'केदार बाबा की कृपा हुई, तो अगले साल हमारा अपना घोड़ा होगा। ऐसा कहते हए
पुष्कर की बातों में एक आत्मविश्वास झलक रहा था। उसकी आँखों की चमक देखकर केशर
को मानो संजीवनी मिल गयी। 'हाँ यार! हम हमेशा मालिक की ही बन्धुवा मजदूरी नहीं
करते रहेंगे, कभी तो हमारे भी दिन बहुरेंगे। यात्रा सही चली तो भोले बाबा की
कृपा से हमारी किस्मत भी संवर जायेगी।'
'भगवान से दुआएँ करो कि यात्रा ठीक ठाक चले। पिछले साल की अपेक्षा रिकार्ड
तोड़ तीर्थयात्री बाबा केदारनाथ के दर्शनों को पहुँचें।'
पिछले कई सालों से फाटा के मंगलराम के दो घोड़े नीलम और भूरी केदारनाथ की
चढ़ाई तथा उतराई नाप रहे हैं। पुष्कर और केशर तेरह-चौदह की उम्र से ही इन
घोड़ों को हाँक रहे हैं। आज सुबह चार बजे से अब तक उनके घोड़े लगभग साठ मील चल
चुके हैं।
सुरेश चन्द जैसे ही घोड़े पर सवार हुए तो घोड़े की चाल से उन्हें लगा कि घोड़ा
बेमन से चल रहा है। उन्होंने पुष्कर से सवाल किया 'सुबह से घोड़ों को कुछ
खिलाया भी है?'
सुरेश चन्द इंसानों ही नहीं, बेजुबान पशुओं के प्रति भी उतने ही संवेदनशील
हैं। उन्होंने केशर व पुष्कर को कहा 'तुम्हारे घोड़े भूखे पेट हैं, इनके लिए
पास की दुकान से चने ले आओ।' उन्होंने सौ रुपये का नोट केशर को थमाते हुए चने
लाने को कहा।
'रहने दो साब! हम खुद खरीद कर खिला देंगे,' ऐसा कहते हुए उसकी जुबान से लाचारी
साफ झलक रही थी। झिझकते हुए बोला, 'कल शाम से मालिक नहीं आया, साब, इसलिए
घोड़ों को कुछ खिला नहीं पाये।
'श्रेया! मुझे लगता है कि केदारनाथ की यात्रा हमें पैदल ही करनी चाहिए। आखिर
इन बेजुबान पशुओं पर अपना भार लाद कर हम कौन सा पुण्य कमा लेंगे, ये मेरी समझ
से परे है। सुरेश चन्द ने अपनी पत्नी से मुखातिब होकर कहा।
'रहने दीजिए! इस तरह की बातें करेंगे, तो दुनिया में एक कदम चलना भी मुश्किल
हो जायेगा। घोड़े की तो चित्त प्रकृति ही इंसानों या सवारी को ढोने की है। वह
हमें नहीं तो किसी और को ढोयेगा, किन्तु खाली नहीं जायेगा जज साहब! आप अपनी
फिलॉसफी को फिलहाल अपने ही पास रहने दीजिए। तर्कपूर्ण प्रत्युत्तर में श्रेया
ने कहा।
जज साहब अपनी प्रोफेसर पत्नी श्रेया चन्द के इस तरह के जवाब से निरुत्तर थे और
इस बीच जब तक पुष्कर और केशर घोड़ों को चने खिलाकर लौटते, दोनों पति-पत्नी
दार्शनिक अन्दाज में एक-दूसरे की जिज्ञासाओं तथा आशंकाओं पर सवाल जबाव कर रहे
थे।
शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि वही यात्रा सफल होती है, जिसमें शरीर को अधिक
से अधिक कष्ट हो। ऐसे में तो केदार बाबा के दर्शनों का पूरा पुण्य इन
घोड़े-खच्चरों को ही मिलेगा। घोड़े पर सवार होकर केदारनाथ जी के दर्शन करने से
पुण्य के वास्तविक भागीदार तो ये बेजुबान पशु ही हैं।
पति-पत्नी की बातचीत के बीच ही केशर और पुष्कर पहुँच गये। उधर तप्पड़ में
हरी-हरी घास चर रहे घोड़ों को जब चने खाने को मिले, तो उन्हें देख कर ऐसा लग
रहा था मानों बहुत ही स्वादिष्ट दाक्त छक रहे हों। जज साहब की पत्नी श्रेया
बोली भले ही ये निरीह और बेजुबान पशु बोल नहीं पाते, लेकिन उनकी खुशी को तो हम
देख सकते हैं, देखो तो, सारे चने वे दो मिनट में चट कर गये।'
सुरेश चन्द जी घोड़े पर फिर से सवार होकर बम-बम भोले का उद्घोष कर आगे बढ़ने
लगे। जय बाबा केदार! जय भोले शंकर! घोड़ों में चने तथा चने व कुछ पल हरी घास
खाने के बाद घोड़ों में एक नयी स्फूर्ति आ गयी। नीलम और भूरी कुलांचे भरती हुई
सी केदारनाथ मार्ग की चढ़ाई चढ़ने लगी।
'एक दिन में कितने चक्कर लगाते हैं तुम्हारे घोड़े?'
'दो तीन चक्कर लग जाते हैं साब।'
'मालिक तुम्हें और घोड़ों को खाना तो देता होगा?
'देते हैं लेकिन वो गुप्तकाशी गये हैं, इसलिए घोड़ों के साथ हम लोग भी भूखे ही
हैं।
'तुम्हें महीने में पगार देता है? सुरेश चन्द जी ने फिर पूछा।
'तीन सौ रुपये देता है साब मालिक।'
'कोई दूसरा काम क्यों नहीं करते? हमारे साथ चलोगे मुम्बई।'
'नहीं साब! नहीं, हम यही टीक हैं।'
'यहाँ क्या ठीक है?
'अपना घर गाँव है साब! और सबसे बड़ी बात ये है कि अपना गढ़वाल छोड़ने का मन
नहीं करता। केशर की बातों में एक दृढ़ता देख जज साहब चौंक पड़े और सोचने लगे
कि इतनी विषम और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी मातृभूमि के प्रति कितना
अनुराग है इनमें! अपनी जन्मभूमि के प्रति इस अलौकिक लगाव को देखकर पलभर वह
सोचने को विवश हो गये कि इन मनोरम व स्वप्निल पहाडियों का आकर्षण कैसे किसी को
यहाँ से जाने देगा? हम सैलानी के रूप में आये और यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य
के मोहपाश में अनायास ही ऐसे बन्ध गये कि सच में हमारा भी मन नहीं करता मुम्बई
लौटने का। फिर इनकी तो यह जन्म भूमि है। लोग कैसे यहाँ से बाहर जाने की सोच
सकते हैं। जज साहब ऐसा सोच ही रहे थे कि केशर ने उनकी तंद्रा भंग करते हुए
कहा।
'हमारे पहाड़ आपको अच्छे नहीं लगते साब?'
