समकालीन समाज का प्रत्येक सचेत मनुष्य यह अनुभव कर रहा है कि यह मूल्य-संकट का युग है। किन्तु मूल्य-संकट के कारकों की चर्चा के प्रसंग में हम बाह्य कारकों की विवेचना मात्र से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। मूल-निर्माण एवं मूल्याधिष्ठित जीवन के पीछे संस्कृति-बोध की आवश्यकता है तथा उस बोध को समझने के लिए आवश्यक है कि संस्कृति के मूल्यात्मक पक्ष को ठीक से विश्लेषित किया जाए। इसी को दृष्टि में रखकर मैंने अपने निबन्ध को लिखने का प्रयास किया है।
एक
मनुष्य की मूल्य-चेतना का निर्माण सांस्कृतिक परिवेश में होता है। यद्यपि संस्कृति-तत्व भी मानवनिर्मित हैं और इनका भी निर्माण प्रयत्नपूर्वक होता है, किन्तु सांस्कृतिक चेतना जो समस्त तत्त्वों के सकल योग से निर्मित होती है, इन सभी तत्वों से विलक्षण होती है और अमूर्त रूप से अपने निर्माण के कारकों को भी प्रभावित करती है। इसके निर्माण हो जाएगी। किन्तु सामान्य रूप से इनको तीन आयामों में विभाजित या रेखांकित किया जा सकता है। ये तीन आयाम हैं-
1. मानव प्रकृति संबंध।
2. मानव तथा आध्यात्मिक दृष्टि।
3. मानव तथा अंतवैंयक्तिक संबंध।
सामान्य रूप से मूल्यों का जगत भी इन्हीं तीन आयामों से संरचित होता है और इन्हीं को नियमित करता है। अत: विविध दृष्टियों को आधार में रखकर इन पर विचार किया जाना आवश्यक है।
संस्कृति तत्त्व जिन्हें मनुष्य अपनी प्रारम्भिक स्थिति में जीवन व्यवहार के उपयोगी एवं आवश्यक अंग के रूप में विकसित करता है, उसमें सर्वप्रथम उसका साक्षात्कार प्रकृति या अचेतन जगत से होता है। अचेतन जगत पर विचार का तात्पर्य है मनुष्य द्वारा अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों का विकास तथा निसर्ग से प्राप्त सामग्री के उपयोग के प्रति दृष्टिकोण, इस दृष्टि के अन्तर को सामी संस्कृति तथा भारतीय संस्कृति के बीच स्पष्टत: देखा जा सकता है।
जगत तथा मनुष्य के बीच के संबंधों का अन्तर भौतिक स्तर पर ही विभेद का कारक नहीं है, अपितु इस अंतर के कारण समूह चेतना और उसके अतिप्राकृतिक विश्वास भी निर्मित होते हैं। मनुष्य जगत की वस्तुओं का प्रयोग अपनी जैविक आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र, आवास इत्यादि के लिए करता है। ये सभी कुछ भूमि और जन के ऐतिहासिक संघात के फलस्वरूप उसमें एक चिति का निर्माण करते हैं और कालांतर में यह चिति जीवन व्यवहार के नियामक मूल्य के रूप में प्रतिफलित हो जाती है। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर विचार किया जाए, तो यह बात सामने आएगी कि जगत के प्रति दृष्टिकोण आध्यात्मिक चेतना का निर्माण भी करता है। भारतीय मूल्यबोध का जगत के प्रति जो नितांत अलग-अलग दृष्टिकोण है, उसके पीछे यही कारण तत्त्व है। जैसे कि ईसाई धर्म, जो लोकजीवन की तुच्छता और अमर जीवन की संभावना की प्रतिस्थापना करता है, लौकिक उपलब्धियों को हेय तथा त्याज्य मानता है। इस प्रकार ईसाई धर्म के आधार पर सुखात्मक मानवहित से जुड़े मूल्य गौण हो जाते हैं। इसके विपरीत सनातन या वैदिक धर्म जो इस लोक को चैतसिक अभिव्यक्ति मानता है। लौकिक जीवन की मूल्यवत्ता को बल देता