भारतीय विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का एक जीवित अवयव समझा जाना
चाहिए। विश्वविद्यालयों का कर्तव्य है कि वे प्रत्येक क्षेत्र में सत्य की
खोज करें तथा विस्तृत विचारधारा के व्यक्तियों का निर्माण करें। वे ऐसे
छात्रों को तैयार करें जिनमें स्वतंत्रता और सत्य के लिए प्रेम हो तथा जो
उचित आदर्शों के साथ मातृभूमि की सेवा में समर्पित हों। राष्ट्र के उत्थान
में विश्वविद्यालयों का योगदान मुख्य होगा।
उनका कर्तव्य है कि राष्ट्र के युवकों को विभिन्न व्यवसायों के लिए तैयार
करें, जहाँ वो अपनी ऊर्जा और बुद्धिमत्ता के प्रयोग से सदैव उन्नति करने वाले
हों। लाभदायक एवं सम्माननीय व्यवसायों जैसे आर्मी, नेवी, व्यापार,
वाणिज्य, उद्योग की ओर युवकों का ध्यान आकर्षित किया जाए। नए भारत के
निर्माण के लिए विज्ञान एवं तकनीकी ज्ञान युवाओं को उपलब्ध कराया जाए। भारत
की आर्थिक और औद्योगिक उन्नति के लिए नेतृत्व एवं कार्मिकों की उपलब्धता
विश्वविद्यालयों में ही होगी। विश्वविद्यालय का कर्तव्य है कि वह प्राकृतिक
संसाधनों के प्रयोग के अध्ययन पर जोर दे ताकि राष्ट्र में आर्थिक समृद्धि
आए, सभी की मूलभूत आवश्यकताएँ जैसे रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हों।
स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण के मार्ग में आने वाली बाधाओं के निवारण
हेतु अध्ययन किया जाए।
विश्वविद्यालयों को 'कृषि अनुसंधान' पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि धरती की
उत्पादकता बढ़े और सभी को रास्ते दामों पर अनाज मिल सके। डॉ. मुकर्जी का
कहना था कि वह विश्वविद्यालय किसी काम का नहीं यदि वह ज्ञान की विभिन्न
शाखाओं में उच्च स्तरीय शिक्षण और शोध प्रदान नहीं करता। देश के बौद्धिक
स्तर को ऊँचा उठाने के लिए विभिन्न विचारक और शोधकर्त्ता उत्पन्न होने
चाहिए, लेकिन साथ ही उनका लगातार उद्देश्य भारत का विकास होना चाहिए। ध्यान
देने योग्य बात है कि अपने कुलपति काल में डॉ. मुकर्जी ने विश्वविद्यालय में
शिक्षा पाने के लिए अधिकतम आयु सीमा को हटा दिया था। उन्होंने अन्य
विश्वविद्यालयों को भी इसके लिए प्रेरित करते हुए कहा था कि यदि लोगों की
जीवन के साथ समीपता बढ़ानी है तो बहुत लंबे समय से नजरअंदाज की जा रही इस
समस्या के उन्मूलन के लिए सेवा का यह अवसर खोना नहीं चाहिए।
डॉ. मुकर्जी के अनुसार संस्कृति, कला, साहित्य, दर्शन, पुरातत्त्व,
दर्शनशास्त्र, ललित कलाएँ, संगीत, चित्रकला, प्राचीन एवं अर्वाचीन भारतीय
भाषाएँ, इतिहास, राजनीति जैसे विषयों का पोषण किया जाना समय की आवश्यकता थी।
इन विषयों से आधुनिक भारतीय विद्वान् प्रशिक्षित होंगे और वे विचारों को
प्राचीन इतिहास से जोड़कर वर्तमान की आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों के अनुसार
व्यवहारगत नियमों पर प्रकाश डालेंगे तथा जीवन के प्रति ऐसा दृष्टिकोण
स्थापित करेंगे जिसे आधुनिक भारतीय समाज स्वीकार कर सकेगा।
भारत आर्थिक रूप से स्वतंत्र एवं समृद्ध कैसे बने ? इसका उत्तर अर्थशास्त्र,
बैकिंग, सांख्यिकी और विदेशी व्यापार जैसे विषयों को विस्तार देने से
प्राप्त होगा। सात जनवरी 1938 को इंडियन स्टेटिस्टिकल कॉन्फ्रेंस की
अध्यक्षता करते हुए डॉ. मुकर्जी ने सांख्यिकी क्षेत्र की बहुत-सी संभावनाओं
