(इंग्लैंड में दिया गया भाषण)
सत्य के विषय में शिक्षा पाने के लिए नारद नामक एक ऋषि दूसरे एक ऋषि सनत्कुमार के पास गये। सनत्कुमार ने उनसे पूछा कि आपने अभी तक क्या क्या अध्ययन किया है। नारद ने उत्तर दिया कि उन्होंने वेद, ज्योतिष और इतर शास्त्र भी पढ़ लिया, पर तब भी उन्हें तृप्ति न मिली। तब दोनों में वार्तालाप शुरु हुआ, जिसके मध्य सनत्कुमार ने कहा कि वेद, ज्योतिष, दर्शन आदि गौण - अपरा विद्याएँ हैं, अन्य विज्ञान भी गौण हैं। जिसके द्वारा हम ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं, वही सर्वोच्च ज्ञान है, परा विद्या है। प्रत्येक धर्म में हम यही भाव पाते हैं और यही कारण है कि धर्म सदा परम ज्ञान होने का दावा करता है। विज्ञानों का ज्ञान जीवन के मानो कुछ ही अंशों पर प्रकाश डालता है। परंतु धर्म जो ज्ञान हमें प्रदान करता है, शाश्वत है और वह धर्म द्वारा उपदिष्ट सत्य की ही भाँति असीम है। दुर्भाग्यवश अपनी इसी श्रेष्ठता के दावे के कारण धर्म लौकिक ज्ञान को प्राय: हेय दृष्टि से देखता है- यही नहीं, बल्कि उसने लौकिक ज्ञान की सहायता द्वारा अपने को युक्तिसंगत सिद्ध करना अनेक बार अस्वीकार किया है। फलत: संसार भर में धार्मिक तथा लौकिक ज्ञान में युद्ध होता रहा है। धर्म भ्रमातीत आप्त-प्रमाण को अपना निर्देशक होने का दावा करता है और इस विषय पर लौकिक ज्ञान को जो कुछ कहना है, उसे सुनना नहीं चाहता तथा विज्ञान तर्क के अपने पैने शस्त्र द्वारा, धर्म जो कुछ करता है, उसके टुकड़े-टुकड़े कर डालना चाहता है। प्रत्येक देश में यह युद्ध होता रहा है और इस समय भी हो रहा है। धर्म बारबार पराजित और लगभग उच्छिन्न होते रहे हैं। फ्रांस की क्रांति के समय बुद्धि की देवी की आराधना ही मानवता के इतिहास में इस व्यापार की प्रथम अभिव्यक्ति नहीं थी, वह तो जो प्राचीन काल में होता रहा है, उसी की पुनरावृत्ति मात्र थी, केवल आधुनिक युग में उसने बृहत्तर रूप ग्रहण कर लिया है। भौतिक विज्ञान पहले की अपेक्षा अब अधिक सुसज्जित है और धर्म अधिकाधिक निरस्त्र होते गये हैं। सारी नींव ही विध्वस्त हो गयी है; और आधुनिक मनुष्य, चाहे लोगों के बीच वह जो कुछ कहे, अपने हृदय के एकांत में यह जानता है कि अब वह 'विश्वास' नहीं कर सकता। कतिपय बातों में इसलिए विश्वास करना कि पुरोहितों की कोई संगठित संस्था विश्वास करने के लिए कहती है, या ऐसा किसी ग्रंथ में लिखा है, या इसलिए विश्वास करना कि उसका समाज चाहता है - आधुनिक मनुष्य जानता है कि ऐसा कर पाना उसके लिए असंभव है। कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जो तथाकथित लोकप्रिय धर्म से संतोष कर लेते हैं, किंतु हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कुछ सोचते-विचारते नहीं हैं। उनकी 'आस्था' की धारणा को 'चिंतन शून्य प्रमाद' ही कहा जा सकता है। उनकी 'आस्था' की धारणा को 'चिंतन शून्य प्रसाद' ही कहा जा सकता है। धर्म के प्रासाद के चूर-चूर हुए बिना यह युद्ध और आगे नहीं चल सकता।
अब प्रश्न उठता है, क्या बचने का कोई उपाय है ? इस प्रश्न को और भी अच्छे ढंग से रखा जा सकता है : क्या धर्म को भी स्वयं को उस बुद्धि के आविष्कारों द्वारा सत्य प्रमाणित करना है, जिसकी सहायता से अन्य सभी विज्ञान अपने को सत्य सिद्ध करते हैं ? बाह्म ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण-पद्धतियों का प्रयोग होता है, क्या उन्हें धर्म-विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता है ? मेरा विचार है कि ऐसा अवश्य होना चाहिए और मेरा अपना विश्वास भी है कि यह कार्य जितना शीघ्र हो, उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों के द्वारा ध्वंस प्राप्त हो जाए, तो वह सदा से निरर्थक धर्म था, -कोरे का, एवं वह जितनी जल्दी दूर हो जाए, उतना ही अच्छा। मेरी अपनी दृढ़ धारणा है कि ऐसे धर्म का लोप होना एक सर्वश्रेष्ठ घटना होगी। सारा मैल धुल ज़रुर जाएगा , पर इस अनुसंधान के फलस्वरूप धर्म के शाश्वत तत्व विजयी होकर निकल आएंगे। वह केवल विज्ञान सम्मत ही नहीं होगा- कम से कम उतना ही वैज्ञानिक जितनी की भौतिकी या रसायनशास्त्र की उपलब्धियाँ हैं- प्रत्युत् और भी अधिक सशक्त हो उठेगा; क्योंकि भौतिक या रसायनशास्त्र के पास अपने सत्यों को सिद्ध करने का अंत: साक्ष्य नहीं हैं, जो धर्म को उपलब्ध है।
