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लेख

बाल साहित्य का वर्तमान

डॉ. उमेशचन्द्र सिरसवारी


आज भारत ने सभी क्षेत्रों में तरक्की की है। आज जिस भारत के हम दर्शन करते हैं वह भारत वर्षों पुराने अपने आधुनिक स्वरुप से भी अधिक आधुनिक एवं भिन्न है। चाहे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुए बदलाव हों या बदली हुई जीवन शैली या फिर वर्तमान समाज के भौतिक व आध्यात्मिक संस्कार। आज का भारतवर्ष अपना मंगल-विजय अभियान सफलतापूर्वक संपन्न कर चुका है और वह भी कम से कम साधनों का उपयोग कर और विश्व समुदाय को चकित कर देने वाली न्यूनतम लागत पर। आज का भारत साधन संपन्न है, शक्ति संपन्न है और प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भर है। आज का युवा वर्ग जागरूक है एवं अपनी उपलब्धियों को अनुपम ऊँचाइयों तक ले जाने हेतु तत्पर है। वह भाग्य भरोसे बैठने को कतई तैयार नहीं अपितु अपने बुद्धिबल से विश्वभर को विजित करने की इच्छा रखता है। वह सब कुछ कर लेना चाहता है जिसके बारे में उसके बड़े बुजुर्ग कल्पना तक न कर सके। भले ही इसमें कभी-कभी इच्छाओं का अतिरेक ही क्यों न हो, आज का आधुनिक विद्यार्थी अपने आज के आधुनिक गुरुओं से जिस माहौल में एवं जिस प्रकार की शिक्षा पा रहा है वह पहले जैसी नहीं है बल्कि आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप नए व आधुनिक कलेवर में है एवं भिन्न आयामों को छूती है। कहने का तात्पर्य यह है कि बदलाव समाज के हर वर्ग में हर समुदाय में और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आया है। सोच बदली है, आवश्यकताएँ बदली हैं एवं तदनुसार जीवन शैली भी बदली है।

आज का बचपन माता-पिता से चंदामामा नहीं मांगता वरन स्मार्ट फीचर्स वाला मोबाइल मांगता है। अब बचपन माँ की लोरी सुनकर नहीं सोता बल्कि उसे नींद आती है अपने पसंदीदा कार्टून सीरियल को देखते-देखते। नाना-नानी, दादा-दादी की कहानियाँ अब बीते जमाने की बातें हो गयी हैं। किंतु तरक्की का संतोष है तो इस पर चिंता करना भी गलत न होगा। विचार करें तो हम पाएँगे कि तरक्की से प्रसन्न होने के समस्त कारणों के बावजूद भी सर्वथा दोषरहित आनंदोत्सव इसलिए नहीं मनाया जा सकता क्योंकि भौतिक जीवन शैली से ओतप्रोत आधुनिक मनुष्य की उपलब्धियों में आए इस अतुलनीय उछाल के साथ-साथ संस्कारों व मानव मूल्यों में कहीं न कहीं गिरावट भी आई है। आधुनिक मनुष्य निसंदेह बुद्धिमान है किंतु शारीरिक दमखम के मामले में पहले से उन्नीस है एवं थोड़ा संस्कारहीन भी हो चला है। आधुनिक विद्यार्थी में भी अपने गुरुजनों के प्रति आदरभाव पहले की अपेक्षा कम है। ऐसा क्यों है? विचार करना होगा। खोजेंगे तो कारण समझ आएगा और निदान भी मिलेगा। आज संयुक्त परिवार नहीं, एकल परिवार बहुतायत में हैं और शायद इसीलिए आज की पीढ़ी में उस अपनत्व एवं तालमेल बैठाने की कला का बहुत हद तक अभाव है जो सुखी समाज की प्राथमिक या मूलभूत आवश्यकता है। शायद आसमान छू लेने और चाँद-सितारों की दुनिया को जानने की होड़ में मनुष्य धरती के जीवन का अनुशासन भूल चुका है। अब प्रत्येक व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति का सहयोगी नहीं, प्रतिद्वंदी है। यहाँ एक प्रश्न उपजता है, तरक्की की कीमत क्या मानव-मूल्यों की बली देकर चुकाई जायेगी? सावधान! हमें चेतना होगा, समाज के विस्तार के साथ-साथ नयी चुनौतियां भी सामने आयी हैं, चुनौती है तो निःसंदेह बालसाहित्य के पास इस समस्या का समुचित उत्तर भी है। बस ध्यान रखना है कि यदि आने वाले समाज में सभ्यता का दर्शन करना है तो आज के बच्चों में संस्कारों के बीज बोने ही होंगे और ये काम बालसाहित्य अपनी मानव-मूल्यों एवं संस्कारों पर आधारित शिक्षा-सामग्री, कविताओं, किस्से-कहानियों, जीवन-वृत्तांतों इत्यादि से सफलतापूर्वक कर सकता है। प्राख्यात बालसाहित्यकार प्रयाग शुक्ल लिखते हैं, ''यह एक चुनौती ही है कि बच्चों तक हम नई जानकारियाँ भी आने दें और उन जानकारियों के गुणों-अवगुणों, पक्ष और विपक्ष के बारे में भी उन्हें बताएँ। बच्चों के लिए नए तरह के नाटक, नयी तरह की फिल्में आज की जरूरत हैं। जरूरत यह भी है कि हम अपने क्लासिक्स को, बच्चों के सामने आज के संदर्भ में नये ढंग से, रोचक ढंग से रखें। जो नयी चीजें आई हैं, और बच्चों की कल्पना को कहीं मथ रही हैं उनकी जाँच-परख, उन्हीं की भाषा में, उनके सामने करें। उनकी दुनिया में नयी तरह से कुछ गहरे उतरें। आज शहरों के जो बच्चे-बच्चियाँ स्कूल से लौटकर घरों में अपने को अकेला पाते हैं, क्योंकि उनके माता-पिता अपने-अपने काम पर जा चुके होते हैं, उनकी दुनिया में झाँके। उन्हें केवल टी.वी. के सामने न बैठा रह जाने दें।'' बालसाहित्य का वर्तमान स्वरुप ही यह निर्धारित करेगा कि भविष्य का समाज कैसा होगा। यदि बालसाहित्यकार समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी के संस्कार अपनी रचनाओं के माध्यम से आज के बच्चों, विद्यार्थियों व युवाओं में रोचक तरीके से भर सकें तो अपना देश सार्थक व सच्ची तरक्की की ओर अग्रसर हो सकेगा।

