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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम आत्मानुभूति के सोपान पीछे     आगे

(अमेरिका में दिया हुआ भाषण)

ज्ञानयोग के दीक्षार्थी के लक्षणों में पहला स्‍थान 'शम' और 'दम' का है, और इन दोनों को एक साथ लिया जा सकता है। इंद्रियों को उनके केंद्रों में स्थिर रखना और उन्‍हें बहिर्मुख न होने देने का नाम है 'शम' तथा 'दम'। अब मैं तुम्‍हें 'इंद्रिय' शब्‍द का अर्थ समझाता हूँ। ये आँखें है, लेकिन ये दर्शनेंद्रियां नहीं हैं। ये तो केवल देखने का यंत्र मात्र हैं। जिसे दर्शनेंद्रियां कहते हैं, वह यदि मुझमें न हो, तो बाहरी आँखें होने पर भी मुझे कुछ दिखायी न देगा। किंतु यदि देखने का साधन ये बाहरी आँखें मुझमें हैं और दर्शनेंद्रियां भी मौजूद हैं, लेकिन मेरा मन उनमें नहीं लगा है, ऐसी दशा में मुझे कुछ नहीं दिख सकेगा। इसलिए यह स्‍पष्‍ट है कि किसी भी चीज़ के प्रत्‍यक्ष के लिए तीन बातें आवश्‍यक हैं। वे हैं बहिरिंद्रयां, अतिरिंद्रयां, और अंत में मन। इन तीनों में से अगर एक भी विद्यमान न हुई, तो वस्‍तु का प्रत्‍यक्ष न होगा। इस प्रकार, मन की क्रिया बाह्रय तथा आन्‍तर, इन दो साधनों द्वारा हुआ करती है। जब् मैं कोई वस्‍तु देखता हूँ, तो मेरा मन बाहर जाकर बहि:कृत हो जता है; किंतु जब मैं आँख बंद कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो मन फिर बाहर नहीं जाता, वह भीतर ही काम करता रहता है। दोनों ही समय इंद्रियों की क्रिया जारी रहती है। जब मैं तुम्‍हें देखता हूँ और तुमसे बात करता हूँ, तो मेरी इंद्रियां और उनके बाहरी साधन, दोनों ही काम करते रहते हैं, जब-जब मैं आँखें बंद कर लेता हूँ और सोचने लगता हूँ, तो केवल मेरी इंद्रियां ही काम करती हैं, उनके बाहरी साधन नहीं। इंद्रियों की क्रिया के बिना मनुष्‍य विचार ही न कर सकेगा। तुम अनुभव करोगे कि बिना किसी प्रतीक के सहारे तुम विचार ही नहीं कर सकते। अंधा मनुष्‍य भी जब विचार करेगा, तो किसी प्रकार की आकृति की सहायता से ही विचार करेगा। बहुधा आँख और कान, ये दो इंद्रियां अत्‍यधिक कार्यशील होती हैं। यह बात कभी न भूलनी चाहिए कि 'इंद्रियग्रस्त' शब्‍द से मतलब है, हमारे मस्तिष्‍क में रहने वाला स्‍नायु-केंद्र। आँख और कान तो देखने और सुनने के 'साधन'-यंत्र-मात्र हैं। उनकी इंद्रियां तो भीतर ही रहती हैं। यदि किसी कारण से ये इंद्रियां नष्‍ट हो जाएं, तो आँख और कान रहने पर भी न तो हमें कुछ दिखेगा और न कुछ सुनायी ही देगा। इसलिए मन पर संयम करने के पहले इन इंद्रियों पर संयम करना चाहिए। मन को भीतर-बाहर भटकने से रोकना और इंद्रियों को अपने केंद्रों में लगाए रखने का नाम 'शम' और 'दम' है। मन को बहिर्मुख होने से रोकना 'शम' कहलाता है और इंद्रियों के बाहरी साधनों के निग्रह का नाम है 'दम'।

इसके बाद 'उपरति' है, जिसका अर्थ है इंद्रियग्रस्त-विषयों का चिंतन न करना। हमारा अधिकांश समय उन इंद्रियग्रस्त-विषयों का चिंतन करने में ही व्‍यय होता है, जिन्‍हें हमने देखा या सुना है, या जिन्‍हें हम देखें-सुनेंगे, जिन्‍हें हमने खाया है या खा रहे हैं या खायेंगे, वे स्‍थान, जहाँ हम रह चुके हैं, इत्‍यादि। सारे समय हम उन्‍हीं की चर्चा या चिंतन करते रहते हैं। जो वेदांती होना चाहता है, उसे इस आदत को त्‍यागना होगा।

