दिल्ली विश्वविद्यालय तुलनात्मक रूप से हाल की शुरूआत के बावजूद कुछ अनूठी
विशेषताओं से समृद्ध है, जो इसके विकास और राष्ट्र सेवा की संभावनाओं को
सुदृढ़ बनाती हैं। देश की राजधानी में अवस्थित इस विश्वविद्यालय को स्वाभाविक
रूप से केंद्र सरकार का विशेष महत्त्व मिलता है और स्वयं महामहिम राष्ट्रपति
इसके 'विजिटर' हैं। यह सहज आशा की जा सकती है कि यह साहचर्य उदारता से सरकारी
सहायता आमंत्रित करेगा, ताकि विश्वविद्यालय प्रगति विस्तार की अपनी योजनाएँ
संचालित करने में सक्षम हो सके। केंद्र सरकार से किसी विश्वविद्यालय की यह
निकटता कभी-कभी अनावश्यक और परेशान करने वाले सरकारी हस्तक्षेप की आशंका भी
जगाती है, लेकिन पूरी आशा है कि इसे दूर कर लिया जाएगा। दिल्ली देश के सभी
भागों के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है और इसलिए यह विश्वविद्यालय एक ऐसे
विद्या केंद्र के रूप में विकसित किया जा सकता है, जहाँ इस धरती के उन
निवासियों की विविधता के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयत्न किया जाए, जिनके
बच्चे ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए यहाँ एकत्र होते
हैं। इसके अलावा दिल्ली और इसके आसपास बड़ी संख्या में अखिल भारतीय संस्थान
खुल रहे हैं, जो बड़ी तेजी से कला-विज्ञानी, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और कृषि
क्षेत्र में उपयोगी अध्ययन और अनुसंधान केंद्र के रूप में विकसित हो रहे हैं।
इनसे विश्वविद्यालय के शिक्षकों और उच्च शिक्षा के छात्रों को आपसी समन्वय
का अवसर मिलेगा, जो सभी के लिए स्थायी रूप से हितकारी होगा। प्रशासन और
कानूनों को लेकर नीतियों के कारण लगातार समस्याएँ सामने आती रही हैं, जिनसे
पूरे राष्ट्र का हित प्रभावित हो रहा है। कभी-कभी ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर भी गंभीर रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। इन स्थितियों को देखते हुए
विश्वविद्यालय और इसके महाविद्यालयों के शिक्षकों और उच्च अध्ययन के
विद्यार्थियों के समक्ष इन समस्याओं को पूरी निष्पक्षता और गंभीर विश्लेषण
के साथ निकटता से अध्ययन करने का महत्त्वपूर्ण अवसर है। दिल्ली खेलकूद,
व्यायाम और नाटक कला क्षेत्रों में अखिल भारतीय और यहाँ तक कि
अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों का भी प्रमुख केंद्र रहा है और इस प्रकार बेहतर
प्रदर्शन के विभिन्न मॉडल विश्वविद्यालय के छात्रों के समक्ष हैं, जो उनके
लिए स्वस्थ और सशक्त प्रोत्साहन साबित होंगे। यदि इन विभिन्न अवसरों का
अपने विकास और राष्ट्र की सेवा के लिए पूरा लाभ उठाना है तो विश्वविद्यालय
और इसके महाविद्यालयों, उनके कर्मचारियों और विद्यार्थियों को सरकार और लोगों
का उदार सहयोग मिलना जरूरी है। आज उपलब्ध सीमित अवसरों के साथ विश्वविद्यालय
अर्थशास्त्र और विज्ञान जैसे अध्ययन क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल करने
में सफल रहा है। संबंधित विशिष्ट स्टाफ के उत्साह हौसले और समर्पण को
धन्यवाद।
आजादी के बाद से ही देश के विश्वविद्यालय की भूमिका को सरकारी और गैर-सरकारी
मंचों से महत्त्व दिया गया है। राधाकृष्णन आयोग ने विश्वविद्यालय प्रशासन और
शिक्षण के सुनियोजित और समग्र परिष्कार की आवश्यकता पर महत्त्वपूर्ण रिपोर्ट