बालसाहित्य का जब प्रादुर्भाव हुआ तो इसमें बच्चों के लिए नीतिपरक तथा सदाचार युक्त साहित्य का सृजन प्रारंभ हुआ, जिसमें पंचतंत्र की कहानियाँ, हितोपदेश आदि कहानियाँ बालसाहित्य की धरोहर के रूप में अपने श्रेष्ठ रूप में आज भी विद्यमान हैं और अपनी महक फैलाए हुए हैं। समय के साथ-साथ बालसाहित्य का स्वरुप परिवर्तित होता रहा है। 1850 से 1900 के बीच हिंदी साहित्य के भारतेंदु हरिश्चंद्र काल में बालसाहित्य को भी एक नई दिशा मिली। फिर 'अंधेर नगरी चौपट राजा' तथा 'राजा हरिश्चंद्र' आदि बालसाहित्य की प्रमुख रचनाएँ हमारे सामने आईं। आधुनिक हिंदी बालसाहित्य रचनाकारों में श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' आदि कवियों ने बेहतर बाल कविताएँ रची हैं। इनके अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, हरिवंशराय बच्चन, प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, द्वारिका प्रसाद महेश्वरी, सियारामशरण गुप्त, श्रीधर पाठक आदि कई ऐसे साहित्यकार भी हुए हैं जिन्होंने बालसाहित्य को एक से बढ़कर एक नायाब रचनाएँ दी हैं। हिंदी साहित्य में 1990 के बाद के काल को इतिहासकारों ने हिंदी साहित्य का प्रयोगवादी काल कहा है। इस दौर में हिंदी साहित्य में नए-नए प्रयोग हुए। बालसाहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। पूर्व में जहाँ बालसाहित्य को दोयम दर्जे का साहित्य समझा जाता रहा है वहीं वर्तमान में लगभग सभी साहित्यकारों द्वारा बच्चों के लिए लिखने का प्रयास किया जा रहा है। इस दौर में प्रयाग शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल आदि ने बालसाहित्य परक रचनाएँ लिखकर नए आयाम गढ़े।