जो लोग धर्म के क्षेत्र में बौद्धिक अन्वेषण की उपयोगिता मानने को प्रस्तुत नहीं हैं, वे मुझे कुछ कुछ स्वविरोधी प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ ईसाई दावा करता है कि उसका धर्म ही सत्य है; क्योंकि वह अमुक में प्रकाशित हुआ था। मुसलमान अपने धर्म के लिए यही दावा करता है; क्योंकि वह अमुक में प्रकाशित हुआ था परंतु ईसाई मुसलमान से कहता है, ''तुम्हारे आचार-शास्त्र का कुछ अंश निर्दोष नहीं प्रतीत होता। उदाहरणस्वरूप, ये मेरे मुसलमान दोस्त, तुम्हारे ग्रंथ कहते हैं, काफि़र को बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित कर लो, और अगर वह इस्लाम धर्म को इंकार करें, तो उसका कत्ल किया जा सकता है। काफि़र को मारने वाला कोई भी मुसलमान बहिश्त में ज़रुर प्रवेश कर पाएगा - उसके पाप और दुष्कर्म जो भी रहे हों।'' मुसलमान इसका मुँहतोड़ जवाब देता हैं कि ''ऐसा करना मेरे लिए ठीक है, क्योंकि मेरे धर्मग्रंथों की यही हिदायत है। मुझसे ग़लती तब होती, जब मैं ऐसा न करता।'' ईसाई कहता है, ''परंतु मेरी बाइबिल तो ऐसा निर्देश नहीं करती है!'' मुसलमान का उत्तर होता है, ''मैं कुछ नहीं जानता, तुम्हारे धर्मग्रंथ मेरे लिए आप्त वाक्य नहीं है; मेरे धर्म-ग्रंथ का निर्देश है, सारे काफि़रों का वध कर दो। सही-ग़लत की पहचान तुम्हें कैसे हो ? मेरे धर्मग्रंथ में लिखी बातें ही सही हैं। और तुम्हारे धर्मग्रंथ का यह निर्देश 'प्राण न लो' गलत है। मेरे ईसाई दोस्त,तुम भी तो यही कहते हो; तुम्हारा कथन है कि जिहोवा ने यहूदियों से जो कुछ करने को कहा, वह ठीक है, जिसका उन्होंने निषेध किया, वह ग़लत है। यही मेरा भी कहना है, मेरे ग्रंथ में अल्लाह की घोषणा है कि कुछ चीज़ें की जानी चाहिए और कुछ नहीं, और यही सही- ग़लत की कसौटी है।'' इतने पर भी ईसाई संतुष्ट नहीं। वह नैतिक आदर्श की दृष्टि से 'शैलोपदेश' की तुलना 'कुरान शरीफ़ की आयतों' से करने का हठ करता है। इसका फैसला कैसे हो? ग्रंथ-प्रमाण से तो यह संभव नहीं, क्योंकि आपस में झगड़ने वाले धर्मग्रंथ निष्पक्ष निर्णायक नहीं हो सकते हैं। अत: हमें निश्चय ही स्वीकार करना होगा कि इन ग्रंथों से परे कोई ऐसा तत्व है, जो अधिक सार्वभौमिक है, जो संसार में प्रचलित नीति-संहिताओं में भी अधिक उदात्त है, जो विविध राष्ट्रों के अंत:स्फुरणों के बलाबल का निर्णय करने में समर्थ है। भले ही उसे हम साहस एवं स्पष्टता के साथ घोषित करें या न करें, किंतु इतना तो स्पष्ट है कि यहाँ हम बुद्धि का ही सहारा लेते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या बुद्धि का आलोक विभिन्न अंत: स्फुरणों की यथार्थता का निर्णय करने में समर्थ हैं, क्या वह पैगंबरों के झगड़े की मध्यस्थता करते समय अपने आदर्श की रक्षा कर पायेगी, क्या धर्म की तत्वों की परख करने वाली शक्ति उसमें हैं ? अगर उसमें यो योग्याताएँ नहीं हैं, तो युग युग से धर्मग्रंथों और धर्मदूतों के मध्य होते आये निरर्थक विवादों का निर्णय कदापि संभव नहीं; क्योंकि इसका निष्कर्ष यही है कि समस्त धर्म मिथ्या हैं, और कोरे परस्पर विरोधी है; जिनके पास आचरण संबंधी कोई भी नियत सिद्धांत नहीं हैं। धर्म का प्रमाण किसी ग्रंथ पर नहीं, मनुष्य की रचना की सत्यता पर निर्भर हैं। ग्रंथ तो मनुष्य की रचना के बहिर्गमन हैं, परिणाम हैं; मनुष्य ही इन ग्रंथों के प्रेणता हैं। मनुष्य का निर्माण कर सकने वाले ग्रंथों के दर्शन अभी हमें करना है। बुद्धि भी उसी सामान्य कारण, मानव की संरचना का ही परिणाम है; और वहीं हमें न्याय की याचना के लिए जाना पड़ेगा। और चूँकि केवल बुद्धि का ही इस संरचना से सीधा संबंध है, इसलिए जब तक वह उसका अनुगमन करती रहती है, तब तक उसी की शरण में हमें जाना पड़ेगा। बुद्धि से मेरा आशय क्या है ? मेरा आशय वही है, जो आज का हर शिक्षित स्त्री या पुरुष करना चाहता है, अर्थात लौकिक ज्ञान के अविष्कारों को धर्म क्षेत्र में प्रयुक्त करना। बुद्धि का आदि तत्व है, विशेष की सामान्य से, सामान्य की अधिक सामान्य से, अंतत: सार्वभौम सामान्य प्राप्त होने तक व्याख्या करना। उदाहरणार्थ हममें विधान या नियम की धारणा है। यदि कहीं कुछ घटित हो और हमें यह विश्वास हो जाए कि यह घटना किसी नियम का परिणाम है, तो हम संतुष्ट हो जाते हैं; यह हमारे लिए उसकी व्याख्या है। इस व्याख्या से हमारा यह आशय सिद्ध हो गया कि यह एक परिणाम, जिससे पहले हमें असंतोष था, नियम कहीं जाने वाली घटनाओं की सामान्य राशि की एक विशेष घटना मात्र है। जब एक सेब गिरा, न्यूटन असंतुष्ट हो गया; परंतु जब उसने देखा कि सभी सेब नीचे गिरते हैं, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत ही ऐसा है, तो उसको संतोष मिला। यह मानवीय ज्ञान का एक सिद्धांत है। मैं सड़क पर एक विशेष प्राणी, एक मानव प्राणी विशेष को देखता हूँ। उसे एक बृहत्तर धारणा 'मानव' में न्यस्त करता हूँ, और मैं संतुष्ट हो जाता हूँ। मैं उसे अधिक सामान्य धारणा से न्यस्त करके यह जानता हूँ कि वह मानव है। विशेष को सामान्य से, सामान्य को अधिक सामान्य से, और अंत में सबको सार्वभौम सामान्य से, अंतिम सामान्य प्रत्यय, जो हमारे पास है, ऐसी व्यापकतम धारणा-सत्ता की धारणा-से संबद्ध करना है। सत्ता की धारणा ही महत्तम व्यापक धारणा है।