इसके बाद है 'तितिक्षा'। तत्‍वज्ञानी बनना ज़रा टेढ़ी ही खीर है! 'तितिक्षा' सबसे कठिन है। कहा जा सकता है कि आदर्श, सहनशीलता और तितिक्षा एक ही हैं। आदर्श सहनशीलता का अर्थ है-'अशुभ का विरोध न करो।' इसका अर्थ जरा स्‍पष्‍ट करने की आवश्‍यकता है। हम कष्‍ट या अशुभ का विरोध न करें, किंतु हो सकता है कि हम बहुत दु:खी हो जाएं। यदि कोई मनुष्‍य मुझे कड़ी बात सुना दे, तो संभव है, ऊपर से मैं उसका तिरस्‍कार न करूँ; शायद उसे प्रत्‍युत्तर भी न दूँ और बाहर क्रोध भी न प्रकट होने दूँ लेकिन मेरे मन में उसे प्रति घृणा या आक्रोश मौजूद रह सकता है। हो सकता है कि उस मनुष्‍य के बारे में मैं मन ही मन अत्यंत बुरा सोचता रहूँ। इसे 'तितिक्षा' नहीं कह सकते। मेरे मन में न क्रोध आना चाहिए और न घृणा, और न मुझमें विरोध की भावना ही होनी चाहिए। मैं इस प्रकार शांत रहूँ, मानो कोई बात हुई ही न हो। जब मैं ऐसी स्थिति को पहुँच जाऊंगा, तभी समझो कि मैंने तितिक्षा सीखी; -इसके पहले नहीं। आए हुए दु:खों का सहन करना, उन्‍हें रोकने या दूर करने का विचार भी न करना, तज्‍जन्‍य शोक या अनुताप मन में उत्‍पन्‍न भी न होने देना, इसी का नाम है 'तितिक्षा'। मान लो, मैंने विरोध नहीं किया और फलत: मुझ पर कोई जबर्दस्‍त आपत्ति आ पड़ी, तो यदि मुझमें 'तितिक्षा' है, तो मुझे इस बात का शोक नहीं करना चाहिए कि उस आते हुए दु:ख को रोकने की मैंने चेष्‍टा क्‍यों नहीं की। जब मनुष्‍य का मन ऐसी अवस्‍था में पहुँच जाता है, तो समझ लो कि उसे 'तितिक्षा' सिद्ध हो गई। भारत के लोग इस 'तितिक्षा' को प्राप्‍त करने के लिए बड़े असाधारण कार्य करते हैं। वे भयानक धूप और ठंड बिना किसी क्‍लेश के सह जाते है, वे बर्फ़ गिरने की परवाह नहीं करते, क्‍योंकि उन्‍हें तो यह विचार तक नहीं आता कि उनका शरीर है भी; शरीर, शरीर के ही भरोसे छोड़ दिया जाता है, मानो वह कोई विजातीय वस्‍तु हो।

अगला आवश्‍यक गुण है 'श्रद्धा'। मनुष्‍य में धर्म और परमेश्वर के प्रति अट्टू श्रद्धा होनी चाहिए। जब तक उसमें ऐसी श्रद्धा उत्‍पन्‍न नहीं होती, तब तक वह 'ज्ञानी' होने की सम्‍यक् आकांक्षा नहीं कर सकता। एक महापुरुष ने एक समय मुझसे कहा कि दो करोड़ मनुष्‍यों में भी एक ऐसा मनुष्‍य इस दुनिया में नहीं है, जो ईश्‍वर में सम्‍यक् विश्‍वास करता हो। मैंने पूछा, "यह कैसे?" तो वे बोले, "मान लो, इस कमरे में चोर घुस आया और उसे पता लग गया कि दूसरे कमरे में सोने का ढेर रखा है, और दोनों कमरों को अलग करने वाली दीवार भी बहुत पतली है, तो उस चोर के मन की हालत क्‍या होगी?" मैनें उत्तर दिया, "उसे नींद न आएगी। उसका मन सोना पाने की तरकीबों में ही लगा रहेगा, उसे और कुछ भी न सूझेगा।" यह सुनकर वे बोले, "तो फिर तुम्‍हीं बताओ कि क्‍या यह संभव है कि मनुष्‍य ईश्‍वर में विश्‍वास करे और उसे पाने के लिए पागल न हो? यदि मनुष्‍य सचमुच यह विश्‍वास करे कि ईश्‍वर असीम आनंद की खान है और वह उस खान तक पहुँच भी सकता है, तो क्‍या वहाँ पहुँचने के लिए वह पागल न हो जाएगा?" ईश्‍वर में अटूट विश्‍वास और फलस्‍वरूप उसे पाने की तीव्र उत्‍सुकता का ही नाम है 'श्रद्धा'।

