'और रामप्रसाद जी कैसे हो?' कुन्दन सिंह ने रामप्रसाद की दुकान पर रखे बेंच पर
बैठते हुए पूछा।
'सब भगवान की कृपा है और तुम बताओ, आज सुबह-सुबह कैसे इधर आ गये।
'पौड़ी जा रहा हूँ। प्रकाश का इण्टरव्यू है। उसकी नौकरी लग जाये तो हमारी
समस्याओं का अन्त हो जाये।' 'कुन्दन प्रसन्नता से बोला।
अरे ये तो बहुत अच्छी खबर है। इसी खुशी में मेरी तरफ से चाय पियो।' फिर प्रकाश
को आवाज लगाते हुए रामप्रसाद बोले। 'अरे प्रकाश! बेटा तू भी आ, मेरे हाथ की
चाय पीकर जा, तेरा काम जरूर सुफल हो जायेगा।'
'नहीं चाचा! चाय नहीं पीऊँगा। आपका आशीर्वाद ही काफी है। प्रकाश ने रामप्रसाद
को प्रणाम करते हुए कहा।
तभी जीप आ गयी और दस सवारियों वाली जीप में सत्रह अठारह लोग भेड़-बकरियों की
तरह भर गये। नीचे पाँव टिकाने की भी जगह न मिलने पर कुछ लोग जीप की छत पर बैठ
गये।
'इन यात्रियों का तो भगवान ही मालिक है। जब कोई दुर्घटना होती है तो कुछ दिन
तक तो उसका असर रहता है, बाद में फिर वही 'ढाक के तीन पात।' रामप्रसाद दुकान
में बैठे व्यक्ति से बोला।
'कह तो तुम ठीक रहे हो लेकिन क्या करें हम भी? बस तो एक ही चल रही है इस
क्षेत्र में। अब इन्हीं जीपों का सहारा है। उसका भी ये लोग पूरा फायदा उठाते
हैं। जीप वाले तो कहते हैं कि डीजल बहुत मंहगा हो गया है, इसलिए इस मंहगाई के
जमाने में एक बार में दस बारह सवारियों से क्या गुजर बसर हो पायेगी।'
थोड़ी ही देर में पहाड़ी रास्ते पर हिचकोले खाती जीप आँखों से ओझल हो गयी।
लगभग एक घण्टे बाद पड़ोस के गाँव का एक लड़का दौड़ता हुआ आया और बोला कि 'वह
जीप जो सुबह यहाँ से निकली थी, आगे सुनार गाँव के गधेरे के पास उसका एक्सीडेंट
हो गया है और जीप में आग लग गयी है।'
रामप्रसाद उस समय चाय बना रहे थे। दुर्घटना की खबर सुनते ही उन्होंने वैसे ही
स्टोव को बन्द किया और उस लड़के के साथ दुर्घटना स्थल की ओर चल दिये। 'चल
बेटा! पैदल रास्ते से थोड़ी देर में ही हम वहाँ पहुँच जायेंगे। पता नहीं क्या
हाल हुआ होगा लोगों का?'
