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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक

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'अरे सरजू चल उठ! आज भी काम पर नहीं चलना क्या?' रामदीन ने सरजू की झोपड़ी के अन्दर घुसते हुए कहा।

'चल रहा हूँ। पिछले एक हफ्ते से घर में पड़ा हूँ। आज भी अगर काम पर नहीं जाऊँगा तो बच्चों को कैसे पालँगा? सरजू ने धीमी आवाज में कहा।

'क्या बात है, अभी भी तबियत ठीक नहीं लग रही तेरी?'

'ठीक ही है। खांस खांसकर पूरा बदन दुःख रहा है। फिर भी पहले से ठीक है।' और सरजू रामदीन के साथ झोंपड़ी से बाहर निकल आया।

सरजू अपनी पत्नी और तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ रेलवे पटरी से जुड़ी झोंपड़ बस्ती में रह रहा था। दो साल पहिले गाँव में पड़े भीषण अकाल के बाद, अन्न के एक-एक दाने के लिए तरस गये परिवार को लेकर सरजू मजदूरी करने हेतु शहर चला आया था। तब से पूरे दो बरस हो चुके हैं, सरजू गाँव वापिस नहीं जा पाया।

पिछले कुछ दिनों से सरजू काफी थकान महसूस कर रहा था। शाम होते ही हल्का सा बुखार आ जाता और बदन टूटने लगता। अस्पताल से दवाई लेकर कुछ दिन तो काम पर जाता रहा, लेकिन जब बुखार बढ़ने लगा और साथ में खांसी भी होने लगी तो काम पर नहीं जा पाया।

दो साल की मेहनत मजदूरी से पाई-पाई जोड़कर जो पैसा बचाया था, उसका एक हिस्सा तो इसी एक हफ्ते में खत्म हो गया था। सरजू चाहता था कि कुछ पैसा बचा पाये तो वापिस अपने गाँव लौट पायेगा। शहर के इस घुटन भरे माहौल में हमेशा के लिए रहना नहीं चाहता था वह।

दो-तीन दिन तो सब ठीक चला किन्तु चौथे दिन ही रामदीन ने घर आकर सूचना दी कि सरजू काम करते-करते अचानक बेहोश हो गया। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है। खबर मिलते ही सरजू की पत्नी रामदेई तीनों बच्चों को रामदीन की पत्नी के पास छोड़कर अस्पताल की ओर भागी।

डॉक्टर के अनुसार सरजू के.दोनों फेफड़ों में संक्रमण था और अगर अब उसने कुछ दिन आराम नहीं किया तथा पूरा इलाज नहीं करवाया तो उसकी जान को भी खतरा हो सकता है।

एक सप्ताह सरजू अस्पताल में भी रहा और इस एक सप्ताह में बाकी जमा पूँजी भी समाप्त हो गयी। उल्टे पड़ोसियों का कर्ज भी चढ़ गया। डॉक्टर अनुसार सरजू को कम से कम एक महीने का आराम और छ: महीने तक रहा करवाना अति आवश्यक था।

अब क्या होगा? सरजू और रामदेई के सामने यह यक्ष प्रश्न था। पर राम ने हार नहीं मानी। आस-पास के कुछ लोगों से मिल कर दो तीन घरों में सफाई का काम ढूंढ लिया। लेकिन अब समस्या छ: माह के पुत्र को संभालने की थी। आरम्भ में तो रामदेई उसे अपने साथ ले जाती और घर के बाहर ही बरामदे में उसे लिटा देती, लेकिन घर के मालिकों द्वारा आपत्ति करने के बाद उसके पास बच्चे को घर पर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था।

दोनों बड़ी बेटियाँ, जो कि क्रमशः पाँच व तीन वर्ष की थीं, के सहारे छ: माह के बेटे को छोड़कर रामदेई ने काम करना आरम्भ कर दिया।

सरजू को घर में रहते हुए पन्द्रह दिन हो चुके थे, किन्तु उसकी हालत में अपेक्षानुरूप सुधार नहीं था। डॉक्टर को दिखाया गया तो उसने सलाह दी कि दवाइयाँ काफी तेज हैं इसलिए सेहतमन्द और प्रोटीनयुक्त भोजन लेना आवश्यक है। ऐसी तंगहाली में जबकि जी तोड़ मेहनत के बाद भी रामदेई की थोड़ी सी कमाई में भरपेट भोजन ही मुश्किल हो पा रहा था, सरजू की सेहत के लिए प्रोटीनयुक्त और विटामिनयुक्त टॉनिक खरीदना कतई सम्भव नहीं था।

घर की हालत यह हो गयी थी कि दवाइयों के लिए भी अब पैसा नहीं था। कर्ज भी माँगते तो किससे और कितनी बार? सभी लोगों की स्थिति उन्हीं की तरह तो थी। रामदेई ने कुछ और घरों में काम पर जाने का प्रयास किया, किन्तु सफलता नहीं मिल पायी।

एक महीना होते-होते ही सरजू की दवाइयाँ बन्द हो गयीं। उसकी स्थिति इलाज के अभाव में बद से बद्तर होती जा रही थी। अब तो वह बिस्तर से उठ पाने की स्थिति में भी नहीं था। रामदेई जो कमाती उससे दो जून की रोटी भी मुश्किल से चल पाती। सरजू के सीने में तीखा दर्द उठने लगा था और अब तो खांसी के साथ कभी-कभी खून भी गिरने लगता था।

दो महीने इसी दर्द को भुगतने के बाद आखिर सरजू ने इस दर्द से मुक्ति पायी और अपने गाँव वापिस जाने की चाह मन में लिए सरजू इस दुनिया से विदा हो गया।

रामदेई के सिर पर तो पहाड़ टूट पड़ा। इस बेगाने शहर में अपनों से इतनी दूर वो छोटे-छोटे बच्चों के साथ अकेली कैसे रहेगी? सरजू के अन्तिम संस्कार के बाद जब रामदेई काम पर गयी, तो पता चला कि उसकी जगह मालिकों ने किसी और का काम पर रख लिया है। आखिर इतने दिनों की गैरहाजिरी कैसे कोई बर्दाश्त करता?