इसके बाद आता है 'समाधान' अर्थात ईश्‍वर में अपने चित्‍त को निरंतर स्‍थापित करने का अभ्‍यास। एक दिन में ही कोई बात नहीं बन जाती। धर्म ऐसी वस्‍तु नहीं है कि दवाई की गोली के समान निगल ली जाए। इसके लिए लगातार तथा कड़े अभ्‍यास की आवश्‍यकता है। धीरे-धीरे और लगातार अभ्‍यास से मन काबू में लाया जा सकता है।

परवर्ती बात है 'मुमुक्षुत्‍व' अर्थात मुक्‍त होने की उत्‍कट अभिलाषा। तुम लोगों में से जिन्‍होंने एडविन आर्नल्‍ड की 'एशिया की ज्‍योति' (Light of Asia) नामक पुस्‍तक पढ़ी होगी, उन्‍हें याद होगा कि भगवान बुद्ध ने अपने पहले प्रवचन में क्‍या उपदेश दिया है।

उन्‍होंने कहा है: तुम स्‍वयं अपने से ही पीड़ित हो-तु्म्‍हें दूसरा कोई विवश नहीं करता। ऐसा भी तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम जीवित रहो अथवा न रहो, चक्र में घूमते रहो, दु:ख की उसकी अरियों को, आँसुओं के उसके उष्‍णीथ को, और शून्‍य की उसकी नाभि को गले से लगाए उन्‍हें चूमते रहो।'

हम पर जो दु:ख आते हैं, वे हमारे ही पसंद किए होते हैं। ऐसा ही हमारा स्‍वभाव है। साठ साल तक जेल में रहने के बाद जब एक बूढ़ा चीनी, नए सम्राट् के राज्‍याभिषेक के उपलक्ष्‍य में जेल से छोड़ दिया गया, तो वह चिल्‍ला उठा, "अब मैं जी नहीं सकता? मैं तो कहीं नहीं जा सकता। मुझे तो उसी भयानक अँधेरी कोठरी में चूहों के पास जाने दो। मैं यह उजाला नहीं सह सकता।" और उसने प्रार्थना की, "या तो मुझे मार डालो या फिर से जेल में ही भेज दो।" उसकी प्रार्थना के अनुसार वह फिर बंद कर दिया गया। सब मनुष्‍यों की हालत ठीक ऐसी ही है। चाहे कोई भी दु:ख हो, उसे पकड़ने के लिए हम जी तोड़कर दौड़ लगाते है और उससे छुटकारा पाने के लिए बिल्‍कुल तैयार नहीं हैं। सुखों के पीछे हम प्रतिदिन दौड़ते हैं और यही देखते हैं कि वे मिलने के पहले ही ग़ायब हो जाते हैं। पानी की तरह हमारी अँगुलियों के बीच में से सुख बह जाता है, परंतु फिर भी पागलों की भाँति हम उसके पीछे दौड़ते ही जाते हैं, अंधे मूर्ख बनकर हम उसका पीछा किए ही जाते हैं।

भारत में कोल्‍हू में बैल जोते जाते हैं। तेल निकालने के लिए बैल गोल ही गोल घुमाया जाता है। बैल के कंधे पर जुआ होता है। जुए का एक सिरा आगे बढ़ा होता है। उसके एक छोर पर घास बाँध दी जाती है। फिर बैल की आँख इस तरह बाँध देते है कि वह केवल सामने ही देख सके। बैल अपनी गर्दन बढ़ाता है और घास ख़ाने की कोशिश करता है। ऐसा करने से लकड़ी आगे धक्‍का खाती है। बैल दूसरी बार, तीसरी बार फिर कोशिश करता है और इसी तरह कोशिश करता जाता है, परंतु वह घास उसके मुँह में कभी नहीं आती और वह गोल-गोल चक्‍कर लगाए ही जाता है। इधर कोल्‍हू में तेल पिरता जाता है। इसी प्रकार हम भी प्रकृति, रुपये-पैसे, स्‍त्री-बच्‍चों के जन्‍मजाता दास हैं। आकाश-कुसुम की तरह उस घास को पाने के लिए हजा़रों जन्‍म तक हम चक्‍कर लगाए जाते हैं, पर जो हम पाना चाहते है, वह हमें नहीं मिलता। प्रेम एक ऐसा ही बड़ा सपना है। हम लोगों को प्‍यार करते हैं और चाहते हैं कि लोग हमें प्‍यार करें। हम समझते हैं कि हम सुखी होने वाले हैं और हम पर दु:ख कभी न आएगा, किंतु जितना ही हम सुख की ओर जाते हैं, उतना ही अधिक वह हमसे दूर भागता जाता है। इसी तरह दुनिया चल रही है और इसी तरह समाज। हम अंधे गुलाम जैसे उसके लिए भुगतते हैं और यह भी नहीं समझते कि हम भुगत रहे हैं। तुम जरा अपनी ही जिंदगी की ओर देखा, तुम्‍हें मालूम होगा कि कितना थोड़ा सुख इस जिंदगी में है और मृगजल के पीछे दौड़ने के सदृश इन भोगों का पीछा करते हुए वास्‍तुव में कितना थोड़ा सुख तुम्‍हारे हाथ आया है।