सौंपी, किंतु दुर्भाग्य से भारतीय विश्वविद्यालय पर पहले रिपोर्ट सौंपने
वाले अन्य विशिष्ट आयोगों की तरह इस रिपोर्ट पर भी वित्तीय संसाधनों के अभाव
के कारण ठंडे बस्ते में डाल दिए जाने का खतरा मँडरा रहा है। केवल
विश्वविद्यालयों के प्रशासनिक तंत्र की बाहरी रूपरेखा में बदलाव से ही हम
सुधार और विस्तार के नए युग में छलाँग लगाने की आशा नहीं कर सकते,
महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है कि शिक्षण और अनुसंधान के तरीकों पर सुधार तथा
विद्यार्थियों और स्टाफ को अपने आवश्यक दायित्व निभाने के लिए पर्याप्त
सुविधाएँ मिलें, शैक्षणिक और इतर शैक्षणिक भी। इस आवश्यकता की पूर्ति
पर्याप्त सरकारी सहयोग के बिना संभव नहीं। एक विश्वविद्यालय, जिसे अपने
अस्तित्व के लिए मुख्य रूप से फीस से होने वाली आय पर निर्भर रहना पड़ता है,
कभी भी ये दायित्व पूरे नहीं कर सकता। हालाँकि ऐसी आय अर्जित करने के लिए इसे
अपने शैक्षणिक सिद्धांतों से भी समझौता करना पड़ता है।
केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त विश्वविद्यालय अनुदान समिति बेहद जरूरी
आवश्यकताओं में न केवल केंद्रीय, बल्कि राज्यों के विश्वविद्यालयों की भी
मदद करती है। यह समिति इस प्रकार गठित होनी चाहिए कि इसे न केवल
विश्वविद्यालयों का, बल्कि आम लोगों का भी विश्वास, भरोसा हासिल हो। इसके
पास विश्वविद्यालयों के लिए राष्ट्रीय आधार पर सुनियोजित और प्रणालीबद्ध
विकास के अनुरूप पर्याप्त कोष भी होना चाहिए। एक आम धारणा रही है कि अनुदान
और नियंत्रण साथ-साथ होने चाहिए, लेकिन विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता बनाए
रखने और उन्हें सरकारी अनुदान पाने की दलील देकर सरकार के अधीन न रखने की
जरूरत पर भी देश के सभी शुभचिंतकों को बल देना चाहिए। हम ग्रेट ब्रिटेन में
विश्वविद्यालय अनुदान समिति द्वारा अपनाया गया मानक स्वीकार कर सकते हैं,
जिसने ऐसी कारगर कार्यप्रणाली विकसित की है, जिसे न केवल ग्रेट ब्रिटेन में,
बल्कि अन्य विकसित देशों में भी सराहना मिली है।
सरकार द्वारा गठित कोई भी बाहरी प्राधिकरण देश के सभी विश्वविद्यालयों के बीच
एक साझा मानक लागू करने और कार्य समन्वय सुनिश्चित करने की आशा तक नहीं कर
सकता। ऐसा करने के प्रयास में यह एक जटिल तंत्र विकसित कर देश के सभी
विश्वविद्यालयों की मूल आत्मा को निर्जीव कर, उन्हें अपरिवर्तनीय और शिथिल
बनाकर अपने आप में एक सुपर विश्वविद्यालय बनकर रह जाएगा। यदि ऐसे किसी
प्राधिकरण को कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल करना है तो उसे विश्वविद्यालय
शिक्षा पर कठोर नियंत्रण रखना होगा, जिसे करने का साहस सर्वसत्तात्मक शासन
वाले देश या निरंकुश शासन काल में भी नहीं किया जा सका। मैं समन्वय की
आवश्यकता को इनकार नहीं करता, मैं विश्वविद्यालयीय प्रशिक्षण और परीक्षा का
समुचित स्तर बनाए रखने के महत्त्व को भी कम करके नहीं आँकता। मैं अनावश्यक
और व्यर्थ के अभ्यासों को नजरअंदाज करने की भी सराहना करता हूँ। पहले तो
तर्कसंगत ढंग से काम करने वाले प्रत्येक विश्वविद्यालय को अपनी क्षेत्रीय
आवश्यकता और राष्ट्रीय प्रगति में संतुलन बनाए रखते हुए ये सभी आवश्यक
सुधार शुरू करने चाहिए; दूसरे अंतर-विश्वविद्यालय बोर्ड को भी सुधार लागू
करने चाहिए। परामर्शदात्री शक्तियाँ होने के बावजूद इन विश्वविद्यालय बोर्डों