पर प्रकाश डाला था। उन्होंने कहा कि मध्यमवर्गीय लोगों में बेरोजगारी की
समस्या का हल निकालने के लिए सांख्यिकी की सहायता ली जानी चाहिए। उन्होंने
प्राचीन भारत में सांख्यिकी के प्रयोगों का उल्लेख करते हुए कहा था कि
व्यवसाय का चुनाव करने में भी सांख्यिकी सहायता प्रदान करती है। राष्ट्र के
पुनर्निर्माण में विभिन्न समूहों के कर-बोझ का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना
था, जो सांख्यिकी के प्रयोग से ही संभव था। डॉ. मुकर्जी ने सांख्यकारों को
संबोधित करते हुए कहा कि उन्हें विभिन्न तथ्यों को वैज्ञानिक और उचित कसौटी
पर रखना चाहिए। उन्होंने राज्य सरकार से कहा कि इस इंस्टीट्यूट की हर
प्रकार से सहायता करना उनका कर्तव्य है। भारत के विश्वविद्यालयों का
कर्तव्य है कि वे समाज को प्रशिक्षित सांख्यकार उपलब्ध करवाएँ।3
ज्ञातव्य है कि प्रो. प्रसंतचंद्र महालानोबीस द्वारा स्थापित इंडिया
स्टेटिस्टिकल इंस्टीट्यूट की कार्यकारी परिषद् में डॉ. मुकर्जी ने सदस्य के
बतौर कार्यभार भी सँभाला था।
डॉ. मुकर्जी ने विश्वविद्यालयों को दिशानिर्देश देते हुए कहा कि वे राजनीति
विज्ञान तथा संवैधानिक न्याय की विवेचना करें। परतंत्र भारत में इस प्रकार के
विषयों का अध्ययन भारत को स्वतंत्रता की ओर ले जाने वाला था। उन्होंने
विश्वविद्यालयों से अनुरोध किया कि विभिन्न देशों के संविधान और वहाँ की
सरकारों के मूलभूत पहलुओं का अध्ययन करें ताकि नवीन भारत के संविधान-निर्माण
में सहयोग प्राप्त हो। उन्होंने 'शिक्षा' एवं 'मनोविज्ञान' विषयों के
महत्त्व पर भी प्रकाश डाला तथा उनमें लगातार शोध करते रहने को प्राथमिकता दी।
'शिक्षा' विषय में शोध करने के लिए स्थानीय समस्याओं का अध्ययन करने के साथ
ही दूसरे देशों जैसे रूस और जापान में शिक्षा के क्षेत्र में हुए महान
प्रयोगों का अध्ययन किए जाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय
में पूर्वी और पश्चिमी देशों की महत्त्वपूर्ण भाषाओं का अध्ययन किया जाना
चाहिए तथापि डॉ. मुकर्जी ने यह भी सलाह दी कि अन्य सभ्य राष्ट्रों की
उपलब्धियों का अध्ययन भी किया जाना चाहिए। पाश्चात्य विचारों और ज्ञान को
पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के विषय में उनके विचार थे कि यदि उन विचारों का
हमारे राष्ट्रीय चरित्र पर बुरा प्रभाव न पड़ता हो तथा जो उन्नति के विरूद्ध
व घातक न हों, जो विचार हमें आपस में बाँटने वाले न हों, उन पाश्चात्य
विचारों को भारत की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के महान् गुणों की रक्षा
करते हुए पाठ्यक्रम में शामिल किया जा सकता है। यदि भारतीय विश्वविद्यालय नए
भारत के निर्माण में अपना योगदान देना चाहते हैं तो उन्हें अपने को एक पृथक्
संस्था नहीं समझना चाहिए।
डॉ. मुकर्जी ने कहा कि देश की बदलती हुई परिस्थिति में ये संस्थाएँ केवल
व्यवसाय और प्रशासनिक सेवाओं के प्रशिक्षण-मैदान ही नहीं हैं, अपितु इन
शैक्षणिक संस्थाओं का कर्तव्य है कि ये भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में अपना अधिकार पुन: प्राप्त करने के लिए
विद्यार्थियों को तैयार करें। उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय का कर्तव्य है
