कचहरी परिसर के बाहर आज कुछ ज्यादा ही मजमा लगा था। तीन दिन से यहाँ पूर्व
स्वतन्त्रता सेनानी सन्तन सिंह का बेटा जितेन्द्र अपने परिवार सहित अनशन पर
बैठा था। उसकी नाराजगी सरकार के रवैये को लेकर थी। उसका कहना था, सरकारी
अनदेखी के चलते ही स्वतन्त्रता आन्दोलन के अग्रणी सेनानी का परिवार आज चौराहे
पर आ पड़ा है। पूरे तीन दिन कोई भी सरकारी प्रतिनिधि उसे पूछने नहीं आया तो
गुस्से में उसने यहीं पर मय परिवार आत्महत्या की धमकी दे डाली। मामले को हवा
देने के लिए वहाँ कुछ उत्साही पत्रकार वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग भी आ
जुटे।
जितेन्द्र प्रसिद्ध स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी सन्तन सिंह का इकलौता पुत्र
था। सन्तन सिंह के पिता गाँव के बड़े जमींदार थे। स्कूली शिक्षा पूरी होने पर
उन्होंने आगे की पढ़ाई हेतु उन्हें इलाहाबाद भेज दिया था। सन्तन सिंह बचपन से
ही प्रखर बुद्धि के थे इसलिए पिता उन्हें कलक्टर बनाना चाहते थे। उन्हें
इलाहाबाद भेजने का उनका मकसद भी यही था।
लेकिन घर से बाहर रहकर बेटा कहीं विमुख न हो जाये यह सोचकर पड़ोसी गाँव के
जमींदार की पुत्री लीलावती से उनका ब्याह करवा दिया। पन्द्रह वर्ष की लीलावती
दुल्हन बन सन्तन सिंह के घर आ गयी।
शुरू में तो सन्तन का मन पढ़ाई में बिल्कुल भी न लगता। दो दिन की छुट्टी होने
पर भी वो गाँव लौट आते। लेकिन धीरे-धीरे उनका मन अंग्रेजी सरकार द्वारा
भारतीयों पर किये जाने वाले जुल्मों से आहत होने लगा। फिर एक दिन वह अपने कुछ
मित्रों के साथ स्वतन्त्रता आन्दोलन में कूद पड़े। हर महीने घर भाग आने वाले
सन्तन का जब महीनों तक कुछ पता न चला तो घर में चिन्ता हुई। पिता ने गाँव से
अपने एक पुराने नौकर को इलाहाबाद उनकी खोज-खबर को भेजा। वहाँ पता चला, वह तो
कॉलेज ही छोड़ चुके हैं।
इस बीच सन्तन व उनके साथियों की उग्र गतिविधियों के चलते ब्रितानी पलिस हरकत
में आ गयी। उनकी घेराबन्दी के साथ-साथ अब घर में भी तहकीकात होने लगी। पिता को
उनकी यह हरकतें नागवार गुजरी। पर पत्नी को पता लगा तो वह भी इस मुहिम के लिए
मचलने लगी। उसने गाँव की ही कुछ महिलाओं एकत्रित कर स्वदेशी आन्दोलन शुरू कर
दिया। इससे सन्तन के पिता और पर उठे उन्हें यह कतई मंजूर नहीं था कि समृद्ध घर
की बहू सारा साज-शृंगार छोड़ खादी के कपड़े पहने और इधर-उधर सड़कों में भटके।
इसको लेकर उन्होंने को बार उसे फटकारा भी। पर अपने पति को मदद करने की बात
कहकर उसने ससुर को निरुत्तर कर दिया।
देश आजाद हुआ तो सन्तन को कई लोगों ने राजनीति में उतर आने की सलाह दी। पर वह
कहते-मैंने देश को आजाद करवाने के लिए लड़ाई लड़ी थी, अब देश आजाद हो गया है,
तो मेरा काम भी खत्म, कुछ और पाने की लालसा नहीं है मन में है नहीं। लोग चुप
हो जाते।
इसके बाद सन्तन ने अपने गाँव में रहकर खेती करना ही उचित समझा। आन्दोलन के
दौरान गोली लगने और उसके बाद समुचित इलाज न हो पाने से उनका बायाँ पाँव खराब
होने लगा। पर हिम्मत नहीं हारी।
बाद में सरकार ने स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को नौकरी सहित कई अन्य
सुविधाएँ दी, लेकिन सन्तन ने पेंशन के अलावा अन्य सभी सुविधाएँ लेने से
विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। पेंशन से मिलने वाली राशि भी वह गरीब और
जरूरतमन्द लोगों में बाँट देते।
विवाह के कई वर्षों बाद घर में पुत्र हुआ तो परिवार में खुशी की लहर दौड़ गयी।
नाम रखा गया जितेन्द्र। माँ-बाप ने उसे अपने ही संस्कारों में ढालने की कोशिश
की। पर उसकी फितरत कुछ अलग ही थी। पढ़ने-लिखने में वह सामान्य ही था। किसी तरह
उसने स्नातक किया, और फिर सरकारी नौकरियों की तलाश में लग गया। पिता उसे
समझाते-बेटा तुम सरकारी नौकरी के लायक तो हो नहीं, इसलिए कोई अपना धन्धा-पानी
ही शुरू कर लो।
पिता की इस सलाह से वह भड़क उठता। धीरे-धीरे यह जुबान भी लड़ाने लगा,
कहता-कैसे स्वतन्त्रता सेनानी हैं आप कि अपने इकलौते बेटे के लिए एक अदद
सरकारी नौकरी का जुगाड़ भी नहीं कर सकते!
सन्तन सिह बेटे की इन बातों को सुन सन्न रह गये। उन्हें उसकी इस सोच पर बड़ी
ग्लानि हुई। मन ही मन कहने लगे-क्या अपने पुत्र को नौकरी दिलवाने के लिए ही
उन्होंने आन्दोलन किया था। पर पुत्र को ये न लगे कि पिता उसके लिए कुछ नहीं कर
रहे, ये सोचकर उन्होंने पत्नी से सलाह मशवरा किया और फिर एक खेत बेचकर गाँव
में ही एक छोटी सी दुकान खोल ली। पर पढ़े-लिखे जितेन्द्र को ये काम अपमानजनक
लगा। माँ के समझाने पर मन मसोस कर उसे दुकान पर बैठना ही पड़ा। दुकान से
ठीकठाक आमदनी होने लगी। पर उसका चंचल मन खुराफातों में ही लगा रहता।
दुकानदारी अब उसकी ठीक ठाक चलती देख माता-पिता ने उसका विवाह कर अपनी अन्तिम
जिम्मेदारी से भी मुक्त हो जाना चाहा और एक पढ़ी-लिखी अच्छे घर की लड़की
संयुक्ता से उसकी शादी कर दी। पर बहू के घर आते ही स्थिति बिगड़ने लगी।
संयुक्ता भी जितेन्द्र की तरह ही चंचल थी। उसे पति का दुकान में बैठना बिल्कुल
ठीक नहीं लगता। वह उसे और उचकाने लगी-सरकार आज स्वतन्त्रता सेनानी आश्रितों को
कितनी सुविधाएँ दे रही हैं। पर तुम्हारे पिता हैं कि तुम्हारे बारे में कुछ
सोचते ही नहीं। उन्हें तो सिर्फ समाजसेवा का भूत सवार है। अपने इकलौते बेटे की
जिन्दगी की उन्हें कोई चिन्ता ही नहीं।
पत्नी की यह बातें आग में घी का काम करती। वह और भड़क उठता। बात-बात पर अपनी
सारी खीझ पिता पर उतार देता। माँ समझाती-बेटा सारी जिन्दगी तुम्हारे पिता ने
उसूलों के लिए बिता दी इसीलिए लोग उनका इतना सम्मान करते हैं। अब बुढ़ापे में
उन्हें गलत कामों के लिए मजबूर मत करो।
पर वह माँ से भी भिड़ जाता। कहता-पिता उसका भला ही नहीं चाहते।
-एक औलाद वह भी ऐसी।-सन्तन सिंह चिन्ता में डूब जाते, इससे उनका स्वास्थ्य
खराब रहने लगा। एक दिन उन्हें दिल का दौरा पड़ा और हमेशा-हमेशा के लिए वह
परिवार से दूर हो गये।
सन्तन सिंह के तो पूरे इलाके के लोग मुरीद थे। उनकी मौत की सूचना सुन घर में
सैलाब उमड़ पड़ा। बेतहाशा भीड़ ने जितेन्द्र को इस बात का और अहसास तो दिला
दिया कि उन्हें लोग कितना मानते हैं। पिता की इसी लोकप्रियता को वह अब भुनाने
में लग गया। पिता की मौत की संवेदना की आड़ में उसने कई अधिकारियों और
राजनीतिज्ञों के चक्कर काटे पर बात नहीं बनी। इसी भाग-दौड़ में उसकी मुलाकात
एक दलाल से हो गयी, जिसने दो लाख रुपये में उसे नौकरी दिलवाने का आश्वासन
दिया। सौदा तय हो गया तो जितेन्द्र ने पैसों की व्यवस्था के लिए माँ से खेत
बेचने की इजाजत चाही।
बेटे को समझाने में असफल रही माँ ने थक-हार कर उसे खेत बेचने की अनुमति तो दे
दी किन्तु अन्दर ही अन्दर उसका मन टूट गया। सोचती, जिस व्यक्ति ने जीवनो भर
अपने सिद्धान्तों से कभी समझौता नहीं किया, उसी का बेटा उसकी मृत्यु के बाद
नौकरी लगाने के लिए रिश्वत देने जैसा घृणित कार्य कर रहा है। लेकिन घर में
सुख-शान्ति के लिए उसे इस पाप का भागी बनना पड़ा।
लेकिन दलाल पैसे लेने के बाद गायब हो गया तो जितेन्द्र आग बबूला हो उठा। कैसे
