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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


आज इस उम्र में जाकर अहसास हुआ कि घर से बाहर, वह भी अकेले और अपने बते पाँवों पर खड़े होने का जज्बा आज भी औरत-जात के लिए खुद अपनी मट्टी कूटने जैसा है। दुश्वारियों से भरा, दुरूह, दुष्कर और दर्दनाक। जहाँ जान-आबरू सब दाँव पर। ऊपर से लानत-मलानत सूद में। शर्मिला ने क्या नहीं भोगा और आज दानवी दुनिया का यह प्रपंच उस बच्ची का जीवन भी लील गया। हम दोनों पति-पत्नी हक्के-बक्के थे।

यूँ तो थे हम उसके मकान मालिक ही, पर बच्चों का सान्निध्य तलाशता उम्र का यह अन्तिम पड़ाव आज शर्मिला में ही अपनी औलाद का अक्स देखने लगा था। इसीलिए यह बच्ची दानवी दुनिया के जो-जो दंश झेल रही थी, उसमें हम दोनों भी शरीक थे। सामने का कमरा तो बस नाम भर का था। रात वह सोती पत्नी सुमित्रा के साथ ही थी। इसलिए वह और भी ज्यादा बदहवास सी थी-

'कल रात न जाने क्या मति मारी गयी। उसका मन बड़ा उखड़ा सा लग रहा था। तभी रोक लेती तो शायद ऐसा नहीं होता।' वह बार-बार अपने को यही कोसे जा रही थी। सुबह उठते ही आज न जाने क्यों सुमित्रा सीधे शर्मिला को उठाने चल दी थी।

मैं बाथरूम चला गया। थोड़ी देर बाद ही दरवाजे जोर से भटभटाने की आवाज आयी। फिर सुमित्रा की चीख-पुकार-

'निकलो, जल्दी निकलो। हमारी शर्मिला को पता नही क्या हो गया। वह उठ ही नहीं रही है।'

मैं भी घबरा गया। आनन-फानन में कपड़े पहनकर बाथरूम से बाहर निकला और सीधे शर्मिला के कमरे की ओर भागा। वह निढाल बिस्तर पर पड़ी थी। पास ही एक शीशी। लगता था उसने नींद की गोलियाँ खा ली हैं।

आस-पास के लोग भी इकट्ठा हो गये। थोड़ी देर में पुलिस भी आ पहुँची और पूछताछ शुरू हो गयी। मैं अपने कमरे में आकर शर्मिला के माता-पिता का फोन नम्बर तलाशने लगा। उनको सूचना देने की जिम्मेदारी भी तो आखिर मेरी ही थी।

उनको सूचित कर मैं फिर भागा-भागा शर्मिला के पास लौट आया। वहीं सुमित्रा भी पगलायी सी बैठी थी। मैं भी बैठ गया और एकटक शर्मिला को निहारने लगे। ऊपर वाले ने तो कभी बेटी दी नहीं, लड़के थे जो छोड़कर बाहर जा बसे। आज इसे अपनी औलाद के समान माना, तो ये भी साथ छोड़कर चल दी।

यह सोचते-सोचते मुझे लगभग दो साल पहले का वह दिन याद हो आया, जब शर्मिला कमरे की खोज में पहली बार हमारे पास पहुँची। हिमांचल के किसी पहाड़ी शहर से शिक्षा पूरी कर उसने कुछ साल वहीं नौकरी की थी। अब तरक्की के बाद तबादला होकर इस शहर में आयी थी।

अनजान से इस शहर में हमें मकान मालिक के रूप में पाने की खुशी उसके चेहरे से साफ झलकती थी।

'अंकल, अकेले रहना है ना, आप जैसे बुजुर्ग लोगों का साया सिर पर रहेगा तो कोई चिन्ता नहीं रहेगी।' वह खिलखिला कर बोली।

