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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


जैसे-तैसे सुचित्रा की आँख लगी तो बड़ी राहत की साँस ली डॉक्टर आलोक ने। रात का एक बज रहा था। बाहर सन्नाटा था, कहीं दूर से कुत्तों के भौंकने की आवाज ही बीच-बीच में नीरवता भंग कर रही थी। इस बीच उन्हें लगा जैसे कुत्ता रो रहा हो। बचपन की याद हो आयी जब दादी कहती थी कुत्ते का रोना अशुभ होता है।

लेकिन यहाँ तो सब ठीक है। बहुत दिनों बाद आज सुचित्रा चैन की नींद सो रही है। दर्द की कोई शिकन भी चेहरे पर नहीं दिख रही। शान्त स्निग्ध चेहरा। डॉ. आलोक सुचित्रा के सिरहाने बैठ उसका सिर सहला रहे थे, साथ ही यह भी ध्यान रखे थे कि कहीं उसकी नींद न खुल जाये।

उन्हें तीस वर्ष पूर्व की सुचित्रा याद आ गयी। जब वह नयी-नयी दुल्हन बन कर आयी थी। हमेशा मुस्कराती रहती। घर परिवार को खुशियों से भर दिया था उसने।

आलोक शहर के ही सिविल अस्पताल में डॉक्टर थे और घर में माता-पिता के अलावा एक छोटी बहन थी सौदामिनी। आलोक अपनी व्यस्तताओं के चलते सुचित्रा को अधिक समय नहीं दे पाते, लेकिन उसने कभी इस बात को लेकर शिकायत नहीं की।

ननद सौदामिनी और सुचित्रा में खूब पटने के कारण समय कब बीत जाता, उसे पता भी न चलता।

दो साल बाद सौदामिनी का विवाह हो गया। इधर तब तक सुचित्रा की गोद में कपिल आ चुका था। अब वह उसके लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी।

डॉ. आलोक का अस्पताल में बड़ा नाम था। सब कहते, उनके हाथ में जादू है, व्यवहार इतना मृदु कि आधा तो मरीज वैसे ही ठीक हो जाता।

प्रसिद्धि के साथ-साथ आलोक की व्यस्तता भी बढ़ने लगी। कपिल ने स्कूल जाना शुरू कर दिया तो सुचित्रा ने आलोक से कहा, क्यों न वह अब पीएच.डी. ही कर ले। विवाह पूर्व उसने हिन्दी में एम.ए. किया था। आलोक ने सहर्ष हामी भर दी। फिर एक अपराधबोध भी था मन में कि वह सुचित्रा को समय नहीं दे पाता।

समय तेजी से बीत रहा था। सुचित्रा पीएच.डी. पूरी कर स्थानीय डिग्री कालेज में पढ़ाने लगी। कपिल एम.बी.बी.एस. कर रहा था। आलोक अपनी ही तरह उसे भी डॉक्टर बनाना चाहते थे।

इसी दौरान आलोक की पदोन्नति हो गयी और तबादला भी। वृद्ध सास-ससुर के बाद अब वह और भी अकेली हो गयी।

कुछ ही समय बाद कपिल अपना एम.बी.बी.एस. पूरा कर लौट आया तो सुचित्रा की खुशी का ठिकाना न रहा।

'अब तो घर में दो-दो डॉक्टर हैं। बीमारी को भी अन्दर आने से पहले दस बार सोचना होगा।' सुचित्रा ने चुटकी ली।

'अभी इतना खुश होने की जरूरत नहीं है मैडम! कपिल अभी पूरा डॉक्टर नहीं बना, एम.डी. के लिए मैं इसे अमेरिका भेजना चाहता हूँ।' डॉ. आलोक बोले।

कुछ ही दिनों बाद आगे की पढ़ाई के लिए कपिल अमेरिका चला गया। इकलौती सन्तान को बाहर भेजने का सुचित्रा का कतई मन नहीं था। लेकिन उसके भविष्य का खयाल कर वह चुप हो गयी।

