प्रदीप ने जब बी.ए. फाइनल में पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त
किये, तो पूरे इलाके में इस बात की चर्चा हो गयी कि देखो बसन्तू के बेटे ने
क्या कमाल कर दिखाया। कहते हैं, 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात।'
बी.ए. करने के बाद प्रदीप ने प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी का मन बनाया था,
लेकिन पिता बसन्तु लाल की बीमारी ने उसके सपनों को जैसे ग्रहण लगा दिया। गाँव
के खेतों को एक एक कर गिरवी रख बसन्तू ने किसी तरह प्रदीप के बी.ए. तक का
खर्चा तो वहन कर लिया, किन्तु अब इलाहाबाद आई.ए.एस. कोंचिग के लिए कहाँ से
पैसों का व्यवस्था हो पायेगी? सोच में डूबा अशक्त व बीमार बसन्तू लाल मन ही मन
टूट चुका था।
गाँव में खेती-बाड़ी के काम के अलावा बसन्तू लाल मेहनत मजदूरी कर किसी तरह
अपने घर परिवार का बोझ उठा रहा था, परन्तु इस साल गर्मियों में अचानक
उल्टी-दस्त के बाद बसन्तू ने चारपाई पकड़ ली थी।
एक बार चारपाई क्या पकड़ी कि वह फिर खड़ा ही नहीं हो पाया। गाँव के आस पास न
तो कोई अस्पताल था, न ही कोई डॉक्टर। पास के गाँव से वैद्य जी को बुलवाकर
दिखवाया तो बसन्तू की हालत देख वैद्य जी ने तुरन्त सतपुली अस्पताल में
डॉक्टरों को दिखाने की सलाह दी।
दूसरी सुबह प्रदीप गाँववालों के साथ पिता को चारपाई पर रख, सात-आठ मील दूर
सतपुली अस्पताल ले गया, तो पता चला कि आज तो कोई भी डॉक्टर उपलब्ध नहीं है, एक
तो मीटिंग के लिए आज सुबह ही पौड़ी गये हैं, जबकि दूसरा पिछले आठ-दस दिन से
अस्पताल में है ही नहीं, अपने घर मेरठ गया हुआ है। डॉक्टर के नाम पर आज तो
अस्पताल में एक वार्ड ब्वाय व एक सफाईकर्मी ही उपलब्ध था। इस तपती दुपहरी में
सात-आठ मील दूर से चारपाई पर लेटे-लेटे बसन्तू की स्थिति और बिगड़ गयी थी।
प्रदीप ने पिता को चारपाई से उठाकर अस्पताल के बाहर पेड़ के नीचे लगे बैंच पर
लिटाया और पास में लगे नल से पानी लाकर पिलाया, तो बसन्तू की सांस में सांस
आयी। प्रदीप ने बसन्तू के साथ अस्पताल के बरामदे में ही लेटकर रात व्यतीत कर
दी। अगली सुबह डॉक्टर को दिखाया तो बसन्तू की चलती-थमती सांसें देखते ही
डॉक्टर ने हाथ खड़े कर दिये और बोला कि इसकी बीमारी तो पकड़ में ही नहीं आ रही
है, कोटद्वार अथवा देहरादून के किसी बड़े अस्पताल में ले जाकर दिखाओ। डॉक्टर
के मुँह से ऐसा सुन प्रदीप हताश हो गया।
कहाँ तो वह कोचिंग के लिए इलाहाबाद जाने के सपने देख रहा था और कहाँ आज पिता
को इलाज के लिए कोटद्वार तक ले जाने की सामर्थ्य भी उसमें नहीं है।
शहर के अस्पताल के लिए पैसे कहाँ से आयेगें? मेहनत मजदूरी करके घर का खर्चा
चलाने वाले पिता तो आज लाचार बीमार पड़े हैं, इलाज के लिए कोई रुपये कर्ज भी
देगा तो क्यों?
प्रदीप इसी उधेड़बुन में उलझा हुआ था कि गाँव के भुवनलाला की नजर उस पर पड़ी,
तो पास आकर उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा, 'बेटा प्रदीप निराश न हो, बसन्तू का
इलाज मैं करवाऊँगा। जितना भी खर्चा आयेगा, मैं वहन कर लूँगा।' सुनकर प्रदीप को
लगा कि उसकी बहुत बड़ी समस्या हल हो गयी है और वह भुवनलाला के पैरों में गिर
गया।
भुवनलाला उसे ढाढस बन्धाते और हिम्मत देते हुए बसन्तू को लेकर कोटद्वार आ गये
और बसन्तू को तुरन्त अस्पताल में भर्ती करवा दिया। अस्पताल में डॉक्टरों ने
बसन्तू के कई टेस्ट करवाये। जाँच में आंतों के कैंसर की बीमारी निकली।
अब तो प्रदीप की रही सही हिम्मत भी जबाब दे गयी थी। आई.ए.एस. बनने की तमन्ना
उसे दम तोड़ती नजर आने लगी थी। कितना उत्साह और उमंग था उसके मन में, जिस दिन
उसने विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया था।
हताशा में डूबे बेटे की आंखों को पढ़कर अस्पताल के बेड़ में पड़े-पड़े बसन्तू
ने भुवनलाला की ओर लाचारगी भरी निगाहों से देखा था और खाँसते खाँसते कहा था
'लाला जी! मेरे बेटे का क्या होगा, वह नौकरी की तैयारी के लिए इलाहाबाद जाना
चाहता था?'
