूमंडलीकरण से पूर्व के विज्ञापनों को देखें तो वे काफी हद तक सामाजिक रूप से सही, औचित्यपूर्ण तथा पूर्वानुमानित होते थे। लेकिन आधुनिक युग के विज्ञापन हमारी सोच के लिए कोई जगह नहीं छोड़ना चाहते, तथा वे ही यह तय करना चाहते हैं कि हम क्या खाएँ, क्या पिएँ, क्या पहनें तथा कहाँ घूमने जाएँ, आदि-आदि। किस खास फेयरनेस क्रीम के इस्तेमाल से कोई लड़की अपने "प्रिंस चार्मिंग" को पा सकती है तथा कौन सा परफ्यूम किसी पुरुष को उसकी "सेनेरिटा" से मिलवाएगा, यह भी विज्ञापन ही तय कर रहे हैं। मानवीय संबंधों की प्रगाढ़ता हो या फिर त्योहारों का सफलतापूर्वक संयोजन, सब कुछ विज्ञापनों द्वारा ही निर्धारित होता है। सौंदर्य का क्षेत्र, जो अब तक स्त्रियों का विशेषाधिकार माना जाता था, उसमें भी पुरुषों के अच्छे-खासे दखल को आज विज्ञापनों द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा है। विज्ञापनों में आने वाला पुरुष क्लीन-शेव्ड होता है और फेशियल तथा वैक्स करके, खास मर्दों के लिए बनी फेयरनेस क्रीम तथा सनस्क्रीन क्रीम का जब प्रचार करता है तब वह उस "मेट्रोसेक्सुअल पुरुष" की इमेज को पुख्ता कर रहा होता है, जिसका अंधानुकरण एक बड़ी संख्या के पुरुष कर रहे होते हैं तथा जो इस उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रतिनिधि पुरुष होता है। वस्तुतः बाजार, विज्ञापन और उपभोक्तावादी संस्कृति आज हमारे जीवन में कुछ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि न चाहते हुए भी कब हम खुद एक उत्पाद बन जाते हैं, हमें पता भी नहीं चलता। विज्ञापनों के छद्मजाल पर भी कुँवर नारायण की दृष्टि गई है और इसीलिए वे कह उठते हैं -
सच्चाई...
विज्ञापनों के फुटनोटों में
इतनी बारीक और धूर्त भाषा में छपी
कि अपठनीय
(कुँवर नारायण, इन दिनों, राजकमल प्रकाशन, संकरण-२००७, पृष्ठ-१३)
मुक्त बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार की वजह से कविता का अस्तित्व संकट में पड़ता जा रहा है, इसमें कोई शक नहीं लेकिन फिर वह कविता ही क्या जो किसी भी तरह के दबावों के सामने घुटने टेक दे? इतिहास गवाह है कि जब-जब देश सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अवरोध के दौर से गुजरा है, लगभग सभी दौर में कवियों और कविताओं ने प्रतिरोध के स्वर को मुखर किया है। आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक कविता की प्रश्नधर्मिता निर्विवाद रूप से विश्वसनीय बनी हुई है। उत्तर आधुनिक युग में आल्विन कार्नान ने १९९० में पूरे साहित्य के मृत्यु की घोषणा कर दी। एडमंड विल्सन ने कविता को एक मरती हुई विधा का नाम दिया। पश्चिम से उठे इस विमर्श से हिंदी साहित्य भी प्रभावित हुआ और यहाँ भी आलोचकों ने "कविता का अंत" घोषित कर दिया। आधुनिक युग की इस विडंबना, जिसमें साहित्य आदि कला रूप भी बाजार से प्रभावित हो रहे हैं, पर बात करते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं, "...