अस्पताल के उस आपातकालीन वार्ड में चारपाई पर लेटे अपने बीमार पिता की बिगड़ती
स्थिति को देखकर मनवेन्द्र ने पूरी रात झपकी तक नहीं ली थी। सच पूछे, तो उसकी
आखों में नींद तक न थी। उसकी नींद तो पिता की बीमारी के बढ़ने के साथ ही गायब
हो चुकी थी। पिता के कैंसर जैसे असाध्य रोग से पीड़ित होने की खबर से उसके
पाँव तले जमीन खिसक गयी थी। लगता था मानों उसकी सारी खुशियों एवं हौसलों को
किसी की बुरी नजर लग गयी हो।
उसकी व्यक्तिगत खुशियों एवं उपलब्धियों का रंग भी फीका पड़ चुका था। पिता की
लाइलाज बीमारी ने तो मनवेन्द्र की खुशियों पर तुषारापात कर दिया।
कई बार वह सोचता कि वह कोई बुरा सपना देख रहा है, जो शायद नींद खलते ही टूट
जायेगा, परन्तु दूसरे ही पल वह महसूस करता कि वह तो पूरे होशोहवाश में है और
जगा हुआ है। उसके सामने बेड़ पर उसके पिता का रुग्ण शरीर पड़ा है।
उस पिता का शरीर, जिन्हें उसने अपने जीवन में एक क्षण भी आराम करते नहीं देखा
था। जब भी देखा, कुछ न कुछ करते ही देखा। कभी साग-सगोड़ों में निराई गुड़ाई
करते, कभी खेतों में जूझते, तो कभी घास लकड़ी का गट्ठर ढोते हुए। अब तो
डॉक्टरों ने भी हाथ खड़े कर दिये और कह दिया कि ईश्वर से दुआ करो। कोई चमत्कार
ही उन्हें बचा सकता है। मनवेन्द्र सोचने लगा कि डॉक्टर बीमारी का इलाज तो करते
हैं, परन्तु मृत्यु का तो उनके पास भी कोई इलाज नहीं है। पिता की मरणासन्न देह
को देखकर मनवेन्द्र उस पलंग पर बैठे-बैठे कहीं अतीत की स्मृतियों में डूब गया।
बात उन दिनों की है, जब आठवीं की बोर्ड परीक्षा हुआ करती थी। परीक्षाएँ देने
के बाद छुट्टियों में वह हर रोज गाँव के ऊपर चन्देणा के जंगल में काफल खाने
दोस्तों के साथ जाया करता था। उस साल काफल के पेड़ फलों से लक-दक भरे हुए थे।
कुलदीप और सोहन को पेड़ों पर चढ़ने का शौक था। वे कुछ खास किस्म के पेड़ों पर
ही ऊपर चढ़ कर बन्दरों की तरह कूदते-फोदते, काफल बीनते, कुछ खाते और कुछ कन्धे
पर लटकाये झोले में भरते जाते। कई बार तो वह काफल के एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर
छलांग लगा कर पहुँच जाते।
लोग इनके करतबों को देखकर चिढ़ाते कि कुलदीप और सोहन ने तो चिकित के जूठे
सन्तरे खाये हैं। चिड़िया की जूठन खाने से ही बे पेड़ों पर फटाफट चले की कला
में पारंगत हो गये हैं।
उस दिन दोपहर का खाना खाने से पहले गाँव के दोस्तों की टोली काफल लेने दूर
जंगल में चली गयी थी। जंगल जाते समय पिता ने कहा था, 'बेटा' काफल लेने खाना
खाने के बाद जाना', परन्तु दोस्तों की टोली में शामिल हम कहाँ किसी का कहा
मानते? हमने उनकी सलाह को नजरन्दाज कर दिया था। आज मैं सोचता हूँ कि बुजुर्गों
का कहा हुआ और आँवले का स्वाद सचमुच बाद में ही लाभ देता है।
चंदेणा के जिस काफल के पेड़ पर कुलदीप और सोहन टहनियों में कूद-फाँद कर अपने
