मध्ययुगीन काल खण्ड में देश में हिंदू समाज की विभिन्न जातियों में संतों का उदय हुआ। भारत वर्ष में संतों की एक परंपरा रही है, जिसमें संत कबीर, संत तुलसीदास, संत रविदास, संत रामानंद, संत रहीम, संत शंकर देव, संत माधव देव, तुलसीदास, संत बलराम दास, संत जगन्नाथ दास, संत यशोवंत दास आदि की गणना होती है। इसी मध्ययुगीन कालखण्ड में उड़िया के संतों का उदय हुआ।
'संत' का शाब्दिक अर्थ साधु, विरक्त, या त्यागी पुरूष, सज्जन और महात्मा है। संत शब्द को प्रयोग परम धार्मिक तथा साधु व्यक्ति के अर्थ के लिए होता है। यद्यपि संत की कोई अंतिम परिभाषा नहीं की सकती परंतु संतों की विशेषताओं के कारण वे सामान्य सांसारिक जनों से पृथक हो जाते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास ने संत के संबंध में लिखा है 'संत समाज आनंद और मंगलदाता होता है, वह संसार में सचल तीर्थराज प्रयाग है।' संतों के स्वभाव, चरित्र, जीवन लक्ष्य और कार्यों की मर्यादा को परिभाषित करते हुए संत तुलसीदास कहते हैं-
संत सुभाव नवनीत समाना,
कहा, कविनं पै कहत न जाना।
निज परिताप द्रवै नवनीता,
परि परिताप सुसंत पुनीता।
संत कबीरदास जी कहते हैं-
नहिं शीतल है चन्द्रमा, हिम नहिं शीतल होय।
कबिरा शीतल संतजन, नाम सनेही होय।
उक्त पंक्तियों से संत की एक अवधारणा हमारे सामने आती है कि संत सादगी के साथ जीवन यापन करने वाला सर्व कल्याण हित त्याग के लिए तत्पर रहने वाला और सामान्य जन को कष्टों से मुक्ति दिलाने वाला होता है, जिससे हममें से अधिकांश लोग परिचित हैं, किन्तु भारतवर्ष के कुछ सुदूर क्षेत्र हैं जहाँ संत परंपरा की जानकारी लोगों को कम है, उड़िया उनमें से एक है।
प्राचीन काल से ही व्यापार, वाणिज्य कला, स्थापत्य, कारीगरी कौशल, नृत्य-संगीत, संगीत परंपरा, साहित्य, धर्म, दर्शन और भक्ति आदि विविध क्षेत्रों में ओड़िशा एक अलग वैशिष्ट्य प्रदान करता आ रहा है। इसकी पवित्र धरती पर सारलादास, जगन्नाथदास, बलरामदास, दीन कृष्ण दास, अर्जुनदास, सालवेग, अच्युतानंद, यशोवंतदास, आरक्षित दास और भीम भोई जैसे प्रमुख संत कवियों ने किया है। श्री चैतन्य, कबीर, गुरूनानक, और तुलसीदास जैसे संत कवियों के आगमन से यहाँ की भक्ति भावना में अद्भुत समन्वय हुआ है। साथ ही ओड़शा में साहित्य संस्कृति और धर्म की धारा की त्रिवेणी संगम हुआ था।
उड़िया भाषा के प्रथम कवि झंकड़ के सारलादास रहे, जिन्हें उड़ीसा के व्यास के नाम से जाना जाता है। इनहोंने देवी की स्तुति में चंडी पुराण व विलंका रामायण की रचना की थी। सारला महाभारत आज भी घर-घर पढ़ा जाता है। जिसमें ओड़िशा के लोक जीवन का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। अर्जुनदास द्वारा लिखित उड़िया भाषा की प्रथम गीत काव्य या राम विभा महाकाव्य माना जाता है।
सारलायुग के बाद पंचसरना युग को ओड़िशा की आध्यात्मिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक समृद्धि का महत्वपूर्ण काल माना जाता है। श्री चैतन्य देव ने यहाँ आकर गौड़ीय वैष्णवधर्म नाम से भक्ति धर्म का प्रचार-प्रसार किया, श्री चैतन्य के आने से पहले ओड़िशा वैष्णव धर्म की लीला भूमि के रूप में जाना जाता था। उस समय ओड़िशा के संत कवियों द्वारा ज्ञान की मिश्रित भक्ति का प्रचार-प्रसार हो रहा था। जो इस प्रकार है-