को स्वस्थ परंपरा विकसित करने में सहयोग दिया जाना चाहिए, ताकि इनके
सुविचारित परामर्शों को कोई भी विश्वविद्यालय आसानी से नजरअंदाज न कर सके;
तीसरे संसद और राज्य विधानसभाओं में अनुदान माँगों पर मतदान के समय व्यापक
चर्चा द्वारा और आवश्यक सुधार लागू करने का अंतिम प्रभावी माध्यम
है-विश्वविद्यालय अनुदान समिति। ब्रिटिश अनुदान समिति के मॉडल पर इसका कामकाज
विश्वविद्यालय की प्रशासनिक और शिक्षण गतिविधियों पर हमेशा निर्णायक और
स्वस्थ प्रभाव डाल सकता है।
आधुनिक भारत के विश्वविद्यालयों में प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय शिक्षण
केंद्रों की परछाईं नहीं के बराबर नजर आती है। हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि
किस तरह ब्रिटिश अधिकारियों ने लगभग एक सौ वर्ष पहले केवल अपने प्रशासनिक
उद्देश्यों के लिए भारत में विश्वविद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई थी।
उस वक्त केवल पश्चिमी शिक्षा ही नौकरी और अच्छे व्यवसाय के लिए एकमात्र
पासपोर्ट था। यही वह साधन भी था, जिसके जरिए तथाकथित पिछड़ी सभ्यता के लोगों
को प्रबुद्ध ज्ञान के सहारे उन्नत किया जा सकता था। यही शिक्षा प्रणाली, जिसे
ब्रिटिश सत्ता के साथ प्रगाढ़ संबंध गढ़ने के लिए अनिवार्य माना गया था, उन
क्रांतिकारी विचारों को सामने लाने में सफल रही, जिसने अंतत: भारत से विदेशी
प्रशासन के जड़-मूल को उखाड़ फेंकने में मदद की। यदि हम पिछली एक सदी के
घटनाक्रम पर विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि यह एक ऐसा दौर रहा, जो
अच्छे-बुरे का मिला-जुला रूप था। पश्चिमी विचारों और सभ्यता से भारतीय
मस्तिष्क के संपर्क ने भारत की आत्मा को गुलाम नहीं बनाया। चिंतन के
प्रत्येक क्षेत्र में कलाओं और स्थापत्य कला में, विज्ञान में, इतिहास में,
दर्शन और साहित्य में, सामाजिक सेवाओं और धार्मिक चिंतन में महान् भारतीयों
ने अपना सर्वोत्तम दिया, अपनी मूल पहचान बनाए रखने के साथ-साथ पश्चिमी ज्ञान
कौशल को ग्रहण करते हुए और उसका लाभ उठाते हुए, हालाँकि ज्ञान के इस प्रसार के
प्रभावों में आनेवाले भारतीयों की संख्या बहुत कम थी, इनमें से भी कई
राजनीतिक नेतृत्व सँभालकर उस व्यापक आंदोलन के संचालक बन गए थे, जिससे अंतत:
देश को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली। इस मौन क्रांति का सूत्रपात इससे पहले आए
व्यापक सांस्कृतिक पुनर्जागरण ने ही किया, लेकिन इसके साथ ही हमें इसके
नकारात्मक पहलू को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इस दौरान आम लोगों की
उपेक्षा हुई, गाँवों की प्रगति रूक गई, गरीबी का बोलबाला हो गया। प्राथमिक
शिक्षा का प्रसार रूका, हमारी भाषाओं की उपेक्षा हुई, विशेष रूप से भारतीय
ज्ञान-विज्ञान के महान् आगार और हमारी अधिकांश भाषाओं की जननी संस्कृत की घोर
उपेक्षा हुई। शिक्षा का लक्ष्य और उद्देश्य राष्ट्र की आकांक्षाओं के
अनुरूप नहीं रहा। अज्ञान, अविश्वास और अनास्था के कारण अपनी महान सभ्यता और
संस्कृति के प्रति आदर-सम्मान कम होता चला गया। न्याय, समानता, संतोष और
आत्मनिर्भरता पर आधारित समाज विकसित नहीं हो सका, जिसका निर्माण सच्ची
शिक्षा से ही संभव था। क्या हम पूरी ईमानदारी से स्वीकार कर सकेंगे कि
स्वतंत्रता के बाद हम अपनी शिक्षा प्रणाली की इन त्रुटियों को दूर करने में
सफल हो पाए हैं?