वर्तमान में साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन के साथ ही सृजनात्मक बालसाहित्य लेखन को बढ़ावा मिला है। नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमियाँ एवं हिंदी संस्थान बाल उन्नयन के लिए प्रयासरत हैं। अस्सी के दशक में संचार तंत्र में आई क्रांति ने भी साहित्यकारों को टेलीफोन, टी. वी., मोबाइल, इंटरनेट, कंप्यूटर आदि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों व खिलौनों आदि पर रचनाएँ लिखने को प्रोत्साहित किया, वहीं आज वर्तमान में ज्ञान विस्तार हेतु बच्चों के कंधों पर बस्ते का बोझ, गृहकार्य की चिंता में उन्मुक्त वातावरण में खेलने के बजाय एक कमरे में कैद ये बच्चे, शिक्षा का व्यवसायीकरण, माता-पिता की दौड़ती-भागती जिंदगी, विद्यालयों में पाठ रटने की प्रवृत्ति, एक तरफ हर आधुनिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण ये बच्चे और दूसरी तरफ भर पेट भोजन को भी तरसते ये सुविधाहीन बच्चे, पग-पग पर स्पर्धा भरे वातावरण में जीने को विवश आदि सभी गंभीर चिंता के विषय वर्तमान रचनाकारों के सम्मुख आए जिनमें वे बखूबी लेखनी चला रहे हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, वर्तमान में बालसाहित्य के सामने कई चुनौतियाँ हैं। हमारी आधुनिक जीवन शैली, आसपास का बदलता परिवेश, संयुक्त परिवारों का एकल परिवारों में परिवर्तित होना, माता-पिता का नौकरी पर जाना, जिससे बच्चों को पर्याप्त स्नेह, समय ना दे पाना जिसके फलस्वरूप बच्चों में अकेलापन हावी होना, उनका असुरक्षित महसूस करना और स्वयं के स्तर पर नादानी में अक्सर गलत व नकारात्मक फैसले कर एक अंतहीन अंधकार से घिर जाना आदि अनेक स्तरों पर बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। खेल के स्थान पर अब बच्चे टी.वी., कंप्यूटर से चिपके रहते हैं। टी.वी. द्वारा मनोरंजन के नाम पर फूहड़पन तथा अर्थहीन-दिशाहीन, भ्रमित करने वाले चलचित्रों, धारावाहिकों ने बच्चों के मन को बुरी तरह से प्रभावित किया है तथा अवांछित परिदृश्यों ने बच्चों में कुंठाओं, ग्रंथियों को जन्म दिया है। बच्चों का वह मासूम बचपन मानो अब है ही नहीं, समय से पहले ही वे वयस्क होते जा रहे हैं। आज बच्चे अपने कैरियर के लिए बचपन से ही चिंताग्रस्त रहने लगे हैं। हालाँकि कुछ उजला पक्ष भी है समाज में व्याप्त इस आधुनिकता का। आज की पीढ़ी धर्म-संप्रदाय के मामले में संकुचित मानसिकता के दायरे से बाहर है एवं खुले दिल से प्रत्येक से घुलमिल जाती है। छुआछूत से परे ये बच्चे हर धर्म के प्रति सम्मान रखते हैं। देश-दुनिया की खबर में सबसे आगे रहने वाले ये बच्चे आसमान छूने की तमन्ना रखते हैं। ऐसे ही अनेक कहे-अनकहे दायरे हैं, वास्तविकताएँ हैं जिनके मद्देनजर आज बालसाहित्यकार साहित्य सृजन में लगे हुए हैं, वैसे भी इस आधुनिक समाज के इन हाईटेक बच्चों को हम अबोध समझकर साहित्य रचना नहीं कर सकते। जहाँ हम एक कदम की सोचते हैं वहीं ये बच्चे दस कदम आगे की सोच रखते हैं। बच्चों के पास ज्ञान का भण्डार है। जरूरत है उस ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को सही दिशा देने की और बाल साहित्यकार आवश्यकतानुरूप सजग हो, जिस प्रकार से बच्चों के लिए कविताएँ, कहानियां, उपन्यास, नाटक, जीवनियाँ इत्यादि लिख रहे हैं उससे आशा बनी रहती है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने के लिए साहित्य में विज्ञान को भी स्थान दिया जा रहा है। कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं है जहाँ बाल साहित्यकार अपनी लेखनी न चला रहे हों। समग्र दृष्टिकोण को अपनाकर साहित्य सृजन हो रहा है। वर्तमान में बालसाहित्य रचनाकार बाल मनोभावों को कुछ यूँ व्यक्त कर रहे हैं-