बाहर कुत्तों के भौंकने की आवाजें बन्द हो गयी थीं। सुचित्रा अभी भी उसी तरह निश्चित सो रही थी। डॉक्टर आलोक को उसका शरीर ठण्डा होता सा लगा। घड़ी देखी, दो बज रहे थे।

आलोक को छह माह पूर्व की याद हो आयी जब सुचित्रा ने आलोक के पास थोड़ा समय देख कुछ कहना चाहा था। आलोक किसी मरीज की फाइल में आँखें गड़ाये बैठे थे। उसके परिजनों की कोताही पर वह आगबबूला थे।

'लोग समय पर अस्पताल क्यों नहीं आते? जब सारी गुंजाइश खत्म हो जाती है, तब डॉक्टर को भगवान समझकर चले आते हैं।'

'आलोक! मुझे तुमसे बात करनी है।' सुचित्रा बोली तो आलोक ने आँखें फाइल से हटाये बगैर ही कहा, 'कहो'। सुचित्रा ने अपनी बात शुरू की, तो अचानक आलोक की नजरें उठकर सुचित्रा के चेहरे पर अटक गयीं।

कितना पीला पड़ गया है उसका चेहरा, आँखों के नीचे काले गड्ढे, क्यों इतने दिनों से उसने इस पर ध्यान नहीं दिया।

सुचित्रा जो-जो दिक्कतें बताती जा रही थी, डॉ. आलोक का डॉक्टर मन आशंकित हो उठा। लेकिन इसका जरा भी भान उन्होंने सुचित्रा को नहीं होने दिया।

'कल तुम कॉलेज से छुट्टी ले लो, अस्पताल चलकर तुम्हारे कुछ परीक्षण करवा लेते हैं। कुर्सी से उठकर आलोक पास ही बिस्तर पर लेट गये।

सुचित्रा भी सुस्ताते हुए लेट गयी। थोड़ी ही देर में उसे नींद ने अपनी आगोश में ले लिया। पर आलोक की जैसे नींद ही उड़ गयी। शयन कक्ष का हल्का आसमानी रंग जो उन्हें हमेशा सुकून देता था, आज वहीं आँखों में चुभ रहा था। हाथ आगे बढ़ाकर उन्होंने नाइटलैम्प का स्विच ऑफ कर दिया, कमरे में स्याह अँधेरा फैल गया और शुरू हुआ दर्द का लम्बा सिलसिला। डॉक्टर आलोक का शक सही निकला। कई जगह क्रास चेक कराया लेकिन कहीं कोई अन्तर नहीं। सब की एक ही डाइग्नोसिस थी-'कैंसर' और वह भी लगभग अन्तिम चरण में।

डॉक्टर आलोक तो बदहवास से हो गये। जीवन भर सुचित्रा को कछ नहीं पाये। जब देखो तब काम ही काम। अब जब सेवानिवृत्ति को तीन चार वर्ष धी बचे थे, तो दोनों रिटायर्ड जीवन के सुनहरे स्वप्न देख रहे थे और अब यह घोर विपत्ति आन पड़ी।

कपिल एम.डी. करने के बाद अमेरिका में बस गया था। डॉक्टर आलोक के माता-पिता भी स्वर्ग सिधार चुके थे। कपिल से बात होती, तो उन्हें बार-बार अमेरिका आने की ही सलाह देता। 'यहाँ स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाएँ भारत से बेहतर हैं।

पर सुचित्रा नहीं मानी 'मैं अपने ही देश में अन्तिम साँसें लेना चाहती हूँ। तुम चाहे कुछ भी करो आलोक, मैं जानती हूँ मैं कुछ ही दिनों की मेहमान हूँ। पराये देश जाकर नहीं मरना चाहती।'

आलोक सुचित्रा की उस कातर दृष्टि को झेलने में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहे थे। आँसू रोकने के प्रयास में मुँह फेर लेते। उन्होंने समय से पूर्व ही सेवानिवृत्ति हेतु आवेदन कर दिया। अब वह अपना सारा समय सुचित्रा को देना चाहते थे।

