जैसे ही घडी की सुइयों ने बारह बजाये और एक-एक करके बाहर बारह घण्टों की आवाज
सुनाई दी, तो शशांक ने सिर ऊपर उठा कर घड़ी की ओर देखा।
'ओफ्फोह! आज फिर बारह बज गये! लगता है घर पहुँचते-पहुँचते एक तो बज ही जायेगा।
पल्लवी फिर मुँह फुलाकर सो गयी होगी,किन्तु क्या करे वह भी? दो दिन बाद ही तो
सेमिनार है, जिसमें सहभागिता हेतु विदेश स्थित किसी कम्पनी के उच्चाधिकारी
यहाँ आ रहे हैं। चूंकि शशांक की कम्पनी को उनसे बहुत अच्छा व्यवसाय मिलने की
उम्मीद है, इसलिए रात-रात भर काम करके सेमिनार की तैयारी हो रही है।
उसने एक अंगड़ाई ली। विदेशी कम्पनी के प्रतिनिधियों के समक्ष प्रस्तावित
प्रेजेन्टेशन की रूपरेखा तैयार हो चुकी थी। उसने घण्टी बजाकर चपरासी को
बुलाया।
'क्यों रामदीन! सब जा चुके हैं या अभी भी कोई बैठा है?'
'साहब, बड़े साहब आधा घण्टा पहले ही गये हैं। अब आप ही ऑफिस में हैं।' रामदीन
बोला।
'ठीक है, अब मैं भी चलता हूँ।'
रामदीन ने शशांक का ब्रीफकेस उठाया और उसे कार पार्किंग तक छोड़ गया। शशांक
इतना थक चुका था कि इस वक्त उसका गाड़ी चलाने का कतई मन नहीं कर रहा था, लेकिन
क्या करता ड्राइवर को तो उसी ने छुट्टी दी थी।
'यहाँ से घर पहुँचने में अभी आधा घण्टा और लगेगा।'
घर पहुँचकर डुप्लीकेट चाबी से उसने घर का दरवाजा खोला और चुपके से घर में
दाखिल हो गया। पल्लवी की सख्त हिदायत थी कि देर रात में पहुँचने पर घण्टी मत
बजाया करो, बच्चों की नींद खराब होती है।
उसके आने की आहट से मामा की नींद खुल गयी।
'साहब, खाना लगाऊँ?'
'नहीं मामा, मैं ऑफिस में खाकर आया हूँ। कहते हुए शशांक अपने शयनकक्ष में चला
गया।
पल्लवी इस सबसे बेखबर गहरी नींद में सो रही थी। शशांक बिस्तर पर लेट गया,
किन्तु नींद उसकी आँखों से कोसों दूर थी।
क्या यही जिन्दगी चाही थी उसने? बचपन से ही पढ़ाई में अब्बल शशांक बारहवीं के
बाद जब देश के नामी तकनीकी संस्थान से इंजीनियरिंग की पढाई अंकों से उत्तीर्ण
की, तो उसके सामने नौकरी के प्रस्तावों की झड़ी सी लग थी। कोई भी अच्छी कम्पनी
इस होनहार इंजीनियर को अपने हाथों से निकल नहीं देना चाहती थी।
शशांक एक मध्यवर्गीय परिवार से था और अपनी योग्यता के अनुसार पैसा कमाने की
चाह रखता था। अपने दोस्तों से सलाह लेकर उसने एक कम्पनी में नौकरी कर ली। यहाँ
उसे चेतन का बहुत अच्छा पैकेज मिला था, किन्तु काम करते-करते सत कब होती थी,
यह पता नहीं चलता। सप्ताह के पाँच दिन तो सुबह से देर रात तक ऑफिस में ही
व्यतीत होते, लेकिन शनिवार तथा रविवार को पूर्ण अवकाश होने के कारण शशांक को
अपने लिए समय मिल जाता। इन दो दिनों में वह दोस्तों के साथ खूब मौजमस्ती करता
और वेतन का भरपूर उपयोग करता।
उसकी प्रतिभा और कमाई को देख कम्पनी ने उसे दो वर्ष के लिए अमेरिका जाने का
