एक वार्तालाप के बीच में स्वामी जी ने बलपूर्वक कहा, "अपने व्यापारी,
हिसाब-किताब करने वाले विचारों को छोड़ दो। यदि तुम किसी एक वस्तु से भी अपनी
आसक्ति तोड़ सकते हो, तो तुम मुक्ति के मार्ग पर हो। किसी वेश्या, अथवा पापी,
अथवा साधु को भेददृष्टि से मत देखो। वह कुलटा नारी भी दिव्य माँ है।
संन्यासी एक बार, दो बार कहता है कि वह माँ है: तब वह फिर भ्रमित हो जाता है
और कहता है, "भग यहाँ से, अरी व्यभिचारिणी कुलटा नारी!" एक क्षण में
तुम्हारा सब अज्ञात तिरोहित हो सकता है। यह कहना मूर्खता है कि अज्ञान
धीरे-धीरे जाता है। ऐसे भी शिष्य हैं, जो आदर्श से च्युत हुए अपने गुरु के
भी भक्त बने रहते हैं। मैंने राजपुताने में एक ऐसे शिष्य को देखा है, जिसका
आध्यात्मिक युग ईसाई हो गया था, पर फिर भी जो उसकी दक्षिणा नियमित रूप से दिए
जा रहा था। अपने पश्चिमी विचारों को छोड़ो। एक बार जब तुमने किसी गुरुविशेष
में विश्वास किया है, तो संपूर्ण शक्ति से उसके साथ लगे रहो। वे बालक हैं, जो
यह कहते हैं कि वेदांत में नैतिकता नहीं है। हाँ, एक अर्थ में, वे सही हैं।
वेदांत-नैतिकता से ऊपर है। तुम संनयासी हो गए हो, अत: ऊँच विषयों की बात करो।
'बलात् कम से कम एक वस्तु को ब्रह्म मानकर उस पर विचार करो। रामकृष्ण को
ईश्वर मानना निश्चय ही सरल है, पर ख़तरा यह है कि हम दूसरों में
ईश्वर-बुद्धि नहीं उत्पन्न कर सकते। ईश्वर नित्य, निराकार, सर्वव्यापी
है। उसे विशेश रूपधारी समझना पाखंड होगा। पर मूर्ति-पूजा का रहस्य यह है कि
तुम किसी एक वस्तु में अपनी ईश्वर-बुद्धि विकसित करने का प्रयत्न कर रहे
हो।'