करतब दिखा रहे थे, उसी काफल के पेड़ की टहनियाँ मेरे लिए जानलेवा बन गयीं थीं।
उन दोनों की देखादेखी एक ऊँची टहनी पर चढ़ने के प्रयास में, मैं पेड़ से नीचे
गिरकर बेहोश हो गया था।
साथियों ने चन्देणा के जंगल से पिता को आवाज लगाई कि मनवेन्द्र गिर गया। उतनी
चढ़ाई पर हाँफते-काँपते पिता जी चन्देणा पहुँचे। मेरी हालत देखकर वे कुछ देर
तक तो सिर पकड़कर वहीं पर बैठ गये, फिर जैसे-तैसे मुझे पास के प्राथमिक
स्वास्थ्य केन्द्र में पहुँचा कर पिता जी ने तब चैन की सांस ली, जब डॉक्टर ने
बताया कि खतरे की कोई बात नहीं है। मेरे पाँव में यदि कभी काँटा भी चुभता था,
तो वे सिहर उठते थे।
एक पिता का पुत्र के प्रति इस तरह का लगाव आज कहाँ खो गया? आज दुनियादारी से
बेखबर वे बिस्तर पर पड़े अन्तिम सांसे गिन रहे हैं। मनवेन्द्र सोचने लगा कि
उन्होंने मेरे लिए कितने दुःख दर्द झेले। आज मैं जिस मुकाम पर हैं. वह सब कुछ
उन्हीं के त्याग, परिश्रम और संघर्षों का परिणाम है।
वह जब तीन साल का था, तो माँ का साया सिर से उठ गया। लोगों ने पिता जी पर
तरह-तरह के दबाव डाले कि 'अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है। शादी कर लो। तम्हारी
घर गृहस्थी भी संभल जायेगी, साथ ही तुम्हारे नन्हें से बेटे को माँका भी नसीब
हो जायेगा, किन्तु पिता जी ने मेरी खातिर इतना लम्बा पहाड़ सा विधुर जीवनयापन
करना बेहतर समझा, अन्यथा पच्चीस-छब्बीस वर्ष की आय उन्हें अपनी बेटी न देता।
उन्होंने मेरे जीवन-निर्माण में अपने सुखों की आहुति दे दी और तिललिता अपना
जीवन मेरी खुशियों के लिए समर्पित कर दिया। पिता की इस कठिन के बल पर ही तो आज
वह इस मुकाम पर पहुँच पाया है अन्यथा आज वह बड़ा वैज्ञानिक न होकर, दिल्ली
जैसे महानगर में किसी होटल की वैयराशि रहा होता या झूठे बर्तन साफ कर रहा
होता।
अपनी मंजिल को पा लेने के बाद पिताजी को लेकर कैसे-कैसे सपने सजाये थे
मनवेन्द्र ने सोचा था, इस बार जब दिवाली में घर जायेगा तो पिताजी को अपने साथ
ले आयेगा। उनसे साफ शब्दों में कह देगा कि अब वे कुछ भी काम नहीं करेंगे,
बल्कि सिर्फ आराम करेंगे। उनके संघर्ष और कठिनाइयों भरे बीते दिनों का मीठा फल
अब उन्हें मिलना ही चाहिए।
उसे आज भी याद है, कुमेड़ा गाँव उसके इर्द-गिर्द के इलाके में इस बात की न
रहती थी कि लड़का हो तो मनवेन्द्र जैसा! कितना सौम्य, सुशील व प्रतिभावान।
आठवीं की बोर्ड परीक्षा में अपने जनपद में प्रथम तो आया ही, साथ ही हाईस्कूल
की बोर्ड परीक्षा में पूरे प्रदेश की मेरिट लिस्ट में पहला स्थान पाकर
मनवेन्द्र ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था।
जब अखबार और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया वाले पत्रकार और छायाकर कुमेड़ा गाँव के