हम सभी मानव है; अर्थात हम प्रत्येक मानो एक सामान्य धारणा-मानवता का विशिष्ट अंग हैं। मानव, बिल्ली, कुत्ता आदि सभी प्राणी हैं। ये विशिष्ट उदाहरण मानव, बिल्ली, कुत्ता, पौधा, पेड़ आदि एक और व्यापक धारणा 'जीवन' के अंतर्गत आते हैं। फिर, ये समस्त जड़, चेतन, उस विराट् 'सत्' के अंतर्गत हैं, क्योंकि हम सब उसी सत् में अवस्थित हैं। इस व्याख्या का इतना ही प्रयोजन है कि विशेष को उच्चतर सामान्य के द्वारा, उसके समानधर्मी अनेक के द्वारा संबंद्ध किया जाए। मन ने एक प्रकार से ऐसे सामान्यों के बहुसंख्यक वर्गों को संचित कर रखा है। वह दरबों से भरा हुआ जैसा है, जहाँ यह समस्त प्रत्यय एक साथ वर्गीकृत हैं और जब कभी कोई नयी चीज़ दिखायी पड़ती हैं, तो मन तत्काल ही दरबों में से उसकी समानधर्मी वस्तु को खोजने का प्रयत्न करता है। यदि हमें यह वस्तु मिल गयी, तो हम इस नये प्रत्यय को वहीं रख देते हैं और हमें संतोष प्राप्त हो जाता है। तब यह कहा जाता है कि हमें तद्विषयक जानकारी हो गयी। यही ज्ञान का अर्थ है, इससे अधिक कुछ नहीं है। यदि हमें मस्तिष्क की इन निधियों में समानधर्मी कोई वस्तु नहीं मिलती, जो हम असंतुष्ट हो जाते हैं, और हम तब तक प्रतीक्षा करते हैं, जब तक मस्तिष्क में विद्यमान कोई नया वर्गीकरण न प्राप्त हो जाए। इसलिए, जैसा पहले कहा गया है, ज्ञान कमोबेश वर्गीकरण का पर्याय है। इसके अतिरिक्त भी कुछ और है। ज्ञान की एक दूसरी व्याख्या है, जिसमें किसी वस्तु या विचार की व्याख्या बाहर से न होकर भीतर से प्राप्त होती है। ऐसा विश्वास किया जाता था कि जब आदमी पत्थर ऊपर फेंकता है, तो एक दैत्य उसे नीचे खींच लेता है। अनेक घटनाओं को, जो यर्थाथत: प्राकृतिक हैं, लोग अप्राकृतिक शक्तियों द्वारा घटित मानते हैं। पत्थर नीचे गिराने वाला कोई दैत्य था, यह एक ऐसी व्याख्या थी, जो वस्तुगत नहीं थी, इसकी व्याख्या बाह्यारोपित है। गुरुत्वाकर्षण की दूसरी व्याख्या पत्थर के सहज धर्म पर आधारित है, वह भीतर से प्राप्त होती है। समस्त आधुनिक चिंतन-धारा में तुम्हें यही प्रवृत्ति दिखायी पड़ेगी। संक्षेप में, विज्ञान का अभिप्राय है कि किसी वस्तु की व्याख्या स्वयं उसकी प्रकृति में निहित हैं और सृष्टि में घटित होने वाली घटनाओं की व्याख्या किसी बाह्म सत्ता या शक्तियों पर आश्रित नहीं है। रसायनशास्त्री को अपने तथ्य निरूपण में किसी दैत्य, भूत, प्रेत आदि की आवश्यकता नहीं है। भौतिक शास्त्रीय अन्य वैज्ञानिक अपने तत्व-प्रतिपादन में इस प्रकार की वस्तुओं पर निर्भर नहीं है। और विज्ञान का एक यही विशेष अंग है, जिसे मैं धर्म क्षेत्र में प्रयुक्त करना चाहता हूँ। इस वैशिष्टय से वंचित रहने से ही धर्म जीर्ण-शीर्ण हो रहे हैं। प्रत्येक विज्ञान अपनी व्याख्या को भीतर से प्राप्त करना- वस्तुधर्मी बनाना- चाहता है और धर्म ऐसा करने में असमर्थ है। विश्व से पूर्णतया पृथक व्यक्ति विशेष ईश्वर की सत्ता एक प्राचीन मत है, जो अति आदि काल से ही स्वीकृत होता आया है। इसके समर्थन में युक्तियों की पुनरावृत्ति बराबर होती रही है, किस प्रकार यह आवश्यक है कि एक ऐसे ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाए, जो विश्व से पृथक है, जो विश्व की व्याप्ति से परे हैं, जिसने अपनी इच्छा से विश्व का सृजन किया है, जिसकी कल्पना धर्म शासन के रूप में करता है। इन सब तर्कों के बावजूद हम देखते हैं कि सर्वशक्ति निधान ईश्वर- निधान संज्ञा से भूषित है, और साथ ही साथ संसार की विषमताएँ भी बनी हुई हैं। दार्शनिक को इन सब चीज़ों से कोई सरोकार नहीं, परंतु वह कहता है कि यह सिद्धांत मूलत: गलत है, यह व्याख्या वस्तु की अपनी प्रकृति पर आश्रित न होकर बाह्मधारित है। विश्व का मूल कारण क्या है ? इससे परे कोई शक्ति है, कोई सत्ता जो इस विश्व का संचालन कर रही है ! जिस प्रकार पत्थर गिरने के तथ्य की व्याख्या युक्तियुक्त प्रतीत नहीं हुई, उसी प्रकार धर्म की उनकी यह व्याख्या भी संतोषजनक नहीं हो सकी। और धर्म इससे अधिक अच्छी व्याख्या देने में असमर्थ होने के कारण ढहे जा रहे हैं।
इसी से संबंधित एक और विचारधारा है - आधुनिक विकासवाद का सिद्धांत जो इसी सिद्धांत का दूसरा पक्ष है कि वस्तु की व्याख्या अपनी प्रकृति पर आधारित है। विकासवाद का सार यही है कि वस्तु-प्रकृति की पुनरावृत्ति पर आधारित है। विकासवाद का सार यही है कि वस्तु-प्रकृति की पुनरावृत्ति होती है, कार्यकारण का ही दूसरा रूप है, कारण में ही कार्य की सारी संभावनाएँ विद्यमान हैं, सारी सृष्टि विकास का परिणाम है, सृजन का नहीं। अर्थात हर कार्य पूर्ववर्ती मात्र है, परिस्थितिवश रूप-परिवर्तन होता है,और संपूर्ण सृष्टि में यही सिद्धांत लागू है। यह प्रत्यक्ष है, एवं हमें इन परिवर्तनों के कारण की खोज में सृष्टि के बाहर जाने की जरुरत नहीं : कार्य में ही कारण-शृंखला विद्यमान है। बाहर किसी कारण की खोज करना अनावश्यक है। यह भी धर्म की आधारशिला को धक्का देने वाला हुआ। धर्म शक्ति हीन पड़ रहे हैं, इससे मेरा इतना ही आशय है कि जो धर्म सृष्टि से परे किसी देवी-देवता की धारणा से चिपके हुए हैं, और जो यह मानते हैं कि यह एक महामानव है, और कुछ नहीं, वे धर्म अब अपने पैरों पर खड़े नहीं रह सकते, वे मानो आधारहीन से हो गये हैं।
