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कहानी संग्रह

कथाएँ पहाड़ों की

रमेश पोखरियाल निशंक


'दादा जी, कल हमारे स्कूल में अभिभावक-शिक्षक बैठक है। आप आयेंगे न? हम चारों के लिए आप ही उपस्थित हो जाइएगा। नन्हें राहुल ने चिन्तामणि के पास आकर कहा, जो शाम को प्रांगण में बैठकर एक पत्रिका का आनन्द ले रहे थे।

'अरे बेटा! तुम्हारी माँ चली जायेगी, अब की बार तुम्हारी शिक्षिका को उनसे तुम्हारी शिकायत कर लेने दो। तुम लोगों को ढेर सारी डॉट पड़ेगी तो बहुत मजा आयेगा।' चिन्तामणि बच्चों के साथ बच्चा बनते हुए बोले।

'नहीं दादा जी! हमको डाँट पड़ेगी तो क्या आप खुश होंगे? वैरी बैड, बहुत बुरी बात है।' नन्ही प्रेमा मुँह बनाते हुए बोली तो चिन्तामणि को हँसी आ गयी।

'अच्छा तो ठीक है, मैं आऊँगा किन्तु एक शर्त पर। तुम्हारी शिक्षिका जो कुछ मुझे कहेंगी, वह सब मैं तुम्हारी माँ को बता दूँगा।' चिन्तामणि बनावटी गम्भीरता ओढ़ते हुए बोले।

'ठीक है दादा जी!' और बच्चे मुँह बनाते हुए वहाँ से चले गये।

चिन्तामणि ने एक लम्बी सांस ली। अब यही बच्चे उनका एक मात्र सहारा थे। इन बच्चों को अच्छे संस्कार तथा अच्छी शिक्षा दे सकें, यही उनके जीवन का लक्ष्य था। काश! ये सब वे पहले समझ पाते तो उनके ये बच्चे पिता के प्यार के बिना जिन्दगी बसर नहीं कर रहे होते।

एक समय में उनका भी हँसता-खेलता हुआ भरा पूरा परिवार था। परिवार में उनकी पत्नी सुधा और दोनों बच्चे, मोहित और राधिका।

चिन्तामणि सरकारी विभाग में उच्च पद पर कार्यरत थे। जहाँ मासिक वेतन के साथ-साथ आय के अन्य स्रोत भी स्वतः उत्पन्न हो जाते। इन स्रोतों का पूरा उपयोग करने से चिन्तामणि ने कभी गुरेज नहीं किया। इस सब के चलते चिन्तामणि घर की तरफ अधिक ध्यान नहीं दे पाते थे। उन्हें लगता था कि घर की हर समस्या का हल पैसे से स्वतः ही हो जायेगा।

घर पर समय न दे पाने का आरम्भ में उनकी पत्नी ने विरोध किया भी, किन्तु उसके बदले में घर में मिलने वाली हर प्रकार की सुख-सुविधाओं के मोह जाल में फंसकर पत्नी ने भी विरोध करना छोड़ दिया और समय व्यतीत करने के लिए सुधा ने अपनी ही जैसी परिस्थितियों में रह रही कुछ अन्य महिलाओं के साथ मिलकर एक क्लब बना दिया।

सप्ताह में एक दिन सभी लोग किसी के घर पर मिलते, जहाँ पर पति द्वारा कमाई गयी अकूत दौलत का खुल कर प्रदर्शन होता। धीरे-धीरे सुधा इसी माहौल में रम गयी और उसका घर से बाहर समय बिताने का दायरा बढ़ता चला गया। पनि द्वारा येन-केन-प्रकारेण कमाई गयी अथाह धन दौलत के प्रदर्शन का कोई भी मौका सुधा अपने हाथों से नहीं जाने देती थी।

बच्चे नौकरों और आया के भरोसे बड़े हो रहे थे। दोनों बच्चे जब तक छोटे थे, तब तक सब कुछ ठीक चलता रहा। घर में उनकी सुख सुविधा के लिए सभी कुछ उपलब्ध था। उनके लिए अगर कुछ नहीं था, तो वह था, माँ और बाप का प्यार और उनका समय।

पैसे के दम पर दोनों बच्चे शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ रहे थे। घर पर भी उन्हें ट्यूशन पढ़ाने के लिए अध्यापकों की अच्छी व्यवस्था थी, लेकिन चिन्तामणि और सुधा दोनों को यह जानने की कतई फुर्सत नहीं थी कि बच्चे कर क्या रहे हैं?