अगर हम पूँजीवाद के वर्तमान दौर में संस्कृति की वास्तविक भूमि, भूमिका और क्रियाशीलता पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि अंततः अर्थतंत्र ही संस्कृति को नियंत्रित-संचालित और अनुशासित कर रहा है। आज बाजार ही संस्कृति और सांस्कृतिक सर्जनाओं का मूल्य तथा महत्व तय कर रहा है। साहित्य की संस्कृति पर भी बाजार का गहरा असर है।" (भूमिका, आलोचना की सामाजिकता, पृष्ठ - ५-६)
जाहिर सी बात है कि उपभोक्तावादी संस्कृति के लिए कविता का महत्व उसकी बिक्री से है, उसके बृहत्तर सामाजिक उद्देश्य से नहीं। यह सही है कि कविता उस तरह से बिकाऊ नहीं कि एअरपोर्ट पर या बस स्टैंड पर इसके प्रचार के विज्ञापन लग सकें और लोग उस पर गौर करें। यह मास-मार्केट का उत्पाद नहीं। दूसरी बात, कविता सामान्य दिमाग के लोगों की समझ की चीज नहीं। जिस तरह एक अच्छी कविता को लिखने के लिए एक अच्छे रचयिता की जरूरत होती है ठीक उसी प्रकार एक अच्छी कविता को सुनने और समझने के लिए एक अच्छे श्रोता की भी जरूरत होती है। संस्कृत काव्यशास्त्र में तो अच्छे श्रोता या पाठक को "सहृदय" या "रसिक" कहा गया है तथा एक कवि के उस भय को दर्शाया गया है जिसमे वह कहता है कि ईश्वर, किसी अरसिक को कविता सुनानी पड़े, मेरे ऐसे बुरे भाग्य मत लिखो...। "अरसिकेषु कवित्व निवेदनं, शिरसि मा लिख, मा लिख, मा लिख"। अतः उपभोक्तावाद के इस दौर में कविता पढ़ने के संस्कार को जीवंत रखने के प्रयास जरूरी हैं। साथ ही, कविता को जब तक मुख्यधारा के समाज से जोड़ा नहीं जाएगा, तब तक वह जीवंत नहीं हो पाएगी। वर्तमान युग में कविता की स्थिति पर बात करते हुए मैनेजर पांडेय कहते हैं, "भारतीय समाज में मुक्त बाजार के विस्तार और उपभोक्तावाद के प्रसार के साथ साहित्य और विशेषतः कविता की जगह, संस्कृति के केंद्र में नहीं, हाशिये पर है। अब कविता धीरे-धीरे फालतू, मनोरंजक या फिर आत्मकेंद्रित होती जा रही है। वह मानवीय संवाद का माध्यम नहीं बन पा रही है। जाहिर है, आज कविता की सामाजिक भूमि और भूमिका खतरे में है। यह खतरा अभी और बढ़ेगा, क्योंकि उपभोक्तावाद का अभी और विस्तार होगा। लेकिन यह खतरा रचनाकारों के लिए एक चुनौती भी है। समाज को सभ्य, संवेदनशील और मानवीय बनाए रखने के लिए कविता आज पहले से भी अधिक आवश्यक है।" (आलोचना की सामाजिकता, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण - २००५, पृष्ठ-१६२) कविता के अस्तित्व पर मंडराते खतरे पर धर्मवीर भारती ने भी "दूसरा सप्तक" में "कविता की मौत" द्वारा अपनी चिंता प्रकट की थी।
कौन कहता है कि कविता मर गई?
मर गई कविता,
नहीं तुमने सुना?
हाँ, वही कविता
कि जिसकी आग से
सूरज बना
धरती जमी
बरसात लहराई
और जिसकी गोद में बेहोश पुरवाई
पंखुरियों पर थमी?
प्रसिद्ध अमेरिकी कवि और आलोचक विलियम लोगन ने अपने आलेख, "पोएट्री : हू नीड्स इट" (न्यूयोर्क टाइम्स, २०१४) में कविता की वर्तमान अवस्था पर विचार किया है। उनका मानना है कि कविता शुरू से ही वह प्रमुख कला रही है जिसका पाठक वर्ग छोटा ही रहा है तथा कवियों के लिए आजीविका के रूप में कविता पर निर्भर रहना हमेशा ही कठिन रहा है। वे अमेरिकी लोगों में कविता पढने के संस्कार को प्रोत्साहित करने के लिए स्कूली शिक्षा के दौरान बच्चों के पाठ्यक्रम में शेक्सपीयर, पोप, मिल्टन और दांते इत्यादि को रखने का सुझाव देते हैं ताकि कॉलेज तक आते-आते उन्हें एनी कारसन की कविता कंठस्थ हो जाए। वे मानते हैं कि कविता का पाठक वर्ग उतना बड़ा कभी नहीं हो सकता जितना कि "गेम ऑफ थ्रोंस" का दर्शक वर्ग। लेकिन फिर कविता वह है जो सिर्फ भाषा ही व्यक्त कर सकती है। धूमिल ने भी कविता को भाषा में आदमी होने की तमीज कहा है। जाहिर सी बात है कि इस दौर में कविता की अस्मिता पर ही प्रश्नचिह्न लगता जा रहा है। यही कारण है कि उत्तर आधुनिकतावाद के इस दौर में कविता के अंत की घोषणा कई बार हो चुकी है लेकिन कविता आज भी जिंदा है, वह मर ही नहीं सकती। कुँवर नारायण के शब्दों में कहें तो -
"यकीन करने वालों ने यकीन कर लिया
कि कविता मर गई
लेकिन शक करने वालों ने शक किया
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
और इस तरह बच गई कविता की जान"
कुँवर नारायण मानते हैं कि कविता की खुद की एक स्वायत्तता है, और इसे किसी भी प्रकार के नियमों में बांधा नहीं जा सकता -
"कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने
कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने
बाहर-भीतर
इस घर-उस घर
कविता के पंख लगा उड़ने के माने
चिड़िया क्या जाने
(कविता के बहाने, कवि ने कहा - पृष्ठ - ५१-५२)
कुँवर नारायण समकालीन यथार्थ के प्रति जागरूक कवि हैं और बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति द्वारा उत्पन्न सांस्कृतिक प्रतिरोधों के विरुद्ध अपनी कविता को खड़ा रखते हैं। उनकी कविताओं में एक तरह के आशावाद का स्वर भी मिलता है। आज बाजार कविता के समक्ष जिस तरह के संकट को प्रस्तुत कर रहा है उसे इंगित करते हुए परमानंद श्रीवास्तव कहते हैं, "समूची दुनिया जीवन और अस्तित्व के रहस्य खोकर एक भयावह मंडी में बदल गई है जहाँ मूल्य और विचार भी बिकने के लिए अभिशप्त हैं। जो ताकतवर हैं उनका आतंक सब ओर छाया है। वे धर्मान्धता और सांप्रदायिकता को वैध, हिंसा को सुंदर और हत्या को कलात्मक बना कर उन्हें बिकाऊ चीज के रूप में तब्दील कर सकते हैं और एक सांस्कृतिक विचार को निरीह तकनीक में सीमित कर सकते हैं। आस्वाद की निजता की जगह उपभोगवाद प्रेरित सामूहिक सहमति या अनुकरणशीलता ने ले ली है। कविता और कविता की आलोचना के सामने यह नया यथार्थ या उत्तर-आधुनिक यथार्थ एक नई चुनौती है।" (भूमिका, कविता का अर्थात, परमानंद श्रीवास्तव, आधार प्रकाशन, पंचकुला, १९९९, पृष्ठ-११) उपभोक्तावादी संस्कृति के खतरों से निबटने के लिए सबसे जरूरी है कि नैतिक मूल्यों का संरक्षण किया जाए। कुँवर नारायण के संपूर्ण काव्य-संसार में नैतिकता रूपी औजार, बाजारवाद से मुकाबला करता नजर आता है। उनकी कविता न सिर्फ उपभोक्तावाद की कुटिल नीतियों को यथार्थ रूप में हमारे सामने व्यक्त करती