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कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक

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रिश्ते भी मुट्ठी से रेत की तरह रीत जाते हैं, यह मुकेश ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। उसके लिए तो रिश्ते बगैर जीवन की कल्पना ही बेमानी थी। मामा-मामी न होते, तो आज शायद वह भी नहीं होता। इस भोगे यथार्थ ने उसके पोर-पोर में रिश्ते के लिए आस्था जगा दी।

और फिर ये रिश्ता! ये तो जीवन साथी का रिश्ता था। अटूट। साथ जीने और साथ मरने का।

माँ भी यही सीख दे गयी। पिता चल दिये, तो वह भी साथ-साथ चल दी।

जीवन साथी ही नहीं, तो फिर जीवन कैसा!

यह जुनूनी जज्बा उसे विरासत में मिला था। तभी तो रिश्ते की इस डोर ने जरा बल क्या खाया, उसके जीवन की डोर ही टूट गयी। वह पागलों सा बदहवासी में रोये, बड़बड़ाये जा रहा था-

'किस जनम की सजा दे गयीं तुम अरु!

मेरा प्यार, मेरे जज्बात, मेरी कुर्बानी; क्या सब बेमानी हो गये? ये जन्मों का रिश्ता, नूपुर का वास्ता भी क्या सब ढोंग था? क्या हम कोई पाप कर बैठे थे, जो तुमने हमारी अमानत को कोख से काट फेंका और चलती बनीं?

मर क्यों नहीं गया मैं, यह सब देखने से पहले।

चोट खाये पंछी सा वह जमीन पर फड़फड़ाता रहा और फिर कलेजा चीरती गहरी सिसकियों को अन्दर कहीं गहरे में समेट वह हमेशा के लिए मौन हो गया।

पर अरुणिमा, अब वो अरुणिमा नहीं रही, जो उम्मीद के सुर से सुर मिलाती। उसकी अब अपनी अलग ही लय-ताल थी। मर्यादित ग्रामीण परिवेश से आयी इस छुई-मुई सी बाला को आज शहरी उन्मुक्त जीवन ने बिल्कुल ठूँठ और स्वार्थी बना दिया था। इस कदर कि आड़े आने पर वह रिश्ते को भी ठोकर मारने से गुरेज नहीं करती।

वह टस से मस नहीं हुई। ढीठ और उपहास भरे लहजे में उसने ऐसे मँह बिचकाया मानो कह रही हो, 'ढोंग है ये सब। कोई किसी के लिए नहीं मरता। फिर उसने ऐसा क्या अनर्थ कर दिया। अगर अपने लिए सोचना पाप है तो उसे अपने. किये पर कोई अफसोस नहीं। .

वह आगे कुछ बोलती, अचानक नूपुर की चीख से उसकी नींद टट गीत हड़बड़ाकर उठ बैठी। घड़ी देखी, रात के दो बज रहे थे। वह सोच में पड़ गयी-

'ये क्या देखा मैंने। आज जब मुकेश को गये पूरा साल होने को आया है। अचानक ये सपना कैसा! वह भी इस तरह का।' वह सिहर उठी। मन अन्तर से उद्वेलित हो उठा।-'कहीं यह मुकेश की भटकती आत्मा तो नहीं, जो मझे और झिंझोड़ रही हो। मेरे किये अपराधों का मुझे अहसास दिला रही हो। जाने-अनजाने अतीत में मुकेश को पहुँचाई पीड़ा का हर वाकया आज उसकी जेहन में तरोताजा हो आया। पहली बार उसे लगा-'कितना बड़ा अपराध है वह!'

