रेलवे लाइन पर एक भीमकाय इंजन तेज़ी से जा रहा था। एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर
रेंग रहा था। इंजन आ रहा है, यह देखकर धीरे से लाइन से उतरकर उसने अपने प्राण
बचाये। फिर भी क्षुद्र नगण्य कीट जो इंजन से दबकर किसी भी क्षण मर जा सकता
है, एक जीवित पदार्थ है, और इंजन इतना बृहत इतना विशाल होने पर भी केवल एक
यंत्र है, एक इंजन ही है। तुम कहोगे, एक में जीवन है और दूसरा केवल जड़ पदार्थ
है- उसकी चाहे जितनी शक्ति हो, उसकी गति और वेग जितना ही प्रबल हो, वह जीवनहीन
एक जड़ यंत्र के सिवा और कुछ भी नहीं। और वह क्षुद्र कीट, जो लाइन के ऊपर चल
रहा था, इंजन के स्पर्श मात्र से जिसकी मृत्यु निश्चित थी, वह उस भीमकाय
इंजन की तुलना में श्रेष्ठ और महिमा-संपन्न है। वह अनंत का एक क्षुद्र अंश
है, और इसी कारण वह उस शक्तिशाली इंजन से श्रेष्ठ है। उसका यह श्रेष्ठत्व
क्यों है ? जीवित प्राणी से निर्जीव जड़ पदार्थ की भिन्नता हम कैसे समझते
हैं ? यंत्र के निर्माता ने उसे जिस प्रकार परिचालित करने की इच्छा से उसका
निर्माण किया वह यंत्र केवल उतना ही कार्य यंत्रवत् करता है, उसके कार्य जीवित
प्राणी की भाँति नहीं होते। तो फि़र जीवित और मृत का भेद किस प्रकार किया जाए
? जीवित प्राणी में स्वाधीनता है, बुद्धि है, और निर्जीव जड़ पदार्थ में
स्वाधीनता नहीं है; कारण, उसके बुद्धि नहीं है, वह कुछ जड़ नियमों की सीमा
में बद्ध है। जो स्वाधीनता हमें यंत्रों से पृथक करती है - उसी की प्राप्ति
के लिए ही हम तत्पर हैं। हमारी सभी चेष्टाओं का उद्देश्य उत्तरोत्तर
स्वाधीन होना है। कारण, पूर्ण स्वाधीनता पाने पर ही हम पूर्णत्व पा सकते
हैं। हमें इस बात का ज्ञान हो या न हो, स्वाधीनता पाने की यह चेष्टा ही सभी
प्रकार की उपासना-प्रणलियों की भित्ति है।
संसार में जितने प्रकार की उपासना-प्रणालियाँ प्रचलित हैं, उन सबका यदि हम
विश्लेषण करें, तो हमें मालूम होगा कि नितांत असभ्य जातियाँ भूत-प्रेत,
दानव, पूर्वजों की आत्माओं की उपासना, सर्प-पूजा, जातीय देव-विशेष की, तथा
मृत व्यक्तियों की उपासना करते हैं। ऐसा वे क्यों करते हैं ? कारण यह है कि
लोग यह समझते हैं कि किसी अज्ञात रूप से ये देवादि पुरुष उनकी अपेक्षा बड़े
हैं, बहुत शक्तिशाली हैं और वे उसकी स्वाधीनता में बाधा डालते हैं। इसी कारण
इन सब पुरुषों को वे संतुष्ट करने की चेष्टा करते हैं, जिससे वे उनका किसी
प्रकार अनिष्ट न कर सकें, अर्थात जिससे वे अधिकतर स्वाधीनता लाभ कर सकें। इन
सब श्रेष्ठ पुरुषों को संतुष्ट करके वरस्वरूप उनसे ऐसी वस्तुएँ लाभ करना
चाहते हैं जिन सब को उन्हें अपने प्रयत्न से लाभ करना उचित है।
जो भी हो, इससे यह प्रकट होता है कि समग्र संसार एक चमत्कार की आशा कर रहा
है। यह आशा हमें कभी नहीं छोड़ती और हम चाहे जितनी चेष्टा क्यों न करें, हम
सब केवल अद्भुत और चमत्कार की ओर दौड़ रहे हैं। जीवन का अर्थ और उसके रहस्य
के अविराम अनुसंधान को छोड़ मन का और क्या अर्थ हैं ? हम कहेंगे कि असभ्य
लोग ही ऐसी बातों के पीछे दौड़ रहे हैं, परंतु फिर भी प्रश्न रहता है कि ऐसा
क्यों है ? यहूदी लोग भी एक चमत्कार की याचना कर रहे थे। केवल यहूदी ही
क्यों, समग्र जगत ही हजारों वर्षों से ऐसी प्रत्याशा करता आ रहा है। और
समग्र जगत में सबके भीतर ही एक असंतोष का भाव दिखायी पड़ता है। हमने एक आदर्श
को ग्रहण किया जीवन का एक लक्ष्य स्थिर किया- परंतु उसकी ओर अग्रसर होकर आधे
रास्ते तक पहुँचते ही एक नया आदर्श अपना लिया। एक निर्दिष्ट लक्ष्य की
प्राप्ति के लिए हमने कठिन चेष्टाएँ कीं, परंतु उसके बाद देखते हैं कि हम उसे
नहीं चाहते। बारंबर हम लोगों में ऐसा असंतोष आता रहता है, किंतु यदि असंतोष ही
बना रहे, तो हमारे मन में क्या है ? इस सार्वजनीन असंतोष का अर्थ क्या है ?