नन्दनसिंह के यहाँ पहुँचने लगे थे, तो लोगों की आँखे खुली की खुली रह गयी थीं।
गाँव-गलियों में लोग खुसर-फुसर करते रहे, कि अखबार वाले मनवेन्द्र की फोटो
खींचने आये हैं। मेरिट में नाम आते ही मनवेन्द्र की चर्चा पूरे इलाके में ही
नहीं, पूरे प्रदेश में होने लगी।
आखिरकार माध्यमिक शिक्षा परिषद की इण्टरमीडिएट परीक्षा में भी मनवेन्द्र ने
प्रदेश की योग्यता सूची में पहला स्थान बनाकर अपने स्वर्णिम भविष्य की राह
निश्चित कर ली थी। उसी के फलस्वरूप टाटा, बिड़ला तथा मफतलाल जैसे बड़े
औद्योगिक घरानों की निगाहों में मनवेन्द्र आ चुका था।
'टाटा फाउण्डेशन' द्वारा मनवेन्द्र को छात्रवृत्ति देकर अमेरिका भेजने के लिए
चयनित कर लिया गया और नन्दन सिंह का यह इकलौता लाल मनवेन्द्र अपनी प्रखर
प्रतिभा के बल पर सात समन्दर पार जा पहुँचा। अमेरिका में अपने हुनर व योग्यता
के बल पर मनवेन्द्र नासा जैसे विश्वविख्यात अन्तरिक्ष अनुसंधान केन्द्र से
जुड़ गया, किन्तु अपनी माटी के प्रति उसका जुड़ाव और लगाव उसे वापिस भारत ले
आया। अब मनवेन्द्र अपनी सेवाएँ भारतीय अतरिक्ष अनुसंधान परिषद में बतौर वरिष्ठ
वैज्ञानिक दे रहा था।
कुदरत भी कभी-कभी अपना खेल कितने निष्ठुर तरीके से खेलती है। जब मुसाबत के दिन
थे तो अभाव में ही जीवन व्यतीत हुआ। अब सुख के दिन आये, तो मारिया ने जकड़
लिया। क्या नियति ने पिताजी के हिस्से में सिर्फ संघर्ष करना ही लिखा था? वह
जीवन भर संघर्ष करते रहे और संघर्ष करते-करते ही उनकी हालत यहाँ तक पहुँच गयी।
कभी गाँव के बंजर खेतों को आबाद करने में उन्होंने जी-तोड मेहनत की थी, बंजर
धरती को काट कर उन्होंने वहाँ सीढ़ीनुमा खेतों का ही निर्माण नहीं किया, वरन्
वहाँ तक गूल पहँचाने में भी अपना जीवन समर्पित कर दिया।
गाँव के उन खेतों में आज भी फसलें लहलहा रही हैं और उन सीढीनुमा खेतोंसे सटे
बुरांश, बांज के पेड़ों की हरियाली गाँव के किसानों में नव जीवन का संचार करती
प्रतीत होती है। काश! वही जीवन-प्रवाह उसके पिता के शरीर में भी दौड़ पड़ता।
सोचते-सोचते मनवेन्द्र ने बैंच पर बैठे-बैठे न जाने कब अपना सिर पिता के
बिस्तर पर टिका दिया। कई रातों से सोया नहीं था वह। न जाने कब, क्षण भर के लिए
आँख लग गयी।
आँख तब खुली, जब एक स्वर उसके कानों में पड़ा 'मनवेन्द्र सर! मनवेन्द्र ने
बिना सिर उठाये ही धीरे से आँखे खोली। उसने महसूस किया कि पिताजी ने उसके सिर
के ऊपर अपना हाथ रखा है, आशीर्वाद की मुद्रा में। सामने स्टाफ नर्स खड़ी थी।
'सर, बैड खाली कर दीजियेगा. प्लीज.स्टाफ नर्स बोली। आश्चर्यचकित नजरों से उसने
एक पल स्टाफ नर्स को घूरा, फिर उसकी बात का अर्थ समझ कर वह अचानक हड़बड़ा कर
उठ गया और उसके सिर पर रखा पिताजी का हाथ एक ओर झूल गया। उसने आतुर नजरों से
पिता की ओर देखा। उनकी गर्दन एक ओर लुढक कर निढाल हो चुकी थी।