शिक्षा का परीक्षण जैविक कसौटी पर होना चाहिए। स्वतंत्र भारत को शिक्षा के
सभी चरणों की आवश्यकताएँ, एक व्यापक राष्ट्रीय प्रणाली के तहत पूरी करने
में सक्षम होना चाहिए। न तो प्राइमरी, सेकेंडरी और विश्वविद्यालय स्तर पर और
न ही साहित्यिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, व्यावसायिक और कृषि पाठ्यक्रमों के बीच
किसी प्रकार का कोई टकराव होना चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली की रूपरेखा
संतुलित हो, जिसमें प्रत्येक वर्ग पर समुचित ध्यान दिया जाए, ताकि एकजुटता,
सुदृढ़ता और तालमेल बनाया रखा जा सके। आज आजादी के बाद विश्वविद्यालयों को
अपने कर्तव्य और दायित्वों की व्यापकता के प्रति पहले से कहीं अधिक सजग
होना चाहिए। आज व्यवसायों में, वाणिज्य और उद्योग में, राजनीति और प्रशासन
में पर्याप्त नेतृत्व की तत्काल आवश्यकता है। आम लोगों को अज्ञान, अभाव और
रोगों से मुक्त करने की समस्या का समाधान ढूँढ़ा जाना है। देश के अपार
प्राकृतिक संसाधनों और कच्चे माल तक अब भी हमारी पहुँच नहीं हो सकी है और
विश्वविद्यालयों का दायित्व है कि वे ऐसा ज्ञान और प्रशिक्षण प्रदान करें,
जो मानवीय ऊर्जा की पहुँच इन छिपे प्राकृतिक संसाधनों तक सुनिश्चित कर सके।
मैं विश्वविद्यायल के शोध कार्यों को और विकसित करने की आवश्यकता पर विशेष
रूप से बल देना चाहूँगा। इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक युग में वैज्ञानिक
अध्ययन और शोध के महत्त्व को नजरअंदाज नहीं किया जाना है। प्रत्येक
विश्वविद्यालय के लिए विज्ञान की प्रत्येक शाखा में विशेषज्ञता हासिल करना
संभव नहीं होगा। निश्चित रूप से संसाधनों और मानव शक्ति की कमी इसमें बाधक
बनेगी। प्राथमिक विज्ञान सबके लिए साझा होना चाहिए, जबकि विशेषज्ञता
क्षेत्रवार रूप से साझा की जा सकती है। प्रत्येक विश्वविद्यालय को उन
क्षेत्रों से आनेवाले प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को अध्ययन और आवास की
सुविधाएँ देनी चाहिए, जहाँ ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। उन विषयों पर शोध
को बढ़ावा देने की महती आवश्यकता है, जिनका देश की मौजूदा समस्याओं तथा
भारतीय संस्कृति और सभ्यता की बुनियादी अवधारणाओं से विशेष संबंध है। भारतीय
इतिहास, भारतीय चिंतन और दर्शन, भारतीय कला, स्थापत्य कला और संगीत तथा
भारतीय समाजशास्त्र ने सैकड़ों विद्वानों को शोध और अध्ययन का विषय प्रदान
किया है। उनके अध्ययन और शोध का सुपरिणाम एक नया आलोक सृजित करेगा, जो हमारे
समाज की रूपरेखा और हमारी जीवनशैली में बदलाव लाने में मददगार साबित होगा।
दूर-दराज से आने वाले लोग इन विषयों पर जानकारी चाहते हैं और हम उन्हें अपनी
सभ्यता को प्रभावित करने वाली समस्याओं के बारे में सही समन्वित जानकारी
नहीं दे पाते। अपने देश की छिपी ज्ञान संपदा को उजागर करना केवल हमारे अपने
लाभ के लिए नहीं हैं कि हम अपनी विरासत पर गर्व करें, बल्कि पूरे विश्व के
साथ हमें इसे साझा भी करना है। इसी प्रकार जो कुछ हमारे पास है और सफल प्रयोग
अन्य स्थानों पर किए जा रहे हैं, उनके तुलनात्मक अध्ययन पर आधारित हमारे
सामाजिक और पुनर्निर्माण से संबंधित जटिल समस्याओं को भी निपटाया जाना है।
राजनीतिक स्वतंत्रता यदि सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता के साथ न हो तो वह