इसका अर्थ यह है कि स्वाधीनता ही मानव का चरम लक्ष्य है - जब तक वह
स्वाधीनता की प्राप्ति नहीं करता, तब तक किसी तरह भी उसका असंतोष दूर नहीं हो
सकता। मनुष्य सर्वदा ही स्वाधीनता का अनुसंधान कर रहा है, मनुष्य का समग्र
जीवन ही केवल इस स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा है। शिशु जन्म ग्रहण करते ही
नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज़ रुदन की होती है, जो
अपने बंधनों के प्रति उसका विरोध होता है। स्वाधीनता की यह आकांक्षा ही
पूर्णत: स्वतंत्र एक सत्ता की भावना को जन्म देती है। ईश्वर की धारणा
मनुष्य की प्रकृति का एक मूल उपादान है। वेदांत के अनुसार मानव मन की
सर्वोच्च ईश्वर-धारणा सच्चिदानंद है। वह चिद्घन और स्वभावत: आनंदस्वरूप
है। हम बहुत दिनों से उसकी वाणी को दबा रखने की चेष्टा करते आये हैं। नियम का
अनुसरण करने की इच्छा से हम अपनी स्वाभाविक प्रकृति में बाधा डालने का
प्रयास कर रहे हैं, किंतु हमारा आभ्यंतरीण मानव-स्वभाव सुलभ सहज संस्कार,
प्रकृति की नियमावली के विरुद्ध हमें विद्रोह करने के लिए प्रवृत्त कर रहा है।
हम इसका अर्थ चाहे न समझें, परंतु अचेतन रूप से हमारे मानवीय भाव के साथ
आध्यात्मिक भाव का, निम्न स्तर के मन के साथ उच्चतर मन का, संघर्ष चल रहा
है, और यह संघर्ष अपने पृथक अस्तित्व को जिसे हम 'व्यक्तित्व' कहते हैं-
सुरक्षित रखने का प्रयत्न करता है।
यहाँ तक कि नरकों का अस्तित्व भी इस बात को सिद्ध करता है कि हम जन्मसिद्ध
विद्रोही हैं। हम जीवन के प्रथम तथ्य, स्वयं जीवन के अंतर्प्रवाह के विरुद्ध
भी विद्रोह करते हैं और चिल्ला उठते हैं, ''हमारे लिए कोई नियम नहीं हो
सकता।'' जब तक हम प्रकृति की नियमावली को मानकर चलते हैं, तब तक हम यंत्र की
तरह हैं- तब तक जगत-प्रवाह अपनी गति से चलता रहता है- उसकी शृंखला हम तोड़
नहीं सकते। नियम का पालन ही मनुष्य की प्रकृति हो जाती है। परंतु जब हमारे
भीतर प्रकृति का यह बंधन तोड़कर मुक्त होने की चेष्टा उत्पन्न होती है,
तभी उच्च स्तर के जीवन का प्रथम उन्मेष होना समझना चाहिए। मुक्ति-ओ मुक्ति,
मुक्ति- ओ मुक्ति! यही- आत्मा का गीत है। किंतु हाय ! प्रकृति की सैकड़ों
शृंखलाओं में बद्ध होना ही उसकी नियति है।
चमत्कार-लाभ के लिए यह नाग-पूजा, या भूत-प्रेत की उपासना या दानव-पूजा तथा
विभिन्न धर्ममत और साधना क्यों होने चाहिए ? किसी भी वस्तु में जीवन है,
उसके भीतर एक यथार्थ सत्ता है, यह बात हम क्यों कहते हैं ? अवश्य ही इन सब
अनुसंधानों का, जीवन को समझने की, यथार्थ सत्ता की व्याख्या करने की चेष्टा
का, कोई अर्थ होगा। यह निरर्थक या व्यर्थ नहीं है। यह मानव की मुक्ति-लाभ की
अविराम चेष्टा है। अब हम जिस विद्या को विज्ञान कहते हैं, हज़ारों वर्षों से
वह स्वाधीनता-लाभ की चेष्टा करती आ रही है, और लोग स्वाधीनता चाहते रहे
हैं। परंतु प्रकृति में स्वाधीनता नहीं है। यह नियम ही नियम है, तथापि यह
चेष्टा चल रही है। यही नहीं, सूर्य से लेकर क्षुद्र परमाणु तक संपूर्ण
प्रकृति ही नियमाधीन है- यहाँ तक कि मनुष्य को भी स्वाधीनता नहीं है। परंतु
हम इस बात को नहीं मानते; हम आदि काल से ही नियमों का अध्ययन करते आ रहे हैं,
परंतु मनुष्य भी नियम के अधीन है- इस बात को हम नहीं मानते और न मानेंगे ही।
आत्मा सदैव चीत्कार करती रहती है, 'मुक्ति! मुक्ति! स्वाधीनता! स्वाधीनता!