है। किंतु इन दोनों ही दृष्टियों का प्रतिफलन व्यवहार में नितांत भिन्न दिखाई देता है। जहाँ ईसाई धर्म से अनुप्रणित संस्कृति लौकिक जीवन या वर्तमान जीवन को अत्यंत महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में प्रतिस्थापित करती है, वहीं सनातन धर्म नि:सृत संस्कृति में इहलौकिक तत्तवों की प्राय: साधनात्मक इयत्ता ही बन पाती है। अत: इसके अन्य कारकों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। जैसे ईसाई धर्म की ''एक जीवन'' की अवधारणा उसे इसी जीवन में सर्वविध उपलब्धियों को अर्जित करने की स्वाभाविक उत्प्रेरणा प्रदान करती है, वहीं सनातन धर्म में स्वीकृत पुनर्जन्म की अवधारणा उसे इस जीवन से अतिरिक्त अन्य जीवन की तैयारी के लिए उत्प्रेरित करती है। परिणामत: सनातन धर्म पर आधारित संस्कृति में एक जीवन उस प्रकार से मूल्यवान नहीं हो पाता, जैसा कि समस्त सामी संस्कृति में हो पाता है।
फलत: सामी संस्कृति की यह तत्त्वमीमांसीय अवधारणा कि यह संपूर्ण जगत् मनुष्य के उपभोग के लिए निर्मित है, उसे प्रकृति को विजित करने की प्रेरणा प्रदान करता है, वहीं सनातन धर्म की संस्कृति दृष्टि जो यह मानती है कि इस जगत् का त्यागपूर्वक उपभोग करना है, जगत के प्रति त्यागवृत्ति को प्राधान्य प्रदान करती है, त्याग को मूल्य के रूप में प्रतिस्थापित करती है और उपभोग एक तथ्यात्मक अवधारणा मात्र बनकर रह जाता है।
इसी प्रकार मानव समूह की आध्यात्मिक चेतना जो कि शुद्ध चैतसिक वृत्ति है, मनुष्य की एषणीयता को नियमित करती है। मात्र एषणा मानव की समूह चेतना का स्वभाव नहीं है। यदि ऐसा होता तो वह विषय ग्रहणात्मक अनुभव मात्र से ही संपन्न हो जाता। किंतु इनके प्रति ज्ञानात्मक चेतना भी आवश्यक है। प्रकृति-प्रदत्त पदार्थों के प्रति विवेकजन्य ज्ञानात्मक चेतना का निर्माण इष्टनिष्ट की अनुभूति से उत्पन्न होता है। यही वह बिन्दु है, जहाँ तथ्यों और मूल्यों में अंतर आ जाता है। तथ्य स्वतन्त्र होते हैं, जबकि मूल्य पुरूषापेक्षी होते हैं, किंतु कोई विषय मनुष्य का अभीष्ट होने मात्र से ही मूल्य नहीं हो जाता, अपितु इसमें एषणीयता के तत्त्व का होना आवश्यक है। यह योग्यता प्रकृतिजन्य या मनुष्य की जैविक आवश्यकता से उत्पन्न नहीं होती। अपितु विवेक से उत्पन्न होती है। यह विवेक जगत के अनुभव से उत्पन्न होने के कारण विशुद्ध अवधारणात्मक संरचना है। फलत: इसका सम्बन्ध मनुष्य की अतिक्रामी चेतना से होता है, जो विधायक न होकर नियामक होती है।
यत: मूल्य विशुद्ध सन्तुष्टि रूप होते हैं और सन्तुष्टि का संपन्न संपूर्ति से होता है। फलत: यह ऐन्द्रिक अनुभूति से जन्य तो माना जा सकता है, किन्तु इससे मूल्य फलितार्थ संरचित नहीं होता। मनुष्य की विधायक चेतना पदों एवं संबंधों के जागतिक अनुभव से आकार ग्रहण कर, उनका साधारणीकरण करती है और भविष्य में उपयोग के लिए संरक्षित करती है। फलत: इस चेतना का विस्तार मात्र सभ्यता की सीमा तक ही होता है।