प्रस्ताव दिया तो शशांक फूला नहीं समाया। उसके माता-पिता भी अपने पुत्र की
प्रगति से बहुत प्रसन्न थे।
अमेरिका से वापिस लौटते ही शशांक के माता-पिता ने एक सुसंस्कारित परिवार की
सुशील लड़की पल्लवी से शशांक का रिश्ता तय कर दिया। शशांक ने पहले ही घर पर कह
दिया था कि उसे नौकरी वाली लड़की नहीं चाहिए। लड़की पढ़ी लिखी हो ताकि वह घर
को अच्छी तरह से चला सके। साथ ही बच्चों को पर्याप्त समय देकर उन्हें अच्छे
संस्कार दे सके। आर्थिक रूप से किसी मदद की उसे आवश्यकता नहीं थी क्योंकि उसकी
कम्पनी उसे काफी अच्छा वेतन और सुख सुविधाएँ दे रही थी।
विवाह होते ही पल्लवी ने शशांक के बिखरे हुए घर को संभाल लिया। शशांक को अब
लगता कि औरत के बिना घर-घर नहीं होता। विवाह के तुरन्त बाद ही शशांक को
पदोन्नति मिली, तो उसे लगा उसकी जिन्दगी में पल्लवी का आगमन उसके लिए बहुत शुभ
है।
पदोन्नति के साथ-साथ जहाँ उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ती जा रही थी, वहीं दूसरी ओर
घर के लिए उसका समय कम होता जा रहा था। आरम्भ में सप्ताहांत का समय वह पल्लवी
के साथ ही बिताया करता था, लेकिन अब तो काम के दबाव के कारण कभी-कभी यह भी
सम्भव नहीं हो पाता था और सप्ताहांत में भी अधिकांशतया किसी न किसी मीटिंग
अथवा सेमीनार में व्यस्त रहने लगा था।
कुछ ही समय बाद पल्लवी गर्भवती हो गयी, तो शशांक यथासम्भव प्रयत्न करता कि उसे
अपने साथ ही डॉक्टर के पास लेकर जाये, किन्तु ऐन वक्त पर कोई न कोई काम आ जाता
और उसे मन-मसोस कर पल्लवी को अकेले ही जाँच करवाने जान को कहना पड़ता।
पल्लवी ने एक पुत्री को जन्म दिया और उसके पालन-पोषण में व्यस्त हो गयी। अब
उसने शशांक से समय पर न आने की शिकायत करना कम कर दिया था। शशांक को लगा कि
शायद अब पल्लवी उसकी मजबूरियाँ समझने लगी है।
इस बीच शशांक की एक और पदोन्नति हो चुकी थी और उसे मुम्बई स्थित मुख्यालय में
स्थानान्तरित कर एक महत्वपूर्ण विभाग का इन्चार्ज बना दिया गया था।
जैसे-जैसे उसकी व्यस्तताएँ बढ़ती जा रही थी, अपने दिन प्रतिदिन के काम के लिए
उसकी पल्लवी पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी। यहाँ तक कि उसे अपनी जरूरतों का
सामान खरीदने के लिए बाजार तक जाने फुर्सत नहीं मिल पाती थी। कई बार उसे लगता
कि क्या इतना पैसा वह इसलिए कमा रहा है कि उसके अपने पास उसे खर्च करने का
वक्त नहीं है? लेकिन दूसरे ही पल यह सोच कर सन्तोष कर लेता कि वह स्वयं न सही,
उसके अपने तो उस पैसे से एक सुखद जिन्दगी जी रहे हैं।
समय बीतता जा रहा था। पल्लवी अब दो बच्चों की माँ थी। शशांक को बच्चों से बात
करने का भी बहुत कम समय मिलता। सुबह जब वह उठता, बच्चे स्कूल जा चुके होते और
रात को वापिस लौटता तो बच्चे सो चुके होते। कभी जल्दी आने का प्रयास करता तो