'काश! आज मुकेश जिन्दा होता, तो मैं अपने किये की माफी माँगकर उसके सारे गिले-शिकवे दूर कर देती।'

अरुणिमा अपने को कोसने लगी। परन्तु जिन्दगी कोई 'रफ कापी' तो है नहीं, जो जब चाहे फेयर कर ले। यहाँ जो बीत गया, वह कभी नहीं लौटता। यही जिन्दगी है।

मुकेश अब बस यादें बनकर रह गया। बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया, तो मामा-मामी ने ही उसे पाला-पोसा। बी.ए. कराया और दो रोटी कमाने लायक बना दिया। एक सरकारी दफ्तर में नौकरी पा गया वह। एक दिन मामा के साथ देवी पूजन के लिए गाँव गया, तो वहीं अचानक अरुणिमा से भेंट हो गयी।

वह उसे देखकर वह ठगा सा रह गया।-हाथ कितनी फुर्सत में गढ़ा हो गढ़ने वाले ने इसे। तारुण्य से आपूरित, सुन्दरता की साक्षात् देवी। पहली मुलाकात, लेकिन लगा जैसे जन्मों का रिश्ता है। ऐसा सौन्दर्य कभी देखा ही नहीं। सुर्ख गोरा रंग, गुलाब से गमकते गाल, बड़ी बोलती आँखें, पहाड़ी नदी सी चंचल बलखाती पर निर्मल, निष्कलंक। रूप-रंग का अद्भुत संगम। प्यारी सी यह मूरत आँखों से उसके दिल में उतर गयी।

दो-तीन दिन गाँव रहकर मुकेश शहर लौट तो आया, लेकिन मन उसका हर पल वहीं विचरते रहता। वह उसे पाने को बेताब हो उठा।

इधर नौकरी लगे दो साल से ऊपर हो गये, तो मामा को भी उसकी शादी की चिन्ता सताने लगी। वह अपनी इस आखिरी जिम्मेदारी से भी मुक्त हो जाना चाहते थे।

मामी से वो बोलते, 'बस यही एक बड़ी जिम्मेदारी रह गयी है। समय पर घर-गृहस्थी बस जाये तो आगे झंझट नहीं रहती। अपने हाथ-पाँव चलते बच्चे जिम्मेदारी सम्हाल लें, ठीक रहता है।'

शाम को मुकेश ड्यूटी से घर लौटा तो मामी जैसे इन्तजार में ही बैठी थी। मामा जी पड़ोस में कहीं बैठने गये थे। मामी जी ने चाय बनाई और फिर बातों ही बातों में यह जिक्र भी छेड़ दिया, 'बेटा घर में बहू आ जाती तो मुझे भी कुछ आराम मिल जाता। हम लोग अब बूढ़े हो चले हैं। खाली घर काटने को आता है। बाल बच्चे होंगे तो हमारा भी मन लगा रहेगा। मामाजी को तो हर पल तुम्हारी शादी की ही चिन्ता रहती है। बेटा अब उम्र भी हो गयी है। क्यों ना अच्छी लड़की तलाश कर तुम्हारी शादी करवा दें।'

मुकेश को जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गयीं। वह तो कई दिनों से उलझन में था कि कैसे मामा-मामी से बात छेड़े। आज मामी ने खुद ही सारी उलझन दूर कर दी तो वह हाथ आया यह मौका क्यों गँवाता। उसने झट अरुणिमा का प्रस्ताव रख दिया।

उसके चेहरे की चमक देख मामी को सारा माजरा समझते देर नहीं लगी। बोली, 'बेटा ये काम इतनी जल्दबाजी के नहीं होते। ये कोई चीज तो है नहीं कि देखी और उठा लाये। फिर पसन्द नहीं आयी तो वापस कर आये। ये जीवन का सवाल है और जीवन के फैसले दिल से नहीं दिमाग से होते हैं। इसलिए जो भी करो, खूब सोच समझकर करो। ताकि आगे पछताना न पड़े। फिर हम शहर के लोग हैं। हमें शहर व आस पड़ोस भी देखना है। लोग क्या कहेंगे। यही कि इन्हें शहर से कोई लड़की ही नहीं मिली। फिर अरुणिमा, पढ़ी लिखी भी नहीं है। शहर में कैसे निभा पायेगी। बाकी जैसे तुम्हारे मामाजी कहें। मैं तुम्हारी बात उन तक पहुँचा दूँगी।' यह कहकर मामीजी रात के खाने की तैयारी में लग। जब तक मामा जी लौटते बात आयी-गयी हो गयी। रात में सोते समय मामी ने मामाजी को सारी बात बता दी।