संस्कृति का निर्माण तब हो पाता है, जब उस विधायक चेतना का अतिक्रामी चेतना के साथ सातत्य होता है और संस्कृति तत्त्व अपनी पूरी प्रखरता से उन्हीं प्रतीकों में दिखाई देते हैं जो आवेगात्मक अर्थवत्त के लिए होते हैं। परिणामत: संस्कृति का वैशिष्टय ललित कलाओं, साहित्य एवं अन्य सृजनात्मक कृतियों में प्रात्र्जल रूप में दिखाई देता है। सभ्यता से सीधे सरोकार रखने वाले सांस्कृतिक तत्त्व अपनी जड़ात्मक सरंचना के कारण किसी बाह्य संस्कृति के संक्रमण से एक सीमा तक अछूते रहते हैं; किंतु सृजनात्मक क्रियाएँ, जो चेतना की अभिव्यक्ति होती है, सरलता से प्रभावित हो जाती हैं। इसी प्रकार आध्यात्मिक तत्त्व जो विशुद्ध चैतसिक होते हैं और आदतों, व्यवहारों और जीवन-जगत के पारस्परिक संबंधों के साथ अभिव्यक्त होते हैं। किसी भी संक्रमण के फलस्वरूप अपनी अर्थवत्ता खो देते हैं और तज्जनित व्यवहार मात्र आडंबर बनकर ही रह जाते हैं।
संस्कृति के निर्माण में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अंतर्वैयक्तिक संबंधों का है। ये संबंध ही नैतिक मूल्यों की आधारभूमि तैयार करते हैं और इन्हीं संबंधों के बीच मूल्यों की साधनात्मक भूमिका भी होती है। पूर्व में वर्णित मनुष्य एवं जगत से संबंधों अथवा मानव की आध्यात्मिक वैचारिक रचना से सृजित मूल्य भी अन्तवैंयक्तिक संबंधों में ही व्यावहारिक आयाम ग्रहण करते हैं। इन संबंधों के आधार पर सृजित मूल्य मनुष्य की बौद्धिक क्षमता तथा विचारशीलता के आधार पर आने वाले बोधात्मक अंतर से अपेक्षात्मक कम प्रभावित होते हैं। फलत: इस प्रकार के मूल्यों के प्रति एक प्रकार की सार्वभौमिक स्वीकृति की संभावना अधिक बलवतर होती हैं। समाज वैज्ञानिकों के बीच इसको लेकर काफी हद तक सहमति भी है।
नैतिक मूल्यों की संरचना या उन क्षेत्रों की पहचान जिनसे जुड़े व्यवहारों या आदतों के औचित्य एवं अनौचित्य पर निर्णय दिया जाता है। अंतवैंयक्तिक संबंधों के क्षेत्र में भी उसी प्रकार परिवर्तन होते रहते हैं, जिस प्रकार से भौतिक जगत से संबंधों अथवा आध्यात्मिक या वैचारिक पक्षों में परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य का शुभ या श्रेयस्कर क्या है? इसको लेकर होने वाला विचार ही इस परिवर्तन का मुख्य कारक है, जो कि तर्क स्तर पर विशुद्ध वैचारिक तथा अतिक्रामी चेतना के स्तर पर आध्यात्मिक होता है। तर्क से विधि का जन्म होता है, जो संबंधों के कर्मफल को इहलौकिक आधार पर निर्धारित करता है। अतिक्रामी चेतना के द्वारा लोकोत्तर परम श्रेयस्तत्त्व का बोध उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि प्रत्येक संस्कृति पूरी स्पष्टता से दो प्रमुख पक्षों पर आधारित होती है। प्रथम भौतिक पक्ष, द्वितीय अभौतिक पक्ष, जो उसकी वैचारिक संरचना तथा आध्यात्मिक बोध को समाहित करता है।
इन दोनों पक्षों के बीच संगति से संस्कृति का निर्माण होता है। यह संस्कृति मनुष्य के उन समस्त क्रिया-कलापों एवं व्यपारों से अभिव्यक्त होती है, जिन्हें मनुष्य साध्य से रूप में मूल्यवान मानता है और उसकी विशिष्टता यह है कि इसमें सार्वभौमिकता अथवा सार्वभौमिकीकरण का कोई तत्त्व नहीं पाया जाता। प्रत्येक संस्कृति अपने आप में एक जैविक इकाई होती है। जिसमें उसके अवयवों का योग गणितीय योग की तरह निश्चित नहीं होता। फलत: किसी भी संस्कृति के मूल्य का जगत उस संस्कृति के लिए वस्तुनिष्ठ तो होता है, किंतु अन्य संस्कृति के लिए भी रूप ही हो, यह आवश्यक नहीं है।