क्या ऐसा भी कोई धर्म हो सकता है, जो इन दोनों तत्वों से मंडित हो ? मेरा तो विश्वास है कि वैसा धर्म हो सकता है। हम देख चुके हैं कि पहले हमें उस सामान्यीकरण के सिद्धांत को संतुष्ट करना होगा। विकासवाद के सिद्धांत के साथ भी सामान्यीकरण के सिद्धांत को संगत होना चाहिए। हमें अंत में एक चरम सामान्यीकरण के सिद्धांत की शरण में जाना पड़ेगा, जो केवल अन्य सभी सामान्यों में सबसे अधिक सर्वव्यापक न होगा, बल्कि जिससे अन्य सभी कुछ निकला होगा। वह निम्नतम कार्य या परिणाम की ही प्रकृति का होगा। कारण-उच्चतम, अंतिम आदिम कारण और उसके निम्नतम और अति दूरवर्ती परिणाम- अविकासों की शृंखला, दोनों ही समान होगा। वेदांत प्रतिपाद्य ब्रह्म इस शर्त को पूर्ण करता है, क्योंकि जिस अंतिम सामान्यीकरण में हम पहुँच सकते हैं,वह ब्रह्म ही हो सकता है। वह गुणातीत है, किंतु सत्, चित्, आनंदस्वरूप -निरपेक्ष है। मानवीय चेतना की पहुँच जिस अंतिम सामान्यीकरण तक हो सकती है, वह यही 'सत्' है। 'चित्' सामान्य ज्ञान नहीं, किंतु उस तत्व का मूल है, जो अपने को विकास-क्रम के अनुसार प्राणियों एवं मानवों में ज्ञान के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। उस ज्ञान के सार को यदि चेतना से भी परे एक अंतिम तथ्य कहा जाए, तो भी अनुचित न होगा। ज्ञान का असली आशय यही है, एवं सृष्टि में वस्तुओं के मूलभूत एकत्व के रूप में हम इसी को पाते हैं। मेरी समझ में आधुनिक विज्ञान जिस तथ्य का बार-बारपुष्टीकरण कर रहे हैं, वह यह है कि हम सब 'एक' हैं- मान, देह, आत्मा, तीनों में। यह भ्रामक विचार है कि हम देह-रचना की दृष्टि से पृथक हैं। तर्क करने के लिए मान लिया कि हम जड़वादी हैं, फिर भी हमें, मानना पडे़गा कि संपूर्ण सृष्टि केवल जड़ सागर है, हम और तुम सब जिसकी छोटी छोटी भँवरें हैं। जड़-पुंज हर भँवर में आ मिलते हैं, भँवर का रूप धारण करते हैं और पुन: जड़ के रूप में निकलते रहते हैं। यह हो सकता है कि मेरी देह का जड़ पदार्थ कुछ वर्षों पूर्व तुम्हारी देह में या सूर्य में या किसी पौधे में या अन्य किसी में सदा परिवर्तनशील अवस्था में रहा होगा। मेरी देह और तुम्हारी देह- इसका तात्पर्य क्या है ? यह तो देह का एकत्व मात्र है। विचार का भी यही हाल है। यह विचार-सागर है, एक असीम राशि हैं, जिसमें मेरा और तुम्हारा मन उसकी भँवरों के समान हैं। क्याअभी भी उसका प्रभाव तुम्हें विदित नहीं हो रहा है, कैसे मेरे विचार तुम्हारे मन और तुम्हारे विचार मेरे मन में प्रविष्ट हो रहे हैं ? हमारा संपूर्ण जीवन एक है, हम सब एक हैं, विचार की दृष्टि से भी। इससे भी व्यापक स्तर पर सामान्यीकरण करने से ज्ञात होता है कि जड़ पदार्थऔर विचार का सार उनमें अंतर्भूत आत्मा है; यही वह एकत्व है, जहाँ से सबका उद्भव हुआ है और वह अनिवार्यत:एक होनी चाहिए। हम पूर्णतया एक हैं, हम भौतिक रूप से एक हैं, मानसिक रूप से एक हैं, और स्पष्टत: आत्मिक दृष्टि से एक तो हैं ही - बशर्तें कि आत्मा में हमारी आस्था हो। यही एकत्व वह तथ्य है, जिसे आधुनिक विज्ञान दिनानुदिन प्रमाणित कर रहा है। गर्वित मनुष्य से कहा जाता है कि तुम वही हो, जो एक साधारण कीट है। यह न सोचो कि तुम उससे पूर्णतया भिन्न हो; तुम वही हो। पिछले जन्म में तुम वही रहे हो और कीट ही रेंगते इस नर-देह को प्राप्त कर गया है, जिस पर तुम्हें इतना गर्व है। इस सर्व समभाव का उपदेश सृष्टि के जड़-चेतन एवं हमारे बीच एकात्मा की यह पुष्टि अवश्य ही महती उपलब्धि है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है, क्योंकि हममें से अधिकांश अपने से महत्तर के प्राणियों के साथ एक हो जाने पर बड़े हर्ष का अनुभव करते हैं, किंतु कोई भी निम्नतर प्राणियों के साथ एकात्मता की आकांक्षा नहीं करता। मानवीय अज्ञानता ऐसी है कि हममें से हर कोई अपने को उन्हीं पूर्वजों की संतान बताने का प्रयत्न करता है, जिन्हें सामाजिक सम्मान प्राप्त रहा हो, भले ही वे उजड्ड लुटेरे या लुटेरों के सरदार ही क्यों न रहे हों, किंतु हममें से कोई भी अपने का उन पुरखों की संतान नहीं मानना चाहेगा, जो ग़रीब, लेकिन ईमानदार सत्पुरुष रहे हों। किंतु हमारी आँखें खुलने लगी हैं, सत्य अपने को अधिकाधिक अभिव्यक्त करने लगा है, और धर्म के क्षेत्र में यह सचमुच एक महान लाभ है। अद्वैत का भी लक्ष्य बिल्कुल यही है, जो आज मेरे प्रवचन का विषय है। आत्मा इस जगत का सार-तत्व है, समस्त जीवों का केंद्र-स्थल है, 'वह' तुम्हारे अपने जीवन का सार है, इतना ही नहीं, तुम 'वही' हो, तत्वमसि। तुम इस विश्व के साथ एक हो। जो अपने को दूसरों से जरा भी, बाल की नोक के बराबर भी अलग मानता है, वह तत्काल ही दु:खी हो जाता है। जो इस एकत्व भाव का, सृष्टि से एकत्व का अनुभव करता है; वही सुख का अधिकारी होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि सामान्यीकरण की चरम परिणति और विकासवाद के सिद्धांत को निर्दिष्ट करते हुए वेदांत धर्म विज्ञान-जगत की माँगों को पूरा कर सकता है। वस्तु की व्याख्या उसकी प्रकृति में निहित है, इस सिद्धांत को वेदांत पूर्णरुपेण प्रतिपादित करता है। ब्रह्म के या वेदांत के ईश्वर के बाहर कुछ नहीं है- बिल्कुल कुछ नहीं। यह सब 'वही' है : विश्व में उसकी ही सत्ता है। 