'पूर्णत: स्वाधीन ईश्वर की धारणा लाभ करने के पश्चात् मनुष्य अनंत काल तक
इस बंधन में नहीं रह सकता। उसे उच्च से उच्चतर पथ पर अग्रसर होना ही पड़ेगा
होगा और उसकी यह चेष्टा यदि उसके अपने लिए न होती तो इसे वह बड़ा ही
कष्टदायक समझता। मनुष्य अपनी ओर देखकर कहा करता है, ''मैं जन्म से ही
प्रकृति का दास हूँ- बद्ध हूँ; फि़र भी एक ऐसा पुरुष है जो प्रकृति के नियम
में बद्ध नहीं है- जो नित्य मुक्त और प्रकृति का भी प्रभु है।''
इसलिए ईश्वर की धारणा, बंधन की धारणा के ही सदृश हमारे मन की आवश्यक मौलिक
अंशस्वरूप है। दोनों ही स्वाधीनता की इस भावना से उत्पन्न हुई हैं।
स्वाधीनता की भावना न रहने पर पौधे में भी जीवन नहीं रह सकता। पौधे अथवा कीट
में जीवन को व्यक्त्वि की धारणा तक ऊपर उठना पड़ता है। अज्ञात भाव से जीवन
उनमें कार्य कर रहा है- पौधा अपने विशेषत्व, अपने विशेष रूप, अपने निजत्व को
बनाये रखने के लिए जी रहा है, प्रकृति को नहीं। प्रकृति ही हमारी उन्नति के
प्रत्येक पदक्षेप को नियमित कर रही है, यह धारणा स्वाधीनता की भावना का
विरोध करती है। इन दो धारणाओं का लगातार संग्राम चल रहा है। हम विभिन्न धर्म
मतों व संप्रदायों के झगड़ों की बात सुनते हैं, परंतु विभिन्न मतों या
संप्रदायों का होना उचित ही है - वे अवश्य रहेंगे। शृंखला जितनी दीर्घ हो रही
है, द्वन्द्व स्वभावत: उतना ही बढ़ रहा है; परंतु यदि हम यह समझ लें कि हम
सब उस एक लक्ष्य की ओर पहुँचने की चेष्टा कर रहे हैं, तो विवाद का प्रयोजन
फिर नहीं रहेगा।
मुक्ति या स्वाधीनता के इस मूर्त विग्रह स्वरूप, प्रकृति के प्रभु को ही हम
ईश्वर कहते हैं। तुम उसको अस्वीकार नहीं कर सकते। इसका, कारण यह है कि इस
स्वाधीनता के भाव के बिना तुम चल-फिर नहीं सकते, जीवन धारण नहीं कर सकते। यदि
तुम अपने आपको स्वाधीन नहीं मानते, तो तुम क्या कभी यहाँ आते ? संभव है कि
प्राणितत्वविद् मुक्त होने की इस निरंतर चेष्टा की व्याख्या दे सकते हैं
और देंगे भी। यह सब मान लेने पर भी स्वाधीनता का भाव रह ही जाता है। जैसे हम
प्रकृति के अधीन है, प्रकृति के बंधन को किसी प्रकार काट नहीं सकते, ये भाव
सदा भीतर वर्तमान है, वैसे ही स्वाधीनता का भाव भी हमारे भीतर सदा वर्तमान
है।
बंधन और मुक्ति, प्रकाश और छाया, शुभ और अशुभ सर्वत्र है। किंतु यहाँ भी किसी
प्रकार का बंधन है, उसके पीछे मुक्ति भी गुप्त भाव से विद्यमान है। यदि एक
सत्य हो, तो दूसरा भी अवश्य सत्य होगा। सर्वत्र ही इस मुक्ति की धारणा
अवश्य रहेगी। एक असभ्य व्यक्ति के बंधन की धारणा को यद्यपि उसकी मुक्ति की
चेष्टा कहकर अभी हम न समझें, तथापि वह उसमें मौजूद है। असभ्य जंगली मनुष्य
के मन में पाप और अपवित्रता के बंधन की धारणा बहुत कम है। कारण, उसकी प्रकृति
पशु स्वभाव से अधिक उन्नत नहीं है। वह भौतिक प्रकृति के बंधन के, भौतिक
परितोष के अभाव के विरुद्ध संग्राम करता रहता है; किंतु इस निम्नतर धारणा से
धीरे-धीरे उसमें मानसिक और नैतिक बंधन की धारणा और आध्यात्मिक स्वाधीनता की
आकांक्षा जाग उठती है। यहाँ हम ईश्वरीय भाव को अज्ञानावरण के भीतर से मृदुमंद
प्रकाशित देखते हैं। पहले-पहल यह आवरण बड़ा घना रहता है और हो सकता है कि वह
ज्योति उसके द्वारा प्राय: ढकी हो, परंतु वास्तव में मुक्ति और पूर्णता की
वह उज्ज्वल अग्नि सदा पवित्र और अनाच्छादित भाव से ही वर्तमान रहती है।
मनुष्य उसे पैंगंबरों का नियन्ता-एकमात्र मुक्त परुष कहकर उसी में व्यक्ति
धर्म का आरोप करता है। वह अभी नहीं जानता कि समग्र पैंगंबरों एक अखंड वस्तु
है- प्रभेद है केवल परिणाम में- विचार में।
