सर्दियों की खुशनुमा सुबह, बाहर लॉन पर गुनगुनी धूप पसरी थी। दिल्ली जैसी धुंध
और कोहरे भरी सर्दियों में ऐसी खिली-खिली धूप विरले ही नसीब होती है।
काम निपटाकर, कन्धे पर शॉल डाले मैं बाहर लॉन में चली आयी। घण्टा भर हो गया था
निशीथ को। सुबह की सैर पर निकले। पता नहीं अब तक क्यों नहीं लौटे? यहीं देखने
मैं बाहर आयी तो नजर पड़ी सामने लॉन के एक कोने पर वह किसी महिला से बतियाने
में मस्त थे।
महिला भी ट्रेक सूट में थी तो मैंने अन्दाजा लगा लिया। वह भी सैर पर ही निकली
होगी और हो गया होगा परिचय। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम चिपक ही जाओ।
निशीथ की यही आदत मुझे शुरू से अखरती रही है। जहाँ औरतें देखीं वहीं चिपक लिए।
यह उनकी हमेशा से ही कमजोरी रही है। वैसे भी महिलाएँ हमेशा से उसकी कमजोरी रही
हैं। आज फिर उन्हें किसी महिला के साथ देख मन कड़वाहट से भर गया। क्या हम शहर
के कोलाहल से दूर यहाँ इसीलिए छुट्टी मनाने आये थे! मैं गुस्से में तमतमाई
वहीं कुर्सी पर पीठ घुमाकर बैठ गयी।
निशीथ और मैं दोनों ही बहुराष्ट्रीय कम्पनी में थे। काम का बोझ इतना कई दिनों
से अपने लिए फुर्सत ही नहीं निकाल पा रहे थे। घर पर छुट्टी लेकर रहो, तो दिन
भर घनघनाते फोन छुट्टी का अहसास ही नहीं होने देते।
यही सोचकर मैंने और निशीथ ने हफ्ते भर का अवकाश लेकर शिवालिक पहाड़ियों में
स्थित खूबसूरत हिल स्टेशन मसूरी जाने का निश्चय किया। निशीथ ने टूर ऑपरेटर को
पहले ही समझा दिया था कि रहने का स्थान शहर से कुछ दूर एकान्त में हो तो
अच्छा।
इस बात का पूरा ध्यान रख उसने मसूरी से दस-बारह किलोमीटर दूर पहाड़ों। की
सुन्दर वादियों के बीच एक रिजार्ट में हमारे रहने की व्यवस्था कर दी।
सर्दियाँ थीं, लिहाजा भीड़-भाड़ न के बराबर थी। रिजार्ट के मालिक ने पानी केत
को रोक कर झील में परिवर्तित कर दिया था और वहाँ सर्दियों की धूप में बोटिंग
का आनन्द लिया जा सकता था।
शान्ति इतनी कि पानी का कल-कल करता स्वर ही इसे भंग करता। चारों ओर बाँज के
जंगल। जड़ों का पानी इनका इतना मीठा कि आदमी बोतल बन्द पानी पीना छोड़ दे।
सचमुच कितनी खुश थी यहाँ आकर मैं। किन्तु निशीथ ने सारा कबाड़ा कर दिया। फिर
वही हरकत, मन खराब हो गया।
वह लौटे तो मेरा चेहरा देख सारा माजरा समझ गये। उन्होंने जोर से ठहाका लगाया
और शरारती अन्दाज में बोले। 'अरे, कल ही तो इस रिजार्ट में आयी वो, कुछ पूछ
रही थी, तो रुककर बताना ही पड़ा। कल से तुम भी सैर पर चला करो। बहुत अच्छा
लगेगा और मुझे अकेला भेज तुम कुढ़ने से भी बच जाओगी। मेरा पारा गरम देख निशीथ
फिर मनुहार पर उतर आये।
खैर मैंने भी बात को तूल न देकर, टाल देना ही उचित समझा। कुछ देर लॉन में बैठ
चाय पीकर हम अन्दर कमरे में चले आये।
थोड़ी ही देर में कमरे की सफाई के लिए नित्य आने वाली महिला आ गयी। निशीथ
नहाने चले गये, तो मैं उस महिला से बतियाने लगी।
महिला पास के ही किसी पहाड़ी गाँव की रहने वाली थी। उसका बीस वर्षीय बेटा उसी
रिजार्ट में काम कर रहा था। साथ ही वह कॉलेज की पढ़ाई भी कर रहा था।
'मैंने पूछा, तुम्हारे पति क्या करते हैं?'