अगली सुबह चाय पर मामा ने उसे समझाया, 'बेटा पसन्द ही सब कुछ नहीं होती। और भी बहुत कुछ देखना पड़ता है। तुम्हारी मामी ने मुझे सब कुछ बता दिया है। भावुक मत बनो। पढ़े-लिखे हो दिमाग से काम लो। पति-पत्नी जीवन की गाड़ी के दो पहिए होते हैं। जानते हो एक भी कमजोर हुआ तो क्या हन होगा। इसलिए जो भी जीवन साथी चुनो, उसे सोच समझकर चुनो। अपनी रीत-नीत, अपने परिवेश का भी खयाल रखो। और यह गाँठ बाँध लो-बच्चों की पहली गुरु माँ होती है। असली शिक्षा, संस्कार उन्हें वही देती है। इसलिए यह तुम पर है कि तुम कैसी सन्तति, कैसी सन्तान चाहते हो।

लेकिन मुकेश की एक ही रट थी, शादी करूँगा तो सिर्फ उसी से।

उसकी जिद देख मामा-मामी ने हथियार डाल दिये। मुकेश को जैसे सबकुछ मिल गया। जल्दी ही शादी भी हो गयी। नये लोग, नया परिवेश, इसलिए शुरू में तो वह काफी डरी-सहमी सी रहती। पर धीरे-धीरे वह मुकेश को नचाने लगी। जोर-जबर्दस्ती कर उसने वहाँ से कमरा भी बदलवा लिया ताकि आजादी से रह सकें। मामा-मामी को बताया तो वे भी मना नहीं कर पाये, बोले, 'बेटा जिन्दगी तुमने गुजारनी है। जहाँ भी रहो, बस राजी-खुशी रहो।'

अरुणिमा पर यहाँ अब कोई बंदिश भी नहीं रही। खुलकर मुकेश से बातें होती। धीरे-धीरे मुकेश को लगा कि वह दिमाग की तेज है और उसे पढ़ने का शौक भी है। गाँव में वह आठवीं जमात तक ही पढ़ पायी थी। लिहाजा उसने उसे दसवीं का फार्म भी भरवा दिया। वह ढंग से पढ़ाई कर सके इसके लिए मुकेश घर के कामों में हाथ भी बँटा देता। यहाँ तक कि इम्तहान के दिनों में उसने ऑफिस से छी भी ले ली। अच्छे अंकों से वह हाईस्कूल पास हो गयी, तो उसका आत्म-विश्वास और बढ़ गया।

एक साल बाद अरुणिमा ने बिटिया नूपुर को जन्म दिया, तो मुकेश की खशी की सीमा न रही। यह खुशी उसने अरुणिमा से बाँटनी चाही तो वह बड़े नैराश्य भाव से बोली, 'नूपुर के आने से मैं अब आगे नहीं पढ़ पाऊँगी। हमें कुछ समय रुकना चाहिए था।'

अरुणिमा के ये शब्द मुकेश को अन्दर तक हिला गये। उसे लगा अरुणिमा पढ़ाई को कितना तवज्जो देती है। उसने सब कुछ छोड़ अब उसके इंटर की तैयारी शुरू करवा दी। परन्तु इसके बाद जब उसने ग्रेजुएशन के लिए कालेज में प्रवेश लेने की जिद की, तो वह बड़ी उलझन में पड़ गया।

उसने समझाया, 'लेकिन नूपुर, तो अभी बहुत छोटी है। उसे घर में कौन देखेगा। उसका सबाल पूरा हुआ भी नहीं था कि अरुणिमा बीच में ही बोल पड़ी-