समग्र प्रकृति ईश्वर की उपासना है। जहाँ कहीं भी जीवन है, वहीं मुक्ति का
अनुसंधान है और वह मुक्ति ही ईश्वर स्वरूप है। इस मुक्ति के द्वारा निश्चय
ही समग्र प्रकृति पर हमें आधिपत्य लाभ होता है और ज्ञान के बिना मुक्ति असंभव
है। हम जितने अधिक ज्ञान संपन्न होते हैं, उतना ही हम प्रकृति पर आधिपत्य
पाते हैं। और प्रकृति जितनी ही हमारे वशीभूत होती जाती है, उतना ही हम अधिकतर
शक्ति संपन्न, अधिकार ओजस्वी होते जाते हैं, और यदि ऐसा कोई पुरुष हो, जो
पूर्णत: मुक्त हो और प्रकृति का प्रभु हो, तो उसे अवश्य ही प्रकृति का पूर्ण
ज्ञान होगा, वह सर्वव्यापी और सर्वज्ञ होगा। मुक्ति के साथ साथ ये अवश्य
रहेंगे,और जो व्यक्ति उनको प्राप्त कर लेगा, केवल वही प्रकृति के पार जाने
में समर्थ होगा।
यह संपूर्णत: स्वतंत्र अवस्था, जहाँ कोई बंधन नहीं, कोई परिवर्तन नहीं,
प्रकृति नहीं, कुछ ऐसा भी नहीं जो उसमें कोई परिणाम उत्पन्न कर सके- वेदांत
के ईश्वर-संबंधी इन धारणाओं की जड़ में पूर्ण स्वतंत्रता से उत्पन्न आनंदव
चिरशक्ति के धर्म की यह धारणा सर्वोच्च है। यह स्वतंत्र्य तुम्हारे भीतर
है, मेरे भीतर है और यही एकमात्र यथार्थ स्वातंत्र्य है।
ईश्वर स्थिर है, महिमामय अपने अपरिणामी स्वरूप रूप प्रतिष्ठित हैं। तुम और
हम उसके साथ एक होने की चेष्टा करते हैं, किंतु इधर बंधन की कारणीभूत प्रकृति
पर, दैनंदिन जीवन की छोटी छोटी बातें, धन, नाम, यश, मानव-प्रेम प्रभृति
प्राकृतिक विषयों पर निर्भर होते हैं। परंतु यह जो समग्र प्रकृति प्रकाश पा
रही है, उसका प्रकाश किस पर निर्भर है ? ईश्वर पर, सूर्य, चंद्र, तारों पर
नहीं। जहाँ कहीं कुछ प्रकाशित होता है, चाहे वह सूर्य का प्रकाश हो या हमारी
चेतना का, वहाँ उसी का प्रकाश होता है; उसके प्रकाशमान होने से ही सब कुछ
प्रकाशित होता है।
हमने देखा कि यह ईश्वर स्वत: सिद्ध है, निर्गुण है, सर्वज्ञ है, प्रकृति का
ज्ञाता और प्रभु है, सबका प्रभु है। सब उपासनाओं के पीछे वह विद्यमान है, हम
चाहे समझें या न समझें, उसी की उपासना हो रही है। मैं ज़रा और भी आगे बढ़कर
कहना चाहता हूँ, और इस बात को सुनकर सभी आश्चर्यचकित होंगे कि जिसको अशुभ कहा
जाता है, वह भी उसी की उपासना है। वह भी मुक्ति का ही एक खंड है। यही नहीं,
मैं इससे भी भीषण एक बात कहूँगा कि जब तुम कोई अशुभ कार्य करते हो, तो वहाँ भी
मुक्ति की अदम्य आकांक्षा ही विद्यमान रहती है। यह पथभ्रष्ट और भ्रांत हो
सकती है, परंतु वह विद्यमान होती है। उस मुक्ति की स्वाधीनता की प्रेरणा न
रहने से किसी प्रकार के जीवन या किसी प्रकार की प्रेरणा नहीं रह सकती। विश्व
का स्पंदन स्वतंत्रता का ही प्रकाश है। सबके हृदय में यदि एकत्व न होता, तो
हम विविधता को समझ ही नहीं सकते थे। उपनिषद् में ईश्वर की धारणा इसी प्रकार
की है। कभी कभी यह धारणा और भी सूक्ष्म हो जाती है और हमारे सामने एक ऐसे
आदर्श की स्थापना करती है, जिससे पहले-पहल तो हमें स्तंभित हो जाना पड़ता है।
वह आदर्श यह है कि स्वरूपत: हम ईश्वर से अभिन्न हैं। वह, जो तितली का
विचित्र वर्ण है, और वह, जो गुलाब की कली का खिलना है, वही तितली और पौधे की
शक्ति है। जिसने हमें जीवन दिया है, वहीं हम लोगों में शक्ति रूप में विराजमान
है। उसकी उसकी अग्नि से जीवन का आविर्भाव और उसी की शक्ति से कठोरतम मृत्यु
होती है। मृत्यु जिसकी छाया है अमृतत्व उसी की छाया है। एक ओर उच्चतर धारणा
लो। जो कुछ भी भीषण है, देखो उससे हम सभी किस तरह बहेलिये द्वारा खदेड़े हुए
खरगोश की भाँति भागते हैं, उसी की भाँति मुँह को छिपाकर अपने को निरापद मानते