बोली, 'मैम साहब! वो गाँव में ही रहा करते हैं, बीमार रहते हैं, उमर काफी है
ना। 'कितनी उम्र है उनकी और किनके साथ रहते हैं वो गाँव में? मैं अपनी
जिज्ञासा छुपा नहीं पायी।
'सत्तर से तो ऊपर ही होंगे। बड़ी वाली के साथ रहते हैं वहाँ।'
'बड़ी वाली?' मैं चौंकी, 'मतलब दूसरी बीवी! उसने हैंसते हुए समझाया और फिर जो
कुछ बताया, मैं हैरत में पड़ गयी।
बोली, 'वह अपने माता-पिता के इकलौते बेटे थे। पहले शादी से उनकी तीन औलादें
हुईं। तीनों बेटियाँ। दीदी रोज सास-ससुर के ताने सुनती, मानों बेटियाँ जनने के
लिए वही जिम्मेदार हो। हर दिन वही किच-किच।
फिर वंश का वास्ता देकर उन्होंने उन्हें दूसरे विवाह के लिए मनाना शुरू किया।
पर वह टस से मस न हुए।
समय बीतता गया। बेटे ने उनकी बात नहीं सुनी, तो वह बहू के पीछे पड़ गये हाथ
धोकर।
'अब तू ही मना उसको दूसरी शादी के लिए। हमारा तो कुल ही खत्म हुआ जा रहा है,
वंश बेल ही सूख रही है। फिर भी बात न बनी, तो वे भावनाएँ भड़काने पर उतर आये,
बोले, 'तू तो बीवी है उसकी। तू ही समझा। हमारा कैसे बढ़ेगा खानदान।' जब वह भी
पीछे पड़ गयी तो वह राजी हो गये।
'इसी बीच बड़ी बेटी भी ब्याहने लायक हो गयी, तो पहले उसके हाथ पीले किये गये।
फिर अपनी ढूँढ-खोज चली। पिता जी से सम्पर्क हुआ। बातचीत हुई। पता चला वह उम्र
में तीसेक साल बड़े हैं। पर वह राजी हो गये। घर में दो के खाने के भी लाले
पड़े थे। क्या करते, कम से कम दहेज तो नहीं देना पडेगा माता-पिता ने आपस में
यही सलाह-मशविरा कर मेरी शादी कर दी।'
मैं हैरान थी सुनकर। फिर पूछा, तो तुम्हारी सौतन ने तुम्हारे साथ कभी बूरा
व्यवहार नहीं किया ? कैसे रहते हो तुम दोनों इकट्ठे।'
पर उसका जवाब, मुझे लाजवाब कर गया। बोली, 'नहीं मैम साहब! वो बहुत अच्छी हैं।
मुझे बहुत प्यार करती हैं। मेरे बेटे को तो उन्होंने ही पाला-पोसा है। शादी के
साल भर बाद ही मैं माँ बन गयी। सास-ससुर के बरसों के अरमान पूरे कर मैंने बेटा
जना, तो पूरे घर में खुशी की लहर दौड़ गयी। सास-ससुर और बेटियों को तो खेलने
के लिए जैसे खिलौना मिल गया।'
फिर वह फख्र से बोली-उनका वंश उजड़ने से बचा लिया मैंने। इसलिए उनकी नजर में
मेरी अहमियत बढ़ गयी। मैं घर परिवार की चहेती हो गयी। बड़ी ने बच्चे के
लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। पति भी खुश थे। उन्हें उसमें
बुढ़ापे का सहारा नजर आने लगा। मैं हैरान थी सुनकर कि बेटा सौतेली माँ को माँ
और अपनी माँ को छोटी माँ कहता, लेकिन छोटी के माथे पर कोई शिकन तक नहीं।
इधर अब सुकून मन में लिए सास-ससुर एक-एक कर स्वर्ग सिधार गये। दोनों बेटियों
का विवाह भी यथायोग्य वर ढूँढकर कर दिया। बेटे की बारहवीं तक की पढ़ाई तो गाँव