सुनते ही भुवन लाला तुरन्त कह उठा 'बसन्तू! चिन्ता न कर, तेरा बेटा आज से मेरा
बेटा है। मैं इसको इलाहाबाद भेजूँगा और तेरा व तेरे बेटे का संकल्प पूरा करके
दिखाऊँगा। मुझ पर विश्वास रख बसन्तू।' यह सुन बसन्तू की आँखें डबडबा गयीं और
वह रुंधे हुए कंठ से बोला, 'लाला जी आप तो मेरे परमेश्वर निकले, मैं आपका यह
अहसान कभी नहीं भूल पाऊँगा।'
भुवन लाला ने प्रदीप की हौसला अफजाई करते हुए कहा, 'बेटा! तेरे बाप को कुछ
नहीं होगा। तू कल सुबह ही इलाहाबाद जाने की तैयारी कर, मेरे से जितनी आवश्यकता
हो, उतने रुपये ले जा। अगर बसन्तू की दिली तमन्ना है कि उसका बेटा बड़ा आदमी
बने, तो मैं भी उसके इस पावन संकल्प को पूर्ण करने में उसका साथ अवश्य दूँगा।
भुवन लाला की बातें सुन प्रदीप का आत्मविश्वास लौट आया और बनाया कि वह और कुछ
नहीं, तो अपने बीमार पिता व भवन लाला जरूर पूरा करेगा। भुवनलाला की सलाह मानकर
प्रदीप पिता को कोटवार में बीमारी की हालत में ही छोड़कर इलाहाबाद चला गया।
बसन्तू की हालत प्रतिदिन खराब होती गयी और प्रदीप के जाने के पन्द्रह बीस
दिनों बाद ही इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा ले चुका था।
इलाहाबाद जाकर प्रदीप आई.ए.एस. परीक्षा की तैयारी में दिन-रात जट गया। भुवन
लाला ने भी प्रदीप को किसी तरह की कमी नहीं होने दी। इलाहाबाद में कोचिंग की
महंगी फीस से भुवन लाला की हालत भी दिन-प्रतिदिन डगमगाती गयी। हर माह हजारों
रुपये का मनीआर्डर भेज-भेज कर भुवनलाला की सतपुली वाली दुकान भी कब की बिक
चुकी थी।
गाँववालों ने भुवनलाला की डगमगाती आर्थिक स्थिति को देखकर व्यंग्य बाणों भरे
ताने कसने शुरू कर दिये, 'किस का बेटा किस का क्या? लाला जी क्यों इतने
धर्मात्मा बनते हो। पहले बसन्तू लाल की बीमारी पर लाखों खर्च किये और अब उसके
बेटे पर लाखों लुटा रहे हो, अरे इतना तो कोई अपनों पर भी नहीं लुटवाता। आखिर
भुक्न लाला का दिमाग क्यों खराब हो गया?' लोगों के गले यह बात नहीं उतर पा रही
थी कि भुवनलाला ऐसा कर क्यों रहा है?
दो-तीन साल यूँ ही बीत गये और प्रदीप अभी तक किसी भी परीक्षा में नहीं निकल
पाया था, किन्तु भुवनलाला को प्रदीप की योग्यता पर पूरा भरोसा था, इसीलिए
भुवनलाला ने उसे खर्चा देना बन्द नहीं किया। भुवनलाला के संकल्प व निश्चय को
देखकर धीरे-धीरे गाँवों वालों ने भी भुवनलाला के खिलाफ बोलना बन्द कर दिया।
कहते हैं, हर रात के पीछे एक सुबह जरूर छिपी होती है और हर दुःख के पीछे सुख
होता है। भुवनलाला की पूरी सम्पत्ति यद्यपि प्रदीप की कोचिंग में समाप्त हो
गयी और वह प्रदीप की खातिर कगाल बन गया था, किन्तु 15 जून का सूरज उसके जीवन
में उल्लास की नयी किरणे लेकर आया, जब प्रदीप ने फोन पर भुवनलाला को बताया कि
वह आई.ए.एस. की परीक्षा पास कर चुका है।
उस दिन भुवनलाला इतने प्रसन्न होकर सबसे गले मिल रहे थे मानो उनका अपना बेटा
ही आई.ए.एस. बना हो।
भुवन लाला सोचता रहा कि 'काश! आज बसन्तू लाल जिन्दा होता, तो उसे सीना ठोककर
बताता कि देख बसन्तू! मैंने अपना संकल्प पूरा कर दिया है। कछ दिनों बाद जब
प्रदीप घर लौटा, तो गाँववालों ने उसी घर में भुवनलाला और प्रदीप को घेर लिया,
जिस घर में संकट और मुसीबत के क्षणों में उन्हें अकेला छोड़ दिया था। प्रदीप
ने जब सारे गाँव के सामने भुवनलाला से लिपटकर उन्हें अपना असली पिता कहकर
पुकारा, ती भुवनलाला की आँखें भर आयीं।