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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


रूक्मणी की आँख फिर खुल गयीं थी। हो सकता है सुबह हो गयी हो! दूसरी तरफ बेटा, बहू और बच्चे गहरी नींद में सो रहे थे। रूक्मणी दबे पाँव बाहर निकल आयी। बाहर भी घुप्प अँधेरा था।

'ये बढ़ापा भी अजीब बीमारी है। न तो ठीक से नींद आती है और न मन को चैन मिलता है। रूक्मणी बड़बड़ाई और फिर अपनी झोंपड़ी के अन्दर आकर बिस्तर पर लेट गयी।

शहर से पन्द्रह बीस मील दूर नदी किनारे कुछ मजदूरों ने झोंपड़ियाँ डालकर एक छोटी सी बस्ती बना ली थी। इस क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र घोषित करने के बाद यहाँ पर बड़े भू-भाग में निर्माण कार्य आरम्भ हुआ था, जिससे सुदूर क्षेत्रों से आने वाले दिहाड़ी मजदूरों की संख्या अचानक बढ़ गयी थी।

रूक्मणी का बेटा भी पास के गाँव से मजदूरी करने यहीं आ गया था और नदी के किनारे अन्य लोगों के साथ ही झोंपड़ी बनाकर रहने लगा था।

रुक्मणी घर गाँव छोड़कर नहीं आना चाहती थी, लेकिन बीमारी के कारण लाचार थी। गाँव से अधिकतर युवा नौकरी के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके थे। यदि गाँव में कोई मर जाये, तो भी कन्धा देने के लिए चार लोगों को ढूँढना मुश्किल था।

दिन भर बेटा-बहू मजदूरी करने चले जाते, तो रूक्मणी उनके दोनों बच्चों की देखभाल कर अपना समय बिता लेती।

रुक्मणि ने एक लम्बी सांस ली। नींद न आने के कारण रात काटना मुश्किल हो रहा था। लघुशंका के लिए वह एक बार फिर बाहर निकल आयी। वापस लौट रही थी कि अचानक उसने कुछ लोगों के फुसफुसाने की आवाज सुनी। इतनी रात गये कौन हो सकता है। कहीं चोर तो नहीं? लेकिन चोर यहाँ क्या चोरी करने आयेगा? अपने इस विचार पर वह स्वयं मुस्करा दी, तभी उसे फिर से आहट सुनाई दी। फिर से तीन लोगों के बात करने का स्वर।

'इस समय सब सो रहे होंगे, कर दे काम?'

'हा यही ठीक रहेगा। सेठ ने कहा है जान का नुकसान नहीं होना चाहिए।' दूसरा बोला।

'अरे यार, दो-चार तो जायेंगे ही, तभी तो दहशत होगी। वरना ये तो कल झोंपड़ी डाल यहाँ काबिज हो जायेंगे।'

'बात तो तू ठीक कह रहा है। चल फिर, अपना काम करें।'

रुक्मणि सांस रोक कर उनकी बातें सुन रही थी। कौन हैं ये लोग और क्या करना चाहते हैं? उसकी समझ में कुछ नहीं आया, तो वापस झोपड़ी में लौट आयी।

थोड़ी ही देर में उसे कुछ चटकने की सी आवाज सुनाई दी। लगता था मानो सूखे पुआल में आग लगी हो। बाहर आयी तो देखा एक तरफ से झोंपड़ियों में आग लगी है। चिल्लाना चाहा तो आवाज गले में ही घुट कर रह गयी। अन्दर आ कर झिंझोड़ कर बेटे को जगाया और उसे बाहर खींच लाई।

रामू ने तुरन्त चिल्लाना आरम्भ किया, लेकिन गर्मियों का मौसम होने के कारण आग तेजी से फैलती जा रही थी। रामू की आवाज और आग की तपिश से अब तक काफी लोग जाग चुके थे और अपने-अपने परिवारों को लेकर सुरक्षित ठिकाने की ओर भाग रहे थे।

सुबह होते-होते पूरी बस्ती राख के ढेर में तब्दील हो चुकी थी। तीन मासूम बच्चों की इस हादसे में दर्दनाक मौत हो चुकी थी और कई लोग बुरी तरह झुलस गये थे। सभी लोगों ने इन चार पाँच वर्षों की मेहनत से जो कुछ भी कमाया था, सबका सब राख हो चुका था। राख के ढेर में अभी भी कुछ लोग बचा खुचा तलाशने का प्रयास कर रहे थे।

कुछ लोग रुक्मणि और रामू के साहस की प्रशंसा कर रहे थे। अगर उन्होंने सही समय पर शोर नहीं मचाया होता तो बहुत भयानक दुर्घटना हो सकती थी।

रुक्मणि और रामू की बात तफतीश करने पहुंची पुलिस के कानों में भी पड़ी। उन्होंने तुरन्त दोनों को बुलवा भेजा।

'क्या देखा तुम दोनों ने? कैसे लगी ये आग?' पुलिस इंसपेक्टर की कड़कती आवाज सुन रामू की सांस गले में ही अटक गयी।

'साब मैं तो बाद में उठा, मेरी माँ ने पहले देखा था।'

'बुलाओ अपनी माँ को! कहाँ है वह?'

फिर रूकमणि को देख कर बोला 'तो तुमने देखा सबसे पहले आग लगते हुए! कैसे हुआ ये सब?

'साब! हमें नींद कम आती है। बुढ़ापा है न। रात को हम एक बार बाहर आये। हमने सुना, तीन चार लोग आपस में बात कर रहे थे, जो कोई सेठ का नाम ले रहे थे और उसके किसी काम की बात कर रहे थे। रूक्मणि ने जो सुना था, वह सच-सच बता दिया।

किसी को देखा भी था क्या?'