कि छात्रों को किताबी ज्ञान देने के साथ ही यह सुनिश्चित कर लिया जाए कि कहीं
छात्रों का युवा-उत्साह तो क्षीण नहीं पड़ रहा। उन्हें सिखाना होगा कि एक
व्यक्ति अपने आप में महान है और उस व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता और भी
महान् है। परंतु कोई व्यक्ति अकेले नहीं रह सकता, उसे समाज की आवश्यकता
पड़ती है तथा सभी समुदायों के साथ मिलकर चलने की भावना से बड़ी कोई और
देशप्रेम की भावना नहीं होगी। विश्वविद्यालय ऐसे विद्यार्थी तैयार करे जो
गरीबी और अज्ञानता की कठिन परिस्थितियों से अपने देशवासियों को उबारें।
विश्वविद्यालयों का कर्तव्य है कि वे जीवन के आध्यात्मिक और भौतिक पहलुओं
को आपस में जोड़ने का सफल प्रयास करें। विद्यार्थी चाहे किसी भी जाति, धर्म,
लिंग अथवा वर्ग से संबंध रखते हों, उनको सिर्फ व्यवसायों के लिए ही तैयार
नहीं करना चाहिए, अपितु उन्हें यह सिखाना भी अनिवार्य है कि वे किस प्रकार
अपने व्यक्तित्व में अपनी मातृभूमि की उन्नति एवं समृद्धि के हितार्थ कार्य
करने की भावना तथा मानव सभ्यता की उच्चतम परंपराओं को आत्मसात् करें।
उन्होंने कहा कि इन्हीं आदर्शों की खुशबू हमारी मिट्टी में रची-बसी है तथा
आज भी इनकी महती आवश्यकता है। इन्हीं आदर्शों से छात्रों के औसत गुणों में
वृद्धि होगी तथा वे स्वतंत्रता एवं उन्नति के आंदोलन को प्रभावित करेंगे।
किसी भी प्रकार के विकास में सबसे बड़ी समस्या वित्त संबंधी होती है। अत:
उन्होंने विद्यार्थियों के हितार्थ एक 'यूनिवर्सिटी एल्यूमनस फंड' की
परिकल्पना की, जिसमें सरकारी सहायता के अतिरिक्त विश्वविद्यालय के सभी
पुराने विद्यार्थी भी अपनी वित्तीय स्थिति के अनुरूप कम या अधिक वित्तीय सहयोग
कर पाएँ। डॉ. मुकर्जी ने कहा कि विश्वविद्यालयों को अपने छात्रों को ऐसे
तैयार करना होगा कि उनमें भारतीय सभ्यता तथा इतिहास का पूर्ण ज्ञान हो,
उनमें एकता और तार्किक गुण हों, ताकत और दृढ़ता हो, कौशल तथा बुद्धि हो और
मानवता की नि:स्वार्थ सेवा का जज्बा हो।
अध्यापकों से
डॉ. मुकर्जी ने अध्यापकों को संबोधित करते हुए कहा कि उनका पवित्र कर्तव्य
है कि वे भारतीय विरासत के व्याख्याता बनें, सत्य और ज्ञान के पिपासु हों
तथा पूरे विश्व को बता दें कि मानवता और विज्ञान की सेवा में उनके प्रयास
किसी से कम नहीं हैं। उन्होंने अध्यापकों को स्मरण कराया कि उनका
उत्तरदायित्व है सही दिशा में लोगों को शिक्षित करना, विश्वविद्यालय और
सरकार को शैक्षिक जगत् की तत्कालीन कठिन समस्याओं जैसे साहित्यिक और
व्यावसायिक शिक्षा का द्वंद्व, विभिन्न विषयों का समन्वय, परीक्षा प्रणाली
की कमियाँ, राजकीय वित्तीय सहायता, विश्वविद्यालय निकायों का पुनर्गठन,
शिक्षण और परीक्षण के उचित स्तर को बनाए रखना, अध्यापकों की स्थिति में
सुधार, कॉलेज में कॉरपोरेट लाइफ की स्थापना इत्यादि का निदान उपलब्ध कराना।
डॉ. मुकर्जी का मानना था कि शिक्षक और शिक्षार्थी में प्राचीन गुरूकुल पद्धति
की भाँति नजदीकी संबंध स्थापित होना चाहिए। तत्कालीन परिस्थितियों का
उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच एक
स्वस्थ सामाजिक जीवन का संचार सदैव नहीं हो पाता, क्योंकि कई बार ऐसा होता
है कि विद्यार्थियों के मस्तिष्क को वे राजनीतिक प्रश्न उद्वेलित कर रहे
