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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


रात के सन्नाटे को तोड़ती गोलियों की आवाज आयी तो महक चीख उठी-प्रखर S S S। मुझे उसके पास जाने दो प्लीज। सुरक्षाकर्मियों का घेरा तोड़ महक ने उस ओर निकल-भागने की कोशिश की जिधर से गोलियों की आवाज आयी थी। किन्तु सुरक्षा कर्मियों ने उसे वहीं पर रोक लिया।

'पागल हो गयी हैं आप? होटल पर आतंकवादियों का कब्जा है। आपके पति होटल के किसी कोने में सुरक्षित होंगे। आप हमारी परेशानियाँ और मत बढ़ाइये।' एक सुरक्षाधिकारी ने समझाने के साथ-साथ महक को थोड़ा झिड़क भी दिया, तो उसकी आँखें भर आयीं।

अभी दस दिन पूर्व ही तो विवाह की डोर में बंधे थे वे। और दो दिन पहले ही वे घूमने मुम्बई आये थे। कल सुबह उन्हें गोवा के लिए निकलना था कि तभी यह हादसा हो गया।

दिन भर वह घुमे और ढेर सारी शॉपिंग की। अँधेरा घिरने पर एक हाथ में शॉपिंग बैग और दूसरा हाथ प्रखर के हाथ में डाले महक होटल में दाखिल हुई।

लिफ्ट से चढ़कर वह ज्यों ही तीसरे माले पर पहुँचे, तो अचानक एक धमाका सा हुआ। हड़बड़ी में प्रखर दो-तीन लोगों के साथ लिफ्ट से बाहर निकल आया और जब तक वह सँभलता, लिफ्ट महक और अन्य लोगों को लेकर नीचे उतर चुकी थी।

होटल में बदहवासी का आलम था। जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता आतंकवादियों ने हमला किया है, तो कोई कहता होटल के एक कोने में बम फट गया है।

निचले माले पर आकर जैसे ही लिफ्ट रुकी, सुरक्षाकर्मियों ने सबको अपने घेरे में ले लिया।

कोई इधर-उधर नहीं जायेगा। होटल में आतंकवादी घुस आये हैं। आप सब लोग हमारे साथ चलिए। और उन्होंने सभी लोगों को सामने वाले हॉल में चलने का इशारा किया।

'लेकिन मेरे पति? वो तो ऊपर ही छूट गये हैं। मैं उनके बिना...।

'वहाँ उनका ध्यान रखने के लिए और लोग हैं। आप चलिए हमारे साथ। महक को बीच में ही टोकते हुए एक ऑफिसर ने कड़े स्वर में कहा।

जिस हॉल में महक को ले जाया गया, वहाँ पहले से भी कुछ लोग जमा थे। होटल के ओने-कोने से लोगों को बचा कर वहाँ लाया जा रहा था। महक की निगाहें हर आने वाले में प्रखर को ढूँढ़ती। आ तो नहीं गया! पर हर बार निराशा ही हाथ लगती।

वहाँ मौजूद कुछ लोग जो परिवार सहित हॉल में थे, अपने आप को सौभाग्यशाली समझ रहे थे। तो कुछ ऐसे भी थे जो अपनों से बिछुड़कर छटपटा रहे थे।

वहाँ मौजूद लोगों की निगाहें बरबस महक की ओर उठ जाती। दोनों हथेलियों पर सूर्ख मेहंदी। चूड़ियों से भरे हाथ, माथे से आरम्भ हुई सिन्दूर की लाली जो बालों में जाकर कहीं खो गयी सी लगती थी। ये सभी उसकी नयी-नयी शादी की गवाही दे रहे थे। इसलिए भी वह सहानुभूति का पात्र बनी थी।

एक डेढ़ घण्टे की बदहवासी के बाद उसे अचानक ध्यान आया। पर्स खोलकर मोबाइल टटोलने लगी। आपाधापी में वह तो भूल ही गयी कि वो प्रखर को फोन भी कर सकती है।

देखो, प्रखर का मैसेज आया है' इतनी जोर से वह चिल्लाई कि बाहर खड़े सुरक्षा कर्मी भी घबराकर उसकी तरफ लपके।

'मैं एक कमरे में छुपा हूँ। सामने दो आतंकवादी नजर आ रहे हैं। फोन मत करना, बात नहीं कर पाऊँगा। अगर तुम्हारे पास कोई सुरक्षाकर्मी है तो उन्हें बताओ।'

सन्देश पढ़ते ही वह फिर चिल्लाई, 'प्रखर को बचा लो प्लीज। वह एक कमरे में छिपा बैठा है। ये देखो उसका मैसेज।'

अभी पहला सन्देश पढ़ा ही जा रहा था कि प्रखर का दूसरा सन्देश भी आ गया।

'इनके और लोग भी यहाँ आ गये हैं। मेरे सामने ही दो लोगों को गोली मार दी गयी है। अगर तुम तक मेरा यह सन्देश पहुँच रहा है, तो किसी से सम्पर्क कर मुझे बचा लो।

यह सन्देश पढ़ते ही महक की बेचैनी और बढ़ गयी। 'वहाँ वे लोगों को मार रहे हैं, मेरा प्रखर...! नहीं, मुझे रोको मत, मुझे जाना है। उसी जगह जहाँ पर लिफ्ट से प्रखर बाहर निकला था।

सुरक्षाकर्मियों के समझाने और सलाह देने का उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसकी सिर्फ एक ही रट थी, प्रखर कहाँ है? सुरक्षाकर्मी इस बाबत मौन थे। खुद प्रखर भी नहीं बता पा रहा था, वह कहाँ है। बस वह इतना ही बता पाया कि बदहवासी में वहाँ जो कमरा खुला नजर आया, वह उसमें जाकर छुप गया। उसे इस बात की खुशी थी कि महक सुरक्षित है और महक को इस बात की चिन्ता कि प्रखर आतंकवादियों से घिरा है।

कुछ देर तक प्रखर और महक के बीच सन्देशों का आदान-प्रदान चलता रहा, लेकिन फिर सन्देश आने भी बन्द हो गये। सुरक्षा की दृष्टि से नेटवर्क जाम कर दिया गया था। आखिरी सन्देश में फिर प्रखर की वही याचना थी, 'मुझे इन आतंकवादियों से बचा लीजिए, अन्यथा ये लोग मुझे मार डालेंगे।'

महक की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह कभी सुरक्षाकर्मियों से बात करती कभी प्रखर के पास जाने की जिद पर उतर आती। आखिरकार हताश होकर हॉल के एक कोने में पड़ी कुर्सी पर निढाल पड़ गयी।

वहाँ मौजूद लोगों ने उसे समझाने की लाख कोशिश की किन्तु वह 'प्रखर- प्रखर' ही चिल्लाती रही।

यूँ ही पूरी रात कट गयी। रुक-रुककर गोलियों की आवाज आती, तो महक चौंक पड़ती। रो-रोकर उसकी आँखें सूज गयी थीं। सूखे होठों पर पपड़ियाँ जम गयी थीं। लेकिन अभी तक आतंकवादियों के पकड़े जाने और यहाँ से सुरक्षित बच निकलने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे थे।

दोपहर दो बजे के करीब सूचना मिली कि होटल को मुक्त करा लिया मया है। लोग बाहर निकलने लगे और महक भी बाहर निकल आयी। वहाँ लोग अपने बिछुड़े सगे-सम्बन्धियों की प्रतीक्षा में खड़े थे। महक की निगाहें तो बस प्रखर को ढूँढ़ रही थीं, लेकिन वह अभी तक नहीं आया था।

इसी बीच घोषणा हुई, 'हमें भारी अफसोस है, कुछ लोगों को हम इन वहशियों के हाथों से बचा नहीं पाये। इनके पार्थिव शरीर अन्दर हाल में रखे गये है। कृपया आकर पहचान कर लें।

महक ने घोषणा सुन कर भी अनसुनी कर दी। उसका प्रखर अभी आ रहा होगा। लेकिन जब बहुत देर हो गयी, तो उसका धैर्य जवाब देने लगा। धीरे-धीरे उसने भी बेमन से कदम हाल की ओर बढ़ाये। मुँह सूख रहा था। धड़कनें बढ़ गयीं और पैर कँपकँपाने लगे।

अन्दर का नजारा देख उसके रोंगटे खड़े हो गये, लम्बी कतार में जमीन पर लिटाये पड़े शव। कलेजा चीर डालती चीख-पुकार। कुछ की शिनाखत तो होने पर सम्बन्धी रोने-धोने में लगे थे। कुछ बदहवासी में शवों के आने की इन्तजारी में थे।

'मेम साहब, हटिये...' तभी पीछे से किसी ने आवाज दी। दो लोग एक शव लिए आ रहे थे।

किनारे हटते हुए महक ने एक उड़ती सी निगाह उस ओर डाली। देखते ही वह सन्न रह गयी। आवाज जैसे गुम हो गयी। वह वहीं जड़वत् खड़ी रह गयी।

वह फुसफुसाई, प्रखर? हाँ वही तो था वो। सीने पर घाव का निशान, कपड़े खून से लथपथ। सलीके और सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व का धनी उसका प्रखर स्ट्रेचर पर निढाल पड़ा था। वह एकटक उसे देखती रह गयी।

पैरों ने जवाब दे दिया, तो वह जहाँ खड़ी थी, वहीं बैठ गयी। इस भीड़ और अफरा-तफरी के माहौल में बिल्कुल गुमसुम। मानो सोच रही हो उसने और उसके प्रखर ने ऐसा क्या अपराध कर दिया, जो आतंकियों ने उसका सुहाग छीनकर जीते जी उसे भी मार डाला!


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