'क्यों नहीं? अच्छे नहीं लगते तो यहाँ दूसरी बार क्यों आते हम? अब तो मन करता
है कि हम भी यहीं के होकर रह जायें। वास्तव में कुदरत ने कितनी फुर्सत और
उदारता के साथ यहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य को निखारा है।'
सुरेश चन्द तथा उनकी पत्नी श्रेया ने घोड़े वालों को रुकने के लिए कहा और एक
जगह पर रुक कर पहाड़ी सौन्दर्य को निहारने लगे।
'श्रेया! लोग कहते हैं कि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है, तो वो कश्मीर है, परन्तु
मुझे तो लगता है कि 'उत्तराखण्ड के पहाड़' ही असली स्वर्ग हैं। यहाँ के
दूर-दूर तक पसरे हुए मनोहारी बुग्याल, सुन्दर फेनिल झरने, कल-कल निनाद करती
सीली नदियाँ और सीढ़ीनुमा खेतों में लहलहाती फसलें वास्तव में किसका मन नहीं
मोह लेंगे? जज साहब दार्शनिक अन्दाज में प्रकृति को निहारते हुए बोले।
'देखो तो! सामने उस पहाड़ी से निकल रहा झरना कितना सफेद है, जैसे बर्फ ऊँचे
प्रपात से गिर रही हो और नीचे नदी में बह रहा पानी कितना स्वच्छ! जी चाहता है
कि हमेशा के लिए पहाड़ की इन्हीं वादियों की होकर रह जाऊँ और यहाँ की प्रकृति
में अपने को समाहित कर दूँ। कहीं दूर...जहाँ दुनिया जहान की चिन्ताएँ न हों,
रोज-रोज की आपाधापी से मुक्त इस प्राकृतिक सौन्दर्य में अपने आप को एकाकार कर
दूँ।' श्रेया भी पहाड़ों के अप्रतिम सौन्दर्य से सम्मोहित होकर बोल उठी।
'जितनी अच्छी प्रकृति, उतना ही अच्छा लोगों का मन, गंगा की तरह निश्चल व
पवित्र! नीलम और भूरी को देखिए...इंसानों की तरह आचरण कर रहे हैं। लगता है
जैसे मानवीय व्यवहार को अच्छी तरह समझते होंगे। कितने संवेदनशील, अपने मालिकों
के प्रति इतना संवेदनशील तो इंसान कभी हो ही नहीं सकता, जितने संवेदनशील ये
निरीह व बेजुबान जानवर हैं।' जज साहब और उनकी पत्नी के बीच वार्तालाप का
सिलसिला जारी था। केशर और पुष्कर कुछ ही दूरी पर बैठे बीड़ी फूंकते हुए हँसी
मजाक में व्यस्त थे और सोच रहे थे कि चलो, इसी बहाने थोड़ी देर के लिए ही सही,
कमर सीधी करने का मौका तो मिला।
'कितने प्रसन्नचित हैं ये लोग। दिनभर मेहनत करने और भूखे पेट होने के बावजूद
भी कितने खुश हैं। आखिर इनकी खुशी का राज क्या है? शायद इनकी जन्मभूमि की
माटी, या फिर प्रकृति का यह सौन्दर्य?'
जज साहब तनिक आँखें बन्द कर ऐसा सोच ही रहे थे कि पास ही पहाड़ी पर चर रही
नीलम का पाँव फिसल गया और वह सीधे नीचे दो सौ मीटर से अधिक की गहराई में गिरकर
नदी के पत्थरों में लुढ़क गयी। उसके शरीर ने कुछ देर हरकत की और फिर अचानक सब
कुछ शान्त हो गया। पल भर में ही एक अजीब सा सन्नाटा पसर गया था वहाँ।
हड़बड़ाये केशर और पुष्कर ने तुरन्त ही पहाड़ियों पर कूदते हुए नदी की ओर दौड़
लगाई, किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भूरी ने उचक कर नदी किनारे शान्त
पड़े हुए नीलम के शरीर को देखा और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली।
जज साहब और उनकी पत्नी ने चौंक कर भूरी की तरफ देखा, तो अनायास ही उनकी आँखें
भी भर आयीं। नदी किनारे केशर और पुष्कर नीलम के शरीर पर हाथ फेरते हुए फफक-फफक
कर रो रहे थे।
केशर और पुष्कर को सान्त्वना देकर एक पल के लिए भूरी के पास जाकर उसकी पीठ और
गले पर हाथ फेरकर, उसी की जुबान में संवेदना व्यक्त करते हुए जज साहब अपनी
पत्नी सहित अश्रुपूरित नयनों से पैदल ही बाबा केदार के दर्शनार्थ अपनी उस
यात्रा पर प्रस्थान कर गये, जिसका पुण्य वे पहले ही इन बेजुबान पशुओं को
समर्पित कर चुके थे।