होते हैं, जिनका शैक्षणिक संस्थाओं से कोई सीधा सरोकार नहीं होता। उनका मानना
था कि ऐसी स्थिति में शिक्षकों को विद्यार्थियों से चर्चा करने का कोई मौका
नहीं छोड़ना चाहिए, भले ही उन चर्चाओं का उनके शैक्षिक कार्य से कोई सीधा
संबंध न हो। इस प्रकार आपसी घनिष्ठ संबंध तथा विचारों का खुलकर किया गया
आदान-प्रदान विद्यार्थियों के मस्तिष्क से एकाकीपन को खत्म कर देगा तथा एक
ऐसा आपसी विश्वास और आत्मविश्वास का वातावरण बनेगा जिसकी कीमत को कम नहीं
आँका जा सकता। डॉ. मुकर्जी का मत था कि अध्यापकों द्वारा एक साथ अधिक संख्या
में छात्रों को व्याख्यान देने की प्रणाली में बदलाव आना चाहिए। अध्यापकों
को ट्यूटोरियल्स पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तभी छात्रों में उचित
और वैयक्तिक सोच उत्पन्न होगी। अध्यापकों की संख्या में वृद्धि की जानी
चाहिए तथा उन्हें उचित एवं बेहतर वेतनमान दिया जाना चाहिए। शिक्षा योजना की
सफलता के लिए उचित प्रकार के शिक्षकों की नियुक्ति से बढ़कर कुछ नहीं है।
शिक्षक उच्च चरित्र से संपन्न ज्ञानवान व्यक्ति हों, जो अपने पवित्र
उद्देश्य को समझें और अपने जीवन के उदाहरण से अपने छात्रों को प्रेरणा दें,
उनके मार्गदर्शक, विचारक और मित्र बनें।
वैज्ञानिकों से
डॉ. मुकर्जी का मानना था कि भारत में राष्ट्रीय भावना के पुनरूत्थान में
वैज्ञानिकों को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। उन्होंने देश के
वैज्ञानिकों को संबोधित करते हुए कहा था कि उनका पहला कर्तव्य देश के आम आदमी
को गैर तकनीकी भाषा में वैज्ञानिक ज्ञान से परिचित करवाना होना चाहिए।
जनसाधारण का परिचय सत्य और तर्क से उनकी मातृभाषा में कराया जाए। भारत में
वृहद् प्राकृतिक संसाधनों के उचित उपयोग का मार्ग वैज्ञानिक ही सुझा सकते थे,
अत: उन्होंने वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया कि वे अपने ज्ञान का प्रयोग
देशवासियों की गरीबी और कष्ट दूर करने में करें। उन्हें केवल अपनी
उपलब्धियों से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए, अपितु देश और मानवता के हितार्थ
उन्हें अपने ज्ञान की सीमा का विस्तार करना चाहिए। उन्हें सत्य और सेवा का
मंदिर सभी ज्ञान पिपासुओं, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, रंग अथवा समुदाय के
हों, के हितार्थ खोलना चाहिए। डॉ. मुकर्जी के शब्दों में, ''वैज्ञानिक
दृष्टिकोण को सत्य और सौंदर्य की अलौकिक कल्पना से पूर्ण होना चाहिए।'' 4
युवाओं से
मातृभूमि की रक्षा के लिए कोई भी त्याग अथवा तैयारी बहुत महान् नहीं होती।
उन्होंने युवाओं से कहा कि भारतीय ऋषि-मुनियों अथवा महान् विचारकों ने यह
कभी नहीं माना कि कायर और डरपोक भारत की महान् विरासत को आगे बढ़ाने वाले
होंगे। 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:'। कायर पुरूषों को मोक्ष नहीं प्राप्त
होता। उन्होंने युवाओं को प्रेरणा देते हुए कहा कि उन्हें भारत की महान्
हस्तियों का स्मरण सदैव करना चाहिए। भारत ने कभी हिंसा का मार्ग नहीं अपनाया।
भारतभूमि में गौतम बुद्ध, महावीर, विवेकानंद जैसे महान् युग पुरूष हुए हैं।
गाँधी तो जीता-जागता उदाहरण थे। गाँधी शांति के दूत थे, सत्य और अहिंसा का
मूर्त रूप थे। वे अपने आदर्श के लिए धैर्यपूर्वक गरिमामय ढंग से यातना भी झेल