रामप्रसाद की गाँव के पास ही तीन-चार दुकानों वाले छोटे से बाजार में दुकान
थी, जिसमें वे जरूरत की सारी वस्तुयें रखते थे। मोटर रोड़ पर दुकान होने के
कारण आस-पास के गाँव वालों का वहाँ बराबर आना-जाना लगा रहता था, परन्तु
रामप्रसाद का ध्यान तो दुकान में कम और समाजसेवा में अधिक लगता था। आस-पास के
गाँव का कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसका दुःख दर्द उन्होंने न बाँटा हो।
रामप्रसाद की कोई आस औलाद न थी। गाँव में थोड़ी सी कृषि योग्य भूमि थी, जिसे
पत्नी के जिम्मे छोड़ रामप्रसाद अपनी दुकान और समाजसेवा में व्यस्त रहा करते
थे।
अक्सर उनकी दुकान खुली रहती, किन्तु रामप्रसाद जी किसी न किसी के काम से दुकान
से गायब रहते। इस बात पर कई बार घर में कलह भी हो जाती, फिर भी रामप्रसाद के
कान पर जूं न रेंगती। समाजसेवा का जुनून उनके सिर चढकर बोलता और वे तुरन्त
दुकान खुली छोड़कर किसी के साथ भी निकल पड़ते।
दुर्घटना स्थल पर पहुँचते ही रामप्रसाद के रोंगटे खड़े हो गये। जीप बुरी तरह
जल चुकी थी और जो लोग जीप के अन्दर बैठे थे, वे भी तो दम तोड़ चुके थे अथवा
सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक झुलस चुके थे। जो लोग छत पर बैठे थे, या जीप पकड़
कर बाहर की ओर लटक रहे थे, वे भाग्यशाली रहे और इस हादसे में बच गये थे।
प्रकाश भी अपने पिता को जीप के अन्दर बैठाकर स्वयं छत पर बैठ गया था। प्रकाश
ने तो किसी तरह छत से कूद कर अपनी जान बचा ली, लेकिन उसके पिता जीप के अन्दर
ही फंसकर बुरी तरह जल गये थे। उनकी साँसें मात्र ही चल रही थीं।
दुर्घटना के तीन घण्टे बाद ही घायलों को प्राथमिक उपचार नसीब हो पाया। उन्हें
किसी तरह से वाहन का इन्तजाम कर पौड़ी जिला चिकित्सालय ले जाया गया। रामप्रसाद
भी घायलों के साथ अस्पताल पहुँच गये। मण्डल मुख्यालय में स्थित मुख्य
चिकित्सालय होते हुए भी वहाँ पर इतनी तक सुविधा उपलब्ध नहीं थी कि बुरी तरह
जले हुए जख्मियों का प्राथमिक उपचार भी सम्भव हो सके।
अस्पताल की इन्हीं अव्यवस्थाओं के बीच दो दिन के अन्दर दो और घायलों ने दम
तोड़ दिया। इस स्थिति को देखते हुए शेष घायलों के सम्बन्धियों ने उन्हें
देहरादून ले जाना उचित समझा, किन्तु प्रकाश क्या करता? उसके पास न तो पैसा था
और न ही ऐसा कोई सम्बन्धी, जो पिता के इलाज में उसकी मदद कर सके। नौकरी के लिए
इण्टरव्यू से घर के लिए कुछ आस बन्धी थी, इस दुर्घटना के कारण वह भी सम्भव
नहीं हो पाया और नौकरी की आस में हाथ आया अवसर निकल चुका था। दूसरी ओर उचित
इलाज के अभाव में पिता की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही थी।
यद्यपि रामप्रसाद जी अपनी हैसियत के अनुसार प्रकाश की मदद कर रहे थे, लेकिन
उनकी भी तो सीमाएँ थी। प्रकाश की आँखों से बहते गरीबी और लाचारी के आँसू देखकर
उनसे रहा नहीं गया था। अगले दिन वे जिले के उच्च अधिकारियों से मिलकर समय बीत
जाने के उपरान्त भी प्रकाश को इण्टरव्यू दिलवाने में सफल रहे। प्रकाश की
परिस्थिति को मद्देनजर रखते हुए उसका इण्टरव्यू तो हो गया, लेकिन प्रकाश को यह
मात्र एक औपचारिकता ही लग रही थी।
सुबह लौट आने का वादा कर उसी शाम रामप्रसाद जी गाँव वापिस चले गये। अब प्रकाश
अत्यधिक हताश हो गया। उसे महसूस होने लगा कि पैसे और इलाज के अभाव में उसके
पिता अब ज्यादा दिन शायद जिन्दा नहीं रह पायेंगे।
परन्तु अगली सुबह जब रामप्रसाद एम्बुलेन्स की व्यवस्था कर प्रकाश के पास आकर
बोले, 'चल बेटा प्रकाश! कुन्दन को देहरादून ले जाना है।' तो प्रकाश के आश्चर्य
की सीमा न रही और उसकी हताशा आशा में तब्दील होने लगी।
'लेकिन चाचा ये सब कैसे....?' प्रकाश ने आश्चर्य से पूछा, किन्तु रामप्रसाद ने
उस समय कोई जबाब न दिया।
पिता को देहरादून पहुँचाकर प्रकाश को लगा कि शायद अब उचित इलाज से वे ठीक हो
जायेंगे। अब उसे ये बात साल रही थी कि रामप्रसाद चाचा ने पैसे का इन्तजाम कहाँ
से किया होगा?