कुछ ही दिनों में शर्मिला ने अपने प्यार-बर्ताव से हम दोनों का दिल जीत लिया था। दोनों बेटों के विदेश बस जाने के बाद हमारा एकाकीपन शर्मिला के आने से लगभग खत्म हो गया था।

अब तो शर्मिला को दफ्तर से आने में थोड़ी भी देर होती तो सुमित्रा बेचैन हो उठती। कभी खिड़की से झाँकती तो कभी दरवाजे पर आ खड़ी होती। साथ ही बड़बड़ाती जाती-

न जाने क्या हो गया है आजकल की लड़कियों को! न समय का ध्यान, न बड़े-बूढों का ख़याल। इतनी देर हो गयी अब तक घर नहीं आयी।'

अरे आ जायेगी। मैं झिड़कता जरूर लेकिन अन्दर से बेचैनी मुझे भी कम नहीं होती। ईश्वर ने हमें कोई बेटी नहीं दी थी, इसलिए शर्मिला ही हमें अपनी बेटी लगने लगी। सुमित्रा को तो उससे इतना लगाव हो गया कि उसमें उसे अपनी बेटी का ही अक्स नजर आने लगा। इसलिए घर आने में उसे थोड़ा देर हो जाती तो वह माँ की तरह उस पर बरस पड़ती। शर्मिला भी बेटी की तरह उसे पुचकारती और प्यार से उसके गले में बाँहें डाल कर कहती-

'अरे आंटी, क्यों इतनी चिन्ता करती हो, ऑफिस में बहुत काम था इसलिए देर हो गयी। और फिर समझाने लगती 'अब जमाना बदल गया है। क्या लड़का, क्या लड़की। नौकरी में देर-सबेर नहीं देखी जाती।' वह आगे कुछ बोलती, सुमित्रा बीच में ही टोक देती-

'अरे कुछ नहीं बदला, उन्नति के साथ-साथ लोगों के मन भी खराब हुए हैं। इतनी बुरी बातें पहले कभी सुनी जाती थी? अपनी हिफाजत अपने हाथ होती है।'

फिर आगे कहती-'यह तुम्हारी ही लापरवाही है। तुम काम में इतनी ही तेज हो, तो इसे समय से निपटा कर घर क्यों नहीं आ जाती!

सुमित्रा की नजर में शर्मिला दुःसाहसी थी, साथ ही शहर के तौर-तरीकों से नावाकिफ। यह शहर महिलाओं के लिए इतना निरापद नहीं था जितना कि उसका अपना शहर।

शर्मिला जब सुमित्रा को समझा पाने में अपने आप को असमर्थ पाती तो मुझसे कहती-

'अंकल आप ही बताओ ऐन वक्त पर कोई काम आ जाता है, तो क्या सिर्फ इसलिए मना कर दूँ कि मैं लड़की हूँ। देर तक काम नहीं कर सकती। अगर नौकरी करनी है तो काम तो करना ही होगा। अपनी शर्तों पर नौकरी नहीं होती।'

मैं उसकी बात समझ रहा था। उसकी रोज-रोज की परेशानी देखते हुए मैंने उसे एक कार लेने की सलाह दी। वह मान गयी। अच्छा कमाती थी इसलिए बैंक से ऋण लेने में भी कोई असुविधा नहीं हुई। तीन-चार महीनों में ही वह ठीक-ठीक कार चलाना सीख गयी।

किन्तु गाड़ी आने के बाद वह और भी बेफिक्र हो गयी। देर तक मेहनत से लगे रहना और फिर कभी-कभी वहीं से बाजार के काम भी करते हुए आना। यह सब करते हुए उसे अक्सर देर हो जाती।

सुमित्रा इस बात से खुश नहीं थी। नोंक-झोंक चलती रहती। फिर कभी-कभी अपने भी बाजार के काम उसी से करवा लेती।

मैं सोच में डूबा था कि इसी बीच एक पुलिस कर्मी ने मुझे कन्धे से झकझोरा-

'इनके परिवार से है कोई यहाँ पर!'