'नहीं साब! इतनी रात को क्या देख पाते। वैसे भी कम दिखाई देता है अब।'

'तो सुनाई कैसे देता है इस उमर में भी?' पुलिस वाला सख्त आवाज में बोला। 'पता नहीं क्या सुन लिया और चली आयी यहाँ बताने।'

'अरे नहीं साब! ये सब कुछ तो हमने साफ-साफ सुना था। हम झूठ नहीं बोल रहे। रूकमणि ने पुलिसवाले को बीच में ही टोक दिया।

'चल बुढ़िया।' उसने रूकमणि को इपटते हुए कहा 'अगर ये बात फिर से दोहराई, तो तुझे और तेरे बेटे दोनों को जेल में बन्द कर देंगे।'

उसकी डांट सुन रूकमणि सहम गयी, परन्तु उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जब वो सच बता रही है, तो ये लोग हमें डॉट क्यों रहे हैं? राम और उसे जेल में बन्द करने की धमकी सुन वह चुप्पी लगा गयी।

जांच सम्बन्धी खानापूर्ति कर पुलिस वापिस चली गयी और बस्ती में रहने वालों के लिए शेष रह गया राख का ढेर।

उसी सायं को क्षेत्र के सबसे बड़े उद्योगपति सेठ रतनलाल के घर पर एक आलीशान पार्टी का आयोजन था, जिसमें क्षेत्र के सभी नामीगिरामी लोग, सरकारी नुमायन्दे और जन प्रतिनिधि उपस्थित थे। आखिर जिस जमीन पर वर्षों से रतनलाल की नजर थी, वह जल्दी ही उन्हें प्राप्त होने वाली जो थी।

'सर बधाई हो, आखिर वो जमीन खाली हो ही गयी, किन्तु अभी कुछ महीने रुककर ही फैक्ट्री का निर्माण कार्य आरम्भ कीजिएगा, वरना लोगों को इसमें भी षड्यन्त्र की बू आयेगी। वैसे आज भी कुछ ईमानदार किस्म के पत्रकार बाकी हैं, जो सख में से भी खबरें निकाल ही लेंगे। एक सरकारी अधिकारी ने रतनलाल को बधाई देते हुए कहा।

'अरे साहब! सब आपकी कृपा है। अब जमीन मिल ही गयी है, तो रुक जायेंगे, कुछ समय।' फिर सेठ रतनलाल इंस्पेक्टर की ओर देखते हुए बोले किसी को कोई शक तो नहीं हुआ?'

नहीं सेठ जी, बस एक बुढ़िया थी जो कह रही थी कि उसने रात को कुछ लोगों को बात करते हुए सुना था। लेकिन आप चिन्ता मत कीजिए, हमने उसे ढंग से धमका दिया है। मुँह नहीं खोलेगी वह।' दरोगा मुस्कराते हुए बोला।

एक तरफ आधी रात को भी सेठ रतनलाल की कोठी में चहल-पहल थी और दूसरी ओर मजदूरों के परिवार खुले आकाश के नीचे रात बिताने को मजबूर थे। रतनलाल के माथे पर कहीं भी तीन बच्चों के मारे जाने की खबर से शिकन तक नहीं थी। दरअसल जब ये बस्ती बनी थी, तब इस जमीन की कोई कीमत नहीं थी, लेकिन औद्योगिक क्षेत्र घोषित होते ही इसकी कीमत दिन दुगुनी रात चौगुनी होती जा रही थी।

रतनलाल की नजरें कब से इस जमीन पर थी, परन्तु उसे मौका नहीं मिल रहा था। इस बीच उसने सभी सरकारी अधिकारियों और अन्य लोगों से कुछ एक ऐसे समीकरण बनाये कि काम आसानी से हो गया।

अगली सुबह बस्ती के लोगों ने देखा कि जमीन के चारों तरफ तार बाड़ की जा रही है। कुछ लोगों ने पूछने की हिम्मत की तो उन्हें बताया गया कि वे लोग सरकारी जमीन पर कब्जा किये हुए थे, अब यहाँ उनका कुछ नहीं है। अब वे कहीं और जाकर रहें, इसी में उनकी भलाई है।

उन गरीब मजदूरों में इतनी सामर्थ्य कहाँ थी, जो वे सेठ रतनलाल जैसे लोगों से टक्कर लेने की हिम्मत जुटा पाते। वे तो दूर परदेश से दो जून की रोटी कमाने आये थे, किन्तु यहाँ तो अब छत के भी लाले पड़ गये।

तीन-चार माह बाद उसी नदी के किनारे दो-तीन मील दूर एक नयी बस्ती बस चुकी थी, जिसमें रहने वाले मजदूर अपनी पुरानी रिहायशी जगह पर बनने जा रही सेठ रतनलाल की विशाल फैक्ट्री के निर्माण में मजदूरी कर रहे थे।

न जाने किस दिन फिर रतनलाल जैसे किसी सेठ की नजर उनकी इस नयी बस्ती पर पड़े और एक बार फिर उन्हें बेघर होना पड़े, ये बात कोई नहीं जानता। उन बेचारों को तो यह भी नहीं मालूम कि जिस फैक्ट्री को बनाने के लिए वे जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं, उसी के कारण एक दिन उनका आशियाना उजाड़ा गया था। बस कर उजड़ना और फिर से बसना ही जैसे उनकी नियति बन गयी है।


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