समय इसी तरह बीत रहा था। दोनों बच्चे अब स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के बाद कॉलेज में आ गये थे। कॉलेज पहुँचते ही मोहित ने तुरन्त मोटर साईकिल की, मांग की तो दूसरे ही दिन एक आधुनिक डिजाइनर मोटर साईकल उसके लिए खरीद ली गयी।

स्कूल में पढ़ने तक तो बच्चे अनुशासन में बन्धे थे, किन्तु कॉलेज पहुँचते ही मानों उन्हें पंख लग गये। मोहित सारा दिन दोस्तों के साथ आवारगी करता और देर रात घर लौटता। घर में कोई टोकने वाला तो था नहीं। सो धीरे-धीरे उसे ड्रग्स लेने की आदत पड़ गयी और उसकी जैसी प्रवृत्ति के लोगों का जमावड़ा उसके आस-पास बनता गया।

राधिका भावुक मिजाज की लड़की थी। कोई प्यार से दो बचन बोल दे, तो उसके लिए सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहती थी। पिता ने कभी भूल से भी प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा हो, ऐसा उसे याद नहीं। कभी उसका मन होता था कि माँ की गोद में सिर रख कर उससे बहुत सारी बातें करे, लेकिन माँ को इतनी फुर्सत कहाँ थी।

जीवन में प्यार तलाशती राधिका की मुलाकात कॉलेज में मनीष से हुई। मनीष भी माँ-बाप का इकलौता बेटा था और नित नयी नवेली लड़कियों से दोस्ती गांठना उसकी आदत में शुमार था। उसने राधिका की कमजोरी भापकर उसने उससे दोस्ती करने का दिखावा किया, तो प्यार भरे दो बोल के लिए तरसती राधिका शीघ्र ही उसकी बातों के जाल में फंस गयी।

इस सबसे बेखबर चिन्तामणि पैसे कमाने में और सुधा अपनी पार्टियों में व्यस्त थी।

एक दिन घर में खबर आयी कि मोहित को कॉलेज से ही पुलिस पकड़ कर ले गयी है। मामला पता चला तो चिन्तामणि के पैरों के नीचे की जमीन निकल गयी। मोहित के पास कई तरह की मंहगी ड्रग्स मिली थीं और पूरे इलाके में उसी के माध्यम से ड्रग्स का लेनदेन होना पाया गया था। चिन्तामणि ने पैसा पानी की तरह बहा दिया और अपने सभी सम्बन्धों का इस्तेमाल करने के बाद ही वे किसी तरह मोहित की जमानत करवा पाये थे।

मोहित की इस स्थिति के लिए भी चिन्तामणि और सुधा एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहे।

मोहित को कालेज से निकाल दिया गया था। कुछ दिनों तक तो वह यूँ ही आवारागर्दी करता रहा, फिर उसका भविष्य भाँप कर चिन्तामणि ने उसके लिए इलेक्ट्रॉनिक सामान की एक एजेन्सी दिलवा दी और इस व्यापार को पूरी तरह मोहित के भरोसे छोड़कर फिर अपनी नौकरी में व्यस्त हो गये।

शुरुआत में तो मोहित ने ठीक काम किया। यकायक फिर दोस्तों की चौकड़ी जब उसके आसपास इकट्ठा होने लगी, तो देर रात नशे में धुत्त होकर घर लौटना फिर से धीरे-धीरे उसकी नियति बन गयी, जहाँ उसे सम्भालने और समझाने के लिए कोई नहीं था।

इसी बीच राधिका के डील डौल में अनायास आये परिवर्तन को भांपते हुए आया ने जब सुधा को सत्यता बताई, तो सुधा और चिन्तामणि दोनों सकते में आ गये। राधिका पाँच माह से गर्भवती थी। अब कुछ नहीं हो सकता था। मनीष विवाह नहीं करना चाहता था। उसके लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। चिन्तामणि ने पहले तो मनीष को धमकाकर विवाह के लिए मनाना चाहा। जब वह नहीं माना तो चिन्तामणि और सुधा दोनों ने मनीष के पिता के पैर पकड़ लिए थे।

आखिर पिता और माँ के दबाब में मनीष राधिका से विवाह करने को सहमत हो गया।

इस प्रकरण ने चिन्तामणि और सुधा दोनों की चिन्ताएँ बढ़ा दी। उन्हें कहीं तो आभास होने लगा था कि वे अपने बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं दे पाये हैं।