दो
इस प्रकार प्रत्येक संस्कृति के अपने कुछ प्रेरक सिद्धांत होते हैं, जो कि इस संस्कृति के भौतिक पक्ष एवं अभौतिक पक्षों के बीच सुसंगति के कारण होते हैं, संस्कृति के विविध तत्त्वों की योजना निर्धारित कर संस्कृति का आकार प्रदान करते हैं। इन तत्त्वों के आलोक में ही मूल्य संकट तथा उसके कारणों की पहचान की जा सकती है।
भारतीय संस्कृति की प्रेरक मान्यताओं को जो समस्त संस्कृति तत्त्वों को प्रभावित करती हैं, हम इस रूप में पहचान सकते हैं (प्रसिद्ध संस्कृति वैज्ञानिक रूद्रदत्त सिंह का अध्ययन द्रष्टव्य है), उन प्रेरक मान्यताओं में काल की चक्रीय अवधारणा, पुनर्जन्म प्रकृति एवं मनुष्य के बीच सामत्र्जस्य और सृष्टि की सोद्देश्यता इत्यादि कुछ प्रमुख हैं। इन्हीं के आधार पर भारतीय संस्कृति का इतर संस्कृतियों से वैशिष्ट्य प्रदर्शित किया जा सकता है। इन मान्यताओं के आधार पर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप मूल्यों का सृजन होता है। धर्म अर्थात आचरण की प्रविधि जो सत् और ऋत् से नियमित है, अर्थ और काम को नियमित करती है। यह धर्म की जगत से और जगत को अतिक्रांत करती हुई जो ब्रह्याण्डीय व्यवस्था है, उन सबके साथ सामंजस्य की स्थापना है। इस व्यवस्था के तहत मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष अर्थात धर्म के साथ उसके भावनात्मक पक्ष अर्थात काम तथा उसके भौतिक पक्ष अर्थात अर्थ के बीच संगति के निर्माण की व्यवस्था है।
इस व्यवस्था में अभौतिक एवं भौतिक तत्त्वों को संतुलित ढ़ंग से समाहित कर किसी भी प्रकार से अतिरेक का प्रबन्ध स्पष्टत: दृष्टिगोचर होता है। इस व्यवस्था का जन्म पूर्णत: एक भू-सांस्कृतिक अवधारणा के विकास का इतिहास है। इस भू-सांस्कृतिक अवधारणा की चतुष्पाद-व्यवस्था में यदि कहीं व्यवधान या अतिरेक होता है, तो मानव मूल्यों का जगत् उससे गहराई से प्रभावित होता है।
पश्चिमी जीवन का समझने के लिए सांस्कृतिक पिछड़ेपन की जिस अवधारणा को प्रतिपादित किया गया, यदि उस अवधारणा के आलोक में भारतीय समाज में उत्पन्न मूल्य संकट को समझने का प्रयास किया जाए, तो मुझे लगता है कि इसको सरलीकृत रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है। यह सत्य है कि स्वातत्र्योत्तर भारत में जिस तरह से औद्योगिक परिवर्तन हुए हैं और उत्पादकता का विकास हुआ है, उसने भौतिक पक्ष को एक सीमा तक विस्तारित किया, किंतु उत्पादन की वृद्धि के बाद भी समाज में जीवन के प्रत्येक हिस्से तक उसका वितरण नहीं हो सकता, जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज जीवन का एक वर्ग भौतिक संसाधन की दृष्टि से इतना समृद्ध हो गया कि इसके लिए अभौतिक पक्ष अल्पविकसित स्थिति में आ गया। मध्यम वर्ग भी भौतिक दृष्टि से समृद्ध वर्ग की समकक्षता की प्राप्ति की दिशा में ही अपनी समस्त शक्ति लगाने लगा। परिणामत: मध्यम वर्ग जो भौतिक पक्ष की अपेक्षा अपनी बौद्धिक क्षमता के लिए पहचाना जाता है और जो समाज की आवश्यकता के अनुरूप बौद्धिक आध्यात्मिक विचारों के निर्माण एवं व्याख्या के लिए उत्तरदायी होता है, उसका अपना कार्य स्थगित हो गया। फलत: एक किस्म का सांस्कृतिक पिछड़ापन उत्पन्न हुआ और त्याग पर आधारित उपभोग की दृष्टि के स्थान पर विशुद्ध उपभोक्तावादी दृष्टिकोण प्रभावी हो गया।