''ऐसा हो स्कूल हमारा, ऐसा हो स्कूल,
जैसे है अपना घर प्यारा ऐसा हो स्कूल
नन्हीं जेबों में हम भर लें सूरज चाँद सितारे
चटपट हमें याद हो जाएँ गिनती और पहाड़े।''

बच्चों के बालमन को छूकर उसमें आनंद भरने वाले बालसाहित्य के पुरोधा श्री रमेश तैलंग जी लिखते हैं-
''चकई की चकदुम चकई की चकदुम,
गाँव की मढैया साथ चलें हम तुम
चकई की चकदुम चकई की चकदुम,
ग्वाले की गैया दूध पीएं हम तुम।''

बच्चों के सपनों की दुनिया भी निराली होती है। साहित्यकार दिविक रमेश जी बालमन के सपनों को इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं-
''अगर पेड भी चलते होते, कितने मजे हमारे होते।
बांध तने में उसके रस्सी, चाहे जहाँ कहीं ले जाते।
जहाँ कहीं भी धूप सताती, उसके नीचे झट सुस्ताते।
जहाँ कहीं वर्षा हो जाती, उसके नीचे हम छिप जाते।।''

पाश्चात्य जीवन शैली की जंकफूड परंपरा जिस तेजी से फैल रही है उस परंपरा पर प्रहार करते हुए श्री अश्वघोष जी लिखते हैं-
''रोटी है जीवन की आशा, रोटी मेहनत की परिभाषा
रोटी का रूप अनोखा, बाकी चीजें देती धोखा''

हमारे वन्य जीवों के मन की पीड़ा भगवती प्रसाद गौतम इस प्रकार व्यक्त कर रहे हैं-<
''खूब दहाड़े शेरू जी फिर, हम हैं आज बताते,
घुसकर जबरन कई लुटेरे, पग पग घात लगाते
कोई काटे वृक्ष दनादन, पत्थर कोई फोड़े,
शोर-शराबा करता कोई, फूलपात सब तोड़े''

आज का बच्चा भारी बस्ता ढोने को मजबूर है, वह देखो क्या सोच रहा है-
''भारी बस्ता काँधे लटकाए बोझ गधे सा ढोता हूँ,
झुक गयी है कमर अभी से, खुश नहीं में रोता हूँ।''

बच्चों में होम-वर्क की चिंता पर साहित्यकार रमेशचंद्र पंत जी लिखते हैं-
''भैया रोबोट करोगे, मेरा भी कुछ काम
होम-वर्क सब लिख दूँ अपना, आज आपके नाम।''

इसी तरह ग्लोबल वार्मिंग जो आज समाज का सबसे चिंतनीय मुद्दा बनता जा रहा है, इस पर रचनाकार लता पंत जी लिखती हैं-
''अरे अरे यह क्या हो रहा, बढती जाती नित गरमी,
गरमी से बेहाल हुए सब,
अम्मा देखो खबर छपी है, पिघल रही बर्फीली चोटी,
क्या चक्कर है तुम्हीं बताओ, क्यों इतनी है गरमी होती।''

आज के बच्चे नई-नई चीजों और उनसे जुड़ी तकनीकी जानकारी को झट से जान लेते हैं। घर में कंप्यूटर आया तो पापा से पहले मुन्ने ने सीख लिया-
''पापा लाये कंप्यूटर अब तक सीख न पाए,
पर चिंटू ने यों ही सीखा सब कुछ बिना सिखाये।
विंडो खोले बनाता रहता वह जब-तब चित्र,
अपने बाबा जी को उसने बना लिया है मित्र।''

सीमा पर तैनात देश का सैनिक, किसी का बेटा तो किसी का पिता भी है। उनके अपनों की मनोदशा को बालसाहित्यकार उदय किरोला जी लिखते हैं-
''सीमा पर बमबारी खबर जब भी आती,
पूछो यदि सच कहूँ, नींद नहीं आती।
युद्द से होती तबाही, कई घर बर्बाद होते,
युद्ध के चक्कर में माँ बच्चे सब रोते।''

उपरोक्त बालसाहित्यकारों के अतिरिक्त कुछ ऐसे अजाने-गुमनाम किंतु लेखन के नैसर्गिक कौशल से ओतप्रोत लेखक भी हैं जिन्हें अभी तक कोई मंच भले ही न मिल पाया हो किंतु, इससे उनके उत्साह में कभी कोई कमी नहीं आने पायी हैं। ऐसे ही एक कलम के धनी हैं, पेशे से अंग्रेजी विषय के अध्यापक श्री मुकेश तिवारी, जो अपने आँगन में कभी फुदकने-चहचहाने वाली गौरैया के रूठने से व्यथित होते हैं और अपनी तड़प कुछ यूँ व्यक्त करते हैं-