हैं। ऐसे ही जो कुछ यह समग्र संसार भीषण देखता है, देखो यह कैसे उससे भागने की
चेष्टा करता है। एक बार मैं काशी में किसी गजह से गुज़र रहा था, उस जगह एक
तरफ़ एक भारी जलाशय और दूसरी तरफ़ एक ऊँची दीवार थी। उस स्थान पर बहुत से
बंदर थे। काशी के बंदर अतिकाय होते हैं और कभी-कभी बड़े दुष्ट भी। अब
उन्होंने मुझे उस रास्ते पर से न जाने देने का निश्चय किया। वे विकट
चीत्कार करने लगे और झट आकर मेरे पैरों से चिपकने लगे। उनको देखकर मैं भागने
लगा, किंतु मैं जितनी तेज़ दौड़ने लगा, वे उससे अधिक तेज़ी से आकर मुझे काटने
लगे। उनके हाथ से छुटकारा पाना असंभव प्रतीत हुआ- ठीक ऐसे ही समय एक अपरिचित
मनुष्य ने आकर मुझे आवाज़ दी, ''बंदरों का सामना करो''; मैं भी जैसे ही पलटकर
उनके सामने खड़ा हुआ, वैसे ही वे पीछे हटकर भाग गये। जीवन में हमको यह शिक्षा
लेनी होगी- जो कुछ भी भयानक है, उसका सामना करना पड़ेगा, साहसपूर्वक उसके
सामने खड़ा होना पड़ेगा। जैसे बंदरों के सामने से न भागकर उनका सामना करने पर
वे भाग गये, उसी प्रकार हमारे जीवन में जो कुछ कष्टप्रद बातें हैं, उनका
सामना करने पर ही वे भाग जाती हैं। यदि हमें कभी भी स्वाधीनता लाभ करना हो,
तो प्रकृति को जीत कर ही हम उसे पाएंगे, प्रकृति से भागकर नहीं। का पुरुष कभी
जलयुक्त नहीं हो सकता। हमें भय, कष्ट और आान के साथ संग्राम करना होगा, तभी
वे हमारे सामने से भाग जाएंगे।
मृत्यु क्या है ? आतंक क्या है ? उन सबमें क्या तुम्हें प्रभु का आनन
दिखायी नहीं देता ? दु:ख, कष्ट और आतंक से दूर भागकर देखो- वे तुम्हारा पीछा
करेंगे। उनके सामने खड़े हो जाओ, वे भाग जाएंगे। सारा संसार सुख और आराम का
उपासक है; जो कष्टप्रद है, उसकी उपासना करने का साहस बहुत कम लोग करते हैं।
इन दोनों का अतिक्रमण ही मुक्ति है। इस द्वार से होकर गुज़रे बिना मनुष्य
मुक्त नहीं हो सकता। हम सबको इनका सामना करना पड़ेगा। हम ईश्वर की उपासना
करने की चेष्टा करते हैं, किंतु प्रकृति और हमारी देह उसके और हमारे बीच में
पड़कर हमारी दृष्टि को अंधी कर देती है। हमें यह सीखना आवश्यक है कि कैसे
वज्र में, लज्जा में, कष्ट में, पाप में उसकी पूजा करें, उससे प्रेम करें।
समग्र संसार मंगलमय ईश्वर का प्रचार चिरकाल से करता आ रहा है। मैं एक ऐसे
ईश्वर का प्रचार कता हूँ, जो एक ही साथ पुण्य और पाप दोनों का आश्रय है; यदि
साहस हो, तो इस ईश्वर को एकत्वरूप चरम सत्य में पहुँच सकोगे। तभी यह धारणा
नष्ट होगी कि एक दूसरे से बड़ा है। जितना ही हम मुक्ति के इस नियम के पास
जाते हैं, उतना ही हम ईश्वर के आश्रय में आते हैं, और हमारा दु:ख-कष्ट दूर
होता है। तब हम नरक के द्वार को स्वर्ग-द्वार से पृथक नहीं समझेंगे, तब हम
मनुष्य मनुष्य में भेद-बुद्धि कर यह नहीं कहेंगे कि जगत के किसी भी प्राणी
से मैं श्रेष्ठ हूँ। जब तक हमारी अवस्था ऐसी नहीं होती कि हम संसार में उस
प्रभु के सिवा किसी और को न देखें, तब तक हम इन दु:ख-कष्टों से घिरे रहेंगे,
तब हम सबमें भेद देखते रहेंगे, क्योंकि, हम उस भगवान में -उस आत्मा में ही
अभिन्न हैं और जब तक हम ईश्वर को सर्वत्र नहीं देखेंगे, तब तक हम इस एकत्व
का अनुभव नहीं कर सकेंगे।
एक ही वृक्ष पर सुंदर पंखवाले अभिन्न सखा दो पक्षी हैं- उनमें से एक वृक्ष के
ऊपर वाले भाग पर और दूसरा नीचे वाले भाग पर बैठा है। नीचे का सुंदर पक्षी
वृक्ष के मीठे और कड़वे फलों को खाता है- एक मीठे फल को और उसके बाद ही कड़वे
फल को खाता है। जब उसने कड़वे फल को खाया, उसको कष्ट हुआ; कुछ क्षणों के बाद
ही उसने एक और फल खाया और जब वह भी कड़वा लगा, तब उसने ऊपर की ओर देखा। ऊपर