किंतु इस सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में भारतीय संस्कृति में उत्पन्न मूल्यबोध के संकटों को नहीं पहचाना जा सकता, क्योंकि भारतीय संस्कृति में मूल्य मात्र शास्त्राधारित नहीं हैं। शास्त्र की अतिवादिता भी एक प्रकार की जड़दृष्टि का परिचायक है। इसके विपरीत भारतीय संस्कृति में लोक-परम्परा अधिक मूल्यवान है और सहज रूप से ग्राह्य भी है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में समाज जीवन के संचालन के दार्शनिक आधारों तथा संगठनात्मक आधारों की स्पष्टता पहुँचाती है और उस पहचान के कारण उनमें अपेक्षित संशोधन भी किया जा सकते है।
अब यह प्रश्न अवश्य है कि यदि भारतीय संस्कृति की संरचना में ऐसी शक्ति है, तो इसमें कालजन्य परिवर्तनों को स्वीकार करने और उनका सात्मीकरण करने की प्रवृत्ति क्यों नहीं दिखाई देती? यदि यह हुआ होता तो भारतीय समाज में मूल्य-संकट नहीं उत्पन्न होता। इस सम्बन्ध में इतना कहना पर्याप्त है कि भारतीय संस्कृति में मूल्यों की उत्सभूमि धर्म है और उस धर्म को उपासना पद्धति के समरूप मानकर धर्मनिरपेक्षता, समानता, वर्गविहीन समाज इत्यादि मूल्यों को धर्म से दूर रखकर स्थापित करने का प्रयास हुआ है। उसने इनकी चेतना के स्तर पर स्वीकार्यता नहीं उत्पन्न होने दी। क्योंकि संस्कृति चेतना के निर्माण का जो स्वाभाविक रूप है, उसमें छेड़छाड़ नवीन मूल्यों को सात्मीकृत नहीं होने देता और उनकी समानान्तर स्थापना का प्रयास स्वाभाविकता के स्थान पर कृत्रिमता ला देता है।
इसको ठीक ढ़ंग से समझने के लिए गांधी के द्वारा सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों को देखें, तो यह स्पष्ट होगा कि गांधी अत्यंत आधुनिक मूल्यों का समाज जीवन में स्थापित करने का प्रयास करते हैं और उन्हें सफलता भी प्राप्त हुई; क्योंकि नवीनता की स्थापना वे प्राचीन सांस्कृतिक मूल्यों के सातत्य में ही करते हैं और उनके द्वारा सुझाए गए नवीन मूल्य भारतीय संस्कृति के प्राचीन मूल्यों की आलोचना न होकर भारत की धर्म-दृष्टि का परिष्कार बन जाते हैं।
किंतु स्वतन्त्रता के पश्चात जिस प्रकार से संस्कृति चिति के साथ छेड़-छाड़ के प्रयास हुए हैं, उसके परिणामस्वरूप विविध संस्कृति तत्त्वों की संसक्ता छिन्न-भिन्न हो गई है और मनुष्य का जीवन भावना, इच्छा और विवेक के स्तर पर अत्यन्त विखण्डित हो गया है। फलत: इलौकिकता, स्वतन्त्रता, समानता, वर्गविहीनता इत्यादि मूल्य जो भारतीय संस्कृति की सनातन धारा के स्वभाव रहे हैं, विजातीय के तत्त्व के रूप दिखाई देने लगे और उनके विरूद्ध चेतना निर्मित होने लगी।
फलत: इन स्वभावरूप मूल्यों के स्थान पर उपभोक्तावादी दृष्टि इहलौकिकता के वैज्ञानिक रूप के विकल्प के रूप में उभरकर सामने आई और उसके परिणामस्वरूप तत्क्षण सफलता के लिए मनुष्य ने मनुष्य को साधन के रूप में प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया।