एक ओर हम जनरल स्मट्स को समझौते की शर्तें पालने के लिए मना रहे थे, तो दूसरी
ओर कौम को फिर से जाग्रत करने का कार्य भी उत्साहपूर्वक चला रहे थे। हमें यह
अनुभव हुआ कि हर जगह कौम के लोग फिर से लड़ाई छेड़ने के लिए और जेल जाने के
लिए तैयार ही हैं। हर जगह सभाएँ की गईं। सभाओं में हमने कौम के लोगों की सरकार
के साथ चल रहे पत्र-व्यवहार की बातें समझाई। 'इंडियन ओपीनियन' में तो हर
सप्ताह की डायरी छपती ही थी, जिससे कौम सारी गतिविधि से अच्छी तरह परिचित
रहती थी। सभाओं में सबको यह भी समझाया और चेताया गया कि स्वेच्छा से लिए हुए
परवाने निष्फल जाने वाले हैं। लोगों से यह भी कहा गया कि यदि किसी भी उपाय से
खूनी कानून रद्द न हो, तो हमें उन परवानों को जला ही डालना चाहिए। इससे
ट्रांसवाल की सरकार यह समझ जाएगी कि कौम अपनी बात पर दृढ़ और निश्चिंत है तथा
जेल जाने को भी तैयार है। परवानों की होली जलाने के लिए हर जगह से परवाने
इकट्ठे भी किए गए थे।
जिस नए बिल के बारे में हम पिछले प्रकरण में पढ़ चुके हैं, उसे पास करने की
सरकार तैयारियाँ करने लगी। ट्रांसवाल की विधान-सभा में भी कौम ने अरजी भेजी।
लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं आया। अंत में सत्याग्रहियों का 'अल्टीमेटम' सरकार
के पास भेजा गया। 'अल्टीमेटम' का अर्थ है निश्चय-पत्र या धमकी का पत्र, जो
लड़ाई के हेतु से ही भेजा जाता है। 'अल्टीमेटम' शब्द का उपयोग कौम की ओर से
नहीं किया गया था। परंतु कौम का निश्चय बताने वाला जो पत्र भेजा गया था, उसे
जनरल स्मट्स ने ही विधान-सभा में 'अल्टीमेटम' कहा था। साथ ही उन्होंने यह भी
कहा कि, ''जो लोग ऐसी धमकी सरकार को दे रहे हैं, उन्हें सरकार की शक्ति की
कल्पना नहीं है। मुझे दुख ही इस बात का होता है कि कुछ आंदोलनकारी (एजिटेटर)
गरीब हिंदुस्तानियों को भड़काते हैं; और उन गरीबों पर अगर आंदोलनकारियों का
प्रभाव होगा, तो वे बरबाद हो जाएँगे।'' अखबारों के रिपोर्टरों ने उस अवसर का
वर्णन करते हुए लिखा था कि विधान-सभा के अनेक सदस्य 'अल्टीमेटम' की बात सुनकर
अत्यंत क्रोधित हो गए थे। उनकी आँखें लाल हो गई थीं। उन्होंने जनरल स्मट्स
द्वारा प्रस्तुत किए गए नए बिल को एकमत और उत्साह से पास कर दिया।
उपर्युक्त 'अल्टीमेटम' में इतनी ही बात थी : ''हिंदुस्तानी कौम और जनरल
स्मट्स के बीच जो समझौता हुआ था, उसमें स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि यदि
हिंदुस्तानी लोग स्वेच्छा से परवाने ले लेंगे, तो उन्हें कानूनी मानने के
लिए एक बिल विधान-सभा में पेश किया जाएगा और एशियाटिक कानून रद्द कर दिया
जाएगा। यह बात तो प्रसिद्ध है कि सरकारी अधिकारियों को संतोष हो इस ढंग से कौम
ने ऐच्छिक परवाने निकलवा लिए हैं। इसलिए अब एशियाटिक कानून रद्द होना ही
चाहिए। इस विषय में कौम ने जनरल स्मट्स को कई पत्र लिखे हैं; न्याय पाने के
लिए दूसरे भी आवश्यक कानूनी उपाय किए हैं। लेकिन अभी तक कौम के सारे प्रयत्न
असफल रहे हैं। विधान-सभा में जब बिल लगभग पास होने की स्थिति में पहुँच गया
है, उस समय हिंदुस्तानी लोगों में फैली हुई घबराहट और उत्तेजना से सरकार को
परिचित कराना कौम के नेताओं का फर्ज है। और हमें दुख के साथ यह कहना पड़ता है
कि यदि समझौते की शर्तों के अनुसार एशियाटिक कानून रद्द नहीं किया जाएगा और
यदि वैसा करने की सूचना कौम को अमुक समय तक नहीं दी जाएगी, तो कौम के लोगों ने
जो परवाने स्वेच्छा से लिए हैं उन्हें जला डाला जाएगा; और ऐसा करने के
फलस्वरूप उन पर जो भी मुसीबतें आएँगी, उन्हें वे नम्रता से और दृढ़ता से सहन
कर लेंगे।''
ऐसे पत्र को 'अल्टीमेटम' मानने का एक कारण तो यह था कि उसमें उत्तर के लिए
सरकार को एक अवधि दे दी गई थी। दूसरा कारण यह था कि गोरे लोग हिंदुस्तानियों
को सामान्यतः जंगली कौम मानते थे। यदि गोरे हिंदुस्तानियों को अपने जैसे
मानते, तो इस पत्र को उन्होंने पूरी तरह सभ्यतापूर्ण माना होता और उस पर
ध्यान भी दिया होता। लेकिन गोरे हिंदुस्तानियों को जंगली मानते थे, यही बात
