संन्यासियों के कार्यों पर संसारी लोगों का कुछ भी प्रभाव नहीं होना चाहिए।
संन्यासी का धनी लोगों से कोई वास्ता नहीं, उसका कर्तव्य तो ग़रीबों के
प्रति होता है। उसे निर्धनों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना चाहिए और अपनी
समस्त शक्ति लगाकर सहर्ष उनकी सेवा करनी चाहिए। धनिकों का आदर-सत्कार करना
और आश्रय के लिए उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी संप्रदायों के
लिए अभिशापस्वरूप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना
चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वेश्याओं
के लिए ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिए। कामिनी-कांचन में
डूबा व्यक्ति उनका भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श
कामिनी-कांचन-त्याग है? श्री रामकृष्ण तो रो-रोकर जगन्माता से प्रार्थना
किया करते थे, "माँ, मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें
काम-कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातें करने में मेरा मुँह
जलने लगता है।" वे यह भी कहा करते थे "मुझे अपवित्र और विषयी लोगों का स्पर्श
तक सहन नहीं होता।" यतिराज श्री रामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार विषयी लोगों
द्वारा कभी नहीं हो सकता। ऐसे लोग कभी भी पूर्ण रूप में सच्चे नहीं हो सकते;
क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ रहता ही है। यदि स्वयं भगवान
भी गृहस्थ किसी धार्मिक संप्रदाय के नेत-पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह
आदर्श की ओट में अपना ही स्वार्थ-साधन करने लगता है। और फल यह होता है कि वह
संप्रदाय बिल्कुल सड़ सा जाता है। गृहस्थों के नेतृत्व में सभी धार्मिक
आंदोलनों का यही नसीब हुआ है। त्याग के बिना धर्म खड़ा ही नहीं रह सकता। यहाँ
पर स्वामी जी से पूछा गया- 'कांचन-त्याग से हम संन्यासी क्या अर्थ समझें?'
उन्होंने इस प्रकार उत्तर दिया: किसी भी उद्देश्य की सिद्धि के लिए हमें कुछ
साधनों का आश्रय लेना होता है। स्थान, काल, व्यक्ति, इत्यादि के भेद से ये
सब साधन बदलते रहते हैं, परंतु उद्देश्य या साध्य कभी बदलता नहीं।
संन्यासियों का लक्ष्य है, आत्मनो मोक्षार्थ जगद्विताय च अपनी मुक्ति और
जगत् का कल्याण और इस उद्देश्य-सिद्धि के साधनों में काम-कांचन-त्याग
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रयोजनीय है। ध्यान रखो, त्याग का अर्थ है,
स्वार्थ का संपूर्ण अभाव। बाह्य रूप से संपर्क न रखने से ही त्याग नहीं हो
जाता। जैसे, हम अपना धन दूसरे के पास रखें और स्वयं उसे छुएँ तो नहीं, पर
उससे लाभ पूरा उठायें--क्या यह त्याग कहा जा सकता है? उपर्युक्त द्विविध
उद्देश्यों की सिद्धि के हेतु भिक्षावृत्ति संन्यासी के लिए बहुत ही उपयोगी
है, पर यह तभी संभव है, जब गृहस्थ लोग मनु और अन्य शास्त्रकारों के
वचनानुसार प्रतिदिन अपने खाद्य पदार्थों का एक भाग संन्यासी अतिथियों के लिए
रख छोड़ें। आजकल समय बहुत बदल गया है, जैसे कि मधुकरी द्वारा निर्वाह की
चेष्टा करना शक्ति का अपव्यय मात्र होगा, और उससे कोई लाभ न होगा। भिक्षा का
नियम ऊपर कहे दोनों उद्देश्यों की सिद्धि का साधन मात्र है, पर अब उससे काम
नहीं चल सकता। अतएव आधुनिक परिस्थितियों में, यदि संन्यासी जीवन की मोटी मोटी
आवश्यकताओं के लिए कुछ प्रबंध कर ले और निश्चिंत होकर अपनी समस्त शक्ति अपने
ध्येय की प्राप्ति के लिए लगाए, तो यह संन्यास के नियमों के विरुद्ध न होगा।
साधनों को ही बहुत अधिक महत्व देने से गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। असल
वस्तु तो साध्य है, लक्ष्य है, इसे कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए।