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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


आज ऑफिस से लौटते ही सोफे पर निढाल सा पड़ गया सुहास। डेढ़ घण्टा बस में खड़े-खड़े टाँगें दुखने लगी थीं। कुछ देर आँखें मूँद सोफे पर ही लेट जाना चाहता था वह। सौम्या ने चाय बनाई और कुछ लिफाफे भी सामने सरका दिये उसने।

'तीन चार चिट्ठियाँ आयी हैं आपकी। वह बोली-

सिर उठाकर उसने एक सरसरी निगाह लिफाफों पर डाली।

बैंक की मोहर लगे एक खाकी लिफाफे को देख उसे जैसे करंट लग गया हो। वह उठ बैठा। लपककर उसने लिफाफा उठा लिया, फिर चोर नजरों से सौम्या की ओर देखने लगा। सौम्या का चेहरा निर्विकार था।

सुहास का अन्देशा ठीक निकला, बैंक का नोटिस था यह। पिछले तीन माह से वह आवास ऋण की किश्तें नहीं दे पाया था। उसके पुराने रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए पत्र की भाषा तो संयत थी लेकिन इसके बाद क्या हो सकता है सुहास इससे अनभिज्ञ नहीं था। किस तरह उसने यह मकान जोड़ा था, यह वही जानता था।

कंप्यूटर प्रशिक्षण के बाद पन्द्रह वर्ष पूर्व नौकरी की तलाश में वह दिल्ली चला आया था। प्राइवेट कम्पनी में नौकरी लगने के दो वर्ष उपरान्त ही सौम्या से उसका विवाह हो गया। सौम्या अपने नाम के अनुरूप ही गुणवती थी। सुहास की छोटी सी तनख्वाह में ही उसने घर गृहस्थी का कुशल प्रबन्धन कर लिया था।

धीरे-धीरे परिवार भी बढ़ता गया और सुहास की तनख्वाह भी। बच्चों के बड़े होने के उपरान्त खाली समय में सौम्या ने पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इससे सुहास का थोड़ा हाथ बँट जाता था।

दिल्ली जैसा शहर। तनख्वाह का बड़ा हिस्सा किराये में ही निकल जाता। धीरे-धीरे सुहास ने अपने घर का सपना सँजोना शुरू किया। दस-बारह साल की जमा-पूँजी और बैंक से कर्जे का जुगाड़ कर उसने सातवें माले पर दो कमरे का फ्लैट खरीद लिया।

तब से अब तक सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन इधर मन्दी का दौर शुरू हुआ, तो अमेरिका के बड़े बैंकों ने अपने आप को दिवालिया घोषित कर दिया। अमेरिका की इस मन्दी को भारत की छोटी-छोटी कम्पनियों ने खूब भुनाया।

मन्दी के नाम पर कर्मचारियों की छंटनी, वेतन कटौती आम बात हो गयी थी। सुहास की कम्पनी भी इससे अछूती न रही। मन्दी के बहाने कुछ लोगों को बाहर का रास्ता तक दिखा दिया गया। सुहास भाग्यशाली था कि पिछले पन्द्रह वर्षों से वह एक ही कम्पनी में काम कर रहा था। उसकी निष्ठा और लगन को देखते हुए उसे निकाला तो नहीं गया, लेकिन वेतन में लगभग 40 प्रतिशत की कटौती कर दी गयी। सुहास के पैरों तले जमीन खिसक गयी। घर में सभी को आमदनी के हिसाब से खर्च करने की आदत पड़ गयी थी। अब इसमें कटौती कैसे हो पायेगी, यह सुहास की समझ से परे था।

इस सम्बन्ध में सुहास ने सौम्या को भी कुछ नहीं बताया। घर के खर्चों में तो कोई अन्तर नहीं आया लेकिन तीन माह से सुहास आवास ऋण की किश्तें नहीं दे पाया था।

आज तो सौम्या ने बैंक के लिफाफे को नहीं देखा, लेकिन कल अगर कानूनी नोटिस आता है तो सौम्या से कैसे छिपा पायेगा। जिस घर की दीवारों से उसे इतना लगाव, इतना अपनापन है, वो कभी छिन गया तो फिर क्या होगा!