बेमानी होगी। इस बारे में मार्गदर्शन हमारे ऐसे शिक्षकों और विद्यार्थियों से
मिल सकता है, जो किसी भी मत या पूर्वाग्रह से मुक्त हों। यह सच ही कहा गया है
कि भारत के इतिहास की मूल पहचान विविधता में एकता है। मैं पूछना चाहता हूँ कि
शहरों, गाँवों और पहाड़ी इलाकों में अलग-अलग स्थितियों में रहने वाले,
विभिन्न जाति, जनजातियों, भाषा-बोलियों के लाखों स्त्री-पुरूषों के स्वभाव,
प्रकृति, आदतों और जीवनशैलियों पर क्या गंभीर अध्ययन किया गया, जो इतने
व्यापक अंतर के बावजूद स्वयं को भारत माँ की संतान मानते हैं और एक ही
आत्मिक आवेग से उद्वेलित होते हैं? इसमें कोई शक नहीं कि कुछ ब्रिटिश
प्रशासकों और विशेषज्ञों ने और बाद में कुछ भारतीय विद्वानों ने भी भारतीय
समाजशास्त्र और मानवशास्त्र के कुछ पहलुओं का विश्लेषण किया, लेकिन इससे
पहले कि हम वास्तविक राष्ट्रीय सुदृढ़ीकरण का ठोस और प्रगतिशील आधार विकसित
कर सकें, अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अभी तक किसी भी देश ने कला या
विज्ञान के क्षेत्र में शोध पर बहुत अधिक व्यय नहीं किया है। यदि तुरंत कोई
परिणाम नहीं मिलता है तो यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है, क्योंकि हम शोध और
अन्वेषणों का कोई व्यावसायिक लेखा-जोखा नहीं रख सकते। हमारे विश्वविद्यालय
अनुमोदित मानकों के अनुरूप प्राथमिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराएँ और सुनियोजित
आधार पर फेलोशिप और छात्रवृत्ति बनाए रखें। सत्य और ज्ञान के लिए शोध और
अनुसंधान, तालमेल और सहयोग की भावना से तथा प्रतिभा और कुशलता की कसौटी पर
चुने गए प्रबुद्ध भारतीय गुरूओं के मार्गदर्शन में हो।
भाषा को लेकर विवाद से हमारा सामना होता रहा है। जहाँ भारतीय भाषाओं को हरसंभव
प्रोत्साहन देकर विकसित करना होगा, वहीं हमें अंग्रेजी के प्रति शत्रुता का
रवैया अपनाने की भी जरूरत नहीं। सेकेंडरी स्तर तक शिक्षा का माध्यम
विद्यार्थियों की मातृभाषा होनी चाहिए और जहाँ संख्या कम होने के कारण ऐसा
करना संभव नहीं है, वहाँ क्षेत्रीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाना
चाहिए और ऐसे बच्चों को मातृभाषा के अध्ययन की पूरी सुविधा देनी चाहिए। कई
राज्यों में क्षेत्रीय भाषाएँ इतनी समृद्ध होंगी कि उन्हें प्राथमिक या
कॉलिजिएट और विश्वविद्यालय स्तर पर भी शिक्षा का माध्यम बनाया जा सके।
भारतीय भाषाओं को ऐसे प्रोत्साहन से उनमें रचनात्मक शक्ति विकसित होगी, वे
एक-दूसरे से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा कर सकेंगे और भारतीय साहित्यिक धरोहर को
समृद्ध कर सकेंगे। भारत की सरकारी भाषा के रूप में स्वीकृत हिंदी को बिना
किसी हिचकिचाहट के सबको सीखना चाहिए। यह सबको जोड़ने वाली एक समर्थ शक्ति का
काम करेगी। अंग्रेजी अध्यापन के मौजूदा स्वरूप में थोड़ा बदलाव किया जाना
चाहिए, ताकि अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन पर कम जोर दिया जाए और मौजूदा
बोलचाल की अंग्रेजी पर, इसे बोलचाल और पढ़ने-लिखने का माध्यम बनाते हुए, अधिक
जोर दिया जाए।
अंग्रेजी भाषा के प्रति कोई पूर्वाग्रह नहीं होना चाहिए। अब यह हम पर शासन
करने वालों की भाषा नहीं रह गई है। यह विश्व की महानतम भाषाओं में एक है,
जिसके जरिए हम अपने आपको आवश्यक ज्ञान और सूचनाओं से अवगत रख सकते हैं, ताकि