'वह' स्वयं विश्व ही है। 'तू ही पुरुष है, तू स्त्री है, यौवन-मद में विचरण करते हुए तू ही युवा पुरुष है, पग पग पर लड़खड़ाता हुआ वह वृद्ध पुरुष भी तू ही है।' [2] 'वह' यहाँ हैं। 'उसे' हम देखते अनुभव करते है: 'उसी में' हमारा जीवन, हमारी गति और सत्ता है। बाइबिल के नव व्यवस्थान (New Testament) में उल्लिखित धारणा भी यही है। विश्व में अंतव्यप्ति ईश्वर की समस्त वस्तु का सार-तत्व एवं सर्वांतमर्यामी होने का भी यह भाव है। 'वह' मानो अपने को जगत में अभिव्यक्त करता है। मैं और तुम उसी असीम सच्चिानंद-सागर के क्षुद्र अंश हैं, क्षुद्र बिंदु हैं, क्षुद्र धाराएँ हैं और उसी में हमारा निवास है। व्यक्ति व्यक्ति, देव-मानव, मानव-पशु, पशु-पौधे, पौधे-शिलाएँ आदि में जो भेद है, वह तत्वत: नहीं हैं, परिमाणत: है, क्योंकि महत्तम देव से लेकर जड़ के क्षुद्रातिक्षुद्र कण तक सभी उसी असीम सागर की अभिव्यक्तियाँ हैं। हो सकता है कि मैं एक क्षुद्र अभिव्यक्ति हूँ और तुम उच्च। दोनों में उपादान एक ही है। हम दोनों ही स्रोत - ईश्वर की दो धाराएँ हैं। इसीलिए हमारी-तुम्हारी प्रकृति ईश्वरीय है। जन्मसिद्ध अधिकार से तुम स्वरूपत: ईश्वर हो, वैसा ही मैं भी हूँ। हो सकता है तुम पतिवत्रता के दिव्य प्रतीक हो और मैं दैत्यों में सबसे क्रूर हूँ; फिर भी उस अनंत सच्चिदानंद-सागर पर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है; इसी प्रकार तुम्हारा भी। आज तुम ने अपने आप को अधिक अभिव्यक्त किया है। किंतु ठहरो, मैं अपने को और भी अधिक अभिव्यक्त करूँगा, क्योंकि यह सब मुझमें ही है। किसी बाह्य व्याख्या की आवश्यकता नहीं है; ऐसी व्याख्या की कोई मांग भी नहीं। चराचर विश्व की समष्टि ईश्वर ही है। तो क्या ईश्वर जड़ है? नहीं, कदापि नहीं। जड़ वह ईश्वर है, जो पाँचों इंद्रियों द्वारा ग्रह्य है; बुद्धि के माध्यम से जाना हुआ ईश्वर मन है; और जब आत्मा उसे प्रत्यक्ष करती है, तो वह आत्मा के रूप में ही दृष्ट होताहै। वह जड़ नहीं, अपितु जड़ में निहित यथार्थ सार-तत्व है। इस कुर्सी का यथार्थ स्वरूप वही है, क्योंकि कुर्सी की रचना के लिए दो चीज़ें आवश्यक हैं। कुछ बाहरी तत्व थे, जिनका बोध मुझे इंद्रियों द्वारा हुआ, और इस बोध में मन का भी कुछ अंश शामिल हुआ और इन दोनों के योग से ही कुर्सी की सत्ता बनी। जो शाश्वत 'सत्' है, इंद्रियों और बुद्धि से परे, वह स्वयं ईश्वर ही है। उसी सत् स्वरूप ईश्वर पर इंद्रियां कुर्सी, मेज़, कमरे, घर, लोक, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि का चित्र बना रही है। ऐसी देशा में क्या कारण है कि हम सब यही एक कुर्सी देखते हैं और ईश्वर अर्थात सच्चिदानंद पर विविध वस्तुओं को हम समान रूप से चित्रित कर रहे हैं ? यह ज़रुरी नहीं कि हर कोई एक सा रंग-रूप दे, लेकिन जो एक सा रंग-रूप देते हैं, वे सभी अस्तित्व के एक ही स्तर पर हैं और इसलिए वे एक दूसरे को तथा एक दूसरे के चित्र भी देखते हैं। ऐसे लाखों प्राणी हमारे तुम्हारे बीच होंगे, जो एक ढंग से ईश्वर को चित्रित नहीं करते, और हम उनके चित्रों को एवं उन्हें देख नहीं पाते हैं।
इसके विपरीत, जैसा कि तुम सब जानते हो, आधुनिक भौतिक अन्वेषकों की प्रवृत्ति अधिकाधिक यही प्रमाणित करने की ओर है कि जो सत् है, वह सूक्ष्म ही है; स्थूल केवल आभास है। इसका जो भी प्रयोजन हो, हमें तो स्पष्ट हो गया है कि आधुनिक तर्क-पद्धति की कसौटी पर खरा उतरने वाला अगर कोई धर्म-सिद्धांत हो सकता है, तो वह अद्वैत ही है, क्योंकि यही इसकी दोनों आवश्यक मान्यताओं को पूरा करता है। यह चरम सामान्यीकरण है, जो व्यक्तित्व से भी परे है, और प्रत्येक प्राणी में सामान्य रूप से विद्यमान है। वह सामान्यीकरण जिसका अंत साकार ईश्वर में होता है, कभी भी सर्वव्यापक नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर की धारणा के लिए पहले यह मानना होगा कि वह दयामय, मंगलमय आदि है। लेकिन यह संसार तो शुभ और अशुभ का एक मिश्रण है। हम इसमें से एक अंश को पृथक कर लेते हैं, और साकार ईश्वर के रूप में सामान्यीकरण करते हैं! जैसे तुम कहते हो कि सगुण ईश्वर 'यह' है, 'वह' है, वैसे ही तुम्हें यह भी कहना पड़ेगा कि वह 'यह' नहीं है, 'वह' नहीं है। इस तरह तुम यह सदा देखोगे कि