सकते थे, लेकिन भारत कमजोर नहीं है। डॉ. मुकर्जी ने गाँधी जी से 'अंहिसा' को
फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता पर बल दिया था।5 भारत विश्व को
सदियों से शांति का पाठ पढ़ाता आया है और समय पड़ने पर अपनी रक्षा करना भी यह
बखूबी जानता रहा है। भारत की गुलामी का कारण लोगों में एकता की कमी का होना
था। डॉ. मुकर्जी ने अपने प्रत्येक भाषण में युवाओं को प्रेरित किया है कि वे
सभी समुदायों के साथ मिलकर चलें, अखंड और अक्षुण्ण भारत की स्थापना के लिए
सदैव तत्पर रहें।
छात्रों को स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ समझाते हुए डॉ. मुकर्जी ने कहा,
''स्वतंत्रता एक पृथक् और साधारण धारणा नहीं है। इसके चार तत्त्व हैं-
राष्ट्रीय, राजनीतिक, वैयक्तिक तथा आर्थिक। जो व्यक्ति ऐसे स्वतंत्र देश
में रहता है, जहाँ लोकतंत्र का शासन होता है, समाज में सभी के लिए समान कानून
होता है तथा जहाँ प्रतिबंध न्यूनतम होते हैं और जहाँ ऐसी आर्थिक प्रणाली हो
जिसमें राष्ट्रीय हितों की रक्षा की जाती हो, नागरिकों को सुरक्षित जीविका,
सुनिश्चित सुविधाएँ तथा योग्यतानुसार उन्नति के पूर्ण अवसर मिलते हों, वही
पूर्ण रूप से स्वतंत्र है।''
डॉ. मुकर्जी ने अपने भाषणों में बार-बार इस बात को भी दोहराया है कि भारतीय
युवकों को अपनी विरासत का स्पष्ट तौर से ज्ञान होना चाहिए। उनका मानना था कि
प्राचीन ऋषियों द्वारा दिए गए शिक्षा के सनातन मूल्यों की व्याख्या की जानी
चाहिए, ताकि विद्यार्थी अपने लिए मूलभूत मूल्यों का निर्धारण कर सकें। हमारे
समाज में सभ्यता का अर्थ हमारे जीवन की विकसित होती हुई सामाजिकता से है, एक
ऐसी सामाजिकता, जिसमें सभी उच्च भावनाओं का विकास हो। डॉ. मुकर्जी ने
विद्यार्थियों से कहा कि वे अपने बौद्धिक विकास के साथ भावनात्मक विकास भी
करें। उन्होंने कहा कि हमारा सामाजिक जीवन राजनीतिक चेतना से अधिक नैतिक
चेतना से प्रभावित है। उन्होंने कहा कि समाज में वर्गीकरण और व्यवस्था भंग
की समस्याएँ उठ खड़ी हुई हैं, क्योंकि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों द्वारा दी
गई 'सेवा और समानता' की शिक्षा पर प्रहार कर उसे तोड़ने की मुहिम छेड़ी गई है,
जिससे समाज का वास्तविक ढाँचा हिल गया है। डॉ. मुकर्जी ने कहा कि भारत की
सभ्यता और विरासत तो जाति और वर्ग की सभी भावनाओं से ऊपर है, यह भावना हमारे
विद्यार्थियों में भरी जानी चाहिए, तभी वे आत्मविश्वासी बनेंगे और उन्नति
की ओर अग्रसर होंगे।
शारिरिक शिक्षा पर बल
डॉ. मुकर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के अपने पहले ही दीक्षांत भाषण में
स्पष्ट कर दिया था कि शिक्षा का केंद्रबिंदु मानसिक एवं शारीरिक रूप से
स्वस्थ विद्यार्थी का निर्माण करना है। उन्होंने कहा ''ऐसी शिक्षा किस काम
की, यदि हमारे विद्यार्थी शारीरिक रूप से कमजोर अथवा अक्षम हों तथा आधुनिक
जीवन के तनाव और मुश्किलों का सामना करने के योग्य न हों? वह शिक्षा किस काम
की, यदि हम अपने विद्यार्थियों को शारीरिक रूप से मजबूत तथा बौद्धिक रूप से
दृढ़, उत्साहपूर्ण एवं विवेक युक्त व्यक्ति न बना पाएँ?''6
उन्होंने स्वस्थ युवाओं को राष्ट्रोन्नति के प्रमुख साधन के रूप में
देखा। शारिरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य का समन्वय किसी भी राष्ट्र