क्‍या तुम्‍हें 'सोलन' और 'क्रीसस' की कहानी याद है? बादशाह ने उस महात्‍मा से कहा, "सोलन, देखो, इस एशिया माइनर जैसी सुखमय और कोई दूसरी जगह नहीं है।" साधु ने पूछा, "सबसे सुखी मनुष्‍य कौन है? मैंने तो ऐसा कोई भी मनुष्‍य नहीं देखा, जो बिल्‍कुल सुखी हो।" क्रीसस ने कहा, "क्‍या अर्थहीन बातें करते हो। मैं ही तो दुनिया में सबसे सुखी मनुष्‍य हूँ।" साधु ने उत्तर दिया, "इतनी जल्‍दी न करो, अपना जीवन समाप्‍त होने तक ज़रा ठहरो।" और ऐसा कहकर वह चला गया। कुछ समय बाद ईरानियों ने उस राजा को जीत लिया और उसे जीवित जला देने का आदेश दिया गया। जब क्रीसस ने चिता रची हुई देखी, तो वह 'सोलन, सोलन' कहकर चिल्‍ला उठा। ईरान के सम्राट् ने जब उससे पूछा कि वह किसको पुकारता है, तो क्रीसस ने अपनी सारी कहानी कह सुनायी। यह बात सम्राट् के ह्रदय को स्‍पर्श कर गई और उसने क्रीसस को प्राणदंड से मुक्‍त कर दिया।

हममें से हर एक के जीवन की यही कहानी है। प्रकृति का हम पर ऐसा भीषण प्रभाव है कि उसके द्वारा बार-बार ठुकराए जाने पर भी ज्‍वरोन्‍माद में हम उसका पीछा किए ही जाते हैं। हम निराशा में भी आस लगाए बैठे रहते हैं। यह आशा-यह मरीचिका हमें पागल बनाये हुए है। सुख पाने की आशा हममें सदा बनी ही रहती है।

किसी समय भारत में एक बड़ा सम्राट् राज्‍य करता था। किसी ने उससे एक बार चार प्रश्‍न किए। पहला प्रश्‍न यह था कि संसार में सबसे आश्‍चर्य की बात कौन सी है। उत्तर मिला, 'आशा।' यह आशा ही दुनिया में सबसे आश्‍चर्य की चीज़ है। लोग अपने चारों ओर दिन-रात मनुष्‍यों को मरते देखते हैं, परंतु फिर भी समझते हैं कि वे स्‍वयं नहीं मरेंगे। हम यह कभी सोचते भी नहीं कि हम भी मरने वाले हैं या हमको भी दु:ख उठाना पड़ेगा। आशाएँ कितनी ही खोखली क्‍यों न हों, परिस्थितियाँ कितनी ही विपरीत क्‍यों न हों एवं विचार भी कितने ही युक्तिविरुद्ध क्‍यों न हों, पर फिर भी प्रत्‍येक व्‍यक्ति यही सोचता रहता है कि उसे तो सफलता मिल ही जाएगी। इस जगत् में सचमुच सुखी कभी कोई नहीं हुआ। यदि कोई मनुष्‍य धनी है और खाने-पीने को खूब है, तो उसकी पाचनशक्ति ही खराब है और वह कुछ खा-पी नहीं सकता। और यदि किसी की पाचनशक्ति अच्‍छी है और उसे वृकोदर की सी भूख लगती है, तो उसे खाने को ही नहीं मिलता। फिर, यदि कोई धनी है, तो उसे बाल-बच्‍चे ही नहीं है। और यदि कोई भूखों मर रहा है, तो उसके लड़के-लड़कियों की एक फौज सी है और उसे यह भी नहीं सूझता कि वह नश्‍वर है। देवदूत, मनुष्‍य, पशु, पृथ्‍वी, सूर्य, चंद्र, तारे सभी नष्‍ट होने वाले हैं, सभी का विनाश अवश्यंभावी है। प्रत्‍येक वस्‍तु का निरंतर स्थित्‍यंतर होता रहता है। आज के पर्वत कल समुद्र थे, और कल वहाँ पुन: समुद्र दिखलायी देगा। प्रत्‍येक वस्‍तु अस्थिर है; यह सारा विश्‍व ही एक परिवर्तनशील पिंड है। एकमात्र ईश्वर ही ऐसा है, जिसमें परिवर्तन कभी नहीं होता, और हम उसके जितने ही अधिक समीप जाएंगे, उतना ही कम परिवर्तन या विकार हममें होगा, प्रकृति का हम पर उतना ही कम अधिकार चलेगा; और जब हम उस तक पहुँच जाएंगे, उनके सामने जाकर खड़े होंगे, तो हम प्रकृति पर विजय प्राप्‍त कर लेंगे, तब प्रकृति के ये समस्‍त व्‍यापार हमारे अधीन हो जाएंगे और हम पर उनका कोई प्रभाव न पड़ सकेगा।