कहे उसने नौकरी के लिए रिश्वत दी। पर अब स्वतन्त्रता संग्राम सैनिकों के
आश्रितों की आढ़ लेकर वह परिवार सहित कचहरी परिसर में धरने पर बैठ गया।
लीलावती को पता चला तो उस पर जैसे किसी ने घड़ों पानी उँडेल दिया हो। बेटा अब
इस नौटंकी पर उतर आया कि अपने पिता का नाम ही मिट्टी में मिला देना चाहता है।
वह तमतमा उठी।
इधर अनशन स्थल पर खासी भीड़ जमा हो गयी थी। कुछ छुटभैयों ने सियासी दुकानें
सजा ली और लगे सरकार को जमकर कोसने। मीडिया के लोग भी आ पहुँचे।
इसी तमाशे के बीच जितेन्द्र ने बगल में बैठी अपनी छोटी बिटिया को गोद में बिठा
लिया और जेब से जहर की शीशी निकालकर उसे पिलाने का नाटक करने लगा।
तभी भीड़ में भगदड़ मची। जोर का एक नारी स्वर उभरा-हटो-हटो क्या मजमा लगा रखा
है। कोई तमाशा हो रहा है क्या! लोग तितर-बितर हो गये।
सामने माँ लीलावती के उग्र तेवर देख जितेन्द्र और संयुक्ता के होश उड़ गये।
उन्होंने सोचा भी नहीं था कि वह यहाँ आ धमकेगी। पास ही बैठे दोनों बच्चे दादी
माँ कहते हुए दौड़े और उससे लिपट गये।
-माँ आप यहाँ! -सकपकाते हुए जितेन्द्र उठ खड़ा हुआ तो उसने आगे बढ़कर एक जोर
का तमाचा उसके गाल पर दे मारा।
चारों तरफ सन्नाटा छा गया। मीडिया के लोग भी सकते में आ गये। किसी के मुँह से
कोई आवाज न निकली।
-तुम इतने अकर्मण्य हो, ये तो मुझे मालूम था लेकिन इतने बेशर्म भी हो ये नहीं
जानती थी। अपने देश को आजाद कराने के लिए क्या इसलिए लड़ाई लड़ी थी कि तुम
जैसे कपूत उस महान स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी के नाम को अपने स्वार्थों के
लिए बैसाखी की तरह इस्तेमाल करें।
-लेकिन जिन लोगों ने देश के लिए कुर्बानी दी उनके लिए आजाद मुल्क के
हुक्मरानों का कोई फर्ज नहीं है! देश पर कर्ज है उन सपूतों का। उसको उतारना
क्या देशवासियों का फर्ज नहीं है। कुछ अति उत्साही मीडिया वालों ने लीलावती से
सवाल किया।
उनका यह बेतुका सवाल सुन वह और भड़क उठी-कौन सा कर्ज, कैसा कर्ज! क्या अपने
देश, अपने घर के लिए कुछ करना अहसान होता है जिसे उतारा जाय। कोई किसी पर
अहसान नहीं करता, यह सबका फर्ज है। और सबको अपना-अपना फर्ज अदा करना चाहिए।
बगैर किसी अपेक्षा के।
फिर वह अपनी बहू से मुखातिब हुई-
-इसकी इस नौटंकी में तुम भी चली आयी इस नालायक के साथ। अनशन करने के लिए। अरे,
तुम तो अर्धागिनी हो इसकी। तुम्हारा फर्ज है उसे सही राह दिखाना और सही रास्ते
पर लाना। भीख और अनुदान से जिन्दगी नहीं चलती। कुछ करना है तो कर्म करो। तभी
आने वाली पीढ़ी भी तुम्हें याद रखेगी।
उसने खबरनवीसों को भी नहीं बख्शा। बोली-
-तुम तो चौथे स्तंभ हो इस व्यवस्था के। समाज को दिशा देना तुम्हारा परम
दायित्व है। तुम ही भटक जाओगे तो लोगों को दिशा कौन देगा।
सभी सिर झुकाये खड़े थे। बिल्कुल मौन। सभी को अपनी-अपनी जिम्मेदारी व
दायित्वों का अहसास हो आया। धीरे-धीरे भीड़ छंट गयी। सब चुपचाप एक बड़ी सीख
लिए अपने-अपने गंतव्यों को चल दिये।