सुचित्रा दर्द को पी जाने का प्रयास करती, लेकिन उसका दर्द रोकने का प्रयास चेहरे को विकृत कर जाता, न चाहते हुए भी कराह निकल जाती।

आलोक सुचित्रा के दर्द को देख अपने आप को असहाय महसूस कर रहे थे। पति और पुत्र दोनों के डॉक्टर होते हुए भी सुचित्रा को इस असहनीय दर्द से जूझना पड़ रहा था।

दर्द की अधिकता में सुचित्रा जब असहाय सी आलोक की ओर देखती तो वो सिहर जाते।

'आलोक! मुझे मार डालो, दर्द सहन नहीं होता अब।' दर्द बर्दाश्त से बाहर होने पर सुचित्रा के ये शब्द डॉ. आलोक को अन्दर तक हिला देते।

ठीक ही तो कहती है सुचित्रा, उसकी जिन्दगी वैसे भी अब कितनी बाकी है। ज्यादा से ज्यादा कुछ माह और...क्या वह सुचित्रा के दर्द की अवधि कुछ कम नहीं कर सकते?

कुछ दिन इसी उहापोह में निकल गये। अन्ततः डॉक्टर आलोक निर्णय लेने में समर्थ हुए। डॉक्टर होने के नाते वह तमाम जीवनरक्षक दवाओं के बारे में जानते थे, तो कई प्राणघातक जहर के बारे में भी।

रात्रि भोजन के उपरान्त आलोक ने जिद कर सभी नौकरों और सुचित्रा की सेवा में लगी नर्स को घर से बाहर भेज दिया। कुछ देर सुचित्रा से बातें करते रहे। बहुत सी पुरानी बातें, कुछ यादगार पल, सुचित्रा दर्द तो महसूस कर रही थी, लेकिन पति में आया यह बदलाव उसे आह्लादित कर रहा था।

आलोक संकोची किस्म के इंसान थे। जवानी के दिनों में भी कभी खुल कर प्यार का इजहार नहीं किया। आज अपने दर्द को जज्य करती सुचित्रा आलोक का यह नया रूप देख रही थी।

जब दर्द असहनीय हो गया, तो वह चेहरे पर उतर आया। आलोक ने दोनों हाथों से सहारा देकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया।

'सुचित्रा थोड़ी देर और सहन करो। देखों मैं तुम्हें एक इंजेक्शन दे रहा हूँ। इससे तुम्हारा दर्द दूर हो जायेगा।' आलोक धीमे स्वर में बुदबुदा रहे थे। उन्होंने एक इंजेक्शन तैयार किया और उसकी बाँह में लगा दिया।

थोड़ी देर में ही सुचित्रा चैन की नींद सो गयी और आलोक अब भी उसके सिरहाने बैठे थे। घड़ी देखी चार बज रहे थे। ओह! सुबह होने वाली है और अभी तो उन्हें और भी काम करने हैं। सोचकर आलोक उठ खड़े हुए।

उन्होंने एक पेन और कागज निकाला। उस पर कुछ लिख कर मेज पर रख दिया और बचा हुआ इंजेक्शन अपनी बाँह में लगा लिया।

अगले दिन देर तक दरवाजा न खुलने पर दरवाजा तोड़ कर खोला गया, तो डॉक्टर आलोक और सुचित्रा की मृत देह शयनकक्ष में पड़ी थी। पास ही डॉक्टर आलोक का लिखा नोट भी। इसमें लिखा था।

'मैं सुचित्रा का दर्द सहन नहीं कर सकता इसलिए इस दर्द से मैंने उसे मुक्ति दे दी। और रही मेरी बात, उसके बिना मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता। यह हम दोनों की अन्तरात्मा का फैसला है, लिहाजा हमारी खुदकुशी के लिए किसी और को जिम्मेदार न समझा जाये...।'


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