'इसकी मैंने सारी व्यवस्था कर ली है। शहर में ऐसे कई क्रैच हैं, जहाँ बच्चों की दिनभर देख-भाल होती है। नूपुर भी दिन में वहीं रह लेगी।'

मुकेश को जैसे साँप सूंघ गया। आमदनी इतनी थी नहीं कि वह अरुणिमा के कालेज की पढ़ाई के साथ-साथ नूपुर के क्रैच का खर्चा भी उठा सके। उसने अरुणिमा को बहुत समझाया पर वह नहीं मानी।

इसको लेकर कई दिनों तक घर में तनाव रहा। दोनों के उतरे चेहरे और हाव-भाव देखकर एक दिन घर आयीं मामी ने मुकेश से माजरा पूछा, तो उसने सारी बात मामी के सामने रख दी।

'अरे इतनी सी बात में तुम लोग लड़ रहे हो। इसमें दिक्कत क्या हैं। नूपुर मेरे पास रह लिया करेगी। बच्चे के साथ मेरा भी मन लगा रहेगा। उसका मन पढ़ने का है तो उसे पढ़ने दो।'

मुकेश की बड़ी उलझन सुलझा दी मामी ने। लेकिन घर की माली हालत थोड़ा और सुधर जाये, यह सोचकर मुकेश ने अब पार्ट-टाइम काम भी शुरू कर दिया।

अरुणिमा ने कॉलेज में प्रवेश ले लिया। दोनों की दिनचर्या बदल गयी। अरुणिमा अपनी पढ़ाई-लिखाई में व्यस्त रहती, तो मुकेश घर का खर्चा-पानी जुटाने के जुगाड़ में लगा रहता। कई दिन तक तो ऐसा होता कि दोनों के बीच फुर्सत से बात तक न हो पाती।

इधर अब नूपुर ने भी स्कूल जाना शुरू कर दिया था। अरुणिमा ने बी.ए. के बाद एम.ए. में प्रवेश ले लिया। अब तो वह क्या कर रही है इसका मुकेश से जिक्र तक नहीं करती। हद तो तब हो गयी, जब वह मुकेश को बताये बिना ही गर्भपात करवा आयी। दूसरे बच्चे का ख्वाब पाले मुकेश को बाद में पता चला, तो वह बुरी तरह टूट गया।

अरुणिमा को अब अपने भविष्य के आगे किसी की परवाह नहीं थी। यहाँ तक कि मुकेश उसकी पढ़ाई का खर्चा उठाने के लिए कैसे दिन-रात मर-खफ रहा इसकी भी उसे तनिक चिन्ता नहीं। बल्कि अब तो वह जितनी आगे बढ़ रही थी, मकेश उतना ही पीछे छूटता जा रहा था। हालत यह हो गयी कि अब उसे मुकेश का रहन-सहन उसके तौर-तरीके भी अखरने लगे। गाहे-बगाहे वह मुकेश को टोक दिया करती। कभी-कभी तो वह यह भी नहीं देखती कि सामने कोई बाहर वाला भी खड़ा है। मुकेश के लिए यह असह्य होता जा रहा था। लेकिन गृहस्थी में कहीं कोई दरार न आये, इस प्रयास में वह सब कुछ चुपचाप सहन कर जाता।

एम.ए. फिर पीएच.डी. अरुणिमा सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ती जा रही थी। रिसर्च के दौरान तो अब अरुणिमा को कुछ रकम भी मिलने लगी थी। इससे अब मुकेश पर उसकी निर्भरता भी कम होती जा रही थी।

पीएच.डी. कर अरुणिमा उसी महाविद्यालय में प्रवक्ता पद पा गयी। उसकी आकांक्षाओं, महत्त्वाकांक्षाओं की उड़ान अब आकाश की ऊँचाइयों को छूने लगी थी।