उसको दूसरा पक्षी दिखायी दिया, जो मीठे या कड़वे किसी भी फल को खाता नहीं था
और अपनी महिमा में मग्न हो स्थिर और धीर भाव से बैठा था। किंतु उसे देखकर भी
फिर भूल से वह फल खाने लगा- अंत में उसने एक ऐसा फल खाया, जो बड़ा ही कड़वा
था, और तब फल खाने से विरक्त होकर फि़र वह उस ऊपर वाले महिमामय पक्षी को
देखने लगा। धीरे-धीरे वह उसे ऊपर वाले पक्षी की ओर अग्रसर होने लगा। जब वह
उसके एकदम निकट पहुँचा, तब उस ऊपर वाले पक्षी की अंग-ज्योति उसके ऊपर पड़ी और
धीरे-धीरे उस ज्योति ने उसका वेष्टित कर लिया, और उसने देखा कि वह उस ऊपर
वाले पक्षी में परिणत हो गया है! वह शांत, महिमामय और मुक्त हो गया और उसे
मालूम हुआ कि वृक्ष ऊपर वाले पक्षी की केवल छाया भर था
[3]
। इसी प्रकार वास्तव में हम ईश्वर से अभिन्न है; परंतु प्रतिफलन के कारण ही
हम बहु मालूम पड़ते हैं जिस प्रकार एक सूर्य लाखों ओस-बिंदुओं पर प्रतिबिंबित
होकर लाखों छोटे-छोटे सूर्यों सा प्रतीत होता है। यदि हम अपने प्रकृत
दिव्यस्वरूप के साथ-साथ अभिन्न होना चाहते हैं, तो प्रतिबिंब को दूर करना
आवश्यक है। यह विश्व कदापि हमारे संतोष की सीमा नहीं हो सकता। इसीलिए कृपण
अर्थ-संचय करता रहता है, चोर चोरी करता है, पापी पापाचरण करता है, और तुम
दर्शनशास्त्र की शिक्षा लेते हो। इन सबका एक ही उद्देश्य है। मुक्ति-लाभ को
छोड़कर हमारे जीवन का और कोई उद्देश्य नहीं है। ज्ञान से हो अथवा अज्ञान से,
हम सब पूर्णता पाने की चेष्टा कर रहे हैं। प्रत्येक जीवसत्ता उसे एक न एक
दिन अवश्य ही प्राप्त करेगी।
जो व्यक्ति पापों में, दु:खों में मग्न है, जिसने नरक का पक्ष अपनाया है, वह
भी इस पूर्णता को प्राप्त होगा, परंतु उसको कुछ विलंब होगा। हम उसका उद्धार
नहीं कर सकते। जब उस पथ पर चलते चलते वह कुछ कठिन चोटें खायेगा, तब वे ही उसे
भगवान की ओर प्रेरित करेंगी। धर्म, पवित्रता, नि-स्वार्थपरता और
आध्यात्मिकता के पथ का परिचय सब के अंत में मिलता है। सब लोग जो अनजान में कर
रहे हैं, उसी काम को हम ज्ञानत: अनुसरण कर रहे हैं। सेन्ट पॉल ने इस भाव को
प्रगट किया है, ''तुम जिस ईश्वर की अज्ञान में उपासना कर रहे हो, उसी की मैं
तुम्हारे निकट घोषणा कर रहा हूँ।'' समग्र जगत को यही शिक्षा ग्रहण करनी होगी।
सब दर्शनशास्त्रों और प्रकृति के संबंध में इन सब मतवादों को लेकर क्या
होगा, यदि वे जीवन के इस लक्ष्य पर पहुँचने में सहायता न कर सकें ? आओ, हम
सार्विक एकत्व की चेतना को प्राप्त हो, सर्वत्र अभेद का दर्शन करें- मनुष्य
अपने को सब वस्तुओं में देखना सीखे। हम अब ईश्वर संबंधी संकीर्ण धारणा
विशिष्ट धर्ममत और संप्रदाय-समूहों के उपासक न रहकर, संसार में सभी के भीतर
उनका दर्शन करें। तुम लोग यदि ब्रह्मज हो, तो तुम अपने हृदय की पूजा को ही
सर्वत्र देखने में समर्थ होगे।
पहले सब संकीर्ण धारणाओं का त्याग करो, और हर व्यक्ति में ईश्वर का दर्शन
करो- वे सब हाथों से काम कर रहे हैं, सब पैरों से चल रहे हैं, सब मुखों से
भोजन कर रहे हैं ! हर व्यक्ति में वे निवास करते हैं, सब मनों से वे सोचते ही
धर्म है- यही विश्वास है; प्रभु हमें यह विश्वास दे। जब हम समग्र संसार में
इस एकत्व का अनुभव करेंगे, तब हम अमर हो जाएंगे। भौतिक दृष्टि से देखने पर भी
हम अमर हैं, सारे संसार के साथ एक हैं। जब तक एक व्यक्ति भी इस संसार में
श्वास ले रहा है, मैं उनकी भीतर जीवित हूँ। मैं यह संकीर्ण क्षुद्र व्यष्टि
जीव नहीं हूँ, मैं समष्टि स्वरूप हूँ। अतीत काल में जितने प्राणी हो गये हैं,