की प्रभुसत्ता बनाए रखने के लिए अपरिहार्य है। उनका विश्वास था कि शिक्षा
राजनीतिक स्वंतत्रता दिलाने में सहायक होगी और राजनीतिक स्वतंत्रता शिक्षा
को सरकारीकरण से स्वतंत्र और स्वायत्त बनाने के लिए आवश्यक है तथा राजनीतिक
एवं शैक्षिक स्वंतत्रता बनाए रखने में स्वस्थ शरीर और स्वस्थ चित्त वाला
युवा वर्ग उपलब्ध होना आवश्यक है। शिक्षा के चिंतन में युवाओं के
स्वास्थ्य पर उन्होंने सर्वाधिक बल दिया। उनका मत था कि विद्यार्थियों के
स्वास्थ्य और शारीरिक क्षमताओं पर अधिक ध्यान देने से उनके शरीर और मानसिक
विकास को बढ़ावा मिलेगा, जो उन्हें अनुशासन का गुण प्रदान करेगा तथा सहकारी
कार्य करने की उनकी क्षमताओं का भी विकास होगा। बच्चों में खेलकूद की आदत का
विकास किया जाना चाहिए तथा सदैव स्मरण रहे कि खेलों में, ऐसे ही जीवन में भी,
विजय तथा पराजय उच्च कारक नहीं होते। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है
प्रत्येक क्षेत्र में उत्तम तथा ईमानदार प्रयासों को सक्रिय करना, जो
चारित्रिक रूप में कभी न रूकने वाले और कभी न झुकने वाले हों।
नैतिक एवं सामाजिक शिक्षा पर बल
1935 में दिए दीक्षांत भाषण में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि शिक्षा का
महान् तथा महत्त्वपूर्ण कर्तव्य जरूरतमंदों और योग्य लोगों की सहायता के
लिए केवल शारीरिक रूप से सुदृढ़ छात्र-छात्राएँ ही तैयार करना नहीं है, अपितु
उनमें एक मजबूत नैतिक चरित्र की स्थापना करना भी है। उसका उद्देश्य ऐसे
पुरूष और महिलाओं का निर्माण करना है जिनके प्रभाव से घरों में, गाँवों तथा
शहरों में सरकार एवं स्थानीय प्रशासन नैतिकता तथा निडरता के साथ, सार्वजनिक
कल्याण के लिए कार्यरत हों।
डॉ. मुकर्जी का कहना था कि हमारे युवा वर्ग में बौद्धिकता की कमी नहीं है,
परंतु उनमें उतने ही भाईचारे की भावना भी होनी चाहिए तथा उनके शरीर एवं चरित्र
में बल होना चाहिए, जिससे वे पहाड़ जैसी चुनौतियों का सामना कर सकें। वैयक्तिक
तथा सार्वजनिक नैतिकता की भावना तथा कर्म की पवित्रता मनुष्य को महान् बनाती
है तथा उसे उसकी परिस्थितियों एवं भाग्य से ऊपर उठा देती है। शरीर तथा चरित्र
दोनों का बलवान होना राष्ट्र की ताकत को कई गुणा बढ़ा देता है। उनका विचार था
कि युवाओं को राष्ट्र की सेवा में तत्पर रखने के लिए प्रशिक्षण किया जाए।
उन्होंने कहा कि भारत को मजबूत और साहसी युवाओं की आवश्यकता है तथा कॉलेजों
में मिलिट्री प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम शुरू कर उन्होंने अपने इन्हीं विचारों
को मूर्त रूप प्रदान किया था।
विद्यार्थियों में सामाजिक संबंध विकसित किए जाने की आवश्यकता पर भी
उन्होंने बल दिया। उनका विचार था कि विद्यार्थियों के लिए महाविद्यालयों और
विश्वविद्यालयों में कॉमन रूम, यूनियन और हॉल बनाए जाएँ, जहाँ विद्यार्थी आपस
में अपने विचारों का स्वतंत्र आदान-प्रदान कर सकेंगे। उनके आपसी संबंध
वास्तविक तथा हमेशा रहने वाली मैत्री का आधार बनेंगे, उनके चरित्र का निर्माण
होगा, आपसी विरोध समाप्त होंगे, वृहत् हितों का निर्माण होगा। उनका मानना था
कि जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ लेक्चर रूम, लाइब्रेरी अथवा
लेबोरेट्री में नहीं हो सकती।