इसी बीच अरुणिमा की मुलाकात प्रोफेसर शेखर से हुई। कुछ ही दिनों में वह उसकी प्रतिभा के कायल हो गये। एक दिन उन्होंने अरुणिमा को बताया कि अमेरिका में तो उस जैसी प्रतिभाशालियों के लिए तमाम मौके हैं। यह सुन उसकी उड़ान को और पंख मिल गये।

इधर मुकेश से अब अपने मामलों में अरुणिमा कम ही सलाह लेती थी। बल्कि अब तो वह मुकेश को इस लायक भी नहीं समझती थी कि वह उसे सलाह दे सके। किन्तु इस बार तो मुकेश से पूछना ही था। अमेरिका में उसे जॉब की अनुमति मिल गयी थी। वह इस मौके को किसी सूरत में गवाना नहीं चाहती थी। परन्तु मुकेश तो क्या मामा-मामी व और लोग भी उसके बाहर जाने के कतई पक्ष में नहीं थे।

सबके समझाने के बावजूद वह चली गयी। छह माह बाद ही वह नूपुर को भी अपने साथ ले गयी। जब तक नूपुर मुकेश के साथ थी, तो कभी-कभी अरुणिमा फोन कर लेती या पत्र भेज देती। किन्तु अब नूपुर के जाने के बाद तो उसने यहाँ से सम्पर्क ही समाप्त कर दिया था।

इससे मुकेश बिल्कुल ही टूट गया। उसे अपनी जिन्दगी बेईमानी लगने लगी थी। एक दिन इसी हताशा में उसने खुद ही मौत को गले लगा लिया। यह दुःखद सूचना तो अरुणिमा तक पहुँचानी ही थी। जैसे-तैसे हिम्मत जुटाकर, बहुत ही भारी मन से मामा जी ने उसे फोन किया और यह सूचना दी, पर अरुणिमा कहाँ आती? वह अब अपनी अलग ही दुनिया में मग्न हो गयी थी।

इसी बीच प्रोफेसर अमन से उसकी नजदीकी हो आयी। वह पढ़ाई के दिनों से ही अमेरिका में थे। वहीं एक अमेरिकी लडकी से विवाह हुआ, लेकिन उसकी स्वच्छन्दता से तालमेल न बिठा पाने के कारण जल्द ही तलाक हो गया।

इधर अमन और अरुणिमा एक-दूसरे के और करीब आ गये। लेकिन विवाह के बारे में अभी वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे।

इसी बीच अरुणिमा को भारत से मुकेश के मामाजी का लम्बा-चौड़ा पत्र मिल इस में उन्होंने मुकेश के चले जाने से पूर्व की उसकी सारी व्यथा-कथा शो अंकित करने का प्रयास किया था। बहुत भावुक होकर उन्होंने लिखा था-

'बेटी! अगले महीने हम उसका श्राद्ध करने जा रहे हैं। उसकी दुःखद मौत पर तो तुम न आ पायी, पर इस समय आ जाओगी, तो शायद उस अभागे की भटकती आत्मा को शान्ति मिल सकेगी।'

उनके इस अनुरोध का कुछ असर दिखा। पढ़ते-पढ़ते वह सोचने लगी कि कितने सालों से वह अपने देश नहीं गयी है। इस मौके पर नूपुर को लेकर चली ही जाये, तो ठीक रहेगा। पत्र पढ़कर उसने सोचा कि कल ही अमन से इस बारे में बात कर लेगी।

क्या जरूरत है जाने की? अगर पुराने सम्बन्धों से इतना लगाव रखोगी, तो आगे नहीं बढ़ पाओगी। जो छूट गया उसे छूट जाने दो।'

अमन के इन रूखे शब्दों ने अरुणिमा को विचलित कर दिया। वह सोचने लगी, जो इंसान अतीत के रिश्तों को इतनी सहजता से तिलांजलि दे सकता है, क्या वह उसके साथ ईमानदारी से रिश्ता निभा पायेगा?

