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व्याख्यान

धर्म

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम धर्म एवं विज्ञान पीछे     आगे

अनुभव ही ज्ञान का एकमात्र साधन है। संसार में, केवल धर्म ही ऐसा विज्ञान हैं जिसमें निश्‍चयत्‍व का अभाव हैं, क्‍योंकि अनुभव पर आश्रित विज्ञान के रूप में उसकी शिक्षा नहीं दी जाती। ऐसा नहीं होना चाहिए परंतु कुछ ऐसे लोगों का एक छोटा समूह भी सर्वदा विद्यमान रहता है, जो धर्म की शिक्षा अनुभव के माध्‍यम से देते हैं। ये लोग रहस्‍यवादी कहलाते हैं और वे हरेक धर्म में, एक ही वाणी बोलते हैं और एक ही सत्‍य की शिक्षा देते हैं। यही धर्म का यथार्थ विज्ञान हैं। जैसे गणितशास्‍त्र विश्‍व के किसी भी भाग में भिन्न-भिन्न नहीं होता, उसी प्रकार रहस्‍यवाद भी एक दूसरे से विभिन्‍न नहीं होते। वे सभी एक ही प्रकार के होते हैं तथा उनकी स्थिति भी एक ही होती हैं। उन लोगों का अनुभव भी एक ही है और यही अनुभव धर्म का रूप धारण कर लेता है।

धर्मार्थी व्‍यक्ति पहले किसी धर्म-संघ (संप्रदाय) में धार्मिक शिक्षा ग्रहण करता है और तब उसका अभ्‍यास करता है। वह अनुभव को अपने विश्‍वास का आधार नहीं बनाता परंतु रहस्‍यवादी साधक सत्‍य का अन्‍वेषण आरंभ करता है, पहले उसका अनुभव करता है, और तब अपने मत को सूत्रबद्ध करता है। धर्म-संघ दूसरों के अनुभव को अपनाता है, परंतु रहस्‍यवादी का अनुभव अपना ही होता है। धर्म-संघ बाहर से भीतर की ओर जाता है, रहस्‍यवादी भीतर से बाहर आता है।

धर्म तात्त्विक (आध्‍यात्मिक) जगत के सत्‍यों से उसी प्रकार संबंधित हैं, जिस प्रकार रसायनशास्‍त्र तथा दूसरे भौतिक विज्ञान भौतिक जगत के सत्‍यों से। रसायनशास्‍त्र पढ़ने के लिए प्रकृति की पुस्‍तक पढ़ने की आवश्‍यकता है। धर्म की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए तुम्‍हारी पुस्‍तक अपनी बुद्धि तथा हृदय है। संत लोग प्राय: भौतिक विज्ञान से अनभिज्ञ ही रहते हैं, क्‍योंकि वे एक भिन्‍न पुस्‍तक, अर्थात आंतरिक पुस्‍तक पढ़ा करते हैं, और वैज्ञानिक लोग भी प्राय: धर्म के विषय में अनभिज्ञ ही रहते हैं, क्‍योंकि वे भी एक भिन्‍न पुस्‍तक अर्थात बाह्य पुस्‍तक के पढ़ने वाले हैं।

सभी विज्ञानों की अपनी विशेष पद्धतियाँ होती हैं, धर्म-विज्ञान की भी हैं। उसकी पद्धतियों की संख्‍या तो और भी अधिक है, क्‍योंकि उसकी विषय-सामग्री भी अधिक होती हैं। मानव-वृद्धि बाह्य जगत की भाँति समरूप नहीं है। प्रकृतियों की भिन्‍नता के अनुसार प्रणालियाँ भी भिन्‍न होनी चाहिए। जैसे किसी मनुष्‍य में कोई एक विशेष इंद्रिय प्रधान होती है- एक देखता अधिक है, दूसरा सुनता अधिक हैं- वैसे ही एक प्रधान मानसिक संवेदना भी होता है; और उसी के द्वार से होकर मनुष्‍य को अपने मन तक पहुँचना आवश्‍यक। फिर भी सभी मानसों के अभ्‍यंतर में एक प्रकार की एकता विद्यमान रहती है और एक ऐसा भी विज्ञान है, जिसे सभी पर लागू किया जा सकता है। यह धर्मरूपी विज्ञान जीवात्‍मा के विश्‍लेषण पर आधारित है। उसका कोई संप्रदाय नहीं है।

धर्म का कोई एक स्‍वरूप सभी के लिए उपयुक्‍त नहीं होगा। सभी धर्म एक सूत्र में पिरोये मोतियों के समान हैं। हम लोगों को अन्‍य सब बातों को अलग रखते हुए सभी में व्‍यक्ति को खोजने की चेष्‍टा करनी चाहिए। मनुष्‍य किसी धर्म में जन्‍म नहीं लेता, उसका धर्म तो उसकी आत्‍मा में ही सन्निहित होता है। कोई पद्धति, जिससे व्‍यक्तिगत विशेषता का नाश होता है, वह अंततोगत्‍वा। विनाशक सिद्ध होती है। हर जीवन में एक धारा प्रवाहित हो रही है, और वही उसे अंत में ईश्‍वर को प्राप्‍त करा देगी! हरेक धर्म का लक्ष्‍य तथा साध्‍य भगवत्‍प्राप्ति ही है। सभी शिक्षाओं से बड़ी शिक्षा केवल भगवान की ही आराधना करने की है। यदि हर मनुष्‍य अपना आदर्श चुन ले और उसको अपनाये रहे, तो सभी धार्मिंक वाद-विवाद मिट जाएंगे।


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