मैं उन सभी का जीव हूँ; मैं ही बुद्ध, ईसा और मुहम्मद की आत्मा हूँ। मैं सब
आचार्यगणों की आत्मा हूँ, मैं ही लूटने वाले लुटेरों का दल हूँ और फाँसी पर
लटकाये गये सारे हत्याकारी मैं ही हूँ। मैं सर्वमय हूँ। अतएव उठो- यही
श्रेष्ठ पूजा हैं। तुम स्वयं समग्र जगत के साथ अभिन्न हो। यही यथार्थ विनय
है- घुटने टेककर 'मैं पापी हूँ, मैं पापी हूँ' कहकर चिल्लाने का नाम विनय
नहीं है। जब इस भेद का आवरण भिन्न विच्छिन्न हो जाता है, तभी सर्वोच्च
उन्नति समझनी होगी। समस्त जगत का एकत्व- यही श्रेष्ठ धर्ममत है। मैं अमुक
हूँ- व्यक्ति-विशेष- यह बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ 'अहम्' के लिए यह
सत्य नहीं है। मैं विश्वव्यापक हूँ- इस धारणा पर प्रतिष्ठित हो जाओ- और
श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करो; कारण, ईश्वर चैतन्य-स्वरूप
है, आत्मस्वरूप है, चैतन्य एवं सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। उपासना
की निम्नतर प्रणालियों द्वारा उपासना करते करते स्थूल सांसरिक चिंताओं से
मनुष्य आध्यात्मिक उपासना के राज्य में उन्नीत होता है, और तभी अंत में
आत्मा के माध्यम से आत्मा में उस अखंड, अनंत सर्वव्यापी ईश्वर की उपासना
संभव होती है। जो कुछ सांत है, वह जड़ है। चैतन्य ही केवल अनंतस्वरूप है।
ईश्वर चैतन्यस्वरूप है, वह अनंत है; मानव चैतन्यस्वरूप है और इसलिए मानव
भी अनंत है और केवल अनंत ही अनंत की उपासना में समर्थ है। हम अनंत की उपासना
करेंगे; वही सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना है। इन सब भावों की सुमहान अनुभूति,
कितना कठिन है! मैं स्वमत की प्रतिष्ठा के लिए दार्शनिक विचार करता हूँ,
कितनी बातें करता हूँ; इतने में कोई मेरे प्रतिकूल घटना घटती है- मैं अनजाने
ही क्रुद्ध हो उठता हूँ, भूल जाता हूँ कि इस विश्व में क्षुद्र ससीम मेरे इस
अस्तित्व को छोड़ और भी कुछ है। मैं कहना भूल जाता हूँ, ''मैं
चैतन्य-स्वरूप हूँ- इस अकिंचित्कर बात से मेरा क्या बिगड़ता है- मैं तो
चैतन्य स्वरूप हूँ'', मैं भूल जाता हूँ कि यह सब मेरी ही लीला है; मैं
ईश्वर को भूल जाता हूँ, मैं मुक्ति की बात भी भूल जाता हूँ।
ऋषियों ने बार-बारघोषणा की है- क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुगँ पथस्तत कवयो वदन्ति
[4]
- मुक्ति का पथ उस्तरे की धार की भाँति तीक्ष्ण, दीर्घ और कठिन है- इसे
अतिक्रमण करना कठिन है। किंतु इन दुर्बलताओं और विफलताओं से अपने को बँधने न
दो। उपनिषदों की घोघणा है- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत
[5]
- 'उठो, जागो, जब तक उस लक्ष्य पर नहीं पहुँचते, रुको नहीं'। यद्यपि यह पथ
उस्तरे की धार की तरह तीक्ष्ण है- यद्यपि वह पथ दीर्घ है, दूरवर्ती और कठिन
है, किंतु हम उस पथ का अवश्य ही अतिक्रमण करेंगे। मनुष्य देवताओं और असुरों
का प्रभु होता है। हमारे दु:खों के लिए स्वयं हमारे सिवा और कोई उत्तरदायी
नहीं हैं। क्या तुम समझते हो कि यदि मनुष्य अमृत की चेष्टा करे, तो उसे
उसके बदले में सिर्फ विषपूर्ण प्याला ही मिलेगा ? नहीं, अमृत है और उसकी
प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नशील प्रत्येक मनुष्य के लिए। प्रभु ने स्वयं
कहा है-
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।।
-'इन सभी धर्मों का, सभी उद्यमों का परित्याग कर एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे
समस्त पापों के पार लगा दूँगा। भय न कर।'
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हम जगत के सभी शास्त्रों में इसी वाणी की घोषणा सुनते हैं। यह वाणी ही हमसे