बलरामदास - 1470 ई. में पुरी जिले के चन्द्रपुर ग्राम में जन्मे बलरामदास पंचसखा युग के श्रेष्ठ कवि थे। वे महाराज प्रताप रूद्रदेव के समय के थे और राजा कपिलेन्द्र देव के मंत्री थे। बलरामदास ओड़िशा के वाल्मीकि कहे जाते हैं। उनका व्यक्तित्व क्रांतिकारी होने के बावजूद भी भक्ति में तन्मय और उन्मुक्त रहते थे। उन्होंने भगवान जगन्नाथ को अपना आराध्य देवता माना। उनकी सभी रचनाओं पर जगन्नाथ की महिमा और प्रभाव है। उन्होंने जगमोहन रामायण, वेदांत सार, वट अवकाश, लक्ष्मीपुराण, भगवतगीता, ब्रह्माण्ड भूगोल, भाव समुद्र, गुप्त गीता, ज्ञान चूड़ामणि, कोमल लोचन चउतीशा, कांति कोइलि आदि ग्रन्थों की रचना की है। इनमें जगमोहन रामायण और लक्ष्मीपुराण सबसे अधिक प्रसिद्ध रही। जिस प्रकार सारलादास का सारला महाभारत उत्कलीय परिवारों में प्रसिद्ध रही। जिस प्रकार सारलादास का सारला महाभारत उत्कलीय समाज में अशेष ख्याति प्राप्त ग्रंथ है। यह तत्कालीन जनजीवन, संस्कृति, परंपरा का चित्र प्रस्तुत करने वाला महान ग्रंथ है। इस ग्रंथ में रामायण में वर्णित कतिपय घटनाओं को आडिशा से जोड़ा गया है। इसमें चरित्र-चित्रण आदर्श पितृत्व और मातृत्व का वर्णन हुआ है। सीता का चरित्र एक आदर्श ओड़िआणी रूप से चित्रण किया है। कवि ने बिरजा क्षेत्र याजपुर, वणई, वामण्डा, उदयगिरि, धऊलिगिरी आदि ओड़िशा के विभिन्न स्थलों का वर्णन किया है जिसमें बिरला क्षेत्र व याजपुर को रावण का तपस्या स्थल बताया गया है। साथ ही ढेंकानाल के कपिलास पर्वत को महादेव जी का कैलाश पर्वत के रूप में माना गया है। अर्थात कवि ने अपनी कल्पनाशक्ति एवं अनुभूति के द्वारा इस ग्रंथ की महत्ता बढ़ गई।
बलरामदास ने जगमोहन रामायण की भाषा को ग्रामीण जनता के लिए सरल व सरस बना दिया है क्योंकि भाषा भावों की वाहक है। राम के वन गमन के समय वातावरण अत्यंत ह्दय विदारक है-
'हा हा कहि सर्वे गोड़ाई रावन्ति
राम वन जान्ते तरु लताए रोदन्ति
यानर ये चउकति देखन्ति सकल
श्री रामर मुख, चाँहि समस्ति आकुल
बाबु रघु नंदनरे मधुर मूरति उईला चंद्रमा प्राये तोर मुख ज्योति
ए अयोध्या नृपति कि तुहि ये राजन
तेते कि दोषे पेषिला धाता घोरबन'
बलरामदास की 'लक्ष्मीपुराण' एक विशिष्ट कृति है इसमें देवी महालक्ष्मी की महिमा का वर्णन है। इसमें नारी मुक्ति, अछूत-उद्धार और मानवतावादी चिंतन का अंकन किया गया है। इसमें महाप्रभु श्री जगन्नाथ से उपेक्षित लक्ष्मी ओड़िया घर की पति उपेक्षित एक अत्याभिमानी सामान्य नारी का प्रतीक है। लक्ष्मी पुराण उत्कल की नारियों का कंठहार है। इसे प्रत्येक बृहस्पतिवार को लक्ष्मी देवी की पूजा के अवसर पर पढ़ा जाता है। बलरामदास की 'भाव समुद्र' ओडिया भक्ति साहित्य की अमूल्य ग्रंथ है। स्पष्ट है बलरामदास एक प्रभावशाली संत एवं धर्म गुरू थे। इसलिए ओड़िया साहित्य में वह अविस्मरणीय है।