इस तरह हम देखते हैं कि यदि ऊपर बतलायी हुई साधना हमने सचमुच की है, तो वास्‍तव में इस दुनिया में हमें और किसी बात की आवश्‍यकता न रहेगी। संपूर्ण ज्ञान हममें ही निहित है। सारी पूर्णता आत्‍मा में पूर्व से ही विद्यमान है, किंतु यह पूर्णत्‍व प्रकृति से ढका हुआ है। आत्‍मा के शुद्ध स्‍वरूप पर प्रकृति पर्त पर पर्त चढ़ी हुई हैं। तब ऐसी अवस्‍था में हमें क्‍या करना पड़ता है? वास्‍तव में हम अपनी आत्‍मा का विकास किंचित् भी नहीं करते। जो पूर्ण है, उसका विकास कौन कर सकता है? हम केवल परदा दूर हटा देते हैं और आत्‍मा अपने नित्‍य शुद्ध, नित्‍य मुक्‍त रूप में प्रकट हो जाती है।

अब प्रश्‍न यह आता है कि इस तरह की साधना की इतनी आवश्‍यकता क्‍यों है? इसका कारण यह है कि धर्म-साधन न तो आँख से होता है, न कान से और न मस्तिष्‍क से ही। कोई भी धर्मग्रंथ हमें धार्मिक नहीं बना सकता। चाहे हम दुनिया के सारे धर्मग्रंथ पढ़ डालें, परंतु संभव है कि फिर भी ईश्‍वर या धर्म का हमें तनिक भी ज्ञान न हो। हम सारी उम्र बातें करते रहें, पर फिर भी कोई आध्‍यात्मिक उन्‍नति न हो। दुनिया में पैदा हुए विद्वानों में से चाहे हमारी बुद्धि सबसे अधिक प्रखर क्‍यों न हो, पर फिर भी हम ईश्‍वर तक जरा भी न पहुँच सकें। प्रत्‍युत क्‍या तुमने यह नहीं देखा है कि उच्‍चतम बौद्धिक शिक्षा से कितने घोर आधार्मिक व्‍यक्ति उत्‍पन्‍न होते हैं? तुम्‍हारी पाश्‍चात्‍य संस्‍कृति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, ह्रदय और बुद्धि में विरोध उत्‍पन्‍न हो, तो तुम ह्रदय का अनुसरण करो, क्‍योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है, वह उसके परे जा ही नहीं सकती। केवल ह्रदय ही हमें उच्‍चतम भूमिका में ले जाता है, वहाँ बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती। ह्रदय बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम 'अंत:स्‍फुरण' कहते हैं, उसे पा लेता है। बुद्धि कभी अंत:स्‍फुरित नहीं हो सकती। केवल उद्बोधित ह्रदय ही अंत:स्‍फुरित हो सकता है। केवल बुद्धिप्रधान, किंतु ह्रदयशून्य मनुष्‍य कभी अंत:स्‍फूर्त नहीं बन सकता। प्रेममय पुरुष की समस्‍त क्रियाएँ उसके ह्रदय से ही अनुप्राणित होती हैं, वह एक ऐसा उच्‍चतर साधन प्राप्त कर लेता है, जिसे बुद्धि कभी नहीं दे सकती, और वह साधन है अंत:स्‍फुरण। जिस तरह बुद्धि ज्ञान का साधन है, उसी तरह ह्रदय है अंत:स्‍फुरण का। निम्‍नावस्‍था में ह्रदय इतना शक्तिशाली नहीं होता, जितनी बुद्धि। एक अनपढ़ मनुष्‍य को कोई ज्ञान नहीं होता, पर वह थोड़ा-बहुत भावना-प्रधान होता है। अब उसकी तुलना एक प्रोफेसर से करो। ओह! उस प्रोफेसर में कितनी अद्भुत शक्ति होती है! लेकिन प्रोफेसर अपनी बुद्धि से सीमित है। वह एक साथ ही बुद्धिमान और शैतान हो सकता है लेकिन जिस मनुष्‍य के ह्रदय है, वह शैतान कभी नहीं हो सकता। यदि योग्‍य संस्कार दिया जाए, तो ह्रदय में परिवर्तन हो सकता है और वह बुद्धि का भी अतिक्रमण कर अंत:स्‍फुरण में परिवर्तित हो जाता है। अंत में मनुष्‍य को बुद्धि के परे जाना ही पड़ेगा। मनुष्‍य की प्रज्ञा, उसकी ज्ञान-शक्ति, उसका विवेक, उसकी बुद्धि, उसका ह्रदय, ये सब इस संसाररूपी क्षीरसागर के मंथन में लगे हुए हैं। दीर्घ काल तक मथने के बाद उसमें से मक्‍खन निकलता है और यह मक्‍खन है ईश्‍वर। ह्रदय वाले मनुष्‍य 'मक्‍खन' पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिए सिर्फ 'छाछ' बच जाती है।