''ओरी प्यारी गौरैया, तू मेरे पास चली आ री,
थोड़ा दाना पानी पा, कुछ मैं गाऊँ कुछ तू गा री
मुझसे क्या अपराध हुआ जो, रूठी-रूठी रहती हो,
दिल का हाल छिपातीं तुम, मुँह से कुछ भी ना कहती हो,
तेरे संग मुझसे रूठा मेरा उल्लास चली आ री......''

और कभी फिर 'उल्लसित सृजन' की बात उत्साहपूर्वक यूँ साझा करते हैं-
''लो आया है धरा पर फिर से, दैवी ज्ञान का मौसम,
चले अध्यात्म के संग जो, उसी विज्ञान का मौसम''

उपरोक्त पंक्तियाँ कवि की क्षमता की परिचायक हैं। वे ऐसी प्रतिभा के धनी हैं जिसे प्रोत्साहित किया जाना आवश्यक है जिससे कि समाज को बड़े स्तर पर लाभांवित किया जा सके। बालसाहित्य के पुरोधाओं में कई नाम हमारे सामने हैं जिन्होंने अपना समस्त जीवन ही बालसाहित्य सृजन को समर्पित किया है। इनमें एक बड़ा नाम है डॉ. देवसरे का जिन्होंने बालसाहित्य की सभी विधाओं में लिखा है। आधुनिक तथा वैज्ञानिक सोच के पक्षधर, पारंपरिक जादू-टोने तथा जड़-कल्पना से भरी कविता-कहानियों को सिरे से नकारते हुए हिंदी बालसाहित्य को विश्व बालसाहित्य के समकक्ष खड़ा करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। अन्य साहित्यकार भी इस ओर अपना योगदान दे रहे हैं जिनमें प्रमुख हैं डॉ. राष्ट्रबंधु, विष्णुकांत पाण्डेय, बालस्वरुप राही, डॉ. शेरजंग गर्ग, श्रीप्रसाद, डॉ. मधु भारती, डॉ. रामनिवास मानव आदि।

वर्तमान बालसाहित्य में अगर हम कहानी, नाटक, एकांकी, उपन्यास, संस्मरण आदि की बात करें तो आज रचनाकार बालमन की चाहत ध्यान में रखते हुए बालसाहित्य सर्जना कर रहे हैं और समग्र रूप से विभिन्न विषयों को लेकर बालसाहित्य हमारे सामने ला रहे हैं।े जैसे- श्रम, निष्ठा, चरित्र निर्माण, कर्तव्यबोध, लोकतंत्र के प्रति आस्था, पर्यावरण संरक्षण, ऊर्जा की बचत, अल्प बचत, जीवन मूल्यों का विकास, हमारा परिवार, समाज, राष्ट्र, हमारा परिवेश, वैज्ञानिक सोच, अंधविश्वास, जीवन मूल्यों के विकास संबंधी तथ्यों के ताने-बाने से बुनी हुई कहानियाँ, नाटक, उपन्यास, संस्मरण आदि लिखे हैं। शकुंतला सिरोठिया, हरिकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारती, चन्द्रपाल सिंह 'मयंक' और राष्ट्रबंधु ने बालसाहित्य को एक नई दिशा दी। वर्तमान में डॉ. सुरेन्द्र विक्रम, प्रो. शंभुनाथ तिवारी, डॉ. शकुंतला कालरा, प्रकाश मनु, सुकीर्ति भटनागर, क्षमा शर्मा, परशुराम शुक्ल, मुरलीधर वैष्णव, रमेश तैलंग, गोविन्द शर्मा, डॉ. नागेश पांडेय 'संजय', संजीव जायसवाल, दीनदयाल शर्मा, संतोष कुमार सिंह, अखिलेंद्र तिवारी, अखिलेश श्रीवास्तव 'चमन', डॉ. भैरूँलाल गर्ग, डॉ. मोहम्मद अरशद खान, डॉ. मोहम्मद साजिद खान, दर्शन सिंह आशट, रामकुमार गुप्त, सुशील कुमार सिंह, भगवती प्रसाद गौतम, गोविंद भारद्वाज, राकेश चक्र, विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी, राजीव सक्सेना, उषा यादव 'उषा', डॉ. उमेशचन्द्र सिरसवारी, मनोहर चमोली 'मनु', सतीश कुमार अल्लीपुरी, मुकेश नौटियाल, खेमकरन सोमन, शिवमोहन यादव, ललित शौर्य, मंजरी शुक्ला, अनिल शर्मा 'अनिल', रजनीकांत शुक्ल, डॉ. सत्यनारायण सत्य, हेमंत कुमार, डॉ. दिनेश पाठक शशि, डॉ. दिविक रमेश, डॉ. जितेश कुमार, डॉ. सुधा गुप्ता अमृता, अनुपमा गुप्ता, डॉ. देशबंधु शाहजहाँपुरी, शशांक मिश्र भारती, राजपाल सिंह गुलिया, राजकुमार जैन 'राजन', रावेन्द्र कुमार 'रवि', आशीष शुक्ला, घनश्याम मैथिल 'अमृत', ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश', कीर्ति श्रीवास्तव, किशोर श्रीवास्तव, संगीता सेठी, प्रीति प्रवीण खरे, इंजी. आशा शर्मा, शादाब आलम, सिराज अहमद, डॉ. शेषपाल सिंह 'शेष', नीलम राकेश, शिखरचंद जैन, शिव चरण सरोहा, शिव अवतार रस्तोगी 'सरस', गुडविन मसीह, जाकिर अली 'रजनीश', प्रभुदयाल श्रीवास्तव, देवेन्द्र श्रीवास्तव, डॉ. फहीम अहमद, प्रमोद दीक्षित, निर्मला सिंह, मेराज रजा, प्रत्युष गुलेरी, डॉ. अलका अग्रवाल, रेनू चौहान, गौरीशंकर वैश्य, रमेशचंद्र पंत, रमेश यादव, शिव चरण चौहान, पवन चौहान, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव समेत बालसाहित्यकारों की एक लंबी फेहरिश्त है जो सृजनरत हैं और हिंदी बालसाहित्य में नए आयाम गढ़ रहे हैं।