साकार ईश्वर की भावना अपने साथ-साथ साकार एक शैतान की भी भावना लिए होगी। इस तरह हमें यह स्पष्ट है कि साकार ईश्वर की धारणा यथार्थ सामान्यीकरण नहीं है। अत: हमें उससे परे निराकरण तक जाना पड़ेगा। उसी में समस्त सुख:दुख के साथ सृष्टि की सत्ता है, क्योंकि उसमें जो कुछ है, वह सब निराकार से ही आया है। वह ईश्वर कैसा हो सकता है, जिस पर हमें अमंगल आदि का आरोप करना पड़े ? वस्तुत: बात यह है कि शुभ और अशुभ, एक ही सत्ता के दो भिन्न पक्ष या अभिव्यक्तियाँ हैं। इन दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व की स्वीकृति आरंभ से ही भ्रामक सिद्ध हुई। यह भावना कि न्याय व अन्याय परस्पर स्वतंत्र दो पूर्णत: भिन्न वस्तुएँ हैं और यह कि शुभ व अशुभ दो सतत-विच्छेद्य व सतत-विच्छिन्न वस्तुएँ हैं- हमारे इस संसार में अत्यधिक दु:ख के कारण हुए हैं। मुझे किसी एक ऐसे सज्जन से मिलकर बड़ी प्रसन्नता होती, जो मुझे कोई ऐसी वस्तु दिखा सकते जो या तो सदा शुभ हो या सदा अशुभ। जैसे कोई उठ खड़े होकर हमारे इस जीवन की कुछ घटनाओं को दृढ़ता के साथ केवल शुभ ही कहकर और कुछ को केवल अशुभ ही कहकर चिह्नित कर सकता हो। आज जो शुभ है, कल वही अशुभ हो सकता है। आज जो बुरा दिखता है, कल वही भला दिख सकता। मेरे लिए जो शुभ है, वह तुम्हारे लिए अशुभ हो सकता है। सिद्धांत यह है कि अन्य वस्तुओं की तरह शुभ-अशुभ में भी विकास की एक परंपरा है। कुछ ऐसी वस्तुएँ हैं, जिन्हें हम उनकी विकास-परंपरा के एक स्थल पर शुभ एवं दूसरे स्थल पर अशुभ कहते हैं। वह तूफ़ान जो मेरे मित्र की मृत्यु का कारण बना, मेरे लिए बुरा है, लेकिन हवा के विषैले कीटाणुओं के संहार द्वारा लाखों नर-नारियों की प्राण-रक्षा का कारण भी वही रहा होगा। उनकी दृष्टि से वह भला है, लेकिन मैं उसे बुरा कहता हूँ। अत: शुभ-अशुभ, दोनों सापेक्ष जगत के- व्यक्त विश्व के ही अंतर्गत हैं। हम जिस निराकार तत्व का प्रतिपादन कर रहे हैं, वह सापेक्ष ईश्वर नहीं है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वह शुभ है या अशुभ है, बल्कि वह दोनों से परे हैं, क्योंकि न तो वह शुभ ही है और न अशुभ ही। हाँ, शुभ, अशुभ की अपेक्षा 'उसकी' निकटतर अभिव्यक्ति है।
ऐसी निर्गुण निर्विशेष सत्ता या निर्गुण ईश्वर को स्वीकार करने का परिणाम क्या है ? हमें क्या लाभ होगा ? क्या धर्म मानव-जीवन का एक अंग बन सकेगा, क्या यह हमें कोई सांत्वना या सहायता दे सकेगा ? किसी सत्ता से सहायता के लिए प्रार्थना करने की मानव-हृदय की उस आकांक्षा का क्या होगा? यह सब ही बना रहेगा। साकार ईश्वर भी रहेगा, किंतु एक दृढ़तर आधारशिला पर। निराकार उसे बल प्रदान करेगा। हमने देखा कि निराकार के बिना साकार नहीं रह सकता। यदि तुम्हारा तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो इस संसार से पूर्णतया पृथक है और जिसने अपनी इच्छा द्वारा शून्य से विश्व की सृष्टि की है, तो यह सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की स्थिति असंभव है लेकिन यदि हमें निर्विशेष का बोध हो जाए, तो सविशेष, साकार की धारणा भी बनी रह सकती है। यह नाम-रुपात्मक जगत अपने विविध रूपों में उसी 'निर्विशेष' का विविध पाठ है। जब हम पंचेंद्रियां के सहारे पाठ करते हैं, तब उसे हम भौतिक जगत कहते हैं। यदि पाँच से अधिक इंद्रियों वाला कोई हो, तो यदि निर्विशेष उसे किसी और रूप में भासित होगा। यदि हममें से कोई विद्युत की संवेदनशीलता प्राप्त कर ले, तो उसे जगत का बोध सर्वथा भिन्न होगा। 'एकत्व' के विविध व्यक्त रूप होते हैं। इन विविध लोकों की कल्पनाँ भी उसी के विविध पाठ मात्र हैं, और सगुण ईश्वर ही निर्विशेष या निर्गुण का वह चरम पाठ है जहाँ मानववृद्धि पहुँच सकती है। अत: जिस अर्थ में यह कुर्सी सत्य है, यह लोक सत्य है, उसी अर्थ में सगुण ईश्वर भी सत्य है, इससे अधिक उसका कोई अर्थ नहीं। वह चरम सत्य नहीं है। अर्थात सगुण ईश्वर वही निर्गुण ब्रह्म ही है, और उसी अर्थ में सत्य है, जिस अर्थ में एक ही साथ मानव के रूप में मैं सत्य भी हूँ और सत्य नहीं भी। तुम मुझे जिस रूप में देख रहो हो, मैं वह नहीं हूँ; तुम इस विषय में अपनी विचार-बुद्धि को परितृप्त कर सकते हो। क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में मेरा जो रूप है, वह प्रकाश, वायुमंडल के विविध कंपन तथा अवस्थाएँ, मेरे अपने अंदर की बहुविध गतियाँ-इन सब के संयोग के फलस्वरूप है। यदि उक्त अवस्थाओं में एक ही व्यक्ति का फोटो खींचकर तुम्हें इस विषय पर संतोष हो जाएगा। अत: तुम्हारी इंद्रियों के माध्यम से मैं जिस प्रकार प्रतीत होता हूँ, वही मैं हूँ। किंतु इन सारे तथ्यों के बावजूद मुझमें अपरिवर्तनशील एक ऐसा कुछ तत्व हैं, ये सारे जिसके अस्तित्तव की विभिन्न अवस्थाएँ हैं, यह वह निर्व्यक्तिक 'मैं' हैं, हज़ारों 'मैं' जिसके विभिन्न व्यक्तिरूप हैं। मैं शिशु था, युवा था और अब वृद्ध होता जा रहा हूँ। जीवन में प्रतिदिन मेरा शरीर और मेरे विचार बदल रहे हैं, लेकिन इन सब परिवर्तनों के बावजूद उनकी समष्टि का परिमाण सदा एक ही है। वही निर्व्यक्तिक 'मैं' हूँ। ये सारी अभिव्यक्तियाँ जिसके मानो अंश है।