दो दिन दर्द से जूझने के बाद अन्ततः प्रकाश के पिता ने दम तोड़ दिया। दरअसल
इलाज में देरी के कारण उनका संक्रमण इतना बढ़ चुका था कि डॉक्टर लाख प्रयलों
के बाद भी कुछ नहीं कर पाये।
प्रकाश देहरादून में ही अपने पिता का अन्तिम संस्कार कर व्यथित मन से गाँव
वापिस लौट आया। पन्द्रह-बीस दिन बाद प्रकाश को किसी ने बताया कि उसके नाम कोई
चिट्ठी पोस्ट ऑफिस में आयी है। उसने सोचा कि डाकिया तो पता नहीं कब तक चिट्ठी
पहुँचायेगा, वह स्वयं ही पोस्ट ऑफिस चला गया। रास्ते में वह सोचता जा रहा था
कि शायद किसी और नौकरी के लिए इण्टरव्यू का सन्देश हो।
बाजार पहुँचकर उसने देखा कि रामप्रसाद चाचा की दुकान पर ग्राम प्रधान का बेटा
बैठा है। पहले तो उसने सोचा कि चाचा गये होंगे फिर किसी दुःखी व्यक्ति की सेवा
करने, इसलिए ये वहाँ बैठा होगा। लेकिन फिर उसने ध्यान से देखा तो दुकान की
स्थिति ही बदल गयी थी और सामान भी पहले से कहीं अधिक था।
'अरे राजू! रामप्रसाद चाचा कहाँ गये हैं?' उसने दुकान पर बैठे लड़के से पूछा।
'उनके बारे में तो मुझे पता नहीं, लेकिन इतना तो पता है कि ये दुकान अब हमारी
है। राजू बेरुखी से बोला।
'क्या?' प्रकाश चौंक पड़ा 'ये दुकान तुम्हारी कब हुई और कैसे?'
'तुझे नहीं पता क्या? अभी बीस पच्चीस दिन पहले रामप्रसाद चाचा इस दुकान को
रातों-रात हमें बेच गये थे।'
'तुझे तो पता होना चाहिए तेरे पिता के इलाज के लिए ही तो दुकान बेची थी
उन्होंने। इतना निर्गुणी है तू कि अब आश्चर्य प्रकट कर रहा है। राजू के स्वर
में व्यंग्य था।
प्रकाश को मानों साँप सूंघ गया हो। तो उसके पिता के इलाज का खर्च इस तरह उठाया
चाचा ने! लेकिन अब स्वयं क्या कर रहे होंगे? कैसे अपना खर्चा चलायेंगे? यही
सोचते हुए प्रकाश खिन्न मन से पोस्ट ऑफिस की ओर चल दिया।
पत्र पढ़कर उसकी खुशी की सीमा न रही। जो इण्टरव्यू वह पिता की बीमारी के दौरान
राम प्रसाद चाचा के सहयोग से देकर आया था, उसमें उसका चयन हो गया था। सबसे
पहले यह खबर वह रामप्रसाद चाचा को देना चाहता था।
सौभाग्य से वे उसे पोस्ट ऑफिस के बाहर ही मिल गये। उन्हें देख प्रकाश की आँखों
से आँसू निकल आये। प्रकाश के हाथ में पत्र और आँखों में आँसुओं की धार देखकर
रामप्रसाद एक पल के लिए घबरा गये। वे कुछ पूछ पाते, इससे पहले ही प्रकाश ने
पत्र उनके हाथ में थमाया और उनके पैरों में गिर पड़ा। गला रुँध गया था उसका।
पत्र पढ़ते ही रामप्रसाद ने प्रकाश को उठाकर अपने सीने से लगा लिया। 'अरे
पगले! खुशी के मौके पर रो रहा है। आज कुन्दन की मेहनत रंग लाई है और तेरी
कामयाबी पर ऊपर बैठा वह भी अवश्य खुश हो रहा होगा आज।'
'लेकिन चाचा, आपने ऐसा क्यों किया? क्यों अपनी रोजी मेरे पिताजी के इलाज के
लिए बेच दी? क्या मुँह दिखाऊँगा मैं सब को? कैसे चलायेंगे अब आप अपना खर्चा?