इसी उलझन में पड़ा वह कोई न कोई जुगत निकालने की तलाश में लगा रहता। फ्लैट बेच भी नहीं सकता। फिर दूसरा ठौर तलाशना होगा, किराया तो देना ही पड़ेगा।

सुहास को वह दिन याद आ गया, जब पहली बार वह सौम्या और बच्चों को फ्लैट दिखाने लाया था। कितने खुश थे सब, घर की दीवारों के रंग से लेकर उसकी सजावट सब वहीं तय हो गया था।

बच्चे खुश थे कि अब उन्हें खेलने से कोई नहीं रोकेगा, वरना किराये के घर में तो हमेशा मकान मालिक की चख-चख सुनते रहो।

बहुत सोच-विचार के बाद भी सुहास को जब कोई रास्ता नहीं सूझा, तो अन्ततः उसने फ्लैट बेचने का ही मन बना लिया। बैंक का ऋण चुकता करने के बाद कुछ पैसा बच जायेगा। एक-दो वर्ष का किराया तो निकल ही जायेगा। फिर हमेशा तो ये मन्दी रहनी नहीं। कुछ समय बाद परिस्थितियाँ बदलेंगी तो देख लेंगे।

सौम्या को वह समझा देगा और सौम्या बच्चों को। ये सोचकर उसने अगले ही दिन किसी प्रॉपर्टी डीलर से बात चलाने का फैसला किया।

सुबह ऑफिस निकलते हुए उसने घर की दीवारों पर गौर से नजरें डालीं, मानो उन्हें आँखों में समा लेना चाहता हो।

'कोई अच्छा प्रॉपर्टी डीलर है तेरी नजर में' ऑफिस में अपने घनिष्ठ मित्र दीपक से सुहास ने पूछा। दीपक के कारण जानने पर न चाहते हुए भी सुहास को सब कुछ बताना पड़ा।

'तेरी भाभी और बच्चों से कैसे निगाह मिला पाऊँगा, समझ नहीं आता, लेकिन कोई और चारा भी तो नहीं।' उसके स्वर में हताशा थी।

'लेकिन सुहास, आजकल मन्दी के इस दौर में तुझे फ्लैट की कीमत भी सही नहीं मिलेगी। अब्बल तो तुझे खरीददार ही नहीं मिलने वाला और कोई मिल भी गया, तो तेरी मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश करेगा। फिर भी मैं देखता है क्या हो सकता है।' दीपक ने उसे वस्तुस्थिति बताते हुए भरोसा दिलाया।

दो तीन दिनों बाद सुहास को एक कोने में ले जाकर दीपक चुपके से बोला, 'यार, मैं एक डॉक्टर को जानता हूँ...अपनी किडनी बेच सकता है तू।'

यह सुन सुहास का मुँह खुला का खुला रह गया। क्या जबाब दे, उसकी समझ में नहीं आया। दीपक ने क्या कहा जैसे उसे सुनाई ही नहीं दिया।

'तुम एक किडनी पर भी जी सकते हो। एक छोटा सा ऑपरेशन। किसी को पता भी नहीं चलेगा। दो तीन दिनों में घर आ जाओगे। भाभी से कह देना, टूर पर जा रहे हो।' दीपक कहे जा रहा था लेकिन कहीं खोया सा सुहास कुछ सुन रहा था कुछ नहीं।

'इसके अलावा कुछ और नहीं हो सकता?' सुहास को अपनी आवाज ही कहीं दूर से आती लगी।

जवाब मिला, 'और क्या है तेरे पास बेचने के लिए, इसको बेचकर इतना पैसा तो मिल ही जायेगा कि तू मकान के ऋण के डेढ़ दो वर्ष का एकमुश्त पैसा जमा कर सके। तब तक स्थिति सुधर जायेगी।'