हमारी शिक्षा को अधूरी बनाने वाले कारण दूर किए जा सकें। अपनी देशभक्ति को
कहीं से भी आहत किए बिना हम अंग्रेजी भाषा से पिछली दो सदियों के अपने परिचय
का उपयोग, उच्च शिक्षा और अंतर्राष्ट्रीय संपर्क में विश्व से
प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता बढ़ाकर, अपने राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में कर
सकते हैं। ठीक इसी प्रकार में प्रत्येक विश्वविद्यालय में कुछ, कम से कम
महत्त्वपूर्ण भारतीय भाषाओं में से कुछ के प्रणालीबद्ध अध्ययन का भी आग्रह
करता हूँ। यदि सरकार के संरक्षण में विभिन्न भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय
प्रकाशनों के देवनागरी में छपे मूल स्वरूप को सामने लाने की योजना बनाई जाए
तो भारतीय भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन को काफी बढ़ावा मिलेगा। मैं संस्कृत
अध्ययन के पुनरूत्थान और इसके लिए विशेष सुविधाएँ दिए जाने का भी आग्रह
करूँगा। मैं एक पल के लिए भी ऐसा कोई सुझाव नहीं दे रहा हूँ कि भाषायी अध्ययन
अनिवार्य बनाए जाने चाहिए, लेकिन इन सुविधाओं की मौजूदगी बड़ी संख्या में
हमारे विद्यार्थियों की बौद्धिक उत्सुकता जगाएगी तथा हमारी सांस्कृतिक एकता
और धरोहर के समुचित सम्मान का स्वस्थ माहौल बनाएगी।
मैं सुनियोजित ढंग से एक विश्वविद्यालय से दूसरे में शिक्षकों के विनिमय और
विभिन्न गतिविधियों के साथ विद्यार्थियों के भ्रमण कार्यक्रम की भी सिफारिश
करता हूँ, जहाँ हमारे विश्वविद्यालय सशक्त-सक्षम और आवश्यक सुविधाओं से लैस
हों कि साधारण विषयों के लिए किसी भी विद्यार्थी का विदेश जाना जरूरी न रह
जाए, वहीं विदेशी संस्कृति और फेलोशिप की हमारी योजना अभी की अपेक्षा अधिक
उदार होनी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि केवल उच्च शिक्षा के उन
विद्यार्थियों को ही विदेश भेजा जाए, जिनके विशेष प्रशिक्षण की सुविधाएँ भारत
में उपलब्ध न हों। ऐसी तर्कसंगत योजना से समय और धन की बरबादी रूकेगी। मौजूदा
परीक्षा प्रणाली में भी व्यापक बदलाव की जरूरत है। अनेक विश्वविद्यालयों में
विद्यार्थियों के पास न होने का बढ़ता प्रतिशत गंभीर चिंता का विषय है। अभी
मैं यहाँ किसी विवाद या बहस में पड़ना नहीं चाहता कि ऐसा किस सीमा तक
विद्यार्थियों की गलती से और किस सीमा तक मौजूदा अध्ययन और परीक्षा प्रणाली
के कारण है। किसी भी तरह से हमें यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि यह मानवीय
प्रयासों और ऊर्जा की बरबादी है, जिसके साथ बाद में अधिकांश युवाओं के गहरी
निराशा और असंतोष में डूब जाने की समस्या भी जुड़ी है। हमारे विश्वविद्यालय
की परीक्षाओं की अलोचनीयता तभी दूर हो सकेगी, जब अधिक व्यापक ट्यूटोरियल
प्रणाली उपलब्ध कराई जा सके और अंतिम परीक्षा परिणामों को केवल एक परीक्षा से
नहीं, बल्कि पूरे सत्र के दौरान विद्यार्थियों के प्रदर्शन से जोड़ा जा सके।
कई देशों ने इस मुद्दे की विस्तार से समीक्षा की है, लेकिन कोई संतोषजनक
समाधान नहीं निकल सका, हालाँकि समय-समय पर अनेक प्रकार के परिवर्तन किए गए।
हमारे पाठ्यक्रमों और शिक्षण विधियों के संदर्भ में भी इस मुद्दे की समीक्षा
होनी चाहिए। मैं इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकता कि बड़े पैमाने पर
ट्यूटोरियल की व्यवस्था के लिए अधिक स्टाफ की जरूरत होगी और इस प्रकार यह