मोहित की आदतें अब भी सुधरने का नाम नहीं ले रही थीं। व्यापार में भी वो लगातार घाटा उठा रहा था। बहू आयेगी तो शायद ये सँभल जाये, यही सोचकर एक साधारण घर की सुशील लड़की से उसका विवाह करा दिया गया। परन्तु मोहित को नशे की इतनी अधिक लत लग चुकी थी कि उस पर किसी भी बात का कोई असर नहीं हो रहा था। सच तो यह था कि नशे के बगैर अब वह एक दिन भी नहीं जी सकता था।

इसी बीच राधिका ने पुत्र को जन्म दिया, किन्तु उसके चेहरे पर जो खुशी नजर आनी चाहिए थी, वह उल्लासपूर्ण खुशी गायब थी। बहुत अधिक कुरेदने पर भी उसने तो कुछ नहीं बताया, परन्तु एक साल बाद ही सब कुछ साफ हो गया। मनीष राधिका के साथ अक्सर मारपीट व गाली गलौज करता था। घर में मनीष की माँ थी, जिनका राधिका को एकमात्र सहारा था, लेकिन उनकी भी कोई नहीं सुनता था।

मनीष के अत्याचारों से तंग आकर आखिरकार राधिका अपने नौ माह के पत्र को लेकर फिर कभी ससुराल वापिस न जाने के लिए मायके चली आयी। राधिका उस समय एक बार फिर गर्भवती थी। मनीष और उसके परिवार ने उसके बाद कभी भी राधिका के बारे में जानने का कोई प्रयास नहीं किया। राधिका अपने दोनों बच्चों के साथ अब स्थाई रूप से मायके में ही रहने लगी थी।

दोनों बच्चों की यह स्थिति देख सुधा को भी अब अपराधबोध सालने लगा था। वह सोचती कि काश! उसने दोनों बच्चों को कुछ समय दे दिया होता और इनके बालमन ही बात सुनी होती, तो आज दोनों बच्चों की जिन्दगी यूँ बर्बाद न हुई होती।

उधर चिन्तामणि को भी अच्छी तरह महसूस होने लगा था कि घर में सिर्फ ढेर सारा पैसा कमाकर दे देने से बच्चों की अच्छी परवरिश नहीं हो जाती। उन्हें तो माँ-बाप के समय और अच्छे संस्कारों की आवश्यकता अधिक होती है। नाजायज तरीके से कमाये गये धन ने ही उनके दोनों बच्चों की जिन्दगी तबाह कर दी थी।

मोहित अब तक किसी तरह से अपनी जिन्दगी को ढो रहा था। वह दो बच्चों का पिता था और अत्यधिक नशे के सेवन के कारण जिन्दगी की आखिरी सांसे मिन रहा था। आखिर एक दिन वह अपनी इस नारकीय जिन्दगी से मुक्ति पा गया और अपने दोनों बच्चों और पत्नी को सुधा और चिन्तामणि के सहारे छोड़ गया।

सुधा अपनी बेटी और बहू की इस परिस्थिति के लिए स्वयं को जिम्मेदार समझने लगी थी और इसी गम में उसने भी चारपाई पकड़ ली। मोहित के जाने के लगभग तीन वर्ष बाद ही सुधा भी चिन्तामणि के बूढे कन्धो पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी डालकर स्वर्ग सिधार गयी।

'अरे, दादाजी! आप तो से रहे हैं। क्या हुआ?' राहुल ने आकर झकझोरा, तो चिन्तामणि की तन्द्रा टूटी।

'अरे नहीं बुद्धू! रो नहीं रहा हूँ। आँख में तिनका चला गया है शायद, इसी वजह से पानी बह रहा है।' चिन्तामणि अपना दर्द छुपाते हुए बोले।

'दादा जी! हम स्कूल जा रहे हैं। दिन में बैठक में आना मत भूलिएगा और राहुल कूदता फाँदता वहाँ से चला गया।

'जरूर आऊँगा बेटा! जो गलती एक बार कर चुका हूँ, उसे कदापि नहीं दोहरा सकता।

'तुम लोगों को सही दिशा और अच्छे संस्कार देकर बेटी और बहू दोनों को तनिक भी सुकून पहुँचा सकूँ, तो यही मेरा सच्चा पश्चाताप होगा।' और चिन्तामणि की बूढी आँखे आत्मविश्वास से भर गयी...।


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