ऑफिस से इतने फोन आ जाते कि उसे लगता, इससे अच्छा तो वह ऑफिस में ही ठीक था।
यह सब सोचते-सोचते न जाने कब उसे नींद आ गयी। सुबह उठा तो सिर भारी था।
'रात कब घर आये, मुझे उठा तो देते?' पल्लवी ने पूछा।
'बहुत देर हो गयी थी, सोचा तुम्हें परेशान न करूँ। परसों एक सेमिनार है, उसी
की तैयारी चल रही है। शशांक निरपेक्ष भाव से बोला।
अगले दो दिन बहुत निर्णायक थे। शशांक अपनी कार्यकुशलता एवं वाकपटुता से विदेशी
कम्पनी से एक बहुत बड़ा व्यवसाय प्राप्त करने में सफल रहा था। इसी खुशी में
शाम को एक पार्टी का आयोजन किया गया था।
शशांक ने यह खुशखबरी पल्लवी को फोन पर सुनाई, तो उसने गर्मजोशी से उसे बधाई
दी।
शाम को तैयार रहना! इस खुशी में एक बहुत बड़ी पार्टी दी गयी है। मैं तो घर
नहीं आ पाऊँगा, तुम ड्राइवर के साथ आ जाना। शशांक उत्साहित होकर बोला।
'नहीं शशांक, मैं नहीं आ पाऊँगी? बच्चों की परीक्षाएँ चल रही हैं। अगर अच्छे
नम्बर नहीं आये, तो वे हतोत्साहित हो जायेंगे। प्लीज, शशांक, समझो।' पल्लवी
आहिस्ता से बोली।
'ठीक है।' शशांक ने फोन बन्द कर दिया।
शाम को पार्टी में हर जगह शशांक के चर्चे हो रहे थे। सब इस सफलता का श्रेय
शशांक को ही दे रहे थे।
शशांक सुन कर मुस्कराने का प्रयास कर रहा था, किन्तु इस समय उसे की कमी खल रही
थी। आखिर क्या पाया उसने इतनी भागदौड़ करके? आज सब इस सबका श्रेय उसे दे रहे
हैं, तो उसके अपने इस भीड़ में कहाँ हैं। दो बाद उसके वेतन में कुछ और वृद्धि
हो जायेगी, कुछ और सुविधाएँ बढ़ा दी जायेंगी लेकिन करेगा क्या वह इस वेतन
वृद्धि का? जितना उसे मिल रहा है, क्या उसे खर्च करने का समय है उसके पास?
जिनके लिए वह ये सब जुटाने करने का प्रयत्न कर रहा है, क्या वे लोग हैं उसके
साथ?
शशांक पता नहीं कब अपनी ही धुन में पार्टी से बाहर निकल आया और खिन्न मन से
कार पार्किंग की तरफ बढने लगा। आज सचमुच उसे पल्लवी और बच्चों की बहुत याद आ
रही थी।
अचानक ही उसका मोबाइल बज उठा शशांक कहाँ हो तुम? सी.एम.डी. साहब कब से तुम्हें
तलाश कर रहे हैं। तुम्हें व्यक्तिगत तौर पर मिलना चाहते हैं। जल्दी पार्टी हॉल
में पहुँचो।' शशांक के सहयोगी विशाल का फोन था।
'अभी आया, मैं बस हॉल के बाहर ही खड़ा हूँ। और शशांक वापिस हॉल की ओर मुड़
गया।
'अब कोई चारा नहीं है शशांक ! तुम्हें अब इसी दुनिया में और ऐसे ही रहना है।
तुम्हें इन सबकी और इन्हें तुम्हारी आदत जो पड़ चुकी है। चाह कर भी इस
चक्रव्यूह से निकलना अब तुम्हारे लिए सम्भव नहीं है। शशांक मानो अपने आप से कह
रहा था।
'पल्लवी मुझे माफ करना। मन ही मन कहता हुआ शशांक एक बार फिर हॉल के अन्दर था,
जहाँ तालियों की गड़गड़ाहट के बीच फूल मालाओं के साथ उसका स्वागत-सम्मान किया
जा रहा था।