इसी प्रकार हमें विदित है कि विश्व का समष्टि-रूप अचल है, लेकिन इस विश्व की सभी वस्तुएँ गतिमान हैं, प्रत्येक वस्तु सतत परिवर्तन की अवस्था में है; सब कुछ सदा बदल रहा है, गतिमान है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि यह पैंगंबरों अपने समग्र रूप में अचल है, क्योंकि गति एक सापेक्ष पद है। गतिहीन एक कुर्सी की अपेक्षा में मैं गतिशील हूँ। गति को संभव बनाने के लिए कम से कम दो चीज़ें आवश्यक हैं। यदि सारे पैंगंबरों को एक इकाई मान लिया जाए, तो गति नहीं है; किस की अपेक्षा में यह गतिमान होगा ? इसलिए वह निरपेक्ष सत्ता अपरिवर्तनीय है, गतिहीन है और सारी गतिशीलता, सारे परिवर्तन समीम, इंद्रिय-गोचर जगत में ही हैं। वह अखंड सत्ता निर्व्यक्तिक है, और निम्नतम अणु से लेकर ईश्वर-सगुण ईश्वर, सृष्टिकर्ता, जगन्नियंता, जिससे हम प्रार्थना करते हैं, जिसके सम्मुख हम नतजानु होते हैं, आदि तक -ये सभी विविध व्यक्तिरूप उसी निर्व्यक्तिक सत्ता के अंतर्गत हैं। ऐसे एक साकार ईश्वर का प्रतिपादन अनेक युक्ति-प्रमाणों के आधार पर किया जा सकता है। ऐसा सविशेष ईश्वर निर्विशेष ब्रह्म की चरम अभिव्यक्ति के रूप में सहज बोधगम्य है। हम और तुम इसकी निम्नतम अभिव्यक्ति हैं और साकार ईश्वर उच्चतम, जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं। न तुम वह सगुण ईश्वर बन सकते हो, न मैं ही। जब वेदांत कहता है कि हम और तुम ईश्वर हैं, तो उसका आशय सविशेष ईश्वर से नहीं होता। उदाहरणार्थ, एक ही चिकनी मिट्टी से एक चूहिया और एक विशालकाय हाथी दोनों बनाये जाते हैं। क्या मिट्टी की चुहिया कभी मिट्टी का हाथी बन सकेगी ? लेकिन दोनों को पानी में डुबाओ, दोनों मिट्टी का हाथी बन सकेगी ? लेकिन दोनों को पानी में डुबाओ, दोनों मिट्टी मात्र रह जाते हैं। मिट्टी के नाते दोनों एक हैं, किंतु एक चुहिया और एक हाथी के नाते दोनों में शाश्वत भिन्नता है। अनंत, निर्विशेष, उदाह्नत मिट्टी के समान है। हम और जगन्नियन्ता अभिन्न हैं, एक हैं, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति के रूप में - मानव रूप में हम सर्वदा उसके दास हैं, उपासक हैं। इस तरह हम देखते हैं कि सविशेष ईश्वर बना ही रहता है। इस सापेक्ष संसार का और सब कुछ ही बना रहता है। और धर्म पहले की अपेक्षा एक दृढ़तर आधारशिला पर प्रतिष्ठित हो जाता है इसलिए सविशेष की जानकारी के लिए पहले हमें निर्विशेष का बोध होना आवश्यक है।
जैसा कि हम देख चुके हैं, तर्कशास्त्र का यह सिद्धांत है कि सामान्य के सहारे ही विशेष का ज्ञान संभव है। इसलिए मनुष्य से ईश्वर तक सभी विशेष पदार्थों का बोध केवल - निर्विशेष-सर्वोच्च सामान्यीकरण के माध्यम से संभव हैं। प्रार्थनाएँ बनीं रहेंगी, अंतर इतना ही होगा कि वे और अधिक अर्थवती हो जाएंगी। प्रार्थना की उन सभी निरर्थक धारणाओं को, निम्न स्तर की उन प्रार्थनाओं को, जिनका अर्थ केवल हमारे मन की सारी निरर्थक कामनाओं को व्यक्त करना होता है, उन्हें शायद विदा होना पडे़गा। सभी यथार्थ धर्म-संप्रदायों में 'ईश्वर' से प्रार्थना करने नहीं दिया जाता है; उनमें देवताओं से प्रार्थना अनुमोदित है। वह स्वाभाविक भी है। रोमन कैथलिक लोग अपने संत-महात्माओं से प्रार्थना किया करते हैं। यह अच्छी बात है। किंतु ईश्वर से प्रार्थना करना अर्थहीन है। ईश्वर से साँस भर की हवा मांगना, अपने बगीचे में फल उगाने के लिए पानी की याचना करना आदि यह सब बड़ा अस्वाभाविक है। वे संत-महात्मा, जो हमारे सदृश क्षुद्र जीव थे, हमारी सहायता कर भी सकते हैं। लेकिन जगन्नियंता के सामने जीवन के हर छोटे-छोटे प्रयोजनों के लिए गुहार लगाना और बचपन से यह रहट लगाया करना कि 'प्रभु ! मुझे सर-दर्द है, उसे दूर करो', यह हास्यास्पद है। इस संसार में लाखों व्यक्तियों ने शरीर त्याग दिया है और वे सारे यहीं विद्यमान हैं। वे देवता या दूवदूत हो गये हैं। तु तुम्हारी सहायता करें। लेकिन ईश्वर ! यह नहीं हो सकता। उसके समीप हमें श्रेष्ठतर वस्तुओं के लिए ही जाना चाहिए। वह निश्चित ही मूर्ख होगा जो गंगा के किनारे रहकर भी पानी के लिए कुआँ खोदने लगे। वह भी मूर्ख हैं, जो हीरे की खान के पास रहकर काँच के टुकड़ों लिए जमीन खोदे।