यह सब उस प्रेम के लिए, ह्रदय की उस अपार सहानुभूति के लिए ह्रदय की पूर्व तैयारियाँ हैं। ईश्‍वर पाने के लिए विद्वान या पढ़ा-लिखा होने की बिल्‍कुल आवश्‍यकता नहीं। एक बार एक साधु ने मुझसे कहा था, "यदि तुम किसी के प्राण लेना चाहो, तो तुम्‍हें ढाल-तलवार से सुसज्जित होना पड़ेगा, पर आत्‍महत्‍या करने के लिए केवल एक सुई ही पर्याप्‍त होती है। इसी तरह यदि दूसरों को सिखलाना हो, तो बहुत सी विद्वता और बुद्धि की आवश्‍यकता होगी, पर आत्‍मोद्बोधन के लिए यह आवश्‍यक नहीं है।" क्‍या तुम शुद्ध हो? क्‍या तुम पवित्र हो? यदि तुम शुद्ध हो, तो परमेश्‍वर को पाओगे। 'जिनका ह्रदय पवित्र है, वे धन्‍य हैं, क्‍योंकि उन्‍हें ही परमात्‍मा की प्राप्ति होगी।' पर यदि तुम पवित्र नहीं हो, तो फिर चाहे दुनिया के सारे विज्ञान ही तुम्‍हें क्‍यों न मालूम हों, उससे तुम्‍हें कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम चाहे समस्‍त किताबों को कण्‍ठस्‍थ कर डालो, परंतु फिर भी विशेष लाभ न होगा। वह ह्रदय ही है, जो अंतिम ध्‍येय तक पहुँच सकता है। इसलिए ह्रदय का ही अनुगमन करो। शुद्ध ह्रदय बुद्धि के परे देख सकता है, वह अंत:स्‍फूर्ति हो जाता है। ह्रदय वे बातें जान लेता है, जिसे तर्क कभी नहीं जान सकता। और यदि बुद्धि और शुद्ध ह्रदय में विरोध हो, तो तुम अपने शुद्ध ह्रदय का ही अनुसरण करो, भले ही तुम्‍हें ह्रदय का कथन तर्कविरुद्ध मालूम हो। जब ह्रदय परोपकार करने की इच्‍छा करे, तो बुद्धि तुम्‍हें बतला सकती है कि ऐसा करना तुम्‍हारे अपने हित में नहीं है, लेकिन तुम ह्रदय की सुनो और इससे तुम देखोगे कि बुद्धि की सुनकर तुम जितनी गलतियाँ करते थे, उससे कम गलतियाँ करोगे। निर्मल ह्रदय ही सम्‍य के प्रतिबिंब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है, इसलिए यह सारी साधना ह्रदय को निर्मल करने के लिए ही है, और जब वह निर्मल हो जाता हे, सारे सम्‍य उसी क्षण उस पर प्रतिबिंबित हो जाते हैं। यदि तुम अभीष्‍ट परिमाण में शुद्ध होओगे, तो तुम्‍हारे ह्रदय में दुनिया के सारे सत्‍य प्रकट हो जाएंगे।