है बल्कि उसके विरोध की क्षमता को भी प्रदर्शित करती है। भूमंडलीकरण जिस सामाजिक बदलाव को हमारे सामने लेकर आया है उसकी अनुगूँज कुँवर नारायण की कविताओं में स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ती है। उनके अनुसार, "मौजूदा समय को मैं कुछ-कुछ इस तरह देखना पसंद करूँगा कि शायद वह किसी बड़े विचार या बड़े-बड़े विचारों की गहमागहमी से थोड़ी फुरसत का वक्त है। पश्चिमी विचारों का एकाधिपत्य और धाक उत्तर-उपनिवेशीय समय में शिथिल हो चली है। जिस वस्तुवादी चिंतन ने आज हमें अति-उपभोक्तावादी विपत्ति और दैत्याकार टेक्नोलॉजी की भूलभुलैया में फँसा दिया है उससे खुद पश्चिमी दुनिया परेशान है। कई मानों में मुझे यह समय गहरे आत्म-परीक्षण का समय लगता है। शायद यह गलत वक्त नहीं है कि हम भी अपने बारे में गहराई और ईमानदारी से सोचें।" ( कुँवर नारायण, आज और आज से पहले, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण, १९९८, पृष्ठ - ६९)
कुँवर नारायण यह मानते हैं कि यदि व्यक्ति बौद्धिक रूप से सचेत नहीं होगा तब तक उपभोक्तावादी संस्कृति के मोहजाल से उसका निकल पाना संभव नहीं होगा। जिस तरह जादू के खेल को देखने वाले यह जानते हुए भी कि जादू हाथों की सफाई होती है, खेल देखना नहीं छोड़ते ठीक वैसे ही बाजार के मायाजाल में फँसे मनुष्य को उसका छलावा नहीं दिखाई पड़ता, वह बार-बार छला जाता है बाजार के द्वारा लेकिन अपनी मूर्खता पर लज्जित होने की बजाय गौरवान्वित महसूस करता है। अपनी "खेल" नामक कविता में बाजार के मायाजाल में फँसे मनुष्य की विडंबना को दर्शाते हैं -
जादूगर भी जानता कि सब जानते
फिर भी धोखा खाते सब जान कर
झूठ को सच मान कर कुछ घंटे
कुछ घंटे भी बहुत होते
लोग अगर मौका दें तो साबित हो जाए
कि धोखा वहाँ भी है जहाँ वे समझते
कि नहीं है उनके जाँचने और जानने के बीच
देखते-देखते छल सकती मामूली चीजें
बेमानी आवाजें
कुँवर नारायण मानते हैं कि कविता सिर्फ जीवन का प्रतिबिंब नहीं बल्कि जीवन का सार-तत्व है। "परिवेश : हम-तुम" की भूमिका में वह लिखते हैं कि "मेरा विश्वास है कि बाहरी जीवन की खोज से पहले आंतरिक जीवन की खोज आवश्यक है।" यही आज के युग का सच भी है। वस्तुतः आज के युग में बाजार मनुष्य को हर रूप में छल रहा है फिर वह चाहे विज्ञापनों के रूप में हो या फिर मॉल-संस्कृति के रूप में। मनुष्य बाजार के सामने घुटने टेकते जा रहा है। सही और गलत के फर्क का लोप होता जा रहा है। उपभोक्तावाद के बढ़ते प्रभाव के कारण आज नैतिक मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है तथा जो जीवन मूल्य अब सबसे प्रधान हो गया है, वह है "और अधिक" यानी कि कुछ भी यथेष्ट नहीं है। उपभोक्तावादी संस्कृति समूचे मनुष्य जाति को निगलने के लिए तैयार है और इस चौतरफे हमले से बचने के लिए मनुष्य को खुद आगे आना होगा। कुँवर नारायण के लिए कविता जीवन का ही दूसरा नाम है जिसकी संभावनाएँ अनंत हैं। उनके अनुसार, "साहित्य की सबसे आजाद विधाओं में कविता को रखा जा सकता है। "...उसकी नियति कुछ-कुछ एक पक्षी की तरह है जिसका एक पक्ष यदि भरपूर जमीनी है तो दूसरा उतना ही दूर-दूर तक आकाशीय है।" (वक्तव्य - कवि ने कहा) यही कारण है कि कविता उनके लिए मनुष्य की मनुष्यता को बचाए रखने का दूसरा नाम ही है -
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