संत कवि जगन्नाथदास - जगन्नाथदास ओड़िशा के एक सम्मानित कवि हैं। इनका जन्म 1492 ई. में पुरी जिले के कपिलेश्वर शासन में हुआ था। ये बचपन से ही धार्मिक और भगवान विष्णु के उपासक थे। श्री चैतन्यदेव ने उन्हें 'अतिबड़ी जगन्नाथदास' कहा है। उनकी प्रमुख रचना 'ओडिया भगवत' उत्कल के गांव-गांव, घर-घर, में परिचित हैं। यह एक धर्मशास्त्र ग्रंथ है। कहा जाता है कि ओड़िया भागवत की रचना के पूर्व ओड़िया में संस्कृत भागवत की चर्चा हो रही थी। संस्कृत में रचित भागवत कठिन होने के कारण कवि जगन्नाथ की माँ भागवत सुनने रोज जाती थी पर संस्कृत का भागवत उनके समझ न आने के कारण परम मातृ भक्त जगन्नाथदास ने अपनी प्रतिभा और अथक प्रयास से आड़िया भागवत की रचना की। यह नवाक्षरी द्वंद्व में लिखा गया है और इसका एकादश द्वंद्व अत्यंत महत्वपूर्ण है। जगन्नाथदास द्वारा भागवत में कही बातें अत्यंत मार्मिक और भावपरक है। जन्म और मृत्यु संसार में चिरंतन सत्य है। कवि जगन्नाथ भागवत के माध्यम मनुष्य को उपदेश देते हुए कहते है-
'मर्त्य मंडले देह बहि,
छेवता होइले मरइ।'
संत कवि जगन्नाथ जीवन को सत्यं, शिवं और सुन्दरम से जोड़ते हैं और मानते है कि जीवन दूसरों की भलाई से सार्थक होता है। वे कहते हैं-
'धन्य जीवन ए जगते, जे प्राण धरे पर हिते।
सर्वे चालिबे काक बके, कथा रहिब मही तके।'
इस तरह भागवत की उपदेशपरक वाणी ने ओड़िया जाति और संस्कृति को जीवित किया। भागवत में प्रकृति, मानव तथा आध्यात्मिक भावना का चित्रण किया गया है। भागवत में प्रकृति, मानव तथा आध्यात्मिक भावना का चित्रण किया गया है। भागवत के अतिरिक्त जगन्नाथदास की अर्थ कोइलि, तुला भिणा, मृगुणी स्तुति, रासक्रीड़ा, शैवागम, शुक्ल भागवत, मनः शिक्षा, पाषाण दलनः गज स्तुति, द्वादश स्कंध टीका आदि उत्कृष्ट तत्व ज्ञानपरक रचनाएं हैं। इस प्रकार ओड़िशा के परम वैष्णव संत जगन्नाथदास अपनी अनूठी कृतियों के लिए पूरे विश्व में चिर वंदनीय है।
अच्युतानंददास - पंचसखा के अन्यतम सखा कवि अच्युतानंद कई दृष्टियों से प्रख्यात थे। वे परम भक्त, संत साधक, सिद्ध साधक, तत्वदर्शी, भविष्यदृष्टा एवं समाज सुधारक थे। उनकी भक्ति भावना में सगुण व निर्गुण दोनों विद्यमान हैं। उनकी रचना अच्युतानंद मालिका' भविष्यवाणी के लिए प्रसिद्ध है। वे अपनी कृति शून्य संहिता, गुरू भक्ति गीता, हरिवंश, गोपालक ओगाल, आदि के लिए जाने जाते हैं। अच्युतानंद योगमार्गी थे। उनकी रचना शून्य संहिता, शब्द ब्रहम संहिता आदि से ज्ञात होता है। संत कवि कबीरदास की भांति मूर्ति पूजा, छुआछूत, अंधविश्वास, ब्राह्मणवाद आदि के घोर विरोधी थे। दलितों के प्रति उनमें करूणा की भावना थी। अच्युतानंद अपनी श्रेष्ठ कृति 'हरिवंश, जिसे संस्कृत के हरिवंश पुराण के आधार पर लिखी है जो सात खण्डों में है। इसमें कवि की नीतिशास्त्र में प्रवीणता परिलक्षित होती है-
पुरूष हि चारि जाति अरंति राजन
शश मृग, वृष, अश्व जाति एहिं जाण
शश जाति पुरूषर पद्मिनी ये
मृग जाति पुरूषर चित्रिणी ये लोड़ा
वृष जाति पुरूषर लोड़ा ये शंकिनी
अश्व जाति पुरूषर लोड़ई हहितनी।'
संत अच्युतानंद का ध्येय जगत कल्याण और मानव सेवा थी। वे आज भी ओडिशा के घर-घर में आदरणीय माने जाते हैं।