'अरे हमारा क्या है? दो प्राणी तो हैं। खेती में ही गुजारा हो जाता है। अच्छा
छोड़ इन बातों को। तू बता कब जाना है तुझे पौड़ी?' रामप्रसाद बात काटते हुए
बोले।
'कल ही जाऊँगा, चाचा जी! नियुक्ति सम्बन्धी सारी औपचारिकताएँ भी पूरी करनी
होंगी। प्रकाश अपने आँसू पोंछते हुए बोला। परन्तु मन ही मन वह एक दृढ़ भी
निश्चय कर चुका था।
उधर दुकान बेचने के बाद रामप्रसाद की स्थिति भी अच्छी न थी। दो जून की रोटी तो
किसी तरह चल जाती थी, किन्तु कुल मिलाकर माली हालत अच्छी न थी। घर जाओ तो
पत्नी के ताने सुनने को मिलते थे, घर से बाहर निकलो तो बाहर वालों के।
उनकी पत्नी, जिसने हमेशा उसका साथ दिया था, दुकान बिक जाने के कारण रामप्रसाद
से बहुल नाराज थी 'एक दिन तो तुम मुझे भी इसी तरह बेच कर सड़क पर खड़ा कर
दोगे।' यह तो रामप्रसाद को रोज ही सुनने को मिलता।
प्रकाश की नौकरी को छ: माह बीत गये थे। इस बीच दो-तीन बार यह गाँव भी आ चुका
था, परन्तु एक बार भी रामप्रसाद को नहीं मिला। लोग जान-बूझकर रामप्रसाद को
कुरेदते 'सुना है प्रकाश घर आया था अपनी माँ से मिलने! तम्हें तो मिला ही
होगा? सुना है शहर जाकर काफी बदल गया है?'
'अच्छा! मुझसे तो नहीं मिला। जल्दी में रहा होगा। नयी-नयी नौकरी है। छुट्टी भी
तो नहीं मिलती' रामप्रसाद प्रकाश की तरफ से सफाई पेश करते नजर आते।
'अरे, तुम उसके अपने तो हो नहीं, जो तुमसे मिलने आयेगा। अपनी माँ से मिलने आया
है। सिर्फ एक तुम ही पागल थे जो उसके पिता के इलाज के लिए अपनी दुकान तक बेच
दी। लोग रामप्रसाद को अपने अपने तरीके से समझाने का प्रयास करते। 'कैसी बातें
करते हो तुम लोग? मैंने कुछ पाने के लिए यह सब नहीं किया था। मेरा कर्तव्य
निःस्वार्थ सेवा करना है। मैंने जो कुछ किया उसे ऊपर वाला देख रहा है, राम
प्रसाद कह तो देते किन्तु कहीं अन्दर से उन्हें भी लगता कि आखिर प्रकाश से
उन्होंने कभी कोई अपेक्षा तो नहीं की? क्यों वह उनसे मिलने से कतरा रहा है?