जिन मनुष्‍यों ने दूरबीन, सूक्ष्‍मदर्शक यंत्र या प्रयोगशाला कभी देखी तक न थी, उन लोगों ने कई युगों पूर्व सूक्ष्‍म भूतों, मनुष्‍य की सूक्ष्‍म ग्राहक शक्तियों और परमाणुविषयक महान सत्‍यों का आविष्‍कार किया था। यह कैसेट हुआ था? वे ये बातें किस तरह जान सके थे? यह ज्ञान उन्‍हें ह्रदय के बल पर ही हुआ था। उन्‍होंने अपने ह्रदय को शुद्ध बनाया था। अगर हम चाहें, तो आज भी वही कर सकते हैं। वास्‍तव में ह्रदय का संस्‍कार ही इस दुनिया के दु:खों को कम करेगा, न कि बुद्धि का।

बुद्धि सुसंस्‍कृत की गई, फलत: मनुष्‍य ने सैकड़ों विज्ञानों का आविष्‍कार किया और उसका परिणाम यह हुआ कि कुछ थोड़े मनुष्‍यों ने बहुत से मनुष्‍यों को अपना गुलाम बना डाला-बस, यही लाभ इससे हुआ है। अनैसर्गिक आवश्‍यकताएँ उत्‍पन्‍न कर दी गयीं। प्रत्‍येक ग़रीब मनुष्‍य, चाहे फिर उसके पास पैसा हो या न हो, इन आवश्‍यकताओं को तृप्‍त करना चाहता है और जब उन्‍हें वह तृप्‍त नहीं कर पाता, तो संघर्ष करता है और संघर्ष करते करते ही मर जाता है। यही है बुद्धि की अंतिम गति। दु:ख दूर करने की समस्‍या बुद्धि से नहीं हल हो सकती, यह केवल ह्रदय से ही होगी। यदि यह प्रचंड प्रयत्‍न मनुष्‍यों को अधिक शुद्ध, सभ्‍य तथा सहनशील बनाने की ओर किया जाता, तो यह दुनिया आज हजार गुनी अधिक सुखी हो जाती इसलिए सर्वदा ह्रदय का ही संस्‍कर करो, उसे अधिकाधिक पवित्र बनाओ, क्‍योंकि वह ह्रदय ही है, जिसके द्वारा भगवान स्‍वयं कार्य करते है, और बुद्धि द्वारा केवल तुम स्‍वयं।

तुम्‍हें याद होगा, प्राचीन व्‍यवस्‍थान (Old Testament) में मूसा को आदेश मिला था, 'तुम अपने जूते उतार दो, क्‍योंकि तुम जहाँ खड़े हो, वह पवित्र भूमि है।' धर्म का अभ्‍यास करते समय हमें ऐसी ही आदरयुक्‍त भावना रखकर उसकी ओर बढ़ना चाहिए। जो कोई शुद्ध अंत:करण तथा श्रद्धायुक्‍त भावना से आएगा, उसके ह्रदय का द्वार खुल जाएगा और उसे सत्‍य के दर्शन होंगे।

पर यदि तुम केवल बुद्धि को साथ लेकर आओगे, तो तुम्‍हारा कुछ बौद्धिक व्‍यायाम हो जाएगा, तुम्‍हें कुछ परिकल्‍पनाओं की प्राप्ति हो जाएगी, लेकिन सत्‍यदर्शन न होगा। सत्‍य का स्‍वरूप ही ऐसा है कि जो कोई उसे देख लेता है, उसे एकदम पूरा विश्‍वास हो जाता है। सूर्य का अस्तित्‍व सिद्ध करने के लिए मशाल की जरूरत नहीं होत। वह तो स्‍वयं ही प्रकाशमान है। अगर सत्‍य को भी प्रमाण की आवश्‍यकता हो, तो उस प्रमाण को फिर कौन सिद्ध करेगा? अगर सत्‍य को साक्षी के रूप में किसी वस्‍तु की आवश्‍यकता हो, तो उसके साक्ष्‍य के लिए फिर क्‍या साक्षी होगा? इसलिए धर्म की ओर हमें प्रेम एवं आदरयुक्‍त भावना से झुकना चाहिए। और तब हमारा ह्रदय जागृत हो उठेगा, और कहेगा, 'यह सत्‍य है, और यह सत्‍य नहीं है।'