अतिरिक्त खर्च उठाना शैक्षणिक संस्थाओं के लिए बिना अतिरिक्त सरकारी मदद के
संभव नहीं होगा।
कोई भी विश्वविद्यालय विद्यार्थियों के मन में स्नेह, लगाव और निष्ठा की
भावना जगाए बिना अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता। ऐसी सद्भावना और सहयोग का
माहौल केवल अनुशासन के नियमों से ही बन सकता है। हमारा देश अतीत में गुरू और
शिष्य के बीच गहरी समझदारी के पारंपरिक संबंधों पर वास्तव में गौरवान्वित
था। आज मौजूदा शिक्षा प्रणाली और आधुनिक जीवनशैली इस पारंपरिक संबंध को बनाए
रखने में मददगार नहीं है। हम अपने युवाओं को जो शिक्षा देते हैं, वह सार्थक और
उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए। यदि हमारा लक्ष्य स्वतंत्रता और लोकतंत्र है तो
हमें उन्हें उन्मुक्त होने और अपने आप पर नियंत्रण रखने की कला सिखलाने का
दायित्व उठाना होगा। इसके बदले यदि हम उन्हें दूसरों को आतंकित करने और एक
प्रकार की उदासीन आज्ञाकारिता अपनाना सिखलाते हैं, तो हम सच्ची आजादी और
लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाएँगे। आज हमारे अधिकांश लोगों की आर्थिक
विपन्नता विद्यार्थियों के रवैये और व्यवहार में प्रतिबिंबित होती है।
पिछड़े वर्गों के लिए छात्रवृत्तियों की मंजूरी उदारता से होनी चाहिए और हमें
यह सुनिश्चित करना चाहिए। कि गरीबी किसी भी प्रतिभाशाली विद्यार्थी के उच्च
शिक्षा प्राप्त करने में बाधक न बने। हमारी कई शैक्षिक संस्थाएँ आकार में
इतनी बड़ी हैं कि एक-एक व्यक्ति की जरूरतों का खयाल रख पाना असंभव है।
पुस्तकों और मार्गदर्शन की कमी तथा आधे-अधूरे मन से खेलकूद और व्यायाम में
भागीदारी, संतुलित भोजन और पोषण की कमी से विद्यार्थियों का मन-मस्तिष्क सहज
ही निराशा में डूब जाता है। ऐसी विशेष प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के
उद्देश्य और लक्ष्य के अभाव में उनका भविष्य अंधकारमय लगता है। वे अपनी
हताशा और कुंठा किसी से साझा नहीं कर पाते। आज आम लोग इसके शिकार हैं। सबसे
बड़ी चिंता का विषय है कि कभी-कभी एक मामूली-सी घटना से उपजे आक्रोश और आंदोलन
की लहर उन्हें अपनी चपेट में ले लेती है और सप्ताह और महीनों का उनका कीमती
समय इसमें बरबाद हो जाता है। हमारी शिक्षा की विषय वस्तु भी नए सिरे से तय की
जानी है, ताकि यह विद्यार्थियों को जीवन के संकट और कठिनाइयों का अधिक साहस और
सफलता से सामना करने की शक्ति दे। हमारे महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों
में महिलाओं की बढ़ती संख्या स्त्री शिक्षा और जनसेवा में उनकी भूमिका के
महत्त्व को विशेष दावों के साथ सामने ला रही है। आज विश्वविद्यालय प्रशासकों
और शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि वे पुनर्जाग्रत भारत के
युवाओं के मन को पढ़ें। उनके समक्ष न केवल सुनियोजित पाठ्यक्रम और अन्य
गतिविधियों के सुविचारित कार्यक्रम रखें, बल्कि उनमें राष्ट्रहित के लिए
समर्पित सेवा की सच्ची भावना और निष्ठा भी पैदा करें। कम से कम प्रत्येक
इच्छुक युवा के लिए सामाजिक कार्यों का तीन महीने का अनिवार्य कार्यक्रम
तथाकथित शिक्षित वर्ग से अशिक्षित वर्ग को बाँटने वाली खाई कम कर सकता है।
पुनर्निर्माण का महान कार्य हमारे समक्ष है। इस दायित्व को हाथ में लेने वाले
नि:स्वार्थ और देशभक्त युवाओं की फौज भी तैयार खड़ी है। बस अब एकमात्र