के पास ही हो गयी, लेकिन वह कॉलेज पढ़ना चाहता था, जिसके लिए गाँव से रोज
आना-जाना सम्भव नहीं था। घर की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी न थी।
वह बोली, 'बेटे ने पढ़ाई के साथ-साथ इसी रिजार्ट में सुबह-शाम का काम भी कर
लिया, तो आगे की पढ़ाई सम्भव हुई। मालिक ने आउट हाउस में रहने को जगह दी तो वह
बड़ी माँ को साथ ले आया।
कुछ दिन वह वहाँ पर रही, लेकिन सारी जिन्दगी गाँव में बिताने के बाद यहाँ का
जीवन उन्हें रास न आया। बेटे को अकेले नहीं छोड़ना चाहती थी लेकिन मजबूरी में
पति के पास वापस गाँव लौट गयी और फिर मुझे यहाँ भेज दिया। मैम साहब! बेटा दिन
में कॉलेज जाता है, मैं अकेली क्या करती? इसलिए छोटा-मोटा काम कर लेती हूँ।
'तुम्हें बुरा नहीं लगता, तुम्हारा बेटा तुम्हें छोटी माँ और किसी और को माँ
कहता है? मैं अभी भी उसकी बात पचा नहीं पा रही थी।
'किस बात का बुरा मैम साहब! वह माँ ही तो है उसकी, और मैं छोटी हूँ, तो मुझे
छोटी माँ ही तो कहेगा। बहुत प्यार करती है वो उसे।' और अपनी सौतन का याद कर
उसकी आँखें छल-छला आयीं।
मैं हतप्रभ थी। उससे किसी तरह उगलवाना चाहती थी कि अपने पति और बच्चों के साथ
दूसरी औरत को बाँटने का दर्द है उसे !
'तुम्हें कभी ऐसा नहीं लगता कि तुम अपने पति और बच्चे को दूसरी औरत के साथ
बाँट रही हो?'
दूसरी औरत तो मैं हूँ मैम साहब! मैं ही तो बाद में आयी थी। लेकिन मुझे तो इस
घर में इतना प्यार मिला कि मुझे कभी दूसरी होने का अहसास ही नहीं हुआ। दीदी तो
देवी हैं। और वह एक बार फिर भावुक हो गयी।
मैं लाख कोशिश के बाद भी उसके अन्दर से स्त्रियोचित ईर्ष्या के कोई भाव नहीं
पा सकी थी। कैसी औरत है ये जो अपने पति और बच्चे को दूसरी औरत के साथ बाँटने
के बाद भी खुश है। कितनी विशाल हृदया है ये। एक मैं हूँ जो निशीथ को किसी और
औरत के साथ बात करते भी देखती हूँ तो ईर्ष्या से सुलग उठती हूँ। किसी और के
साथ निशीथ को बाँटने की तो सोच भी नहीं सकती।
मन ही मन उस अनपढ़ औरत से भी ईर्ष्या हो आयी। बिना किसी तनाव के कितने सुकून
की जिन्दगी बिता रही थी वह।
मुझे अपनी ही सोच में छोड़ वह सफाई कर कब बाहर निकल गयी, मुझे पता भी नहीं
चला। अचानक तन्द्रा टूटी। कितनी देर हो गयी निशीथ को, अभी तक आये नहीं। बाथरूम
की ओर झाँका, तो वहाँ कोई न था।
मैं दरवाजा खोलकर बाहर निकल आयी। लॉन पर नजर गयी तो देखा निशीथ फिर किसी महिला
के साथ बतियाने में मस्त थे।
गुस्से में जोर से दरवाजा बन्द कर मैं अन्दर चली आयी।
थोड़ी देर पहले ही मिली उस विशाल हृदया महिला की सीख सब दिल-दिमाग से उड़ गयी।
याद था तो सिर्फ निशीथ का किसी अजनबी महिला से हँस-हँस कर बातें करना। मन फिर
कड़वाहट से भर गया था।