यह कहने की शिक्षा देती है- 'स्वर्गलोक के सदृश इस पृथ्वी पर भी तेरी इच्छा
ही पूर्ण हो।' कारण, 'सर्वत्र तेरा ही राज्य है, तेरी ही शक्ति और तेरी ही
महिमा है।' कठिन, बड़ी कठिन बात है। अभी कहा- ''हे प्रभु, मैंने तेरी शरण ली-
प्रेममय! तेरे प्रेम पर सर्वस्त्र समर्पण किया- तेरी वेदी पर, जो कुछ भी भला
है, जो कुछ भी पुण्यमय है, सभी कुछ स्थापन किया। मेरे पाप-ताप, भले-बुरे
कार्य सब कुछ तेरे ही चरणों पर मैं समर्पण करता हूँ- तू सब ग्रहण कर- मैं अब
तुझे कभी न भूलूँगा।'' अभी कहा- ''तेरी इच्छा पूर्ण हो।'' पर दूसरे मुहुर्त
में ही जब एक परीक्षा में पड़ गया- तब मैं क्रोध से उछल पड़ा। सब धर्मों का एक
ही लक्ष्य है, परंतु विभिन्न आचार्य भाषाओं का व्यवहार करते रहते हैं। सबकी
चेष्टा इस झूठे 'अहम्' या कच्चे 'अहम्' का विनाश करना है। जिसके फलस्वरूप
इस सच्चे 'अहम्' का एकमात्र इस प्रभु का ही राज्य होगा। हिब्रू
धर्मशास्त्रों में कहा गया है- 'मैं, तेरा प्रभु, तेरा ईश्वर एक ईर्ष्यालु
ईश्वर हूँ। मेरे सिवा तू किसी अन्य ईश्वर को नहीं रख सकता।' केवल ईश्वर ही
रह जाना चाहिए। हमें कहना होगा, ''मैं नहीं, तू।'' और उस प्रभु के सिवा हमें
सर्वस्व त्यागना होगा; केवल वे ही राज्य करेंगे। मानों हमने खूब कठोर साधना
की- परंतु दूसरे मुहुर्त में ही हमारा पैर फिसल गया- और तब हमने माँ की ओर हाथ
बढ़ाने की चेष्टा की- समझ गया कि अपनी चेष्टा से हम खड़े नहीं रह सकते। जीवन
अनंत है, जिसका एक अध्याय- 'तेरी इच्छा पूर्ण हो' है। यदि हम उस जीवनग्रंथ
के सब अध्यायों का मर्म ग्रहण न करें, तो समुदय जीवन का अनुभव नहीं कर सकते।
तेरी इच्छा पूर्ण हो'- प्रति मुहूर्त विश्वासघाती मन इन भावों का विरोध करता
है, परंतु हमें यदि इस कच्चे 'अहम्' को जीतना हो, तो बार-बार इस बात की
आवृत्ति करनी होगी। हम एक विश्वासघाती की सेवा करें और परित्राण पा जाएं - यह
कभी हो नहीं सकता। सबका परित्राण हैं, केवल विश्वासघाती का परित्राण नहीं है-
और हम विश्वासघाती के रूप में एकदम निंदित हैं। जब हम अपनी आत्मा की ध्वनि
की अवज्ञा करते हैं, तब हम अपनी आत्मा के विरुद्ध विश्वासघात करते हैं, हम
उस जगन्माता की महिमा के विरुद्ध विश्वासघात करते हैं। अतएव चाहे जो कुछ भी
हो, हमें अपने तन और मन को उस परम इच्छामय की इच्छा में मिला देना पड़ेगा।
किसी हिंदू दार्शनिक ने ठीक कहा है कि यदि मनुष्य- 'तेरी इच्छा पूर्ण हो',
यह बात दो बार उच्चारण करे, तो वह पाप करता है। 'तेरी इच्छा पूर्ण हो', यह
बात दो बार उच्चारण करें, तो वह पाप करता है। 'तेरी इच्छा पूर्ण हो।' बस, और
क्या प्रयोजन है ? इसे दो बार कहने की आवश्यकता ही क्या है ? जो अच्छा है,
वह तो अच्छा है ही। एक बार जब कह दिया, 'तेरी इच्छा पूर्ण हो', तब तो वह बात
लौटायी नहीं जा सकती। 'स्वर्ग की भाँति मृत्युलोक में भी तेरी इच्छा पूर्ण
हो, क्योंकि राज्य तो तेरा ही है, शक्ति और महिमा भी सदा तेरी ही है।'
१
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इस व्याख्यान के कुछ अंश चतुर्थ खंड में प्रकाशित हुए हैं।
प्रकाशित अंशों को यहाँ बड़े कोष्ठक में रखा गया है। यह
व्याख्यान किस वर्ष दिया गया था
, यह ज्ञात नहीं हो सका है। सं.
[2]
. त्वं स्त्री त्वं पुमानसि, त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दंडेन वंचसि, त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख: ।।
श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।४।३।।
[3]
. द्र. मुण्डकोपनिषद् ।।३।१-२।।
[4]
. कठोपनिषद् ।।३।३।१४।।