हिंदुस्तानियों के लिए सरकार को उपर्युक्त पत्र लिखने का पर्याप्त कारण थी।
हिंदुस्तानियों को इन दो स्थितियों में से किसी एक को स्वीकार करना था : एक,
जंगली होने की बात कबूल करके दबे रहना; और दूसरी, जंगली होने की बात का इनकार
करने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाना। ऐसे कदमों में उपर्युक्त पत्र पहला
कदम था। यदि इस पत्र के पीछे उस पर अमल करने का दृढ़ निश्चय न होता, तो वह
उद्धततापूर्ण माना जाता और कौम विचारशून्य तथा मूर्ख सिद्ध होती।
पाठकों के मन में शायद यह शंका उठेगी कि जंगलीपन के आक्षेप से इनकार करने का
पहला कदम तो 1906 में ही उठाया गया था, जब सत्याग्रह की प्रतिज्ञा ली गई थी;
और यदि यह ठीक हो तब तो इस पत्र में ऐसा नया क्या था कि उसे मैं इतना महत्व
देता हूँ और यह मानता हूँ कि उस समय से कौम ने जंगलीपन के आरोप से इनकार करना
शुरू किया था? एक दृष्टि से ऐसा तर्क सही माना जाएगा। लेकिन अधिक विचार करने
से पता चलेगा कि कौम के इनकार का सच्चा आरंभ उपर्युक्त निश्चय-पत्र से ही
हुआ था। यह बात पाठकों को याद रखनी चाहिए कि सत्याग्रह की प्रतिज्ञा की घटना
अकस्मात् हो गई थी। उसके बाद की जेल वगैरह उसका अनिवार्य परिणाम था। उससे
अनजाने ही कौम की प्रतिष्ठा बढ़ी थी। परंतु यह पत्र सरकार को लिखते समय कौम
को पूरा ज्ञान था और प्रतिष्ठा का दावा करने का उसका पूरा इरादा था। ध्येय
तो पहले की तरह इस समय भी खूनी कानून रद कराने का ही था। परंतु इस पत्र में
लिखी गई भाषा की शैली में, कार्य-पद्धति के चुनाव में तथा अन्य कई बातों में
भेद था। कोई गुलाम अपने मालिक को सलाम करे और कोई मित्र अपने मित्र को सलाम
करे-ये दोनों हैं तो सलाम ही, परंतु दोनों के बीच इतना बड़ा भेद है कि उस भेद
के कारण ही तटस्थ दर्शक एक आदमी को गुलाम के रूप में और दूसरे को मित्र के
रूप में पहचान लेगा।
सरकार को 'अल्टीमेटम' भेजते समय ही हमारे बीच काफी चर्चा हुई थी। अवधि तय करके
सरकार से उत्तर माँगना अविनय अथवा अशिष्टता नहीं मानी जाएगी? कहीं इसका
परिणाम यह तो न आए कि सरकार हमारी माँग स्वीकार करना चाहती हो, तो भी इसके
कारण स्वीकार न करे? क्या कौम का निश्चय परोक्ष रूप में सरकार को बताना
पर्याप्त नहीं होगा? ऐसे अनेक प्रश्नों पर गहरा विचार करने के बाद हम सबने
एकमत से यह निश्चय किया कि हम जिसे सच्चा और उचित मानते हैं वही हमें करना
चाहिए। इससे अशिष्टता का झूठा आरोप हमारे सिर मढ़ा जाए, तो वह खतरा भी हमें
उठाना चाहिए; और जो कुछ सरकार देना चाहती है वह झूठे क्रोध के कारण यदि हमें न
दे, तो वह खतरा भी मोल लेना चाहिए। यदि हम किसी भी रूप में मनुष्य के नाते
अपनी हीनता स्वीकार न करते हों और यह मानते हों कि चाहे जितना दुख चाहे जितने
समय तक उठाना पड़े तो भी उसे उठाने की शक्ति हम में है, तब तो जो मार्ग सीधा
और सही है वही हमें ग्रहण करना चाहिए।
अब शायद पाठक यह समझ सकेंगे कि इस बार जो कदम उठाया गया था, उसमें कुछ नवीनता
और विशेषता थी। उसकी प्रतिध्वनि विधान-सभा में और बाहर के गोरे मंडलों में भी
उठी। कुछ ने हिंदुस्तानियों के साहस की प्रशंसा की और कुछ बहुत गुस्सा हुए।
उन्होंने ऐसे उद्गार भी प्रकट किए कि इस उद्धतता के लिए हिंदुस्तानियों को
पूरी सजा मिलनी चाहिए। दोनों पक्षोंने अपने व्यवहार से हिंदुस्तानियों के इस
कदम की नवीनता स्वीकार की। जिस समय सत्याग्रह आरंभ हुआ था उस समय यद्यपि
वास्तव में वह बिलकुल नया कदम था, फिर भी उससे गोरों में जितनी खलबली मची थी
उसकी अपेक्षा इस पत्र से कहीं अधिक खलबली मची। इसका एक कारण तो स्पष्ट ही
है। सत्याग्रह आरंभ हुआ उस समय किसी को कौम की शक्ति का अंदाज नहीं था। उस
समय इस प्रकार का पत्र अथवा ऐसी भाषा उचित नहीं मानी जाती। लेकिन अब कौम की
थोड़ी-बहुत कसौटी हो चुकी थी और सब कोई यह देख चुके थे कि सामुदायिक कष्टों
का विरोध करने में जो दुख आएँ उन्हें बरदाश्त करने की शक्ति कौम में है।
इसलिए निश्चय-पत्र की भाषा स्वाभाविक रूप में ही विकसित हुई थी और इस कारण
वह अशोभनीय मालूम नहीं हुई।