वास्तव में परम प्रेममय एवं कृपा निधान ईश्वर के पास तुच्छ सांसारिक वस्तुओं के लिए जाना हमारी मूर्खता होगी। अत: हम उसके पास प्रकाश, बल एवं प्रेम के लिए जाएंगे लेकिन जब तक हम लोगों में दुर्बलता है, दास सुलभ निर्भरता की इच्छा है, तब तक ये क्षुद्र प्रार्थनाएँ, ईश्वर की उपासना की धारणाएँ बनी रहेंगी। किंतु जो पहुँचे हुए साधक हैं, वे इन साधारण वरदानों के मुँहताज नहीं होते, वे तो अपने लिए कुछ माँगने की बात ही भूल गये होते हैं, अपनी कोई चाह उनमें नहीं होती। उनमें 'मैं नहीं, तू मेरे भाई'- यह भाव ही प्रधान होता है। ऐसे ही लोग निर्विशेष ईश्वर की उपासना के योग्य अधिकारी है। और निर्विशेष की यह उपासना क्या है ? ऐसी उपासना में दासता की भावना लुप्त है- 'प्रभु! मैं कुछ नहीं हूँ, मुझ पर दया करो।' तुम्हें पुरानी फ़ारसी कविता का अंग्रेजी रुपांतर मालूम होगा: ''मैं अपने प्रियतम से मिलने आया। दरवाज़े बंद थे। मैंने दरवाज़ा खटखटाया और भीतर से एक आवाज़ आयी, 'तू कौन ?'' 'मैं अमुक हूँ।' किवाड़ नहीं खुले। दुबारा मैं आया और खटखटाया। वही प्रश्न दुहराया गया और मैंने भी वही उत्तर दिया। किवाड़ खुले नहीं। मैं तीसरी बार आया और फि़र वही प्रश्न। मैंने जवाब दिया, 'प्रियतम! मैं तुम ही हूँ।' और दरवाज़ा खुल गया।'' निराकार की उपासना का माध्यम सत्य है। सत्य क्या है ? यही कि मैं वही हूँ, सोहम्। यदि मैं कहूँ कि मैं 'तू नहीं हूँ, तो यह असत्य है। यदि मैं मुझे तुमसे अलग कहूँ, तो यह असत्य होगा, भयानक भूल होगी। मैं सृष्टि के साथ एकरूप हूँ, जन्मना एक हूँ। मेरी इंद्रियों के निकट यह स्वत: सिद्ध है कि मैं सृष्टि के साथ अभिन्न हूँ। मैं सर्वत्र व्याप्त वायु, ताप प्रकाश से अभिन्न हूँ, सनातन काल से विश्वात्मा से अभिन्न हूँ। उसी को विराट् विश्व कहा जाता है,भूल से निखिल सृष्टि रूप में ग्रहण किया जाता है, क्योंकि यह वही है, और कुछ नहीं, हृदयस्थ यह वही शाश्वत कर्ता है, जो प्रत्येक हृदय में कहता है, 'मैं हूँ' - जो मृत्युहीन, निद्राहीन, सदा जाग्रत, अमर हैं। उसकी महिमा का कभी अंत नहीं होता, उसकी शक्ति अमोष है। मैं उसके साथ एक हूँ।
यही निर्विशेष की उपासना है- इसका फल क्या होगा ? मानव-जीवन में आमूल परिवर्तन हो जाएगा। शक्ति, शक्ति ही वह वस्तु है जिसकी हमें जीवन में इतनी आवश्यकता है। कारण, हम जिसे पाप या दु:ख मान बैठे हैं, उसके मूल में हमारी दुर्बलता ही है। दुर्बलता आान का और आान दु:ख का जनक हैं। यह उपासना ही हमें शक्ति देगी। फलत: दु:ख हमारे लिए उपहासास्पद होगा, हिंसकों की हिंसा की हम हँसी उड़ायेंगे और खूँख़ार चीता अपनी हिंसक प्रवृत्ति के भीतर मेरी अपनी आत्मा को ही अभिव्यक्त करने लगेगा। यही इस उपासना का फल होगा। परमात्मा से एकीभूत जीवात्मा ही शक्तिमान है, और कोई शक्तिमान नहीं। तुम्हारी बाइबिल में ही क्या तुम्हें मालूम है कि नाज़रथ के ईसा मसीह की अद्भुत शक्ति का रहस्य क्या था ? वही अमित, अनंत शक्ति, जिसने हत्यारों की हँसी उड़ायी और उनको आशीर्वाद दिया, जो उनकी जान लेना चाहते थे। वह यह था कि 'मैं तथा मेरे पिता, एक हैं।' यह वही प्रार्थना थी कि 'परम पिता ! जिस प्रकार मैं तुझसे एक हूँ, उसी प्रकार उन सबको मुझसे एक कर दे।' यही निर्विशेष की उपासना है। विश्व से एकात्म हो जाओ, 'उससे' अभिन्न बनो। इस निर्विशेष के लिए किसी प्रदर्शन, किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी इंद्रियों से भी हमारे कहीं अधिक समीप है, हमारी चिंताओं से भी अधिक अपना है, उसी के माध्यम से और उसी में हम देखते-सोचते हैं। कुछ भी देखने के पहले हमें उसे देखना होगा। यह दीवार देखने के लिए भी पहले मुझे उसे देखना होगा और फि़र दीवार देखनी होगी, क्योंकि वही सनातन कर्ता है। कौन किसे देख रहा है ? वह हमारे हृदय के अंतरतम प्रदेश में विराजमान है। देह, मन और परिवर्तनशील है ; शोक, हर्ष, शुभ-अशुभ आते-जाते रहते हैं ; दिन और वर्ष बीतते जाते हैं; जीवन का आना-जाना लगा है; किंतु वह मृत्युंजय है। 'मैं हू, मैं हूं', - यही वह स्वर शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है। उसमें और उसी के माध्यम से ही हम सब कुछ ज्ञात हाते हैं। उसी में और उसी के माध्यम से हम सब कुछ देखते हैं। उसी में और उसी के माध्यम से हम अनुभव करते हैं, सोचते हैं, जीते हैं, विद्यमान है। वह 'अहं', जिसे हम क्षुद्र 'मैं' मान बैठे हैं, सीमित समझ बैठे हैं, वह केवल मेरा 'अहं' नहीं, बल्कि तुम्हारा है, यह सबका अहं है- जीवों का, देवदूतों का, निम्न से निम्नतम का 'अहं' है। खूनी एवं संत, अमीर एवं ग़रीब, स्त्री एवं पुरुष, नर एवं पशु आदि सब में समान रूप से वही 'अहं' निवास करता है। एक निम्नतम अमीबा से लेकर महत्तम देवदूत तक में सर्वत्र वह निवास करता है और सतत घोषित करता है: 'सोहं', 'सोहं'। जब हम सतत विमान इस नाद को समझ लेंगे, जब हम यह पाठ पढ़ लेंगे, तब संपूर्ण सृष्टि का रहस्य हमारे लिए खुल जाएगा और कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाएगा। अत: सभी धर्म-संप्रदाय जिस सत्य की खोज में लगे हैं, वह हमें प्रत्यक्ष हो जाएगा, और हम समझ जाएंगे कि भौतिक विज्ञान की ये सारी उपलब्धियाँ गौण हैं। केवल वही वास्तविक ज्ञान है, जो विश्वात्मा के साथ हमें एक बनाता है।