'नहीं कोई नहीं है। मैंने अभी इसके घरवालों को फोन कर दिया है।' दिन तक पहुँच जायेंगे। मैं बोला।

पुलिस कर्मी ने कहा, 'लड़की ने एक चिट्ठी रख छोड़ी है। उनके आने के बाद ही आगे कार्रवाई करेंगे।'

पत्र में क्या लिखा होगा, यह जानने के लिए मैं भी उत्सुक था। सुमित्रा ने बतायी थी, कुछ दिन पहले हुए हादसे की बात। तभी से शर्मिला काफी सदमे में रह रही थी।

उस दिन उसे ऑफिस से बाजार जाना था। गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर वह बाजार चली गयी। पार्किंग बाजार से कुछ पहले एक खुले बड़े मैदान में थी। जिसके एक हिस्से पर ज्यादातर अँधेरा पसरा रहता। बाजार से लौटते हुए लगभग नौ बज चुके थे। अनहोनी की आशंका से अनजान शर्मिला दोनों हाथों में बैग लिए गाड़ी के पास पहुँची। घना अँधेरा था। इतने में बगल की गाड़ी का दरवाजा खुला और दो हाथों ने शर्मिला को गाड़ी के अन्दर खींच लिया।

कुछ ही मिनटों में शर्मिला का सब कुछ लुट चुका था। अधमरी सी हालत में शर्मिला को उसी की गाड़ी के अन्दर छोड़ मानवता के हत्यारे फरार हो चुके थे।

थोड़ी देर में शर्मिला को होश आया, तो वह जैसे-तैसे नजदीकी पुलिस चौकी पहुँची और उसने रपट दर्ज करायी। लेकिन न तो उसे गाड़ी का नम्बर मालूम था, नाही वह उस अँधेरे में उन दरिन्दों का चेहरा देख पायी थी।

खैर रात ग्यारह बजे पुलिस वालों के साथ शर्मिला घर पहुँची तो बेचैनी से इधर-उधर टहल रही सुमित्रा की जान में जान आयी। लेकिन उसकी हालत और साथ में पुलिसवालों को देख वह किसी अनिष्ट की आशंका से सिहर उठी। पुलिस वाले उसे घर छोड़कर चल दिये।

उस रात तो शर्मिला ने कुछ नहीं बताया, लेकिन सह सोने के लिए अपने फ्लैट में भी नहीं गयी। वहीं सुमित्रा के साथ ही पड़ी रही। परन्तु अगले दिन सुबह सारा माजरा सामने आ गया। पत्रकारिता के पेशे को नापाक करते कुछ गैर जिम्मेदार पत्रकारों ने पुलिस स्टेशन की रिपोर्ट के आधार पर ही बगैर सोचे-समझे चटकारे दार खबर बना दी।

बस यही से शुरू हुआ शर्मिला पर लानत-मलामत का दौर। मौहल्ले वालों के ताने और सहयोगी कर्मचारियों के फिकरे सुन शर्मिला बिल्कुल ही टूट गयी थी। फिर शुरू हुआ पुलिस और कोर्ट-कचहरी का चक्कर। तरह-तरह के सवाल। शर्मिला किसी तरह हिम्मत जुटा अपने जीवन की गाड़ी किसी तरह आगे घसीटे जा रही थी।

सुमित्रा ने हालाँकि इस बावत मुझ से खुल कर कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उसके हाव-भाव से साफ झलकता था कि वह इस सारे मामले से बहुत आहत थी। और लगता था, कहीं न कहीं शर्मिला की नादानियों को भी वह जिम्मेदार मानती है।

पर मेरी यह गलतफहमी जल्दी ही दूर हो गयी। हमारी एक पड़ोसन के शर्मिला को कुलक्षिणी कहने पर वह उससे बुरी तरह भिड़ गयी थी।

'अरे, कैसी औरत हो तुम! उसकी पीड़ा समझने और उसका पक्ष लेने के बजाय उसी पर ऊल-जलूल तोहमतें मढ़ रही हो? देखो वह कितनी हिम्मती लड़की है। अपना काम खुद करना चाहती है। स्वावलम्बी है। ऐसी-वैसी होती तो आज तक न जाने कितने पुरुष मित्र बना चुकी होती, जो उसके एक इशारे पर हरदम कार्य करने को तत्पर रहते। कभी देखा तुमने उसे किसी के साथ!