आवश्यकता है इन दोनों को एक-दूसरे से संबद्ध कर देना, युवाओं को अपेक्षित
प्रशिक्षण देकर और इस महान् उद्देश्य के प्रति उनकी नि:स्वार्थ सेवाओं को
दिशा देकर। आज बेरोजगारी स्वतंत्र भारत के समक्ष एक अभिशाप बनकर खड़ी है। उन
लाखों देशवासियों के अलावा,जो आज भी अज्ञान, रोग, निर्धनता और अंधविश्वास के
अंधकार में डूबे हैं, हजारों ऐसे शिक्षित युवा हैं, जो महाविद्यालयों और
विश्वविद्यालयों से पास हो चुके हैं और जिनके पास विज्ञान, इंजीनियरिंग और
चिकित्सा की प्रतिष्ठित डिग्रियाँ और डिप्लोमा भी हैं, वे भी रोजगार और
अवसरों की तलाश में धीरे-धीरे चुकते जा रहे हैं। वे उपेक्षित, क्षुब्ध और
निराश महसूस करते हैं। किसी भी विश्वविद्यालय के पास बेरोजगारी की समस्या का
समाधान नहीं है। उनका प्रमुख कार्य है, ऐसी शिक्षा प्रणाली लागू करना, जो
बेरोजगारी को बढ़ावा न दे। मैं मानता हूँ कि इस संदर्भ में हमारे
विश्वविद्यालयों को अभी बहुत कुछ करना है, किंतु प्रमुख दायित्व सरकार का है
कि भारत की प्रत्येक संतान को उसकी क्षमता के अनुसार रोजगार और काम मिले।
आर्थिक मंदी और तंगी मनुष्य की आत्मा को निर्जीव कर देती है। यदि हम शिक्षित
युवाओं को स्तरीय जीवन उपलब्ध नहीं करा सकते तो समाज की सेवा या आधुनिक समय
के अनुरूप हमारी संस्कृति और सभ्यता का गौरवशाली स्वरूप फिर जीवंत करने में
वे क्या योगदान कर सकेंगे?
हमारे विश्वविद्यालयों को उस स्वतंत्रता और विचार अभिव्यक्ति का सशक्त
प्रतिनिधि बनना होगा, जो एक सच्चे लोकतंत्र की आवश्यकता है। हमारे
विद्यार्थियों को लोगों के मन से अविश्वास का जाल और नफरत का जहर दूर करना
होगा। एक गरूड़ शिशु को गरूड़ ही प्रशिक्षित कर सकता है। यदि हमारे शिक्षक खुद
ही पक्षपात और रूढि़यों में जकड़े हों तो विद्यार्थियों से मुक्त विचार और
उचित आचरण की आशा कैसे की जा सकती है? आइए, हम स्पष्ट घोषित कर दें कि हमारे
लिए वह न्याय और आजादी बेमानी है, यदि उनमें अन्य राष्ट्र और अन्य लोग
शामिल न हों। यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है कि विद्यार्थी क्या सीखते हैं, यह
भी नहीं कि वे क्या जानते हैं, हमारे लिए महत्वपूर्ण यह है कि वे क्या हैं
? क्या हम आजादी से प्यार करते हैं, क्या इतना प्यार करते हैं कि उसके लिए
संघर्ष कर सकें, जान दे सकें और क्या दूसरे के लिए भी आजादी को उतना ही
महत्त्व देते हैं, जितना अपने लिए देते हैं? किसी राष्ट्र का जीना-मरना वहाँ
के लोगों के चरित्र पर निर्भर करता है। धन, संपदा, अस्त्र-शस्त्र,
गोला-बारूद, अनुशासित सेना, नौसेना और वायुसेना बहुत बड़ी सेवा कर सकती हैं,
लेकिन लोगों का चरित्र, युवा में विकसित किया जा रहा चरित्र ही एक राष्ट्र के
जीवन और मृत्यु का निर्धारण करता है। हमारे समय के महान स्मृतिकार मनु का
कहना है कि उन्मुक्ति यानी स्वतंत्रता ही सुख है और निर्भरता दु:ख। अपनी
महान प्राचीन विरासत के साथ, भारत की उस पवित्र आत्मा के साथ, जो आज भी
मनुष्य को उदारमना बना रही है, अपनी अपार मानव और खनिज संपदा के साथ, नए
विचारों को संकलित करने की अपनी सुदृढ़ क्षमता के साथ आइए, हम तमाम भेद भुलाकर
अपनी मातृभूमि को उच्च स्तर पर ले जाने, सबके लिए सुख-संतोष का जीवन
सुनिश्चित करने तथा भारत को विश्व शांति और स्वतंत्रता का सशक्त माध्यम
बनाने का समन्वित प्रयास करें।