वह उससे तो कुछ नहीं बोली लेकिन मन ही मन उसने भारत जाने का निश्चय कर लिया। पर मन में आशंका थी न जाने वहाँ उससे कैसा बर्ताव हो। आखिर मुकेश की अप्रत्याशित मौत का अप्रत्यक्ष कारण तो वह खुद थी ही। खैर, देखा जायेगा, मन मजबूत कर वह चल दी।

यहाँ पहुँची तो देखा सब कुछ उसकी सोच के बिल्कुल उलट था। उसे देखते ही मामा की आँखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी। कुछ बोले बगैर वह अन्दर चले गये। पास ही खड़ी मामी ने उसे गले लगा लिया। बोली

'बेटी! तू मुकेश को नहीं समझ पायी। तुम लोगों के जाने के बाद तो वह पागल सा हो गया था। लोग तेरे लिए कुछ कहते तो वह भड़क उठता। लोग उसे समझाते कि तुमने अपने स्वार्थ के लिए उसे इस हाल में छोड़ दिया, तो भी वह तेरा ही पक्ष लेता।' कहते-कहते वह फफक पड़ी। धोती के किनारे से अपनी आँखें पोंछते हुए आगे बोली-

'लोगों के व्यंग्य बाण तो वह सह भी लेता, लेकिन तुम्हारी बेरुखी से वह बिल्कुल ही टूट गया। नूपुर को तो वह आखिरी समय तक पुकारता रहा।'

किसी तरह मन मजबूत कर मामा अन्दर से लौट आये, बोले-'अच्छा किया बेटी जो तू इस समय आ गयी। लोगों का मुँह बन्द हो जायेगा और मुकेश की आत्मा को भी शान्ति मिलेगी।' अरुणिमा अन्दर से बहत बेचैन हो उठी। जिस इंसान को हमेशा अपनी स्वार्थ सिद्धि का साधन भर समझा। उसने कभी उसके खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा। और फिर ये मामा-मामी, जिन्होंने इतना सबकछ होने के बावजूद सारे अपराधों से उसे मुक्त कर दिया।

वह ऐसे लोगों को छोड़ किनके बीच रह रही थी, वह सिहर उठी। उसके सामने मुकेश के साथ बिताये गये एक-एक पल चलचित्र की भांति घूम गये। उसे याद आया जब वह ब्याह कर गाँव से शहर आयी थी तो किस तरह मुकेश उसे शहर के तौर-तरीके समझाया करता था। उसके पढ़ाई के समय स्वतः ही नौकरी के साथ-साथ घर के कामकाज भी बखूबी सँभाल लेता था।

अरुणिमा को यहाँ आये दो-तीन दिन हो चुके थे। इन दिनों में किसी न किसी बहाने मकेश का जिक्र आ ही जाता। जिन बातों पर उसने कभी साथ रहकर भी गौर नहीं किया. वही बातें आज उसका अन्तर्मन कचोट जाती। मन में प्रश्न उठते-क्या करे अब? वापस विदेश चली जाये या यहीं रहकर जाने-अनजाने में किये गये अपने पापों का प्रायश्चित करे। नूपुर के मन की टोह लेनी चाही तो उससे सुखद प्रतिक्रिया मिली-'दादा-दादी बहुत अच्छे हैं माँ! अमेरिका में तो इतना प्यार-दुलार लुटाने वाले होते ही नहीं।' इतना सुनते ही बेटी को गले से लगा लिया अरुणिमा ने खुद को धिक्कारा-'इन प्यार और स्नेह भरे रिश्तों को छोड़कर कहाँ भटक रही है तू!'

उसने तय कर लिया कि अब वह इन सबको छोड़कर कहीं नहीं जायेगी। यहीं रहेगी, अपने माता-पिता समान मामा-मामी के पास और इन्हीं की सेवा में अब अपनी बाकी की जिन्दगी गुजार देगी। अपने अब तक के किये गये अपराधी का प्रायश्चित्त शायद वह इसी तरह कर पाये।


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