कभी हमारे सामने
कभी हमसे पहले
कभी हमारे बाद
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
भाषा में उसका बयान
जिसका पूरा मतलब है सच्चाई
जिसकी पूरी कोशिश है बेहतर इनसान
(कोई दूसरा नहीं, पृष्ठ - ५३)
कविता के अर्थ की संभावनाएँ अनंत हैं और वह निरंतर अपने अर्थ का विस्तार करते रहती है -
बाकी कविता
शब्दों से नहीं लिखी जाती
पूरे अस्तित्व को खींच कर एक विराम की तरह
कहीं भी छोड़ दी जाती है... (अपने सामने - पृष्ठ - ४४)
कुँवर नारायण यह मानते हैं कि कविता उस जीवन का अभिन्न अंग है जो प्रेम की मूल सत्ता स्वीकार करता हो। जरूरत उसे जीवन का अभिन्न अंग समझने की है, जीवन से अलग कोई वस्तु मानने की नहीं। उनकी कविताएँ आठवें दशक में भारतीय राजनीति के उथल-पुथल और सामाजिक-आर्थिक पतन से प्रेरित और प्रभावित हुईं। किंतु अपने व्यापक फैलाव में वे किसी भी समय और जगह से हमें आगाह कराती हैं। अपने सभी काव्य-संग्रहों में वे जीवन के उन सभी पक्षों को समेटते चलते हैं, जो जीवन के वास्तविक कटु सत्यों से टकराते हुए उपजे हैं। उनकी कविताओं की विशेषता यह है कि वे एक साथ इतिहास, मिथक और वर्तमान में आवाजाही करती हैं। कुँवर नारायण के लिए इतिहास हो या मिथक, मुख्य चिंता मनुष्य के संघर्ष की ही है। उनकी कविताओं में जीवन की सार्थकता, सत्य की खोज, मानवीय मूल्य आदि बौद्धिकता या दार्शनिकता की उपज ही नहीं हैं उनके जीवन का एक हिस्सा भी हैं। पुस्तकीय ज्ञान से अधिक महत्व वे जीवन-दृष्टि को देना चाहते हैं, "जीवनानुभव से उपार्जित जीवन-दृष्टि को प्राथमिकता देता हूँ। अध्ययन और पुस्तक ज्ञान का महत्व उसे समृद्ध करते रहने में है, उनकी जगह लेने में नहीं। न ही उनका विकल्प बन जाने में है।" (डायरी) यहाँ उनकी साम्यता कबीर से देख सकते हैं जो कहते हैं, "मैं कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी"।
कविता के भविष्य को लेकर कुँवर नारायण निरंतर चिंतनशील हैं और उनके अनुसार, "कविता मनुष्य के दिल और दिमाग के जितना ही नजदीक अपनी जगह बनाएगी उसके लिए जीवित रहना उतना ही संभव और अर्थपूर्ण होगा। प्रचार-प्रसार के तमाम माध्यमों के मुकाबले में और यों भी, कविता की स्थिति जितनी नाजुक है उतनी ही विशिष्ट भी, और यह विशिष्टता ही उसका प्रमुख बल है। कविता आज उसी या वैसे ही से काम को कर के जिंदा नहीं रह सकती, जिसे दूसरे माध्यम, या दूसरे प्रकार के लेखन, बेहतर कर रहे हैं। कविता को भाषा में वहाँ अपनी पक्की और स्थायी पहचान बनाना है जहाँ आदमी के बनाए किसी भी स्थूल उपकरण की पहुँच नहीं। बदलते संदर्भों में मनुष्य के सबसे कम उद्घाटित या विलुप्त होते जीवन-स्रोतों की खोज और भाषा में उनका संरक्षण शायद आज भी कविता की सबसे बड़ी ताकत है।"
अंततः कहा जा सकता है कि आज साम्राज्यवाद और नवउपनिवेशवाद तथा उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्ध आवाज उठाने में कविता को कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल करने वाले कवियों में कुँवर नारायण का अविस्मरणीय योगदान है। अगर कुँवर नारायण के ही शब्दों में कहें तो -
बहुत कुछ दे सकती है कविता...
क्योंकि बहुत कुछ हो सकती है कविता
जिंदगी में
अगर हम जगह दें उसे
जैसे फूलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात
(पृष्ठ - ५४, कोई दूसरा नहीं)