बालसाहित्यपरक आलेख और समीक्षा लिखने वाले लेखकों में डॉ. विशेष कुमार गुप्ता, कृष्णवीर सिंह सिकरवार और आशीष शुक्ला 'प्राकाम्य' का नाम उल्लेखनीय है। वर्तमान में बालसाहित्य को समृद्ध बनाने में बाल पत्र-पत्रिकाएँ भी महती भूमिका निभा रही हैं। इन पत्रिकाओं में चकमक, साइकिल, प्लूटो, नंदन, बालहंस, देवपुत्र, बालप्रहरी, बालवाटिका, बच्चों का देश, बालवाणी, अभिनव बालमन, बाल भारती, हंसती दुनिया, नन्हे सम्राट, चंपक, प्रेरणा अंशु, बच्चों की प्यारी बगिया समेत दर्जनों पत्रिकाएँ और जनसत्ता, दैनिक ट्रिव्यून जैसे समाचार पत्र बच्चों के लिए कविता, कहानी व बालसाहित्य से जुड़े शोधपूर्ण निबंधों का प्रकाशन कर रहे हैं। वर्तमान में बाल कहानियाँ, कविताएँ, उपन्यास, नाटक, एकांकी, यात्रा वृत्तांत पर्याप्त मात्र में लिखे जा रहे हैं।

आज बालसाहित्य के समक्ष कई चुनौतियाँ हैं। इन चुनौतियों को ध्यान में रखकर साहित्य सृजन करना होगा। जहाँ हम बालसाहित्य में मनोरंजन, वैज्ञानिक सोच व वैचारिक खुलेपन की बात करते हैं, वहीं हमें गिरते नैतिक मूल्यों, हमारी संस्कृति, हमारी विरासत के प्रति भी चिंतनशील होकर अपनी कलम चलानी होगी। राष्ट्र हमें पुकार रहा है। कलम के सिपाहियों को कमर कसनी होगी एवं आह्वान स्वीकार कर जुट जाना होगा। ऐसा सार्थक बालसाहित्य सृजन करना होगा जिससे कि राष्ट्र के समक्ष आई चुनौतियों को समुचित जवाब दिया जा सके और हमारे बच्चे भारतीय संस्कृति और सभ्यता से जुड़ सकें।


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हिंदी समय में डॉ. उमेशचन्द्र सिरसवारी की रचनाएँ