धर्म का क्षेत्र हमारी इंद्रियों के अतीत है, हमारी चेतना से भी परे है। ईश्‍वर इंद्रियों द्वारा कभी ग्रहण नहीं किया जा सकता। अभी तक किसी ने ईश्‍वर को न तो आँखों से देखा है, और न कभी देख सकेगा। न किसी को ईश्‍वर की प्रतीति अपनी चेतना में होती है। ईश्‍वर की चेतना न मुझे है, न तुम्‍हें, न किसी और को। ईश्‍वर कहाँ है? धर्म का क्षेत्र कहाँ है? वह इंद्रियों के अतीत, चेतन के अतीत है। अनेक स्‍तरों में चेतन-स्‍तर केवल एक स्‍तर है, जिसमें रहकर हम कार्य करते हैं; तुम्‍हें इन इंद्रियों से परे, इस चेतना से परे जाना होगा; अपनी अंत:स्‍थ आत्‍मा के अधिकाधिक निकट जाना पड़ेगा और जितना ही तुम आगे बढ़ोगे, उतना ही तुम ईश्‍वर के अधिकाधिक समीप पहुँचोगे। परमेश्‍वर के अस्तित्‍व का प्रमाण क्‍या है? -साक्षात्‍कार। प्रत्‍यक्ष। इस दीवार के अस्तित्‍व का प्रमाण यह है कि मैं इसे देखता हूँ। आज से पहले हजारों ने ईश्‍वर को इस तरह देखा है और आगे भी, जो चाहेंगे, उसे देख सकेंगे। पर यह प्रत्‍यक्षानुभूति इंद्रियों द्वारा होने वाले अनुभव के सदृश बिल्‍कुल नहीं है। वह इंद्रियातीत है, वह चेतनातीत है, और ये सब साधनाएँ हमें इंद्रियों से परे ले जाने के लिए हैं। अनेक प्रकार के कृतकर्मों तथा बंधनों से हम अधोगामी हो रहे हैं। इन साधनाओं से हम शुद्ध और हलके बनेंगे। तब हमारे बंधन स्‍वयं ही टूट जाएंगे और हम इस इंद्रियग्रस्त गम्‍य जगत् से, जहाँ कि हम फँसे पड़े हैं, ऊँचे उठ जाएंगे और फिर हम उसे देखेंगे, सुनेंगे और अनुभव करेंगे, जिसे मनुष्‍य ने तीनों साधारण अवस्‍थाओं में (जागृत, स्‍वप्‍न, सुषुप्ति में) न कभी देखा है, न सुनाओ और न कभी अनुभव किया है। तब हम मानो कोई नयी ही भाषा बोलने लगेंगे और दुनिया हमें नहीं समझ सकेगी, क्‍योंकि इंद्रिय-ज्ञान के सिवा उसे और दूसरा ज्ञान ही नहीं है। सच्‍चा धर्म पूर्ण रूप से परात्‍पर भूमि का विषय है। विश्‍व में रहने वाले प्रत्‍येक जीव में इंद्रियातीत होने की शक्ति सुप्‍त भाव में विद्यमान है। छोटे से छोटा कीड़ा भी एक दिन इंद्रियातीत हो जाएगा और परमेश्‍वर तक पहुँच जाएगा। कोई भी जीवन व्‍यर्थ न होगा। इस विश्‍व में 'व्‍यर्थ' नामक कोई वस्‍तु है ही नहीं। सौ बार मनुष्‍य अपना पतन कर ले, हजार बार वह फिसल जाए, पर अंत में वह जान ही लेगा कि वह आत्‍मा है। हम जानते हैं कि उन्‍नति कभी सीधी रेखा में नहीं होती। प्रत्‍येक जीव की गति वर्तुलाकार है और उसे अपना वृत्त पूरा करना ही होगा। कोई भी जीव इतने नीचे कभी जा ही नहीं सकता कि फिर उसका उत्‍थान न हो। हर एक जीव को ऊँचा उठना ही होगा। ऐसा कोई भी नहीं है, जिसका संपूर्णतया नाश हो जाए। हम सब एक ही केंद्र अर्थात उस परमात्‍मा से आए हैं। ईश्‍वर से उद्भूत ऊँचे और नीचे से नीचे सभी प्राणी अंत में उस परम पिता के पास लौट ही आएंगे। 'जहाँ से सब प्रकट हुए हैं, जो सबका अधिष्‍ठान है और जिसमें सब विलीन होंगे, वही ईश्‍वर है।'


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