सुमित्रा के इस मुंह तोड़ जवाब से पड़ोसन के मुँह में ताला लग गया और मेरे मन से भी एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया। कम से कम सुमित्रा तो इस बुरे वक्त में शर्मिला के साथ है। औरत ही औरत की पीड़ा नहीं समझेगी, तो और कौन समझेगा!

पर यहाँ तो पूरा समाज ही पड़ोसन जैसा है। बेहया, बदअक्ल और बदजुबान। शर्मिला को निर्दोष होते हुए भी पता नहीं क्या-क्या सुनना पड़ता होगा?

इस हादसे को बीते तीन-चार महीने हो चुके थे। इस अनहोनी ने शर्मिला के चेहरे से जहाँ मुस्कान छीन ली थी, वहीं सुमित्रा को उसके प्रति और अधिक संवेदनशील बना दिया था। जब भी समय मिलता, दोनों चुपचाप बतियाते रहते। लेकिन उसके भीतर क्या तूफान चल रहा है, वह कभी खुलकर नहीं बता पायी।

हाँ इतना जरूर था कि वह हिम्मत से अपनी नौकरी और साथ में न्यायालय की कार्यवाही झेले जा रही थी।

पर आज अचानक यह इतना बड़ा कदम। ऐसा क्या हो गया, जो उसे यह कदम उठाने को मजबूर होना पड़ा।

दोपहर बाद तक शर्मिला के माता-पिता भी आ चुके थे। अपनी होनहार बेटी की मृत देह देख दोनों सदमें में थे। उनकी मौजूदगी में शर्मिला का पत्र पढ़कर सुनाया गया। उसका पत्र पढ़कर मैं सन्न रह गया। इस क्रूर और निर्मम समाज ने बगैर किसी गलती के उसको दोषी करार देकर उसका जीवन ही लील लिया।

जहाँ भी वह जाती लोग उसे ताने देते। उस पर लांछन लगाये जाते। न्यायालय में भी उसे तमाम जलालतें झेलनी पड़ती। ऑफिस का भी पूरा माहौल ही बदल गया था। उससे सहानुभूति जताने वाला तो कोई रहा ही नहीं। जो भी था जली-कटी ही सुनाता। पत्र में यही सब व्यथा-कथा थी। उसने लिखा था-

'मन तो मेरा उसी दिन टूट चुका था, जिस दिन मेरे साथ यह यह अनहोनी हुई। लेकिन मैं इसके खिलाफ लड़ना चाहती थी। दोषियों को सजा दिलाना चाहती थी। आखिर मेरा दोष क्या था? पर इस समाज ने मुझे जीने नहीं दिया। बहुत कोशिश की लेकिन अब इस शरीर का बोझ और ढ़ोया नहीं जाता। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि वह लोगों को सद्बुद्धि दे। ताकि मुझ जैसी हादसे की शिकार लड़कियों से जीने का हक भी न छीन लिया जाये।'

शर्मिला का यह मार्मिक पत्र इस सभ्य समाज की असलियत उजागर कर गया। यह दिखा दिया कि सभ्यता का ढिंढोरा पीटने वाला यह समाज हकीकत में कितना असभ्य, प्रणित और निर्मम है। जिसने सहारा देने के बजाय उस बेसहारा से जीने का हक ही छीन लिया।

मैं सोच में पड़ गया, इस सब के लिए दोषी कौन है-वो वहशी दरिन्दें, या ये समाज या फिर दोनों...!


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