यशोवंत दास - उत्कलीय वैष्णव परम्परा के प्रज्जवल नक्षत्र संत यशोवंतदास का जन्म 1487 ई. में हुआ। वे श्री चैतन्य के संपर्क में आए और सिद्ध योगी पुरूष कहलाए। उनकी जीवन की अनेक अलौकिक कथाएं सुनने को मिलती हैं। ब्रह्मराक्षस की शाश्वत् इसमें एक हैं जो उसे संतुष्ट कर पाए थे। वह राक्षस को गंडीचा गृह में रखा था। यशोवंतदास की प्रसिद्ध रचना गोविन्दचन्द्र है। इसमें गोपीचन्द्र के त्यागी और साधक जीवन को परिलक्षित किया गया है। यह ग्रंथ नाथ पंथियों के धर्म दर्शन पर लिखा गया अनूठा ग्रंथ है। इसे नाथपंथी द्वारा गाया जाता है। इस ग्रंथ की रचना करके यशोवंतदास को बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। यद्यपि आज भी संसार की असारता जीवन-मृत्यु को लेकर इस ग्रंथ की आलोचना होती रहती है। यशोवंतदास ने उत्कलीय वैष्णव धर्म के विविध तत्वों को अपनी रचना 'प्रेम भक्ति ब्रह्मगीता में की है। इसमें ज्ञान मिश्रा भक्ति को प्रमुखता प्रदान की गई है। उनकी अन्य रचनाओं में शिवस्वरोदय, षष्ठी मेला, चउराशि आज्ञा, आत्म परचे गीता, रास गोविन्द टीका, अड़गड़ मालिक आदि उल्लेखनीय है। संत यशोवंत द्वारा लिखित तत्कालीन जनसमाज पर प्रभाव डालने वाले इन ग्रंथों की उपादेयता आज भी विद्यमान है।
अनंतदास- ओड़िशा के संत कवियों में अनंतदास अन्यतम कवि हैं। इनका जन्म 1493 में कोणार्क में हुआ था। इन्होंने शिशु संप्रदाय' की प्रतिष्ठापना और शिशु अनंतदास कहलाए। शिशु अनंतदास द्वारा लिखित प्रमुख रचना हेतुदय भागवत है। इसमें राधा-कृष्ण जगन्नाथ और बुद्ध, काया साधनों पिंड ब्रह्मांड तत्व, शरीर में जगन्नाथ की अवस्थिति पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बौद्ध धर्म के 84 सिद्ध पुरूषों की कथा का उल्लेख हैं इनके अलावा अनंतदास की अन्य रचनाओं में आगत भविष्य, भविष्यपुराण, गरूड़-गोविंद संवाद, पिंड, ब्रहमाण्ड गीता, चंबक गीता, डिब्बी डिबीदोल, रास, कई भजन आदि अप्रकाशित ग्रंथ है। इन ग्रंथों भक्त तंत्र-मंत्र दर्शन, पिंड ब्रहमाण्ड तत्व आदि के बारे में वर्णन मिलता है।
ओड़िया में संत शिशु अनंतदास के बाद कुछ वैष्णव कवि अपने नाम से पूर्व 'शिशु' शब्द का प्रयोग किया है। ऐसे संत कवियों में 'शिशु' शब्द का प्रयोग किया है। ऐसे संत कवियों में शिशु शब्द का प्रयोग किया है। ऐसे संत कवियों में शिशु अर्जुनदास, शिशु शंकरदास, शिशु वनमालिदास आदि प्रमुख हैं। कवि अनंतदास उत्कल के पंचसखा कवियों में अंतिम प्रमुख कवि माने-जाने के कारण इनकी महत्ता बढ़ गई है।
अतः कुल मिलाकर कहा जा सकता है। कि भारतीय संत परंपरा में ओड़िया के संत कवियों का साहित्यिक प्रदेय महत्वपूर्ण है। जिन्होंने अपने साहित्यिक वाणी द्वारा चिरकाल भारतीय लोकमानस को न केवल मानसिक एवं चारित्रिक संबल प्रदान किया बल्कि समाज में व्याप्त व्याभिचार, भ्रष्टाचार, वैमनस्य को दूर करके, अपनी वाणी से समाज सुधार, सहिष्णुता, नैतिकता, प्रेम, भाई-चारा, सेवा, त्याग, भक्ति एवं सामाजिक समस्याओं के प्रति जन को जागरूक कर समाज सुधार की भूमिका निभाकर ओड़िया साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की और भारतीय संस्कृति को संरक्षित किया।
संदर्भः-
1. वर्मा, डॉ. रामचन्द्र. मानक हिन्दी कोश: पृ. 218
2. तिवारी, डॉ. रामचन्द्र. सूक्ति कोश: पृ. 294
3. वही, पृ. 294
5. कनाटे, क्रांति. संतों का साहित्यिक अवदान: पृ. 22
6. वही, पृ. 19
7. वही, पृ. 25