रामदेई को अब नये सिरे से काम तलाश करना था। घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था। बच्चों पर दया कर रामदीन की पत्नी कुछ खाने को दे जाती थी।

रामदेई अभी काम की तलाश में दर दर भटक ही रही थी कि तभी एक नयी मुसीबत आ खड़ी हुई। जिस बस्ती में सरजू की झोंपड़ी थी, वह गैर कानूनी ढंग से कब्जाई गयी रेलवे विभाग की सम्पत्ति थी। अब कोर्ट से उस सरकारी जमीन को तुरन्त खाली करवाने के आदेश प्राप्त हो चुके थे। बस्ती में मुनादी कर दी गयी थी कि एक सप्ताह के अन्दर सभी अपनी झोंपड़ियाँ खाली कर दें, अन्यथा उन्हें बुल्डोजर चलवाकर जबरन हटा दिया जायेगा।

सभी लोग सिर छुपाने हेतु दूसरा ठिकाना ढूँढ़ने में व्यस्त थे। इस उथल-पुथल के बीच किसी का भी ध्यान इस ओर नहीं गया कि रामदेई अपने तीनों मासूम बच्चों को लेकर कहाँ जायेगी? क्या करेगी?

चार दिन बीत चुके थे। रामदेई के घर में अन्न का एक दाना भी नहीं था। स्वयं तो वह किसी तरह पानी पी-पीकर अपना पेट भर रही थी, लेकिन बच्चों का क्या करे? बेटियाँ तो किसी तरह से अपने आप को शान्त रखे थी लेकिन छोटा बेटा भूख के मारे लगातार चिल्लाये जा रहा था। जब रो-रोकर थक गया तो बेहोश हो गया।

इसी बीच बस्ती हटाने को लेकर राजनीति आरम्भ हो गयी थी और कई राजनीतिक पार्टियों के नेता अपने वोट बैंक को सुरक्षित करने के लिए बस्ती वालों के पक्ष में सभाएँ करने लगे थे।

अपनी स्वार्थ सिद्धि के अतिरिक्त किसी को भी किसी की भावनाओं की कोई परवाह न थी। सान्त्वना और संवेदना के बोल नेताओं के भाषणों तक ही सिमट कर रह गये थे।

कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं जाति एवं सम्प्रदाय के नाम पर अपना वोट बैंक पक्का करने की चाहत लिए जगह जगह टैंट लगवाकर लम्बे चौड़े भाषण पीटने वाले नेताओं अथवा उनके पिछलग्गुओं के पास रामदेई जैसी बेसहारा महिलाओं व उनके परिवार की सुध लेने की फुर्सत कहाँ थी? प्रशासनिक व सामाजिक उपेक्षा का दंश तो वह पहिले से ही झेल रही थी।

रामदेई के लिए अपनी भूख बर्दाश्त करना तो आसान था, लेकिन बच्चों की स्थिति उससे देखी नहीं जा रही थी। इस जीने से तो मर जाना कहीं ज्यादा अच्छा है, इसी उधेड़बुन में अन्ततः रामदेई ने उस रात एक ऐसा फैसला कर लिया जो मानवीय सरोकारों के प्रति संवेदनशील होने का ढोंग रचने वाले नेताओं के साथ ही हमारे जिम्मेदार प्रशासन और सभ्य समाज के ठेकेदारों के मुंह पर करारा प्रहार कर गया था। बहुत दिनों से रामदीन की पत्नी रामदेई से नहीं मिल पायी थी। घर उजाड़े जाने की दहशत से वह भी परेशान थी। शाम को रामदेई और उसके बच्चों की खोज खबर लेने जब वह झोंपड़ी के अन्दर पहुंची तो वहाँ सबको बेसुध पड़ा देखकर उसकी चीख निकल गयी।

घर के अन्दर रामदेई अपने तीनों बच्चों सहित मृत पड़ी थी। पोस्टमॉर्टमा में चारों की मृत्यु जहर के सेवन से हुई थी। कई दिनों से पेट खाली होने के कारण जहर ने आसानी से तुरन्त असर कर दिया था। पिछले कई दिनों से भूख को निगलने को आतुर इस परिवार को आज भूख ही निगल गयी थी।

अगले दिन सुबह ही परिवार के चारों सदस्यों का अन्तिम संस्कार कर दिया गया। इस अजनबी शहर में सरजू और रामदेई ने शीघ्र ही वापिस अपने घर लौट जाने की सोची थी लेकिन परिस्थितियाँ उन्हें इन सब झंझावातों से ही सदा के लिए मुक्त कर गयी थीं।

उधर दूसरी तरफ एक राजनीतिक पार्टी के नेता की जनसभा जारी थी। एक नेता चीख रहा था, 'आखिर हम सरकारी फरमान को झुकाने में कामयाब रहे, गरीबों की ये बस्ती अब नहीं उजाड़ी जायेगी। हमारी पार्टी गरीबों के उत्थान के लिए हमेशा प्रयासरत रही है और देश से गरीबी तथा भुखमरी हटाना हमारा प्रयास रहेगा।'

सच ही तो कह रहा था वह! यदि गरीब भूखे पेट रामदेई और उसके बच्चों की तरह इसी प्रकार हटते रहे, तो एक न एक दिन गरीबी तो सदा के लिए अपने आप ही हट जायेगी न...।


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