इसी तरह पूरा एक वर्ष व्यतीत हो गया। अब तो रामप्रसाद जी भी सोचने लगे कि
दुनिया कितनी स्वार्थी है कि अपना काम निकल जाने के बाद दुआ सलाम तक करना भी
भूल जाती है।
समय बीतता गया और रामप्रसाद दिन भर का अपना अधिकांश समय दीन दुःखियों और
जरूरतमन्दों की सेवा करने में इधर-उधर भटकते हुए बिता देते, किन्तु रात होते
ही पत्नी के व्यंग्य बाण वे सहन नहीं कर पा रहे थे। धीरे-धीरे अब उनका
स्वास्थ्य भी जबाब देने लगा था। प्रकाश का खयाल आते ही कहीं न कहीं उनको
स्वार्थसिद्धि वाली बात कचोटती रहती।
रविवार का दिन था। प्रकाश सुबह-सुबह ही रामप्रसाद जी के घर आ पहुँचा। प्रकाश
को देखते ही उनकी पत्नी ने तो मुँह फेर लिया, किन्तु रामप्रसाद जी ने उसे
प्यार से गले लगाया और अपने पास बिठाकर नौकरी सम्बन्धी बातें करने लगे।
कुछ देर रामप्रसाद जी के घर में बैठकर प्रकाश इधर-उधर की बातें करता रहा और
फिर यकायक बोला, 'चाचा, आपको अभी मेरे साथ बाजार तक चलना है' और इतना कहकर
तुरन्त उठ खड़ा हो गया था प्रकाश। उसकी बात सुनकर रामप्रसाद की पत्नी के जी
में आ रहा था कि कह दूँ इससे कि पिछले डेढ़ बरस में तो तूने सुध नहीं ली इनकी,
आज फिर कौन सा काम आन पड़ा है जो तुझे इनकी याद आ गयी है? एक दुकान ही तो थी,
जिसे वे तेरे बाप के इलाज के लिए पहले ही बेच चुके हैं। उनकी पत्नी प्रकाश से
कुछ कह पाती इससे पूर्व ही रामप्रसाद जी ने अपना झोला और लाठी उठाई और बिना
कुछ पूछे चल निकले प्रकाश के साथ। बाजार पहुँचकर प्रकाश ने रामप्रसाद जी को एक
दुकान के आगे ले जाकर उसकी चाबी सौंपते हुए कहा, 'चाचा, ताला तो खोलो!' 'अरे
बेटा! किसकी दुकान है ये? इसका ताला तू मुझसे क्यों खुलवा रहा है?' काँपते हुए
हाथों से ताला खोलते हुए आश्चर्यमिश्रित शब्दों से पूछा था उन्होंने।
'अरे, किसकी दुकान में ले आया तू मुझे?'
'आपकी अपनी दुकान है चाचाजी' प्रकाश भावुक होते हुए बोला जी नयी-नयी नौकरी है,
इसलिए इतना ही कर पाया हूँ आपके लिए। इसे अपने बेटे की तरफ से नौकरी का पहला
तोहफा समझकर स्वीकार कीजिए, चाचाजी! 'बेटा लेकिन....रामप्रसाद जी के मुँह से
तो जैसे शब्द ही नहीं निकल पा रहे थे, गला ऊँध गया था उनका।
'अब लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। क्या आपके बेटे का आप पर इतना भी अधिकार नहीं?'
प्रकाश दृढ़ता से बोला, तो रामप्रसाद जी ना नहीं कर पाये।
प्रकाश ने उन्हें बताया कि पोस्टऑफिस जाते हुए जिस दिन उसे पता चला था कि चाचा
जी ने पिता जी के इलाज के लिए दुकान तक बेच दी, तो उसे अत्यधिक आत्मग्लानि हुई
थी और उसी क्षण उसने स्वावलम्बी बनने का निश्चय कर लिया था। सौभाग्यवश उसी दिन
उसकी नौकरी का नियुक्ति पत्र आ गया था, तो उसने उसी क्षण प्रण किया था कि अब
तभी चाचा जी को शक्ल दिखायेगा, जब उनके लिए दुकान की व्यवस्था कर देगा। इस एक
वर्ष के दौरान वह चार बार गाँव आया अवश्य था, किन्तु अपने निश्चय के अनुसार
उन्हें नहीं मिला। इस बात को सात आठ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। जिस स्थान पर
रामप्रसाद जी की झोंपड़ीनुमा दुकान हुआ करती थी, वहाँ पर एक बड़ी सी पक्की
दुकान बन चुकी है। प्रकाश का विवाह हो चुका है और जब भी वह गाँव आता है,
बच्चों सहित रामप्रसाद चाचा की दुकान पर आना नहीं भूलता है, और उसके बच्चे
तोतली आवाज में जब रामप्रसाद को दादा जी कह कर पुकारते हैं तो रामप्रसाद जी के
चेहरे की रौनक देखते ही बनती है।
रामप्रसाद जी की समाज-सेवा आज भी निर्बाध रूप से बदस्तूर जारी है। अभी तो
उन्हें न जाने कितने प्रकाशों की जिन्दगी और संवारनी हैं...।