'क्या इतना पैसा मिल जायेगा कि डेढ़ दो वर्षों की ऋण की किश्त चुका सकूँ।' सुहास बोला।

'हाँ क्यों नहीं, इस धन्धे में मन्दी नहीं है मेरे यार।' दीपक विद्रूप हँसी हैसा।

'चलो, सोचकर बताऊँगा।' कहकर सुहास घर की ओर चल पड़ा।

अपनी ही सोच में डूबा सुहास घर पहुँचा, तो सौम्या और बच्चे उत्साह से भरे थे।

'कल आपकी छुट्टी है। बहुत दिनों से बाहर नहीं निकले हैं। बच्चे भी जिद कर रहे हैं। घर के लिए कुछ खरीददारी भी हो जायेगी। सौम्या ने चाय का कप सुहास की ओर बढ़ाते हुए कहा।

'क्या शॉपिंग करनी है, मुझे भी तो पता चले, सुहास ने अपने मन की ऊहापोह सौम्या के सामने जरा भी जाहिर नहीं होने दी।'

'परदे पुराने हो गये हैं। घर की दीवारों से मैच भी नहीं करते। सोच रही हूँ बदल डालूँ।'

तभी दोनों बच्चे भी आकर सुहास के दोनों ओर बैठ गये।

'पापा, हमें भी अपने लिए कुछ लेना है। बाजार में बहुत अच्छे-अच्छे पोस्टर आये हैं। हम घर को अच्छी तरह सजायेंगे। नया सा लगेगा फिर से। बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था।

'ठीक है तो कल हम सब बाजार चलेंगे, लेकिन अभी तुम दोनों पढ़ाई करो।'

बच्चे खुश होकर अपने कमरे की ओर दौड़ पड़े। सुहास रात को बिस्तर पर लेटा तो नींद नदारद थी। पूरी रात करवटों में कट गयी।

सौम्या और बच्चे जिस उत्साह से घर को सजाने-सँवारने की तैयारी कर रहे थे, उस घर को वो बचा भी पायेगा या नहीं।

बार-बार दीपक का सवाल कानों में गूँज उठा-'किडनी बेचेगा अपनी?'

एक मन कहता, हाँ कह दे, लोग एक किडनी से भी तो काम चलाते हैं।

दूसरा मन सोचता कि यदि बाद में कभी उसकी किडनी खराब हो गयी तो। क्या होगा?

'लेकिन इसकी संभावना बहुत कम है।' सुहास मन ही मन अपने आपको दिलासा दे रहा था।

अगले दिन बच्चों के साथ बाजार और पार्क में बीत गया। बच्चों की पिकनिक भी हो गयी थी।

सौम्या घर आकर परदों को दीवारों से लगाकर देख रही थी तो बच्चे पुरानी पेंटिंग्स व पोस्टर निकाल कर उनकी जगह नयी लगाने में व्यस्त।

'अपना घर तो अपना ही होता है। हर समय उसे सजाते-सँवारते रहने का मन करता है। सौम्या परदों की तह बनाते हुए बोली।

'हाँ! ये बात तो है सुहास ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई। दिन भर के घटनाक्रम ने सुहास का निर्णय लेना आसान कर दिया था।

अगले दिन सोकर उठा, तो सुहास अपने आप को हल्का महसूस कर रहा था।

'सौम्या! मैं तुमसे कुछ कहना भूल गया, एक दो दिन में शायद मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना पड़े। मेरा सूटकेस तैयार कर देना।' सौम्या उसके चेहरे के 6. भाव पढ़ पाये इससे पहले ही सुहास तेजी से निकल गया।

अपने घर और परिवार की खुशियाँ बचाने के लिए अपनी निजी सम्पत्ति बेचने के अलावा और कोई चारा नहीं था उसके पास।


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